Saturday, May 30, 2009

एक सितारा यह भी

इससे पहले कि सौन्दर्य बन जाए स्वाद
आओ तुम्हें दिल में कर लें आबाद !

Friday, May 29, 2009

झूला किन्नें डाला रे..


आज सुबह से ही ये दो गीत या यों कहें कि एक ही गीत के दो जुदा - जुदा अंदाज बेतरह आ रहे हैं. क्यों याद आ रहे होंगे भला !

सप्ताह भर की छूटी हुई पोस्ट्स पढ़ने बाद लग रहा है कि 'कबाड़खाना' पर विश्वपटल से अनूदित अद्भुत कवितायें पढ़ने और अध्यात्म -ईश्वरादि की बहस - बतकही के बाद अपने तईं उस दुनिया की बात कर ली जाय जो विलुप्ति के कगार पर है. अब जगह - जगह उग रहे मनोरंजन व मौज - मस्ती - मजा के केन्द्रों के बीच अमराई और झूले की बत करना कुछ अटपटा - सा लगता है लेकिन यह भी साफ दिखाई दे रहा है कि हमारी साझी विरासत के यादगार - जीवंत नमूनों के स्थापत्य की मिसाल के रूप में ललित कलायें न हों तो समझ - बूझ - संवेदना का दस्तावेज कहाँ , किस हालत में होता .

खैर .. बहकने को तैयार मन की लगाम को कसते हुए आज सुबह से ही मन और वचन की सतह पर उतरा रहे उन दो गीत को प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मेरी पसंद के हैं और यकीनन आपकी पसंद की फेहरिस्त में भी कहीं न कहीं न कहीं अवश्य होंगे .. तो आइए सुनते हैं...

१- झूला किन्नें डाला रे : शाहिदा खान



२- झूला किन्नें डाला रे॥ : नय्यरा नूर


ताकि लोग कभी न सोच पाएं कि रहा जा सकता है प्यार की ललक के बग़ैर.



समकालीन ईरानी कवयित्री फ़रीदे हसनज़ादे मोस्ताफ़ावा अपने एक इन्टरव्यू में कहती हैं: "मैं बौदलेयर पर यकीन करती हूं जिसने कहा था कि किसी शरीर में प्रवेश करने की इच्छा लिए भटकती किसी आत्मा की तरह कवि भी किसी भी शख़्स के व्यक्तित्व के भीतर प्रविष्ट हो सकता है."

उनका एक कविता संग्रह है - 'रिमोर्सफ़ुल पोयम्स'. आधुनिक समाज की विभीषिकाओं से सतत जूझती रहने वाली स्त्री उनके सरोकारों में सरे-फ़ेहरिस्त है. उनकी बहुत सी कविताएं साफ़ राजनैतिक दृष्टिकोण लिए हुए हैं जिनमें वे युद्ध और तबाही के लिए ज़िम्मेदार अमरीका को अपने निशाने पर रखती हैं.

एक अच्छी रचनाकार होने के अलावा फ़रीदे फ़ारसी भाषा की खासी नामचीन्ह अनुवादिका हैं. उनके अनुवादों में प्रमुख हैं टी. एस. ईलियट, गार्सिया लोर्का, मारीना स्वेतायेवा, यारोस्लाव साइफ़र्त और ख़लील जिब्रान आदि महाकवियों की रचनाओं पर आधारित पुस्तकें. इधर उन्होंने बल्गारिया की बड़ी कवयित्री ब्लागा दिमित्रोवा की कविताओं का फ़ारसी और अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है.

कविता को लेकर उनका नज़रिया बहुत साफ़ है. वे अपनी एक कविता में कहती हैं:

"एक सी दयालुता के साथ
सारे मृतकों का स्वागत करती है धरती
लेकिन आक्रान्ता महसूस करता है
कि उसका मकबरा हमेशा के लिए आराम करने के हिसाब से
थोड़ा ज़्यादा ही अंधेरा और संकरा है.
निरपराध आदमी वापस पाता है अपनी मुस्कान
जैसे कोई नवजात अपनी माता की बांहों में."


कल मैंने फ़रीदे की एक कविता पोस्ट की थी. उसी में किए गए वायदे के मुताबिक आज एक अपेक्षाकृत लम्बी पोस्ट प्रस्तुत है. जैसा मैंने बताया था ये अनुवाद कबाड़ख़ाने के लिए विशेषतौर पर रुड़की निवासी श्री यादवेन्द्र पांडे ने किए हैं. एक बार पुनः उनका आभार.




मेरी ख़्वाहिश

काश मैं सर्दियों में जम जाती
जैसे जम जाता है पानी धरती पर बने छोटे-बड़े गड्ढों में-
कि चलते-चलते लोग ठिठक कर देखते नीचे
कैसी उभर आई हैं मेरी रूह में झुर्रियां
और टूटे हुए दिल में दरारें.

काश मैं कभी कभार
दहल जाती धरती जैसे लेती है अंगड़ाई
और मुझे संभाले हुए तमाम खम्भे धराशाई हो जाते पलक झपकते
तब लोगों को समझ आता
मेरे दिल के तहखाने में कैसे कलपता है दुःख

काश मैं उग पाती
हर सुबह सूरज की मानिन्द
और आलोकित कर देती
बर्फ़ से ढंके पर्वत और धरती
ताकि लोग कभी न सोच पाएं
कि रहा जा सकता है प्यार की ललक के बग़ैर.

ग़ुलाब

आदमी
जब सोए
तो लाश जैसा होता है.
बतियाए
तो मधुमक्खी जैसा.
जब खाए
तो मेमने सा दिखता है.
जब यात्रा पर निकले
तो लगता है घोड़े जैसा.
जब कभी वह सटकर खड़ा हो खिड़की से
और बारिश की दुआएं करे ...
या जब वह देखे कोई लाल ग़ुलाब
और मचल जाए उसका मन
थमाने को वह लाल ग़ुलाब किसी के हाथों में
केवल तभी होता है
वह
आदमी.

(अनुवाद: यादवेन्द्र पांडे. यह फ़रीदे पर लगने वाली अन्तिम पोस्ट न मानी जाए. यादवेन्द्र जी ने और भी अनुवाद किए हैं पर ब्लॉगपोस्ट की एक सीमा होती है. सो बाकी के अनुवाद भी कभी ज़रूर लगाए जाएंगे)

Thursday, May 28, 2009

इकलौती राज़दार तुम्हारे प्रेम की



रुड़की में रहने वाले पेशे से वैज्ञानिक यादवेन्द्र पांडे ने इधर अरब-जगत की कुछ समकालीन कवयित्रियों के शानदार अनुवाद किये हैं. कुछ दिन पूर्व वे व्यक्तिगत रूप से मुझे ख़ास कबाड़ख़ाने के पाठकों के वास्ते ईरानी कवयित्री फ़रीदे हसनज़ादे मोस्ताफ़ावी की कुछ कविताओं के अनुवाद दे गए थे.

आज उन में से एक कविता यहां लगा रहा हूं. बाकी की कविताएओं और फ़रीदे हसनज़ादे मोस्ताफ़ावी पर एक टिप्पणी समेत एक लम्बी पोस्ट आपको कल पढ़ने को मिलेगी.



इकलौती राज़दार

बात तुम्हारे प्रेमपत्रों के पुलिन्दे की नहीं है
जो सुरक्षित हैं स्मृतियों की मेरी तिज़ोरी में

न ही फूलों और फलों से भरे हुए थैलों की है
जिन्हें घर लौटते शाम को लेकर आते हो तुम

उस चौबीस कैरेट सोने के ब्रेसलेट की भी नहीं
जो शादी की सालगिरह पर भेंट दिया था तुमने

तुम्हारे प्रेम की इकलौती राज़दार है
प्लास्टिक की वह बदरंग कूड़ेभरी बाल्टी

जिसे चौथी मंज़िल से एक एक सीढ़ी उतरते हर रात बिला नागा
मेरे थके अलसाए हाथों से परे हटाते हुए बाहर लिए जाते हो तुम.

(अनुवाद श्री यादवेन्द्र पांडे का है)

Tuesday, May 26, 2009

आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है

हमारे समय के बड़े कवि-कहानीकार श्री कुमार अम्बुज ने मेल से यह ज़बरदस्त और ज़रूरी दस्तावेज़ भेजा है. बहुत सारे सवाल खड़े करता जावेद अख़्तर का यह सम्भाषण इत्मीनान से पढ़े जाने की दरकार रखता है. इस के लिए श्री कुमार अम्बुज और डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का बहुत बहुत आभार.

(जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)


मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था. कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएं नहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!

एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है. मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.

मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आया हूं.

इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने
रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :

”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.
काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.
मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”

रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं. मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.

जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते. इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.

इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.

प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि की कृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं.

तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द - आध्यात्मिकता - पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?

पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जब इंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायोडिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है.

लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग? ....नहीं.

अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिन
वह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?

तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.

आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्न हो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.

लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है. एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुता है, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.

एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य! और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.

आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.

एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एक सीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भले हो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपने हिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.

आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिन एक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए.

और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं.

मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.

धन्यवाद.

Wednesday, May 20, 2009

गैरी लार्सन के कुछ यादगार कार्टून: आखिरी खेप

उम्मीद है पाठकों को गैरी लार्सन के कार्टून अच्छे लगे होंगे. आज उनके कार्टूनों की अन्तिम सीरीज़ प्रस्तुत है:










गैरी लार्सन के कुछ यादगार कार्टून: दूसरी खेप

(पिछली पोस्ट से जारी)

१४ अगस्त १९५० को वाशिंगटन में जन्मे गैरी लार्सन को उनकी कॉमिक स्ट्रिप 'द फ़ार साइड' ने ज़बरदस्त ख्याति दिलाई. बचपन से ही कॉमिक्स पढ़ने के शौकीन गैरी सांप और मेंढकों के कार्टून बनाना पसन्द करते थे. १९७२ में ग्रेजुएशन करने के बाद वे स्थानीय नाइटक्लबों में गिटार और बैन्जो बजाया करते थे. कुछेक साल तक एक म्यूज़िक स्टोर में काम करने के बाद १९७६ में एक दिन उन्होंने यूं ही कुछ विचित्र पशुओं के स्केचेज़ बनाए और 'पैसिफ़िक सर्च' नाम की एक पत्रिका को ऐसे ही भेज दिया. स्केच छपे और उन्हें नब्बे डॉलर भी मिले.

इस से उत्साहित होकर गैरी ने और मेहनत की और 'सिएटल टाइम्स' ने उन्हें एक साप्ताहिक सीरीज़ करने का अनुबन्ध दिया. दो साल बाद १९७८ में यह अनुबन्ध समाप्त कर दिया गया क्योंकि उनकी विषयवस्तु का अटपटापन सम्पादकों को पसन्द नहीं आया. १९७९ में उन्होंने अपने स्केच 'सान फ़्रान्सिस्को जर्नल' को भेजे जिसके साथ उनका पांच साल का करार हुआ. उनकी यही सीरीज़ बाद में 'द फ़ार साइड' के नाम से विख्यात हुई.

१९९४ तक 'द फ़ार साइड' सत्रह भाषाओं में और दुनिया के करीब १९०० अखबारों में छप चुकी थी.

अपनी प्रसिद्धि के चरम पर १ जनवरी १९९५ को गैरी ने कार्टून बनाने बन्द कर दिए ताकि वे जैज़ गिटार सीख सकें और बच्चों की अपनी किताब 'देयर्स अ हेयर इन माइ डर्ट' पर काम कर सकें

आज गैरी के गायों वाले कार्टून देखिये. अमरीकी ग्रामीण समाज के रईस किसानों की ख़ासी मज़ाक उड़ाते हुए ये कार्टून अद्वितीय तो हैं ही, अपने ब्लैक ह्यूमर के कारण अविस्मरणीय भी:











(अगली पोस्ट में समाप्य)

Tuesday, May 19, 2009

गैरी लार्सन के कुछ यादगार कार्टून: पहली खेप

जब-जब किताबों से मन उचाट हो जाता है, कुछ करने की इच्छा नहीं होती तो मैं सम्हाल कर छिपा रखी (ताकि कोई उन्हें पार न कर ले जाए) गैरी लार्सन के कार्टूनों की किताबें निकाल लेता हूं. कभी कभी तो रात के तीन-साढ़े तीन बजे होते हैं जब मेरे कमरे में सोया-जागा मेरा पुरातन कुत्ता टफ़ी मुझे ठहाके मारते हंसता देख मेरे मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित नज़र आने लगता है.

लार्सन के कार्टूनों में प्रयोग होने वाली इमेजेज़ में गायें, डायनासोर, अमीबा, बिल्लियां, मेंढक और न जाने कैसे कैसे पशु और तमाम तरह के वैज्ञानिक, कलाकार, मनोरोगी इत्यादि होते हैं. विश्लेषक लार्सन के ह्यूमर को 'साइंटिफ़िक ह्यूमर' कह कर परिभाषित करने की कोशिश करते हैं.

फ़िलहाल आप मज़े लें. गैरी लार्सन के बारे में कुछ दिलचस्प बातें कल बताऊंगा.















Monday, May 18, 2009

स्विस बैंक में अकाउन्ट खोलने के लिए क्या करें



स्विस बैंक में अकाउन्ट खोलने के लिए निम्नलिखित लिंक्स पर जाएं:

१. http://www.swiss-banking-law.com/en/index.php?page=4&article=51&gclid=COji9N2-xpoCFcIvpAodWhFvrg

२. http://swiss-bank-accounts.com/e/index.html

३. http://money.howstuffworks.com/personal-finance/banking/swiss-bank-account.htm

४. http://en.wikipedia.org/wiki/Banking_in_Switzerland

५. http://www.pennyinvestor.com/members/newsletter2.htm

इसके अलावे भतेरी और साइटें इन्टरनैट पर मिल जांगी.

इस बाबत अगली पोस्ट २०१४ के आम चुनाव की घोषणा के बाद.

पुनश्च: पिछली पोस्ट के क्रम में मेरी डिमान्ड जारी है: पैहे लौटालो!

आप की याद आती रही रात भर

अपनी यह पसंदीदा ग़ज़ल १७ जनवरी २०००९ को 'कर्मनाशा' पर सुनवा चुका हूँ, एक बार फिर यहाँ पर । अपने दो प्रिय शायरों - फ़ैज़ और मखदूम की यह 'जुगलबंदी' अद्भुत है और बड़े कवियों के बड़प्पन का कालजयी उदाहरण भी। इसके बारे में कुछ और जानने के वास्ते यहाँ का फेरा लगा लें तो ठीक रहेगा, तो आइए सुनते है उस्ताद हामिद अली खान साहब के स्वर में - आप की याद आती रही रात भर...


Sunday, May 17, 2009

चुनाव के नतीज़ों ने जी खट्टा कर दिया


एक महीने से ज़्यादा हुआ. १६ मई की प्रतीक्षा थी. पांच साल तक मुझ जैसे निठल्ले दर्शक उस शानदार नाटक का इन्तज़ार कर रहे थे जिसे देख कर ही हमें यकीन करने की आदत पड़ गई थी कि हमारा लोकतन्त्र ही दुनिया का सबसे शानदार लोकतन्त्र है.

सारी तैयारियां हो चुकी थीं.

न्यूज़ चैनल्स अपने अपने एक्ज़िट पोल दिखा रहे थे और प्रधानमन्त्री पद के कम - अज़- कम दस प्रत्याशी अपने अपने कॉस्ट्यूम प्रापर्टी वगैरह की जुगत में लग चुके थे. ज्योतिषियों का बाज़ार गर्म हो गया था और दूरबीनों में आंखें घुसाए कर सारे नेतागण अपनी हथेलियों पर राजयोग की रेखा खोज रहे थे.

बड़ी पार्टियों ने पांच साल से इकठ्ठा किये नोटों की बोरियां धूप दिखाने रख दी थीं. सारे पटनीय सांसदों को दस-दस एक्सक्लूसिव मोबाइल नम्बर दिये जाने का जुगाड़ बना लिया गया था. जिसे मर्सिडीज़ में गर्मी लग रही थी, उसके लिए मर्सिडीज़-बेन्ज़ कम्पनी के आला अधिकारियों से सम्पर्क साधा जा चुका था. लेकिन ज़्यादातर उद्योगपतियों और बड़े बिज़नेसमैनों के सामने गिफ़्ट छांटने की समस्या आन खड़ी हो गई थी.

सोलह मई दोपहर दो बजे से सारे न्यूज़ चैनल बेरोजगार हो चुके थे. 'ये कैसा परिणाम दे रहे हो यार भाईलोगो?' - एंकरगण भारतवासियों से पूछते नज़र आ रहे थे. 'कुछ हमारे बाल-बच्चों का ख्याल तो कर लेते प्रभु!'

धोखा हुआ है!

सरासर धोखा!

बालकनी का टिकट लिया, बड़ी स्क्रीन वाला नया टीवी खरीदा.

पहला एक्ट और नाटक फ़िनिश! बस! हो गया!

क्या है यार!

हमारे पैसे वापस दो!

मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!

हमने अपने आप को अक्लमन्द, छोटा और हास्यास्पद पाया



नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित पोलिश कवयित्री शिम्बोर्स्का की कविता 'घटनाओं का एक संस्करण' का एक अंश

...कोई नहीं चाहता था
अपनी या किसी दूसरे की भ्रान्तियों का शिकार बनना.
भीड़ के दृश्यों, जुलूस वगैरह के लिए
स्वयंसेवक कोई नहीं बना
न ही मरती हुई जनजातियों के बारे में
बयानात जारी करने के लिए -
हालांकि इस सब के बग़ैर
इतिहास अपने तयशुदा रास्ते पर नहीं चल सकता था
आने वाली शताब्दियों में.

इस दौरान काफ़ी तादाद में
पहले से रोशन सितारे
मर गए और ठन्डे पड़े.
निर्णय लेने की घड़ी सिर पर थी.
अलबत्ता तमाम आपत्तियों को ज़ौबान देते
प्रकट हुए कई उम्मीदवार
तमाम तरह की भूमिकाओं के वास्ते -
चारागर और खोजी
गूढ़ दार्शनिक
एक या दो, बग़ैर नामों वाले माली.
कलाकार और ख़लीफ़ा -
तो भी बाकी तरह की मशक्कत के अभाव में
ये सारे जीवन भी पूरे नहीं हो सके.
समय आ चुका था
कि पूरी बात पर नए सिरे से
सोचा जाए.

हमें एक यात्रा में चलने का प्रस्ताव दिया गया था
जिससे हम जल्दी लौट आते,

लौट आते न?

शायद वह अवसर फिर कभी नहीं आएगा.

सन्देह अटे पड़े थे हमारे भीतर.

क्या हर चीज़ पहले से जान लेने का मतलब यह हुआ
कि हमें सारा ज्ञान हो गया है?

क्या पहले से ले लिया गया फ़ैसला
किसी क़िस्म का चुनाव हो सकता है?

क्या बेहतर नहीं होगा
इस विषय को छोड़ दिया जाए
और एक बार वहां पहुंचने के बाद ही
लिया जाए कोई फ़ैसला!

हमने धरती को देखा.

कुछ दुस्साहसी लोग वहां पहले से रह रहे थे.
चट्टान से लगी
एक कृशकाय झाड़ी
-जिसे पक्का यकीन था
कि हवा उसे नहीं उखाड़ सकती.

अपना बिल खोदकर
बाहर निकला एक नन्हा प्राणी -
भरा हुआ ताकत और उम्मीद से -
उसे देखकर हमें हैरत हुई.

हमने अपने आप को अक्लमन्द,
छोटा और हास्यास्पद पाया.

जो भी हो हमारा कद घटने लगा.
वे अदृश्य हो गए जो सबसे ज़्यादा अधीर थे हममें.

इतना तो साफ़ था
कि वे आग के सामने अपना पहला इम्तहान देने आए थे
ख़ास तौर पर उस असल आग की लपट के सामने
जिसे उन्होंने एक असल नदी के
ढलवां किनारों पर जलाना शुरू किया था
उनमें से कुछ तो पलटे भी थे
मगर हमारी दिशा में नहीं.

और उनके पास कुछ था जिसे देख कर लगता था
उसे उन्होंने अपने हाथों फ़तह किया था.

Friday, May 15, 2009

माटील्डा शी टुक मी मनी एन्ड रैन वेनेज़ुएला



कैरेबियाई संगीत और कैलिप्सो आपस में पर्यायवाची माने जाते हैं. इनका एक और पर्यायचाची है - हैरी बैलाफ़ोन्टे. इस ज़बरदस्त शोमैन और गायक का मैं लम्बे समय से मुरीद हूं. उनका एक गीत 'देयर्स अ होल इन द बकेट' कबाड़ख़ाने पर सुना जा सकता है. आज सुनिये उनका बहुत विख्यात गीत 'माटील्डा'. पूरा सुनिएगा! मौज की गारन्टी!





गीत के बोल:

Hey! Matilda, Matilda, Matilda, she take me money and run Venezuela.
Once again now!
Matilda, Matilda, Matilda, she take me money and run Venezuela.
Five hundred dollars, friends, I lost:
Woman even sell me cat and horse!
Heya! Matilda, she take me money and run Venezuela.
Everybody!
(Matilda,) Sing out the chorus,
(Matilda,) Sing a little louder,
Matilda, she take me money and run Venezuela.
Once again now!
(Matilda,) Going 'round the corner,
(Matilda,) Sing out the chorus,
Matilda, she take me money and run Venezuela.
Well, the money was to buy me house an' lan'
Then she got a serious plan,
A-hey, ah!
Matilda, she take me money and run Venezuela.
Everybody!
(Matilda,
Matilda,
Matilda, she take me money and run Venezuela.)
Once again now!
(Matilda,) Going 'round the corner,
(Matilda,
Matilda, she take me money and run Venezuela.)
Well, the money was just inside me bed,
Stuck up in a pillow beneath me head.
Don't you know,
Matilda, she found me money and...
Everybody...
(Matilda,
Matilda,
Matilda, she take me money and run Venezuela.)
Once again now!
(Matilda,) Hooma locka chimba,
(Matilda,) Bring me little water,
Matilda, she take me money and run Venezuela.
Women over forty?
(Matilda,
Matilda,
Matilda, she take me money and run Venezuela.)
Everybody!
(Matilda,) Goin' round the corner,
(Matilda,) Bring me little water,
Matilda, she take me money and run Venezuela.
Well, me friends, never to love again,
All me money gone in vain!
Uh, heya...
Matilda, she take me money and run Venezuela.
Everybody!
(Matilda,
Matilda,) Oom, ba-locka-chimba!
(Matilda, she take me money and run Venezuela.)
Sing a little softer!
(Matilda,
Matilda,
Matilda, she take me money and run Venezuela.)
EVERYBODY!
(Matilda,
Matilda,) Sing out the chorus!
Matilda, she take me money and run Venezuela!

Thursday, May 14, 2009

इंशा जी के दो कबित (कबित्त)


पहला कबित्त

जले तो जलाओ गोरी,पीत का अलाव गोरी,
अभी न बुझाओ गोरी, अभी से बुझाओ ना .
पीत में बिजोग भी है, कामना का सोग भी है,
पीत बुरा रोग भी है, लगे तो लगाओ ना .
गेसुओं की नागिनों से, बैरिनों अभागिनों से ,
जोगिनों बिरागिनों से, खेलती ही जाओ ना .
आशिकों का हाल पूछो, करो तो ख़याल- पूछो ,
एक-दो सवाल पूछो, बात जो बढ़ाओ ना .

दूसरा ( कबित्त)

रात को उदास देखें, चांद को निरास देखें ,
तुम्हें न जो पास देखें, आओ पास आओ ना .
रूप-रंग मान दे दें, जी का ये मकान दे दें ,
कहो तुम्हें जान दे दें, मांग लो लजाओ ना .
और भी हज़ार होंगे, जो कि दावेदार होंगे ,
आप पे निसार होंगे, कभी आज़माओ ना .
शे'र में 'नज़ीर' ठहरे, जोग में 'कबीर' ठहरे,
कोई ये फ़क़ीर ठहरे, और जी लगाओ ना .

शब्द : इब्ने इंशा
स्वर : नय्यरा नूर
चित्र जामिनी राय



Tuesday, May 12, 2009

चुनावी मौसम में जजिया

वे चार दोस्त थे। गले में टाई, हाथ में बैग। किसी मेडिकल या सेल्स रिप्रेसेन्टेटिव जैसी हुलिया वाले ये नौजवान एक चाय के ठेले पर 'लंच' करने जुटे थे। ऊपर से पुराने पर हरियाये नीम का स्नेह बरस रहा था, सो गरमी से राहत थी। पसीना सूखते-सूखते उनका खिलंदड़ापन वापस आ गया था और वे हंसी-मजाक मे जुट गए थे। पास ही बेंच पर एक अखबार पड़ा था जिसके पहले पन्ने पर खबर छपी थी कि तालिबान ने सिखों पर जजिया लगाया। एक ने ये खबर जोर से पढ़ी और फिर दूसरे की ओर मुखातिब होकर बोला- साले, यहां तुम लोगों पर भी जजिया लगा दिया जाए, तो पता चलेगा। साफ था कि कहने वाला हिंदू और सुनने वाला मुसलमान था। जवाब में एक खिसियाई हंसी के साथ मुस्लिम दोस्त ने भी जवाब दिया--अबे तालिबान का उखाड़ो जाकर, मुझसे क्यों भिड़ते हो। खैर, बात ज्यादा नहीं बढ़ी। न कहने वाला अपनी बात को लेक संजीदा था न सुनने वाला। रोजी की जंग में जूझते इन नौजवानों के पास बहस के लिए ज्यादा वक्त होता भी नहीं। हंसी-ठिठोली के बीच चाय के साथ जल्दी-जल्दी कुछ निगलकर ये आगे बढ़ गए।

पास ही खड़ा मैं सोचने लगा कि इन नौजवानों को क्या जजिया का मतलब पता है। आम धारणा यही है कि मुस्लिम शासक हिंदुओं को सताने के लिए इस टैक्स को वसूलते थे। इतिहास की ये पंजीरी आज भी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जहर घोलती रहती है। ऐसी ही पंजीरी फांक कर मैं भी बड़ा हुआ था। ये तो इलाहाबाद विश्विवद्यालय का का मध्य एवं आधुनिक इतिहास विभाग था जिसने आंखों पर पड़े तमाम जालों को साफ किया और समझाया कि इस मध्ययुगीन टैक्स सिस्टम को सांप्रदायिक नजरिये से देखना नासमझी है।

आप कहेंगे कि चुनावी मौसम में ये बेवक्त की क्या शहनाई बजा रहा हूं। लेकिन ब्याह ही बेवक्त हो रहा हो तो शहनाई बजाने वाले का क्या दोष। जब जजिया अखबारों की हेडलाइन में हो तो हर संभव जरिये से इसका सही अर्थ न बताना अपने विश्विविद्यालय औऱ इतिहास विभाग के प्रति घात होगा।

तो सुनिए, जजिया फारसी का लफ्ज है। जब इस्लाम अरब से बाहर आया तो ये गैर-अरबों से वसूला जाता था चाहे वो मुसलमानों क्यों न हो। धीरे-धीरे ये इस्लामी शासन में रहने वाले दूसरे धर्म के लोगों से वसूला जाने लगा। अब इसमें क्या शक कि मध्ययुग में धर्म और राज्य का पूरा घालमेल था और शासक, जब तक नुकसान न हो, धार्मिक कानूनों का पालन करता था। इस्माली कानून के मुताबिक प्रत्येक मुसलमान के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य थी। जबकि गैर मुसलमानों को इससे छूट थी। बदले में उन्हें जजिया देना पड़ता था। इस्लामी शासकों को जजिया वसूलने का वैधानिक अधिकार था, लेकिन चूंकि ये लोगों में सांप्रदायिक भेद पैदा करता था, इसलिए ज्यादातर शासक इससे बचते थे और इसे वसूलने को लेकर भी तमाम किंतु-परंतु थे।

इतिहासकार अबू जाफर तिवरी ने 'तारीख-ए-कबीर' मे लिखा है- 'नौशेरवां आदिल ने जो नियम जजिया का बनाया था, उनमें प्रतिष्ठित व्यक्ति, अमीर (एक पद), सैनिक, धर्मगुरु, लेखक, निर्धन, दरबारी तथा अन्य शाही कर्मचारी जजिया से मुक्त थे। इसके अतिरिक्त जिनकी अवस्था बीस वर्ष से कम थी और पचास से अधिक थी, उनसे भी जजिया नहीं वसूला जा सकता था।' इसका कारण बताते हुए वे लिखते हैं--'सैनिक लोग देश की रक्षा के लिए प्राण देते हैं। इसलिए उनके लिए दूसरे लोगों की आय से एक विशेष धनराशि निर्धारित की गई, जिससे उन्हें आर्थिक सहायता मिल सके। जजिया देने वाले की पूर्ण रक्षा की जाए और अगर रक्षा करने की शक्ति न रह जाए तो जजिया वापस कर दिया जाए।'

फिर भी ज्यादातर बादशाह जजिया लगाने से बचते थे। औरंगजेब ने भी अपने शासक बनने के बीस साल बाद 1678 में जजिया का आदेश दिया जब दक्षिण अभियान की वजह से खजाने पर भारी बोझ था। इसमें भी स्त्रियां, बीमार, पागल, अंधे, निर्धन, बच्चे और बूढ़े जजिया से मुक्त थे। इसके अलावा धनी से धनी व्यक्ति से बीस रुपये वार्षिक से अधिक बतौर जजिया नहीं वसूला जा सकता था। जजिया की न्यूनतम राशि तीन रुपये वार्षिक थी।

तो क्या मुसलमानों को टैक्स से छूट थी। बिल्कुल नहीं, उन्हें भी जकात देना पड़ता था जो आय का चालीसवां भाग था। यही नहीं, औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुंडा की उपद्रवग्रस्त मुस्लिम रियासतों पर कब्जे के बाद दंड स्वरूप जजिया लगा दिया था। फिर 1704 ये कहते हुए कि दोनों रियासतों की माली हालत ठीक हो गई है, जजिया हटा भी लिया।

कहने का मतलब ये कि जजिया एक मध्ययुगीन टैक्स सिस्टम था और दिमाग से पूरी तरह मध्ययुगीन तालिबान टैक्स वसूलने के लिए जजिया जैसे टैक्स की बात ही समझ सकते हैं। इसलिए न चौंकिए और न आधुनिक भारत में रहने वाले दोस्तों में प्रतिक्रिया होने दीजिए। दुआ कीजिए कि पाकिस्तानी जनता तालिबान के मुकाबले एक आधुनिक दृष्टि वाले देश के हक में उठ खड़ी हो। इसी में सबका भला है।

मुझे उम्मीद है कि मेरे विश्विविद्यालय के दिनों के दोस्त, जहां भी होंगे, लोगों को जजिया का सही मतलब समझा रहे होंगे। हम ये कैसे भूल सकते हैं कि सही सबक पाने के बाद हम सबके लिए ईद की सेवइयों की मिठास बढ़ गई थी।

Monday, May 11, 2009

ये कहीं और सुनने को न मिलेंगे


कल अचानक बादलों को घिरते देखा। हालाँकि बारिश अभी दूर है लेकिन मैं जब भी पानी से भरे बादलों को देखता हूँ तो उस पिता की याद आती है जो अभी-अभी अपनी लाड़ली बेटी को विदा करके अपने सूने हो चुके घर के एक वीरान से कोने में अकेला खड़ा है।
यह पिता एक बार फिर अपनी बेटी के लिए एक हाथी या एक घोड़ा बनना चाहता है जिस पर बैठकर उसकी बेटी सवारी कर सके। उस बादल को जरा गौर से देखिए, जो अब आपके छज्जे को छूकर निकलने वाला है। वह अपनी बेटी की याद में ही हाथी और घोड़ा बनने की कोशिश कर रहा है। ध्यान से सुनिए, यह गड़गड़ाहट की आवाज नहीं है, उस बादल की आत्मा में अपनी बेटी के साथ बिताए बचपन के दिन उमड़-घुमड़ रहे हैं।
और यह बादल जो थोड़ा सी हेकड़ी में, दौड़ लगा रहा है, छोटा भाई है। इसकी चाल पर न जाइएगा। यह बादल हलका लग सकता है लेकिन अंदर से यह भी भरा हुआ है। इसकी बहन ने छह साल तक इसकी चोटी की है। अभी तो यह दौड़ रहा है लेकिन रात में जब थक जाएगा, तब घर के पिछवाड़े या किसी पेड़ की ओट में जाकर बिना आवाज किए सुबकेगा।
और एक दुबला-पतला बादल जो कुछ कुछ उदास-सा यूँ ही इधर-उधर टहल रहा है, विदा हो चुकी बहन की छोटी बहन है। यह हमेशा दो चोटियाँ करती थी और बड़ी बहन हमेशा उसे डाँटती हुई कहती थी-एक करा कर। मुझे गूँथने में आलस आती है। इस बादल को देखेंगे तो लगेगा इसके चलने में न सुनाई देने वाली हिचकियाँ हैं। इन्हीं हिचकियों के कारण इसमें भरे पानी का अंदाजा लगा सकते हैं।
और सबसे आखिर में जो साँवला बादल है वह माँ का आँचल है। उसका आँचल कभी न कहे जा सकने वाले दुःख से भारी हो गया है। अभी भी वह अपनी बेटी की यादों में खोया है जिसमें सुख-दुःख की बातें हैं, उलाहना है, प्रेम में काँपता, सिर पर रखा हुआ हाथ है। यह बादल जब भी बरसेगा, इसे बरसता देख बाकी बादल भी बरसेंगे। अपने को कोई भी नहीं रोक पाएगा। सब बरसेंगे।
और ये बरसेंगे तो चारों तरफ जीवन के गीत गूँजेंगे। थोड़ा-सा वक्त निकालकर इन्हें सुनना। ये कहीं और सुनने को न मिलेंगे।

फिदा हुसैन की पिटाई, घर छोड़ना तय

आधुनिक भारत में पारसी थियेटर जो प्रकारांतर से हिन्दी सिनेमा की नींव भी बना, के अन्यतम अभिनेता-निर्देशक और बहुआयामी व्यक्तित्व के इन्सान मास्टर फिदा हुसैन के बारे में कुछ किस्से आपने यहां पिछली कड़ी में पढ़े। हिन्दी रंगमंच की दुनिया का जाना माना नाम है प्रतिभा अग्रवाल का। प्रतिभाजी ने 1978 से 1981 के दरम्यान मास्टरजी के साथ लगातार कई बैठकें कर उनके अतीत की यात्रा की। मास्टरजी के स्वगत कथन और बीच बीच में प्रतिभाजी के नरेशन की मिलीजुली प्रस्तुति बनी एक किताब जो मास्टरजी के जीवन के बारे में और इस बहाने पारसी रंगमंच की परम्परा और नाट्य परिदृश्य की जानकारी देनेवाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यहां इस पुस्तक से एक और दिलचस्प संस्मरण। मास्टर फिदा हुसैन के संस्मरण की पिछली कड़ी में हमने देखा कि किस तरह थियेटर के लिए उनकी दीवानगी और गाने-बजाने के शौक से उनके घरवाले ख़फा रहते थे। उनका गला बर्बाद करने के लिए उनके पान में सिंदूर खिला दिया गया जिससे उनकी आवाज़ चौपट हो गई। किसी तरह एक पहुंचे हुए फकीर की मदद से उनकी आवाज़ लौटी और वे फिर अपनी दुनिया में रमने लगे।

इससे आगे का क़िस्सा खुद मास्टरजी की ज़बानी-अगली कड़ी में। बड़े हर्फों के लिए फ्रेम पर क्लिक करें।

Sunday, May 10, 2009

आई विल फ़ाइन्ड माई वे बैक टू यू


समकालीन पाश्चात्य पॉप संगीत में सबसे अलग हैं ट्रेसी चैपमैन. उनके सरोकार बेहद मानवीय होते हैं और अपनी संवेदनशीलता की मदद से वे बहुत साधारण सी लगने वाली थीम्स पर असाधारण गाने लिखती/ गाती हैं. ट्रेसी चैपमैन का एक मशहूर गीत 'अ वूमन्स वर्क' कबाड़ख़ाने पर पहले लगाया जा चुका है. आज सुनिये इसी शानदार आवाज़ में एक प्रेमगीत 'द प्रॉमिस'.



ये रहे गीत के बोल:

If you wait for me then I'll come for you
Although I've traveled far
I always hold a place for you in my heart
If you think of me If you miss me once in awhile
Then I'll return to you
I'll return and fill that space in your heart
Remembering
Your touch
Your kiss
Your warm embrace
I'll find my way back to you
If you'll be waiting
If you dream of me like I dream of you
In a place that's warm and dark
In a place where I can feel the beating of your heart

Remembering
Your touch
Your kiss
Your warm embrace
I'll find my way back to you
If you'll be waiting
I've longed for you and I have desired
To see your face your smile
To be with you wherever you are

Remembering
Your touch
Your kiss
Your warm embrace
I'll find my way back to you
If you'll be waiting
I've longed for you and I have desired
To see your face, your smile
To be with you wherever you are

Remembering
Your touch
Your kiss
Your warm embrace
I'll find my way back to you
Please say you'll be waiting

Together again
It would feel so good to be
In your arms
Where all my journeys end
If you can make a promise If it's one that you can keep, I vow to come for you
If you wait for me and say you'll hold
A place for me in your heart.

Saturday, May 9, 2009

वापस करो गोली मार दी गई उम्मीदों के मेरे चीथड़े



२९ जून १९२२ को जन्मे सर्बियाई कवि वास्को पोपा (मृत्यु ५ जनवरी १९९१) दूसरे विश्वयुद्ध के बाद साहित्य में आये प्रगतिशील यथार्थवाद से कहीं अधिक सर्रियलिज़्म और सर्बियाई लोक-परम्पराओं से प्रभावित रहे. पोपा के कुछ अनुवाद 'नन्हीं डिबिया' (वाणी प्रकाशन १९८८) के नाम से ख्यात अनुवादक श्री सोमदत्त ने किये थे.

पोपा की कविताओं पर एक कोलाज मैंने कुछ समय से सम्हाला हुआ था. आयरिश-फ़्रांसीसी मूल के कवि-अनुवादक एन्थनी वाईर द्वारा पोपा की अपेक्षाकृत नई कविताओं से बना यह कोलाज कुल ग्यारह कविताओं और कवितांशों से बना है. कोलाज के अन्त में पोपा को याद करते हुए एन्थनी वाईर एक छोटी कविता में कहते हैं:

और सब के अलावा
मैं कौवों को सुनता हूं
और अप्रैल के महीने में खिले
सुर्ख़ लाल जापानी फूलों को निहारता हूं

सर्बियाई दांतों वाला
लम्बा लबादा पहने एक नर्तक
हंसता है
जबकि मैं रियाज़ करता हूं भेड़िये की आवाज़ निकालने का

जो कि कविता है.


कहना न होगा भेड़िये की इमेज समूचे सर्बियाई लोक साहित्य में सबसे सशक्त मानी जाती है. स्लाविक गाथाओं में व्सेलाव नामक एक राजकुमार का ज़िक्र आता है जो कई नगरों में राज्य करता था. रात को वह भेड़िये में बदल जाया करता था. वहीं सर्बियाई देवता दाबोग जो अन्डरवर्ल्ड का बादशाह था, मान्यताओं के मुताबिक भेड़ियों का एक लंगड़ा गड़रिया था. वही संभवतः इस कोलाज में बार-बार अलग अलग रूपों में आता है. स्लोवाक-सर्बियाई लोकसंसार के अधिक विस्तार में जाने की फ़िलहाल मेरी कोई मंशा नहीं लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि कविता और ख़ासतौर पर बड़ी कविता आमतौर पर अपने आप से बाहर होती है और वहीं उसे खोजा जाना होता है. और यह कार्य थोड़ा श्रम और अध्ययन तो मांगता ही है.

प्रस्तुत है एन्थनी वाईर के कोलाज 'भेड़ियों का गड़रिया' का अनुवाद. मुझे पता है कि एक ही पोस्ट में एक साथ ग्यारह कविताएं या उनके टुकड़े लगाना कई मित्रों को नागवार भी गुज़र सकता है पर इसे दो या अधिक पोस्ट्स में लगाना रचना के साथ अन्याय हो जाएगा.

भेड़ियों का गड़रिया



१. इसके पहले कि तुम खेलना शुरू करो

अपनी एक आंख बन्द करो.
झांक कर देखो अपने भीतर
देखो हरेक कोने में
सुनिश्चित कर लो कि वहां न कोई नाख़ून हों, न चोर
न गौरैया के अण्डे

फिर बन्द करो अपनी दूसरी आंख भी
थोड़ा झुको और छलांग लगाओ
छलांग लहाओ ऊंचे, ऊंचे, ऊंचे
जब तक कि ख़ुद अपने से ऊपर न पहुंच जाओ

तब तुम्हारा भार तुम्हें नीचे घसीटेगा
तुम दिनों तक नीचे गिरते जाओगे नीचे
अपने पाताल की तली तक

अगर तुम चकनाचूर न हो चुके हो
अब भी अगर बचे हो एकमुश्त और खड़े हो सकते हो एकमुश्त
तो शुरू कर सकते हो खेलना.

२. घर

पहले झूठे सूरज के साथ
हमसे मिलने आया एगिम
प्रिश्तीना के नज़दीक रहने वाला वह लकड़हारा.

वह हमारे वास्ते लाया था दो लाल सेब
स्कार्फ़ में तहाए हुए
और एक समाचार कि आख़िरकार उसका भी एक घर है अब.

आख़िरकार तुम्हारे ऊपर भी एक छत है अब, एगिम.

न, छत नहीं
हवा उड़ा ले गई उसे

तो तुम्हारे पास दरवाज़े और खिड़कियां हैं.

न दरवाज़े हैं न खिड़कियां
जाड़े ले गए उन्हें दूर अपने साथ

चार दीवारें तो हैं न कम से कम
मेरे पास चार दीवारें भी नहीं
जैसा मैंने कहा मेरे पास एक घर के अलावा कुछ नहीं

बाक़ी सब तो बहुत आसान होता है.

(एगिम: एक अल्बानियाई नाम जिसका अर्थ होता है भोर. प्रिश्तीना: कोसोवो में एक जगह)

३. पागल प्रस्थान

उन्होंने मुझे यह कहकर डराना शुरू किया
कि मेरे दिमाग का एक पुर्ज़ा ढीला है

उन्हें मुझे और डराया यह कहकर
कि वे मुझे दफ़ना देंगे
ढीले पुर्ज़ों वाले एक बक्से में

वे मुझे डराते हैं लेकिन उनकी समझ में नहीं आता
कि असल में मेरे ढीले पुर्ज़ों से
डर लगता है उन्हें

हमारी गली का प्रसन्न पागल
मेरे आगे शेखी बघारता है.

४. रास्को पेत्रोविच की कब्र

गांव में कपड़े धोने वाली एक स्त्री ने सुना
कि मैं होकर कर आया हूं
वॉशिंगटन के रॉक क्रीक कब्रिस्तान में
रास्को की कब्र देखकर

वह बोली पुराने देश के अपने मृतकों के वास्ते
मैं हर उत्सव के दौरान
केक बनाती हूं
और मोमबत्तियां जलाती हूं

और उन इंडियन आदिवासियों के लिए भी
क्योंकि मेरे पड़ोसी बताते हैं कि
उनका कब्रिस्तान हुआ करता था
इन मकानों के ठीक नीचे

और अब मैं उस सर्बियाई कवि के लिए भी
सारे ज़रूरी जतन करूंगी

उसका कोई नहीं हैं यहां.

५. पुरखों के गांव में

एक मुझे गले लगाता है
एक देखता है मुझे भेड़िये सी निगाहों से
एक अपना हैट उतारता है
ताकि मैं उसे ठीक से देख सकूं

उनमें से हर एक पूछता है
जानते हो मैं कौन हूं.

अजनबी पुरुष और स्त्रियां
उन लड़के-लड़कियों के नाम
धारण कर लेते हैं जो दफ़्न हैं मेरी स्मृति में

और मैं उनमें से एक से पूछता हूं
मुझे बतलाइये सम्मानित महोदय
क्या जॉर्ज वोल अब भी ज़िन्दा है

मैं हूं जॉर्ज, वह उत्तर देता है
किसी दूसरे संसार की आवाज़ में

मैं उसका गाल सहलाता हूं हाथों से
और आंखों से उससे याचना करता हूं
कि मुझे बताए क्या मैं भी ज़िन्दा बचा हूं.

६.

निकल जाओ चहारदीवारों से घिरे मेरे अनन्त से
मेरे सिर के गिर्द सितारों वाले गोले से
मुंह में भरे मेरे सूरज से
मेरे रक्त के भीतर के हास्यास्पद समुन्दर से
मेरे बहाव से, मेरे उतार से
समुद्रतट जैसी मेरी ख़ामोशी से
मैंने कहा न, निकल जाओ
मेरे जीवन की खोह से
मेरे भीतर के निर्वसन पितृ-वृक्ष से
निकल जाओ, मुझे कब तक चीखना पड़ेगा निकल जाओ
निकल जाओ मेरे फटते सिर से
निकल जाओ
निकल जाओ बस!

७.

एक क्षितिज से दूसरे तक पसरे इस्पाती जबड़ों वाली
मादा भेड़िये को वे फंसा लेते हैं

वे उसकी थूथन से निकाल लेते हैं सुनहरा नकाब
और उसकी टांगों के बीच से
उखाड़ डालते हैं गुप्त घास को

वे उसे बांध देते हैं
और श्डिकारी कुत्तों को लगा देते हैं
उसकी इज़्ज़त के पीछे

वे उसके टुकड़े कर देते हैं
और छोड़ देते हैं
गिद्धों के वास्ते

बादलों के जबड़ों से ज़िन्दा पानी को पकड़ लेती है वह
अपनी जीभ के ठूंठ की मदद से
और इकठ्ठा करती है अपने को दोबारा से

८. छोटे डिब्बे के क़ैदी

खुलो छोटे डिब्बे!

हम चूम रहे हैं तुम्हारा तला और तुम्हारा ढक्कन
तुम्हारी चाभी और उसका छेद
सारा संसार अट गया है तुम्हारे भीतर
और अब यह दिखता है
जैसा है ही नहीं
शान्ति, इसकी अपनी माता
भी नहीं पहचान सकती अब इसे
ज़ंग तुम्हारी चाभी को खा जाएगी
फिर हमारे संसार को और हमें
और आख़िर में तुम्हें भी
हम तुम्हारी चारों सतहों को चूम रहे हैं
और तुम्हारी चौबीस कीलों को
और उस सब को जो तुम्हारे पास है

खुलो न छोटे डिब्बे!

९.

वापस करो मेरे चीथड़े
विशुद्ध स्वप्नों के मेरे चीथड़े
रेशम मुस्कान के
धारीदार अपशकुनों के
मेरे लेसदार कपड़े के
चकत्तेदार उम्मीदों के मेरे चीथड़े
गोली मार दी गई उम्मीदों के
खानेदार नक्श के
मेरे चेहरे की त्वचा के
वापस करो मेरे चीथड़े
इतने अच्छे से मांग रहा हूं, वापस करो!

१०.

लंगड़ा भेड़िया घूमता है संसार में
एक पंजा नापता है आसमान
दूसरा धरती
वह पीछे की तरफ़ चलता है
पंजों के पुराने निशान मिटाता हुआ
वह चलता है आधा अन्धा
उसकी आंखें भयानक लाल
मरे सितारों और जीवित परजीवियों से भरी
वह चलता है और उसकी गरदन पर
जबरन बंध दिया गया है चक्की का पाट
टिन का एक पुराना डिब्बा बंधा हुआ उसकी पूंछ पर
वह चलता है बिना थमे
कुत्तों के सिरों से बने एक वृत्त से
दूसरे में
वह चलता है बारह मुंह वाले सूर्य के साथ
एक जीभ के सहारे जो लटकी हुई ज़मीन की तरफ़.

११. ईश्वर से नफ़रत करने वाला एक सुन्दर आदमी

स्थानीय शराबख़ाने का एक पुराना ग्राहक
अपनी ख़ाली आस्तीन लहराता है
अपनी अनुशासनहीन दाढ़ी में से बुरा भला कहता है
हमने दफ़ना दिया है देवताओं को
और अब बारी आई है पुतलों की
जो खेल रहे हैं देवताओं से.

तम्बाकू के बादलों में छुप गया है पुराना ग्राहक
चमकता हुआ अपने शब्दों से
बांज के किसी पुराने पेड़ के तने से तराशा हुआ
वह किसी देवता की तरह सुन्दर है
जिसे हाल ही में आसपास खोद निकाला गया हो.

हुआ नहीं है, बस होने ही को है अन्धेरा



बॉब डिलन के तीसवें अल्बम 'टाइम आउट ऑफ़ माइन्ड' (१९९७) का गीत 'नॉट डार्क येट' अपने गहरे राजनैतिक अर्थों की वजह से मुझे हमेशा बहुत आकर्षित करता रहा है और डराता भी रहा है. एक -दो दिन पहले ही पंकज श्रीवास्तव और अनिल यादव ने एक ही समय में सुन्न कर देने और थर्रा देने वाली दो पोस्ट्स गंगा और भारतीय राजनीति को लेकर लगाई हैं. दोनों को एकाधिक बार पढ़कर मैं यह गाना लगाने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूं.

Bob Dylan - Not Dark Yet
Found at bee mp3 search engine


Shadows are falling and I've been here all day
It's too hot to sleep and time is running away
Feel like my soul has turned into steel
I've still got the scars that the sun didn't heal
There's not even room enough to be anywhere
It's not dark yet, but it's getting there

Well my sense of humanity has gone down the drain
Behind every beautiful thing there's been some kind of pain
She wrote me a letter and she wrote it so kind
She put down in writing what was in her mind
I just don't see why I should even care
It's not dark yet, but it's getting there

Well, I've been to London and I've been to gay Paree
I've followed the river and I got to the sea
I've been down on the bottom of a world full of lies
I ain't looking for nothing in anyone's eyes
Sometimes my burden is more than I can bear
It's not dark yet, but it's getting there

I was born here and I'll die here against my will
I know it looks like I'm moving, but I'm standing still
Every nerve in my body is so vacant and numb
I can't even remember what it was I came here to get away from
Don't even hear a murmur of a prayer
It's not dark yet, but it's getting there.

Thursday, May 7, 2009

हाय सदानीरा, खाओ खीरा, वाटर बना रहेगा


बेशुमार गंदगी। कूड़ा-कतवार, गदहे, कुत्ते, गायें और आदमी की भी लाश...ऐन सामने, कई दिन से सड़ती हुई। पानी की लहरों से उसके चीथड़े कट-कट कर बह रहे हैं।
शून्य में अटकी आंखों वाले बदहवास लगते (होते नहीं) कपड़े और चप्पल किसी की निगरानी में देकर आते हैं। कुछ बुदबुदाते हुए कूड़ा और लाशों के चीथड़े ठेल कर कोई ढाई-तीन फीट का गोल दायरा बनाते हैं। फिर पांच डुबकियां। बाहर निकल कर घंटे-घड़ियाल के शोर के बीच ढेरों रस्में फिर दबा के कचौड़ी-जलेबी और घर की ओर प्रस्थान।
उनकी कल्पना में यह बात, किसी भी तरह समाती ही नहीं कि वे गंगा के लिए कुछ कर सकते हैं। कुछ करना चाहिए।
वे एक अदृश्य मोक्षदायिनी नदी में नहाते हैं जो स्मृति में बहती है। जिसका सचमुच कोई अस्तित्व नहीं है।
भगीरथ तपस्या कर रहे हैं, साठ करोड़ पुरखे कोढ़ियों की तरह कुलबुलाते हुए मोक्ष की याचना कर रहे हैं। शिव की जटा में, चंद्रमा से सट कर पानी की धवल धार खेलती है और मोक्ष देने के लिए बह निकलती है।
वे गंगा से सिर्फ लेना जानते हैं, देना नहीं। देने की तो सोच भी नहीं सकते। कल्पना में ही नहीं समाती यह बात।
कल हर शहर में बहते सबसे उपेक्षित और गंदे नाले को गंगा बताया जाएगा और लोग उसमें अटूट श्रद्धा से बुदबुदाती आभा वाले अपने चेहरे गोत देंगे। हर-हर गंगे। कल्याण करो मां।
यह गंगा है। ये उसके घाट हैं। यह अपना शहर है। यह अपना कस्बा है। यह अपना सूबा है। यह अपना देश है। यह हमारा समाज है। यह सबकुछ सचमुच है और हम इसी के हिस्से हैं। हम चाहें तो इसमें हस्तक्षेप कर हालत को बदल सकते हैं। ये फर्जी बातें हैं। ऐसा भला संभव है क्या। ये सब कहीं कुछ नहीं है। हम भी नहीं है। सब माया है। माया में बड़ा मजा है। सब लूट रहे हैं हमारे हिस्से भी थोड़ा सा। क्या हर्ज है। ईश्वर हमारा भी है। जैसे उसने औरों को हरामीपन की छूट दे रखी है हमें भी दे। नहीं देता तो काना है। एक आंख देखता है। बीच-बीच में देखता है। जरा दयालु है। उसी की कृपा से यह जीवन चल रहा है।
औसत भारतवासी एक ईश्वर के रचे अमूर्त (उसके लिए प्रत्यक्ष) लोक में रहता है जहां वह सिर्फ आदेश ग्रहण कर सकता है, कहीं हस्तक्षेप नहीं कर सकता। उसके आत्मविश्वास को बुरी तरह कुचल दिया गया है, ये सपने ही उसे कुछ करने की पीड़ा से मुक्ति देकर, ईश्वर की कुटिल-स्नेहिल छांव में सुलाए रखते हैं। यही जादई यथार्थवाद है कि आदमी यहां रहते हुए भी यहां और यहां का नहीं है।
Now, the bark has dogged
Now, the sing kas cocked
Now, have chimed the great rings belled
And the bray has donkeyed
And the screech has birded
And the grunt has pigged
I grief you my window
Songs onto your intimacy.

... That is the journey in to an Indian mind.
पंकू, ऐसे में कहां गंगा, कहां रंगा, कहा बिल्ला, कहां चिल्ला, कहां पोहा, कहां कबाब, कहां मालपुआ, कहां भाई मोख्तार, कहां मायावती बुआ, जीमो हलुआ सोहन, बिना चुनाव लड़े पीएम अपना मनमोहन। शस्यश्यामला हरी गोली को नमन।

काशी, गंगा और मुख्तार

एक विवाह समारोह में शामिल होने काशी गया था। रास्ते में इलाहाबाद पड़ा। वहां शास्त्री ब्रिज से गुजरते हुए गंगा का हाल देखा तो दिल धक से रह गया। मुख्य शहर के किनारे को छोड़, किलोमीटर भर फैली रेत के बाद झूंसी के करीब गंदले पानी की किसी छोटी नहर जैसी लग रही थी गंगा। संगम से महज कुछ फर्लांग पहले का ये हाल था। इसी शहर में मेरा दूसरा जन्म हुआ था। संगम में सरस्वती के लोप की भरपाई जिस विश्वविद्यालय ने की थी, उसी गुरुकुल में दुनिया को देखने की नई दृष्टि मिली थी। गंगा के किनारे रसूलाबाद घाट पर बरसों बिताए थे। महादेवी के साहित्कार संसद वाले टीले के नीचे, चंद्रशेखर आजाद की समाधिस्थल के पास रात को एक-दो बजे मित्रों के साथ भूतों को चिल्ला-चिल्लाकर बुलाने का खेल खेला था। पास ही चिताएं सुलगा करतीं थीं, पर कभी डर नहीं लगा, जैसे बच्चे मां के करीब होने से नहीं डरते। उस गंगा का हाल देखकर दिल डूब सा गया।

पर बनारस पहुंचकर इस जख्म को और भी गहरा होना था। रामनगर से राजघाट तक बीच गंगा में जगह-जगह टापू नजर आ रहे थे। भविष्य का भयावह संकेत! कुछ दिन पहले ही पढ़ा था कि गंगा अधिक से अधिक 25 बरस की मेहमान है। तो क्या लुप्त हो जाएगी गंगा! फिर कैसी होगी उत्तराखंड से लेकर बंगाल तक की भूमि! कैसे बचेगा पहाड़ का हरापन, कैसे होगी खेती, कैसे चलेगा जीवन। क्या फतेहपुर सीकरी की तरह दिल्ली भी उजड़ जाएगी जिसे पानी देने के लिए टेहरी नाम का शहर कुर्बान कर दिया गया। गाजियाबाद से लेकर कोलकाता तक उग रहे कंक्रीट के जंगलों में क्या सियार हुँआं-हुँआ करेंगे? इन्हीं के लिए लोग बैंकों से लाखों का कर्ज लेकर ईएमआईग्रस्त हो रहे हैं!

कहते हैं कि ये सब ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है। पर ये वार्मिंग किसी देवता का श्राप तो नहीं। हिमालय के ग्लेशिय़रों का पिघलना हमारे ही (कु)कर्मों का फल है। हजारों साल से मनुष्य और गंगा में मां-बेटे का संबंध बना रहा। पर औद्योगिक विकास के बमुश्किल सौ साला सफर ने इस मां को बेटों के हाथ जहर दिला दिया। दुर्भाग्य ये है कि इस मुद्दे पर सोचने की किसी को फुर्सत नहीं। लोकसभा चुनाव में चाहे जितनी बातें हुई हों, गंगा मुद्दा नहीं रही। न पार्टियों के लिए, न लोगों के लिए। भूले भटके किसी ने नाम लिया भी होगा तो गंगा की गंदगी का। अरे, क्या साफ करोगे? पानी या रेत!.

संवेदनहीनता या कहें बेजारी का ये आलम ही इस चुनाव की मुख्य धारा है। आखिर पचास फीसदी से ज्यादा लोगों ने वोट न देकर और क्या साबित किया है। न उन्हें प्रत्याशी वोट देने के लिए प्रेरित कर पा रहे हैं और न पार्टियां। वोट दे दिया तो भी ठीक, न दिया तो भी। एक सघन स्वप्नहीनता चहुंओर।

बहरहाल, काशी में था तो पप्पू की चाय की दुकान पर पहुंचना ही था। गंगा का हाल हो या चुनाव का गणित, अपनी समझ के कील-कांटे दुरुस्त करने के लिए इससे बढ़िया जगह कोई नहीं। अस्सी मुहल्ले की इस दुकान के बारे में हिंदी साहित्य में रुचि रखने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं। काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों से इसे अमर कर दिया है। उनके तमाम पात्र वहां मंडराते रहते हैं और पप्पू की वायु विमोचनी चाय के साथ देश दुनिया पर बहस करते हैं। नींबू की इस चाय में हाजमोला भी पीस कर डाला जाता है जिससे वात से राहत मिल जाती है और चर्चा में रस घुलता रहता है। वैसे, भट्ठी के करीब ही शिवजी की बूटी भी सहज उपलब्ध रहती है।

चर्चा चुनाव की हो रही थी। बनारस में 30 अप्रैल को मतदान हो चुका था। सत्तारूढ़ बीएसपी के उम्मीदवार मुख्तार अंसारी और बीजेपी की त्रिमूर्ति में से एक डा.मुरली मनोहर जोशी के बीच मुकाबला माना जा रहा है। मुख्तार पूर्वांचल का बाहुबली है और इस समय जेल में है। उस पर हत्या, डकैती जैसे कितने ही संगीन मुकदमे दर्ज हैं। और अस्सी पर चर्चा थी कि डा.जोशी फंस गए हैं। मुख्तार अंसारी जीत सकता है। वजह? मैंने भी पूछा। जवाब अलग-अलग कोण से अलग-अलग लोगों ने दिया। सुनिए (पढ़िए)

सवाल--इतना बड़ा माफिया, वोट कैसे मिला होगा?

जवाब--अरे वो सब बड़े लोगों की लड़ाई है। ठेका लेने की, ठसक बनाने की। मरता-मारता तो वही है, जो इसमें पड़ता है। आम लोगों को क्या मतलब।

सवाल--अरे,लेकिन काशी है, सर्विवद्या की राजधानी। यहां से मुख्तार सांसद होगा! अखबारों और चैनलों से रोज ही अपील की जा रही है कि बाहुबलियों को हराइये। क्या असर नहीं होगा?

जवाब-- अरे, डा.जोशी की पार्टी ने दंगे कराके जितने मरवाए हैं, उसके सामने तो मुख्तार का अपराध छोटा ही है। फिर किस मीडिया की बात कर रहे हैं आप। यहां बाकायदा पैसे लेकर खबरें छापी जा रही हैं। खुला खेल फर्रुखाबादी। असर क्या पड़ेगा..खाक।

सवाल---लेकिन काशी तो धार्मिक नगरी है। हिंदुओं की आबादी को देखते हुए एक मुस्लिम प्रत्याशी से कैसे नहीं जीतेंगे डा.जोशी?

जवाब--भइया, चुनाव में धरम नहीं, जाति चलती है। सीधा गणित है। मुसलमान और दलितों ने मुख्तार को जमकर वोट दिया। सपा प्रत्याशी अजय राय से कोलअसला क्षेत्र के कुर्मियों का झगड़ा था। वो भी अजय राय को हराने के लिए मुख्तार के समर्थन में आए। करीब साव दो लाख वोट तो सीधे गिन लो।

सवाल--और बाकी..?

जवाब--बाकी क्या। कुल साढ़े छह लाख वोट ही पड़े हैं। एक तिहाई मिल गया तो जीत ही जाएगा मुख्तार। हालांकि दोपहर बाद हिंदू-मुस्लिम भी चलाने की कोशिश हुई, लेकिन कुल 43 फीसदी वोट ही पड़ा। फिर मौजूदा सांसद कांग्रेस के राजेश मिश्र भी खड़े हैं। सपा के अजय राय हैं, वो भी तो कम हिंदू नहीं। फंस गए है डा.जोशी। जीत जाएं तो किस्मत।

मन अभी भी नहीं मान रहा कि मुख्तार काशी से सांसद बनकर दिल्ली की गोल इमारत में पहुंचेगा। पर ऐसा हुआ तो अचरज नहीं होगा। पप्पू की दुकान से मिले ज्ञान ने आंखें कुछ और खोल दी हैं। वहां तमाम बातें और भी हुईं जिन्हें बताने लगूं तो पोथा लिखना पड़ेगा। बहरहाल, कुछ निष्कर्ष पेश हैं--

1. लोग ऐसा प्रतिनिधि नहीं चुनते जो संसद में बैठकर कानून बनाने पर बहस करे। लोग चुनते हैं ऐसे शख्स को जो उन्हें संरक्षण दे। उनके अच्छे-बुरे काम में साथ दे। उनकी पहुंच में हो। जाति-धरम का प्रत्याशी होना अपनापन पैदा करता है।

2.पार्टियों के पास कोई ऐसा सपना नहीं है जो लोगों को आकर्षित कर सके। यानी जाति-धरम को छोटा करने वाली बड़ी रेखा खींच सके। ऐसे में निजी हित ही महत्वपूर्ण है। वो ही जनप्रतिनिधि अच्छा जो विकास योजनाओं के लिए आवंटित सरकारी धन की लूट में हिस्सेदार बनाए। जैसे ठेका वगैरह दिलाए, जो उद्योग विहीन इलाकों का एकमात्र उद्योग है।

3.बीजेपी अगर उत्तर प्रदेश में वोटों की फसल नहीं काट पा रही है तो उसकी वजह किसी धर्मनिरपेक्ष विचार के प्रति लोगों का आग्रह नहीं है। उसकी राह में सबसे बड़ा कांटा निम्न और पिछड़ी जातियां हैं जो बीएसपी, समाजवादी पार्टी, अपना दल, भारतीय समाज पार्टी जैसे दलों के साथ जुड़कर सत्ता में भागीदारी का सपना देखती हैं। बीजेपी उनकी नजर में सवर्ण हिंदुओं की पार्टी है। वर्ण व्यवस्था इस लिहाज से उन लोगों के लिए बूमरैंग साबित हुई है जो वर्ण व्यवस्था को बनाए रखते हुए हिंदुओं की एकता का ख्वाब देखते हैं।

4.लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया की साख रसातल मे चली गई है। लोगों की नजर में वो पूंजी का गुलाम है। चुनाव बात हिंदी पट्टी में पत्रकारों की बड़े पैमाने पर पिटाई हो सकती है। पैसा न देने की वजह से अखबारों ने जिनकी खबरों का लगभग बहिष्कार किया वे प्रत्याशी और उनके समर्थक चुनाव बाद बदला लें तो आश्चर्य नहीं। अफसोस की बात ये है कि इस नीति पर कुछ बड़े अखबार भी सीना ठोंककर चले हैं।

5.मतदान के प्रेरित करने के लिए चले राष्ट्रीय अभियान के बावजूद लोगों में वोट देने की खास इच्छा नहीं नजर आई। कभी ट्रेड यूनियन, छात्रसंघ , सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन लोगों का राजनीतिक प्रशिक्षण करते थे। पर जबसे अराजनीतिक होना बेहतर माना जाने लगा है, लोग मतदान के प्रति भी उदासीन हो गए हैं। पप्पू की दुकान पर ऐसे लोग भी मिले जो मुख्तार के खिलाफ थे, लेकिन डा.जोशी की राजनीति को भी खतरनाक मानते थे। उनके सामने कोई विकल्प नहीं था। लिहाजा घर बैठ गए।

इस पाठ को पढ़कर मैं पप्पू की दुकान से वापस आ गया। लेकिन एक बार देर तक सालती रही कि गंगा के किनारे बहसबाजी के इस अड्डे पर गंगा की दुर्दशा का सवाल एक बार भी नहीं उठा। काशी में गंगा के घाट, मंदिर, शमशान आदि एक अर्थव्यवस्था भी रचते हैं। लाखों लोगों का पेट भरता है। लेकिन गंगा का हाल चुनावी मुद्दा नहीं बनता। आस्था जबरदस्त है और आंखे बंद। ऐसा लगता है कि गंगा हमारी हवस का शिकार हुई है। हम सब गंगा के हत्यारे हैं और एक हत्यारे समाज में गंगा को क्यों बहना चाहिए। भूपेन हजारिका का ताना उसने दिल पर ले लिया है--


विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार,

करे हाहाकार, नि:शब्द सदा

ओ गंगा तुम, बहती हो क्यों.......?

अनपढ़ जन, अक्षर हीन,

अनगिन जन खाद्यविहीन

नेतृत्व विहीन देख मौन हो क्यों?

ओ गंगा तुम बहती हो क्यों......?


जिस समाज को गंगा के लुप्त होने का दर्द नहीं, उसे मुख्तार जैसा प्रतिनिधि मिले तो बुरा क्या है। ये तो प्राकृतिक न्याय है।

राहुल तुम सचमुच 'राहुल बाबा' हो!

राहुल गांधी की इस समय प्रेस कांफ्रेंस सीरीज दरअसल कांग्रेस के चंद चापलूस नेताओं की वेवकूफी है. सरकार के पांच सालों के बीच इस तरह की कान्फ्रेंसें चला करती हैं. यह आगे हो सकती थी. उन्होंने चंद्रबाबू नायडू की तारीफ़ की, नितीश की शान में कसीदे काढ़े, जयललिता को महान बताया. ये सभी कांग्रेस के विरोधी लोग हैं और एनडीए का हिस्सा रहे हैं; अथवा हैं. चुनाव बाद गठबंधन की मजबूरी समझ में आती है लेकिन चुनाव के बीच इस तरह की बातों से यूपीए के सहयोगी माने जाने वाले लालू, पासवान, करूणानिधि और मुलायम छिटक नहीं जायेंगे?

जैसे मैंने भाजपा के 'भय हो' का शव परीक्षण डंके की चोट पर किया उसके बाद वह विज्ञापन बंद हो गया. उसी तरह राहुल गांधी और उनके अशुभचिंतकों को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि बड़े से बड़े और बहुत भावनात्मक लगनेवाले मुद्दे पर वह चुनाव पूरा होने तक इस तरह की वकवास नहीं करेंगे. हालांकि अब बहुत देर हो चुकी है.

७ मई के मतदान में फंसी ८५ सीटों पर यूपीए ने अगर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो चुनाव बाद कांग्रेस को पता नहीं किसका-किसका दरवाज़ा खटखटाना पड़ेगा. राहुल गांधी ने यह काम चुनाव से पहले करके बहुत गलत संकेत दे दिया है.

देखने की बात यह भी है कि राहुल की इस असमय हुई महान प्रेस कांफ्रेंस के बाद अब यूपीए कितना बचेगा! राहुल ने कुल्हाड़ी पर पाँव दे मारा है. राहुल तुम सचमुच 'राहुल बाबा' ही हो!

Wednesday, May 6, 2009

जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा

जिन चीजों ने 'बरबाद' करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है उनमें से एक इब्ने इंशा (१९२७-१९७८) की शायरी भी है. इंशा खुद कहते हैं - 'एक जरा से किस्से को अब देते क्या हो तूल मियाँ ' इसलिए लिखत - पढ़त ज्यादा नहीं !

जब शायरी के पक्षी को संगीत के पंख मिल जायें तो क्या कहने ! आइए सुनते हैं इंशा साहब की एक कालजयी रचना - स्वर है आबिदा परवीन का -

कल चौदहवीं की रात थी, शब-भर रहा चर्चा तेरा.
कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा।

हम भी वहीं मौजूद थे, हमसे भी सब पूछा किये,
हम हँस दिये, हम चुप रहे, मंज़ूर था पर्दा तेरा।

इस शहर में किससे मिलें, हमसे तो छूटीं महफ़िलें,
हर शख़्स तेरा नाम ले, हर शख़्स दीवाना तेरा।

कूचे को तेरे छोड कर जोगी ही बन जायें मगर,
जंगल तेरे, परबत तेरे, बस्ती तेरी सहरा तेरा।

बेदर्द सुननी हो तो चल, कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल,
आशिक़ तेरा , रुस्वा तेरा, शाइर तेरा 'इंशा' तेरा।




(मन करे तो इंशा और आबिदा को यहाँ भी सुन सकते हैं. चाँद की तस्वीर इंटरनेट से, गूगल बाबा की जय )