वर्ष २०१० की यह संभवतः कबाड़ख़ाने में अंतिम पोस्ट है. देहरादून से इसे हमारे कबाड़ी शिवप्रसाद जोशी ने भेजा है.
जाना नए साल में इंतज़ार में
शिवप्रसाद जोशी
डॉक्टर बिनायक सेन के मरीज़ उनका इंतज़ार कर रहे हैं. ख़ौफ़ के मारे लोग उनका इंतज़ार कर रहे हैं. उनकी पत्नी और मां उनका इंतज़ार कर रही हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता उनका इंतज़ार कर रहे हैं. नॉम चॉमस्की, अमर्त्य सेन उनका इंतज़ार कर रहे हैं, अरुंधति रॉय उनका इंतज़ार कर रही हैं, कई कवि लेखक पत्रकार, अध्यापक, चिकित्सक, ब्लॉगर्स और समस्त एक्टिविस्ट बिरादरी उनकी रिहाई का इंतज़ार कर रही है.
चार जनवरी बिनायक सेन का जन्मदिन है. वो छत्तीसगढ़ की एक जेल में बंद हैं. उनकी रिहाई की कोशिशें जारी हैं. कौन बनेगा करोड़पति के इयरएंडर में अमिताभ बच्चन कह रहे हैं कि न किसी के आने से कोई फ़र्क पड़ता है न किसी के जाने से. न जाने वो ऐसा क्यों कह रहे हैं. न जाने ऐसा कहने के पीछे उनका क्या तात्पर्य है.
साल 2010 के आखिरी कुछ दिनों में जब अख़बार, टीवी और तमाम न्यू मीडिया बीते साल की रंगीनियों, लाइफ़स्टाइल और कथित बड़ी ख़बरों और सनसनीखेज़ विवादों की झांकियां प्रस्तुत कर रहा था, बिनायक सेन को जेल गए कई सप्ताह हो गए थे. 2010 में अर्जित सफलताओं के चमकीले ब्यौरे थे. प्रसिद्धियों और बुलंदियों और इमारतों और फिल्म और खेल के सितारों की चर्चाएं थीं, मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी जैसी फिल्मी विद्रूपताओं के पांडित्य और लालित्य भरे तुलनात्मक सचित्र आकलन थे. अरुंधति रॉय की चर्चा नीरा राडिया और नीरा यादव के साथ तुलना करते हुए की जा रही थी. ऐसा आंखों में पट्टी बंधा और आत्मा में न जाने कौन से विकार से ग्रसित विचार छापा जा रहा था. 2011 की क्या चुनौतियां, कस्में वादें, अश्ललीलताएं और बदमाशियां हो सकती हैं उन सबका एक मुआयना था मीडिया में, खेती उद्योग रोज़गार और चौतरफ़ा संपन्नता के विश्लेषण थे, क्लिशे और कोलाहल वाली भाषा थी, शोभा डे का एक लेख था जिसमें फुटपाथ पर भीख मांगती बच्ची के हवाले से लिखा गया था, जगमग जीवन की उथली सी रपटाऊ और निकम्मी उम्मीदें हर कहीं से निकाली जा रहीं थीं जब बिनायक सेन को जेल से छुड़ाने के लिए दुनिया भर से अपीलें आ रही थीं. बैठकें और प्रदर्शन हो रहे थे.
बिष्णु नाम के एक मज़दूर ने दम तोड़ दिया था 2008 में जब बिनायक सेन को जेल हो गई थी. उन्हें नहीं छोड़ा गया था और बिष्णु उनका मरीज़ था. उसे इलाज़ नहीं मिला. बीमारी अवसाद और थकान में उसने दम तोड़ दिया था. बिनायक सेन की मां की चिंता है कि अगर उनका डॉक्टर बेटा जल्दी रिहा न हुआ तो न जाने कितने मरीज़ भुगतेंगें.
देश के उस उपेक्षित शोषित हिस्से के वे ग़रीब उस “देशद्रोही” अपने डॉक्टर बिनायक सेन का इंतज़ार कर रहे हैं. इस इंतज़ार के साथ साल 2011 में जाना भी जैसे एक नई विकल कर देने वाली उदासी भरे इंतज़ार में जाना था.
फ़िलहाल आएं उस कथित हैपी न्यू इयर विश के किनारे इंतज़ार करें. अभ्यस्त होते जाने, भूल जाने और मुख्यधारा की दमक में लौट जाने की लुभावनी पेशकश के प्रतिरोध का ये भी एक तरीक़ा हो सकता है.
Friday, December 31, 2010
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह
हो सकता है इस कविता को मैं यहाँ पहले भी पोस्ट कर चुका होऊं. लेकिन इस विश्वास से कि अच्छी कविता को कितनी ही बार पढ़ा जा सकता है, इसे दोबारा लगाने में कोई हर्ज़ नहीं नज़र आता. यह फिलिस्तीन के महाकवि महमूद दरवेश की रचना है.
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह, क्योंकि हथियार है
इतिहासकार. और इतिहासकार को बुखारभरी सिहरन नहीं होती
जब वह अपने शिकारों के नाम लेता है और न ही सुनता है
गिटार पर बजाई जा रही धुन को. और इतिहास हथियारों का रोज़मर्रापन है
जो हमारे शरीरों पर एक ज़रूरी नुस्ख़ा है. "शक्तिवान होता है अक्लमन्द जीनियस." और
इतिहास के पास कोई सम्वेदना नहीं होती कि हम
अपनी शुरुआत की लालसा कर सकें, और न ही कोई उद्देश्य कि हम जान पाएं
क्या आगे है और क्या हमारे पीछे ... और रेल की पटरियों के बग़ल में
इसके पास ठहरने को कोई जगहें नहीं होतीं
जहां हम अपने मृतकों को दफ़ना सकें, कि हम देख सकें
उस तरफ़ कि वक़्त हमारे साथ क्या कर चुका है, और
क्या हमने किया है वक़्त के साथ. मानो हम इसी से बने थे और इस से बाहर थे.
इतिहास के पास न तर्क होता है न अन्तर्बोध कि हम तोड़ सकें
उसे जो बचा रह गया है अच्छे समय की हमारी मिथकों का,
यह भी कोई मिथक नहीं है जिसे हम स्वीकार कर सकें क़यामत के दिन
के दरवाज़े पर बसे रहना. यह हमारे भीतर है और हमारे बाहर है ... और एक पागल
दोहराव है, गुलेल से लेकर न्यूक्लियर तूफ़ान तलक..
निरुद्देश्य बनाते हैं हम इसे और यह बनाता है हमें ... शायद
इतिहास का जन्म उस तरह नहीं हुआ जैसा हम चाहते थे, क्योंकि
मानव का कभी अस्तित्व रहा ही नहीं?
दार्शनिक और कलाकार गुज़रे वहां से ...
और कवियों ने लिखा अपने बैंगनी फूलों का रोज़मर्रापन
और फिर गुज़र गए वहां से ... और निर्धन लोग
स्वर्ग के बारे में प्रचलित कहावतों में यक़ीन करते रहे और वहां इन्तज़ार किया किये ...
और ईश्वर आए प्रकृति को बचाने हमारी दिव्यता से
और गुज़र गए वहां से. और इतिहास के पास
विचार करने को कोई समय नहीं होता, इतिहास के पास न कोई आईना है
न कोई उघड़ा हुआ चेहरा. यह एक अवास्तविक वास्तविकता है
एक कल्पनाहीन कल्पना की, सो इसे लिखो मत.
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह!
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह, क्योंकि हथियार है
इतिहासकार. और इतिहासकार को बुखारभरी सिहरन नहीं होती
जब वह अपने शिकारों के नाम लेता है और न ही सुनता है
गिटार पर बजाई जा रही धुन को. और इतिहास हथियारों का रोज़मर्रापन है
जो हमारे शरीरों पर एक ज़रूरी नुस्ख़ा है. "शक्तिवान होता है अक्लमन्द जीनियस." और
इतिहास के पास कोई सम्वेदना नहीं होती कि हम
अपनी शुरुआत की लालसा कर सकें, और न ही कोई उद्देश्य कि हम जान पाएं
क्या आगे है और क्या हमारे पीछे ... और रेल की पटरियों के बग़ल में
इसके पास ठहरने को कोई जगहें नहीं होतीं
जहां हम अपने मृतकों को दफ़ना सकें, कि हम देख सकें
उस तरफ़ कि वक़्त हमारे साथ क्या कर चुका है, और
क्या हमने किया है वक़्त के साथ. मानो हम इसी से बने थे और इस से बाहर थे.
इतिहास के पास न तर्क होता है न अन्तर्बोध कि हम तोड़ सकें
उसे जो बचा रह गया है अच्छे समय की हमारी मिथकों का,
यह भी कोई मिथक नहीं है जिसे हम स्वीकार कर सकें क़यामत के दिन
के दरवाज़े पर बसे रहना. यह हमारे भीतर है और हमारे बाहर है ... और एक पागल
दोहराव है, गुलेल से लेकर न्यूक्लियर तूफ़ान तलक..
निरुद्देश्य बनाते हैं हम इसे और यह बनाता है हमें ... शायद
इतिहास का जन्म उस तरह नहीं हुआ जैसा हम चाहते थे, क्योंकि
मानव का कभी अस्तित्व रहा ही नहीं?
दार्शनिक और कलाकार गुज़रे वहां से ...
और कवियों ने लिखा अपने बैंगनी फूलों का रोज़मर्रापन
और फिर गुज़र गए वहां से ... और निर्धन लोग
स्वर्ग के बारे में प्रचलित कहावतों में यक़ीन करते रहे और वहां इन्तज़ार किया किये ...
और ईश्वर आए प्रकृति को बचाने हमारी दिव्यता से
और गुज़र गए वहां से. और इतिहास के पास
विचार करने को कोई समय नहीं होता, इतिहास के पास न कोई आईना है
न कोई उघड़ा हुआ चेहरा. यह एक अवास्तविक वास्तविकता है
एक कल्पनाहीन कल्पना की, सो इसे लिखो मत.
मत लिखो इतिहास को कविता की तरह!
Wednesday, December 29, 2010
लोकतंत्र को उम्रकैद
(बिनायक सेन अब केवल छत्तीसगढ़ के एक समाजसेवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता नहीं रहे। अब वह सरकार की मंशा के ख़िलाफ़ उठने वाली हर जायज आवाज़ के प्रतीक बन गये हैं और उनके ख़िलाफ़ हुई कार्यवाही सरकार के दमन की। नव साम्राज्यवाद के चतुर्दिक हमलों के ख़िलाफ़ जो भी बोलेगा वह अब सरकार के लिये सबसे बड़ा ख़तरा होगा। डा सेन की सज़ा यही भयावह चेतावनी है। लेकिन संतोष की बात यह है कि देश का लोकतांत्रिक समाज इस विषय पर चुप नहीं है। फासीवाद के बरअक्स देश भर में राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, बुद्धिजीवी और आम जन डा सेन के समर्थन में आगे आये हैं। इसी क्रम में जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण का यह आलेख एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है- अशोक कुमार पाण्डेय)
ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-
“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?
याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.
डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?
इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?
अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,
“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “
ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.
मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.
रंगों और शब्दों का चट्टान पुरुष.
‘चट्टान पुरूष’ इस किताब की केन्द्रीय छवि है। यह धूसर भूरे रंग से बना है। बहुत ताकतवर और खासे वज़नदार स्ट्रोक्स का इस्तेमाल है। बहुत फीके रंगों में से मन्द मन्द ओज तथा आभा का प्रस्फुटन.......सधे हुए हल्के हाथ का ट्रीटमेंट ....... एक निपट नग्न आकृति ....... अपने ही रंग के जटिल गांठदार चट्टान में से उभर रही। बल्कि उभरने की कोशिश में । कोशिश की ऐंठन उसके समस्त अंगों में प्रकट है- घुटने, पिडलियां , पैरो के पंजे, खिंची हुई जर्जर बांहें, तना हुआ नाभि प्रदेश, यहां तक कि अपेक्षाकृत गाढ़े शेड में एक अनुत्तेजक का सा शिश्न भी। सुप्त प्राय: । चेहरा फ्रेम से बाहर अदृश्य है और हाथ चट्टान में धंसे हुए .............
यहां अनेक प्रतीक हैं। कई कई इशारे, अनगिनत अर्थवान रूपक।
स्मृति पटल पर एक चेहरा कौंधता है सहसा। एक ऐंठा हुआ चेहरा ............ सम्भवत: चिरनिद्रा में लीन ........... भीषण थकान या असह्य पीड़ा हो शायद ......... हो सकता है किसी गुरू गम्भीर कार्य को अंजाम देता हुआ ......एक जेनुईन दायित्व बोध से जूझ रहे आदमी का ................मुक्तिबोध का चेहरा ! शेल्फ से पुस्तक निकालता हूँ – ‘चान्द का मुंह टेढ़ा है’ हां, वही तो है। रामकुमार का बहुचर्चित रेखांकन। कवि की छवि । आप इस चेहरे को उठाकर ‘चट्टान पुरूष’ के धड़ पर रखें। एक दम सटीक ! एक मुकम्मल मानवाकृति बनी जा रही ........ और हाथों के लिए कवि के निर्देश......
यहां अनेक प्रतीक हैं। कई कई इशारे, अनगिनत अर्थवान रूपक।
स्मृति पटल पर एक चेहरा कौंधता है सहसा। एक ऐंठा हुआ चेहरा ............ सम्भवत: चिरनिद्रा में लीन ........... भीषण थकान या असह्य पीड़ा हो शायद ......... हो सकता है किसी गुरू गम्भीर कार्य को अंजाम देता हुआ ......एक जेनुईन दायित्व बोध से जूझ रहे आदमी का ................मुक्तिबोध का चेहरा ! शेल्फ से पुस्तक निकालता हूँ – ‘चान्द का मुंह टेढ़ा है’ हां, वही तो है। रामकुमार का बहुचर्चित रेखांकन। कवि की छवि । आप इस चेहरे को उठाकर ‘चट्टान पुरूष’ के धड़ पर रखें। एक दम सटीक ! एक मुकम्मल मानवाकृति बनी जा रही ........ और हाथों के लिए कवि के निर्देश......
उठाओ, उठाओ/इस भारी चट्टान को उठाओ/और उसके शिकंजे से/बाहर आओ/इसे रौन्द कर अपना पथ खोजो/यह वही दैत्य है/जिसके विरूद्ध सदियों से लड़ते रहे हो’
विडंबना यह कि दैत्य उसी चट्टान का अंग है जिससे कि स्वयं चट्टान पुरूष उभर रहा है। दोनों परस्पर एकमेक हुए। एक दूसरे में ऐसे क्पिनिेमक कि दोनो को अलग-अलग देख पाना ही असम्भव। और कवि का दुस्साहस कि उकसा रहा चट्टान पुरूष को । उस दैत्य के संहार के लिए । प्रेरित कर रहा है । उससे मुक्त होने के लिए, जो सदियों से उसके भीतर छिपा बैठा है। संस्कारों की तरह। उस का अविभाज्य हिस्सा बनकर-
‘तुमने उसकी गरदन पकड़ ली है/ तुम इसके पिछले हिस्से को खींच रहे हो/ इसे मारने के बाद तुम अपने समय के मुक्त नायक बनोगे/ कविताएं रचने को मैं तुमसे प्रेरणा लूंगा/ उठाओ, इस भारी चट्टान को उठाओ’
यह उद्बोधन किसके लिए है ? निश्चित रूप से उसी हताश, पराजित, भयाक्रान्त मानव के लिए जिसे बरसों पहले मुक्तिबोध ने कहा था-
‘कोशिश करो जीने की/ ज़मीन में गड़ कर भी’
यह उद्बोधन किसके लिए है ? निश्चित रूप से उसी हताश, पराजित, भयाक्रान्त मानव के लिए जिसे बरसों पहले मुक्तिबोध ने कहा था-
‘कोशिश करो जीने की/ ज़मीन में गड़ कर भी’
कौन है ‘चट्टान पुरूष’ ? क्या वही .........
’खोजता हूँ पठार/ पहाड़/ समुन्दर/ जहां मिल सके मुझे/ मेरी वह खोई हुई परम अभिव्यक्ति अनिवार/ आत्म सम्भवा। ( -अंधेरे में )
चट्टान पुरूष को पढ़कर, उस चित्र के साथ जोड़कर मालूम होता है कि विजेन्द्र की कविताओं की सादगी और कथन की सपाटता भ्रामक है. दरअसल उनके अनुभवों की प्रखरता सीधे सीधे पकड़ में ही नहीं आती । तमतमाती रहती है - शब्दों के बाहर, उनके बिंबों में। उनकी भीतरी ऊर्जा इन चित्रों के साथ सन्दभिZत होकर ज़बरदस्त दहक उत्पन्न करती है। और उस दहक की रोशनी पाठक को गहरे में झांकने की दृष्टि देती है-
“As the surface of the earth / Is only a shallow truth of life/ Until I know / That in the womb of the earth / There are melting rocks / And flowing streams too.” (-Truth of a Myth "
इस किताब के एकदम बाद पहल-88 में आई उनकी महत्वपूर्ण कविता मैग्मा की चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी। मेरी समझ में यह किताब मैग्मा की ही तैयारी थी। मैग्मा में कवि की चिन्ताएं, स्वप्न, स्मृतियां और संवेदनाएं समग्रता के साथ अभिव्यिन्जत हुई है। इस कविता के लिए कवि को रंग, ब्रश और कैनवस के पास नहीं जाना पड़ता। कहना न होगा कि आधी रात के रंग के अनेक चित्र मैग्मा में हूबहू शब्दान्तरित हुए हैं। विजेन्द्र का कवि अपनी इस लम्बी और जटिलतम कविता में अपनी पूरी इन्टेसिटि, पूरी एनर्जी के साथ उपस्थित है। बड़ी सहजता पूवर्क वह हिन्दी कविता के उस पाठक को उन कड़ियल, पठारीय, दुरूह धरातलों के पार ले जाता है जहां मुक्तिबोध की कविताएं उसे छोड़ गई थी। हत्प्रभ और आशंकित ! न केवल पार ले जाता है बल्कि गहरे भूगर्भ में उस ज़िन्दा मैग्मा के स्पर्श करवाता है जिससे छूटे हुए बिम्ब अन्धेरें में तथा चकमक की चिंगारियां में दिखाई देती है। जिससे कि विजेन्द्र के यहां एक संवेदनशील आत्मा का स्थापत्य निर्मित होता है .
‘ओ कवि- ओ अंगिरा सुनो/ आंच ठण्डी न हो/ उसका रूप बदलो/ दिशा ठीक करो/ उसे निखारो/ धार दो/वह बुझी नहीं है/ वह बुझे नहीं/धरातल फोड़कर निकला है/सुर्ख कल्ला बीज का/ वही जैविक मैग्मा है मेरी कविता का’ (मैग्मा )
यही एक वजह है कि मैग्मा कविता अंधेरे में के बाद आधुनिक हिन्दी कविता को एक नई दिशा प्रदान करती है। और निश्चित रूप से इसकी भूमिका आधी रात के रंग वाले चित्रों में है।मैग्मा तक पहंुचने के लिए पाठक को इस किताब से हो कर गुजरना पडेगा। शायद कवि के अन्य चित्रों से भी........
“As the surface of the earth / Is only a shallow truth of life/ Until I know / That in the womb of the earth / There are melting rocks / And flowing streams too.” (-Truth of a Myth "
इस किताब के एकदम बाद पहल-88 में आई उनकी महत्वपूर्ण कविता मैग्मा की चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी। मेरी समझ में यह किताब मैग्मा की ही तैयारी थी। मैग्मा में कवि की चिन्ताएं, स्वप्न, स्मृतियां और संवेदनाएं समग्रता के साथ अभिव्यिन्जत हुई है। इस कविता के लिए कवि को रंग, ब्रश और कैनवस के पास नहीं जाना पड़ता। कहना न होगा कि आधी रात के रंग के अनेक चित्र मैग्मा में हूबहू शब्दान्तरित हुए हैं। विजेन्द्र का कवि अपनी इस लम्बी और जटिलतम कविता में अपनी पूरी इन्टेसिटि, पूरी एनर्जी के साथ उपस्थित है। बड़ी सहजता पूवर्क वह हिन्दी कविता के उस पाठक को उन कड़ियल, पठारीय, दुरूह धरातलों के पार ले जाता है जहां मुक्तिबोध की कविताएं उसे छोड़ गई थी। हत्प्रभ और आशंकित ! न केवल पार ले जाता है बल्कि गहरे भूगर्भ में उस ज़िन्दा मैग्मा के स्पर्श करवाता है जिससे छूटे हुए बिम्ब अन्धेरें में तथा चकमक की चिंगारियां में दिखाई देती है। जिससे कि विजेन्द्र के यहां एक संवेदनशील आत्मा का स्थापत्य निर्मित होता है .
‘ओ कवि- ओ अंगिरा सुनो/ आंच ठण्डी न हो/ उसका रूप बदलो/ दिशा ठीक करो/ उसे निखारो/ धार दो/वह बुझी नहीं है/ वह बुझे नहीं/धरातल फोड़कर निकला है/सुर्ख कल्ला बीज का/ वही जैविक मैग्मा है मेरी कविता का’ (मैग्मा )
यही एक वजह है कि मैग्मा कविता अंधेरे में के बाद आधुनिक हिन्दी कविता को एक नई दिशा प्रदान करती है। और निश्चित रूप से इसकी भूमिका आधी रात के रंग वाले चित्रों में है।मैग्मा तक पहंुचने के लिए पाठक को इस किताब से हो कर गुजरना पडेगा। शायद कवि के अन्य चित्रों से भी........
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