Saturday, June 30, 2012

सिंध में सत्रह महीने - अंतिम किस्त


(पिछली कड़ी से आगे)


करांची के एक मित्र ने अपने प्रांत की विशेषता बताते हुए बड़े अभिमान से कहा – ‘सिंधी भिखमंगे नहीं होते, मजूर, मोची, तेली-तमोली, सुनार-दर्जी सिंधी नहीं होते; वेश्याएं भी सिंधी नहीं होतीं.” “तो आखि़र ये आये कहां से?” मैंने उलटकर पूछा तो जवाब मिला “कच्छ, राजपूताना, पंजाब से; और घरेलू नौकर हमें आपके युक्त प्रांत से बहुत सस्ते मिलते हैं.”

सिंधी मित्र की उस मुस्कान ने मुझे चिढ़ाया नहीं, गंभीर बना दिया. गोरखपुर, बस्ती, फैजाबाद, गोंडा आदि के हज़ारों ग्रामीण सिंध में भरे पड़े हैं. इन्हें यहां वाले भैया कहकर पुकारते हैं. भर, बोन, अहीर, राजपूत, कुर्मी, ब्राह्मण सभी जाति के हैं और सब काम करते हैं. निरक्षरता और सफ़ाई का अभाव इन्हें स्थानीय लोगों से छांटकर अलग कर देता है. फिर शिक्षित से शिक्षित बिहारी और युक्त प्रांतीय बर्मा में जैसे ‘दरबान’ कहकर पुकारा जाता है, उसी तरह वह सिंध में ‘भैया’ कहकर बुलाया जाता है. इससे मैं स्वयं कई बार तिलमिला उठा हूं, और बाद में ठंडे दिमाग़ से कई बार सोचा है. दोष उनका नहीं, हमारा ही है. हज़ारों और लाखों की तादाद में होते हुए भी गुजरात, महाराष्ट्र और सिंध में ‘भैया’ अपमान और बुद्धू का प्रतीक बना हुआ है. जाहिल, चपाट और उजड्ड! कम से कम पैसा लेकर अधिक से अधिक काम कर देना, निरक्षर भट्टाचार्य होने के नाते जीवन-भर अंगूठा निशान करते रहना, परिवार को साथ नहीं रखना, फिर भी आजन्म प्रवास, ये हमें औरों की निगाह में हल्के बनाये रखता है. धोती पहनकर, कंधे पर चादर डालकर आचार्य कृपलानी करांची में एक बार भाषण कर रहे थे. श्रोताओं में सिंधियों की ही तादाद ज़्यादा थी. सभा जब विसर्जित हुई तो कइयों के मुंह से सुना गया, ‘असां जो कृपालाणी भैया भी व्यो आहे (हमारा कृपलानी भैया बन गया)!"

बच्चों की देख-भाल, रसोई-पानी, घर-बाग की रखवाली, पूजा-पाठ आदि कई दृष्टियों से सिंधी हिंदू भैया को ही पसंद करते हैं. परिवारों में बिखरे होने के कारण यों भी इनका संगठन मेढ़कों को तराजू में तोलने की तरह मुश्किल है. तिस पर शिक्षा की कमी, झूठ-मूठ का आत्मसंतोष इनको पिछड़ी हुई स्थिति में रखे हुए है. अब छोटी-मोटी दूकान भी ये लोग करने लगे हैं. फेरी लगाकर दही-बड़ा और पकोड़ा भी बेचना शुरू किया है. इक्के-दुक्के अपने लड़कों को पढ़ाने भी लग गये हैं.

सिंध के अधिवासी शांतिप्रिय, आतिथ्य परायण, सहिष्णु होते हैं. भिन्न-भिन्न प्रांतों से गये हुए लोगों की संख्या सिंध को सर्वादेशिक बना रही है. पंजाबी, बलोची, मारवाड़ी, गुजराती, कच्छी, काठियावाड़ी और भैया सब मिलाकर इतना हो गये हैं कि सिंधी इनकी तुलना में थोड़े लगते हैं. भोजन में भात और रोटी दोनों ही लोकप्रिय हैं. मांस-मछली न खाते हों, ऐसे सिंधी बहुत कम मिलेंगे. पापड़ खाने का काफ़ी रिवाज है. खटाई और मिर्चे का इस्तेमाल खूब करते हैं. कलामूलक वस्तुओं में कपड़ों की छपायी मुझे बहुत पसंद आयी. इस्लामी तूलिका से विचित्रा बेल-बूटों, मेहराब की तरह छपी हुई किनारीवाले कपड़े आपको बहुत ही आकर्षक लगेंगे. मिट्टी और सीमेंट के योग से तैयार किये हुए खपड़े और ईंटें भी सिंध के स्थापत्य कला-प्रेमियों की निगाह में विशेष स्थान दिलाती हैं. लकड़ी की वस्तुओं पर सिंधी कारीगर इतना बढ़िया वार्निश करते हैं कि देखते ही बनता है. जवाहरात के लिए तो सिंधी जौहरी मशहूर हैं ही.

सिंधुनद सिंध पहुंचते-पहुंचते ‘सप्तसिंधु’ कहलाने लगता है, क्योंकि वह अपने साथ कपिशा नदी और पंजाब की पांचों नदियों को साथ लिये इस भूमि में प्रवेश करता है. यहां और कई बातों की चर्चा आवश्यक थी, परंतु लेख बहुत लंबा हो गया है, अब मैं इसे यहीं समाप्त करता हूं. सिंध के इतिहास और पुरातत्व का, प्राकृतिक दृश्यों का अधिक वर्णन करने के लिए हिंदी में एक पुस्तक की आवश्यकता है.

(समाप्त)

लबों पे नगमे मचल रहे हैं नज़र से मस्ती छलक रही है - मेहदी हसन


खान साहब मेहदी हसन जिस्मानी तौर पर अब इस संसार में नहीं हैं मगर उनकी आवाज़ का जादू हमारे दिलों में भीतर तक भरा रहेगा. आज उनका गाया एक और फ़िल्मी नगमा सुनिए.

Friday, June 29, 2012

सिंध में सत्रह महीने - ४

(पिछली कड़ी से आगे)

चार.

भौगोलिक व्यतिक्रम के कारण सिंध प्रांत शेष भारत से कट-सा गया है, तिस पर अरबी लिपि ने तो और भी हद कर दी है. वह एक दीवार जैसी खड़ी है सिंध और भारत के दरम्यान. सिंध के पश्मिोत्तर भाग में बिलोचिस्तान की नग्न पहाड़ियां पड़ती हैं, उत्तर-पूर्व में बहावलपुर रियासत के विरल बस्तियोंवाले पंजाबी इलाक़े पड़ते हैं, पूर्व में राजपूताने का विशाल रेगिस्तान पड़ता है. पूर्व-दक्षिण कोने में कच्छ की छोटी-छोटी झाड़ीवाली भुरभुरी मरु-भूमि और कच्छ की खाड़ी पड़ती है, दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है अरब महासागर. खानपुर से लेकर करांची तक सवा चार सौ मील से ऊपर सिंधुनद के दोनों किनारे लंगोटी की तरह फैला पड़ा है सिंधियों का छोटा-सा यह प्रांत. आबादी घनी नहीं है. सारा प्रांत आठ जिलों में विभक्त हैμसक्खर, शिकारपुर, जैकोवाबाद, लारकाना, दादू नवाबशहा, मीरपुर ख़ास, हैदराबाद, करांची. इनमें मीरपुर पड़ता है जोधपुर लाइन में और जैकोवाबाद क्वेटा लाइन में. अवशिष्ट जिले (करांची को छोड़कर) दरिया सिंध के कछारों में बसे हैं. जलवायु शुष्क है, वर्षा कम होती है. गर्मी भी खूब पड़ती है और जाड़ा भी खूब. परंतु ग्रीष्म ऋतु में भी वहां की रात्रि असह्य नहीं प्रतीत होती है.

अरब सागर की पश्चिमी हवा सारे सिंध को प्राणवंत बनाये रहती है. गेहूं और धान उपजते दोनों हैं, इतना उपजते हैं कि सिंधवासी उन्हें बाहर भी भेजते हैं. सिंध की शुमार हिंदुस्तान के उन चंद सूबों में की जाती है, जहां अन्न आवश्यकता से अधिक पैदा होता है. चारागाहों की बहुतायत है, इसलिए दूध-घी की भी कमी नहीं है. अभी तक सिंध की बहुत कम ज़मीन आबाद हो पायी है. सोवियत रूस की पंचवार्षिक योजनाओं की तरह जब कभी कोई विराट औद्योगिक योजना हमारे इस महादेश में लागू होगी, तो अकेला सिंध अनेक प्रांतों का भरण-पोषण कर लेगा. भारतीय शासन विधान (1935) के मुताबिक जो मंत्रिमंडल वहां क़ायम है, उसने इन बातों की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया है. पिछले दो-तीन वर्षों के अंदर मुनाफ़ाख़ोरी और अन्नचोरी का जो चक्र अन्य प्रांतों में चला है, सिंध की स्वदेशी सरकार उन्हीं धूर्तों को प्रोत्साहित करती रही है जिन्होंने जनहित का गला घोंटकर करोड़ों का लाभ-शुभ प्राप्त किया है.

सिंध का शासन अंग्रेज़ों ने सिक्खों से छीना था. 1847 ई. में सर नेपियर ने इसे बंबई प्रांत में मिला दिया. अभी नौ साल पहले फिर इस प्रांत को बंबई से अलग कर दिया गया है. शिक्षा और व्यापार में सिंध अभी भी बंबई से जुड़ा हुआ है. धार्मिक और सामाजिक संबंध उसका पंजाब से है.

सिंधी भाषा आजकल अरबी लिपि में लिखी जाती है. पुराने पंडित दो-तीन मुझे वहां मिले, जो अरबी से अपरिचित और नागरी मात्रा से परिचित हैं. अभी चालीस साल पहले तक सिंधी नागरी में लिखी जाती थी, बनियों ने तो अभी तक नागरी के अन्यतम रूप (मुंडा लिपि से मिलता-जुलता हुआ) पकड़ रखा है. वास्तव में सिंधी भाषा के सूक्ष्म उच्चारण-भेदों को प्रकट करने के लिए अरबी लिपि असमर्थ है. इस भाषा में पाली-प्राकृत-संस्कृत-अपभ्रंश से आनेवाले शब्दों की तादाद इतनी अधिक है कि देखकर दंग रह जाना पड़ता है. क्या मुसलमान, क्या हिंदू सभी इसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. किसी बहुत बड़े मौलवी या पंडित की बात छोड़िये, साधारण सिंधी जनता जिस ठेठ सिंधी को व्यवहार में लाती है, उसमें 80 प्रतिशत तद्भव शब्द ही रहते हैं. अठारहवीं सदी के एक मुसलमान संत की वाणी देखिये, कैसी है –

पूरब पंधि न वीणां, गिरिनारी गुमनाम
विभिचारी थी बाटते, करनि कीन बिसराम
सीने में संग्राम, सचा सुना सुनिजे.


अपने में ही लीन-मग्न गिरिनारी योगी कर्म-कांडों में नहीं फंसते और न अपना मार्ग त्यागकर आराम ही
करते हैं - इनके हृदय में हमेशा युद्ध छिड़ा रहता है. पाठक देखें कि इसमें कितने तद्भव शब्द हैं. अब आधुनिक सिंधी का एक नमूना देखें -

जदहिं मात भारत जे चरिनन में तो
दिनो दानु भेटा में जेकी बि हो
लघुई जानि ते भी न हिकिड़ो वगो
लंगोटी टुकरु, व्यो उघाड़ो सजो
तदहिं तोते आसीस माता कई
बधाई वदी तुहिं जी पदिवी वई


 कवि वेकस ने गांधी को लक्ष्य करके कहा है - तुम्हारे पास जो कुछ भी था, सभी जब भारत माता के चरणों तुम भेंट चढ़ा बैठे, एक छदाम भी नहीं बचा, सिवाय लंगोटी के और क्या रहा? सारा अंग उघाड़ था, तब तुम पर माता की आशीष हुई; उसने तुम्हारी पदवी बढ़ा दी!

दुर्भाग्य की बात है कि साहित्य-सम्मेलन और नागरी-प्रचारिणी सभा जैसी प्रतिनिधि संस्थाएं सिंधी के प्रति उदासीन क्या, विमुख हैं. सिंधी के उन हज़ारों शब्दों की व्युत्पत्ति के आलोक में हम हिंदी के तद्भव शब्दों की जड़ तक जा सकते हैं. 

इधर चार-पांच वर्षों से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति (वर्धा) के सदुद्योग से सिंध में हिंदी प्रचार का काम होने लगा है. हिंदुस्तानी की आड़ लेकर निख़ालिस उर्दू का प्रचार प्रांतीय सरकार की ओर से हो रहा है. सिंधी हिंदू अपनी सरकार से इस बात की मांग कर रहे हैं कि उनके लड़के को नागरी लिपि में हिंदुस्तानी लिखने-पढ़ने की छूट दी जाये. लीगी शिक्षामंत्री इस मांग से बिदकता है. हैदराबाद सिंध के दयाराम गिदूमल नेशनल कालेज के प्रोफेसर नारायणदास बथेजा को उस प्रांत की माध्यमिक शिक्षा में संस्कृत-प्रवेश का श्रेय प्राप्त है. वहां के सारस्वत ब्राह्मण प्रतिभाशाली होते हुए भी अपने संपन्न यजमानों से भूयसी-दक्षिणा पाकर इतने अलस, इतने तंद्रालु बन बैठे हैं कि अध्ययन-अनुशीलन की अधिक आवश्यकता भला उन्हें क्यों होने लगी? संस्कृत शिक्षा की दशा सिंध में वही है, जो पिंजरापोल की लूली-लंगड़ी गायों की होती है!

(जारी)

मेहदी हसन का एक चेहरा ऐसा भी


आज पेश है फिल्म "नज़र" से एक चुलबुला सा गीत मेहदी हसन साब की आवाज़ में -

Thursday, June 28, 2012

सिंध में सत्रह महीने - ३


(पिछली कड़ी से आगे)

तीन.


सिंध का जनजीवन दूसरे प्रांतों की अपेक्षा सुखी है. कारण यह है कि वहां आबादी कम है. सिंधु नद से नहरें निकाल-निकालकर ग़ैर-आबाद और ऊसर ज़मीन को उपजाऊ बनाने की योजना अमल में बहुत कम लायी गयी है. फिर भी प्रांतीय सरकार की ओर से खेती करने के लिए बराबर लोगों का आव्हान होता रहता है. बाहर के लोग भी वहां जाकर खेती करने लगे हैं. पक्के कृषिकार तो वहां के मुसलमान ही हैं. सिंध के हिंदू व्यापारोन्मुखी जाति हैं. सिंधी सौदागर दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं. जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, जापान, फारमूसा, चीन, मंचूरिया, कोरिया, मंगोलिया, अफ्रीका के निर्जनप्राय इलाकों में, अरब, ईरान, अफगानिस्तान, साम, सीरिया, मिस्र, यूरोप के छोटे-बड़े देशों में, अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी भागों में, और कहां नहीं ये सिंधी सौदागर फैले हुए हैं.

 इस महासमर के युग में हज़ारों सिंधी धुरी राष्ट्रों द्वारा विजित देशों में अटके रहे. सिंधी व्यापारियों की यह जाति भाई-बंद (भाई-बंधु) कहलाती है. एक दिन किसी मित्र ने कहा - "मेरा भाई मंगोलिया की सरहद पर चार महीने रह आया है. सैकड़ों फोटो साथ लाया है. देखना हो तो साथ चलिये."

मैंने देखा तो सोवियत मंगोलिया के उद्बुद्ध जीवन के प्रतीक कई चित्र थे. उस युवक से बातें हुईं, राजनीतिक मामले में काफ़ी जागरूक निकला वह. दूर-दूर तक फैले हुए ये सिंधी सौदागर अपने देश लौटकर दान-पुण्य के खाते में काफ़ी रकम ख़र्च करते हैं. ऐसे ही एक सौदागर ने मुझे हंसकर कहा – “हम अपने देशवासियों को थोड़े लूटते हैं? बाहरवालों को मूड़ते हैं, अपनों को खिलाते-पिलाते हैं...” और, ठीक 186 ही कहा था उसने. व्यापार-क्षेत्र में सिंधियों की जो प्रसिद्धि है, वह बाहरी दुनिया को लेकर ही है. भारत के दूसरे प्रांतों में सिंधी व्यापारी बहुत कम हैं, परंतु भारत के बाहर व्यापारी बनकर रहनेवाले भारतीयों में सबसे बड़ी संख्या सिंधियों की ही है. 

मारवाड़ी तो अभी बर्मा तक ही पहुंचे हैं. आगे बढ़ने में धर्म का बाह्य आडंबर उन्हें रोके हुए है. सिंधियों की स्थिति इस संबंध में प्रगतिशील है. छूत-छात का भूत उनसे हार मानता है. नानकपंथी और सूफ़ी भावना के कारण उनमें हद दर्जे की सर्व-धर्म सहिष्णुता होती है. बाहरी दुनिया से निरंतर संपर्क के कारण उनका स्वभाव युगधर्मा बन गया है. यही कारण है कि दुनिया के कोने-कोने में ये पहुंच गये हैं. मिलनसार ये इतने कि दुनिया की बर्बर से बर्बर जातियों के बीच अपनी दुकानदारी चला लेते हैं. आर्थिक उदारता के लिए तो सिंध के ये भाईबंद मशहूर हैं ही, पर धार्मिकता और सामाजिकता भी इनमें पर्याप्त होती है. वह जहां कहीं भी रहेंगे, गुरुग्रंथ और गीता साथ रहेगी; साधु-ब्राह्मण और अतिथि-अभ्यागत इनके यहां बहुत ही सम्मान पाता है - चाहे स्वदेश में, चाहे विदेश में. व्यापार ये अधिकतर मोती, जवाहरात, सिल्क-रेशम, सोना-चांदी का ही करते हैं. क़ीमती कपड़ों की बड़ी-बड़ी फर्में देश-देशांतर में सिंधी व्यापारियों के नाम से जुड़ी हुई हैं. इन भाईबंदों का शायद ही कोई परिवार होगा, जिसका कोई न कोई सदस्य समुद्र-लंघन न कर आया हो. अपने साथ वे ब्राह्मणों को भी खींच ले जाते हैं. मेरे सिंधी विद्यार्थियों में से एक आजकल कोलंबो में है, दूसरा गाइना में, तीसरा है अरब में और चौथा चीन में. यह सब मैं अपनी प्रतिष्ठा-वृद्धि के लिए नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि आषाढ़ी पूर्णिमा में उन लोगों ने कभी गुरु-दक्षिणा नहीं भेजी. सोचा होगा, दो-चार महीने ही पढ़ा है - गुरु-शिष्य का गठबंधन ज़िंदगी-भर का तो होता नहीं! पर मैं तो नहीं छोड़ूंगा, एक आस्थावान आचार्य के शब्दों में कहूंगा –

एकाक्षर प्रदातारं
यों गुरुं नाभिमन्यते....


इस श्लोक का उत्तरार्द्ध नहीं लिखूंगा, क्योंकि उसमें शाप दिया गया है. बेचारे कहीं रहें, मस्त रहें! एक दिन अपने यजमान की ओर से एक मित्रा निमंत्राण दे गये. आपत्ति का कोई कारण नहीं था, आत्माराम वहां पहुंच गये. जीमते वक़्त पूछा तो पता लगा, मित्रा के यजमान का भतीजा शंघाई में मर गया था. तीसरे साल की बात है. उन दिनों उक्त नगर जापान के अधिकार में आ गया था. मरने की ख़बर तीन मास पर करांची पहुंची थी. उसी तरुण का श्राद्ध था. गुरुग्रंथ और गीता के अखंड सप्ताह के बाद पांच ब्राह्मणों और पांच संन्यासियों को भोजन कराया गया. यह सब बात भाई चेलाराम ढोलनमल ने मुझे स्वयं बतायी. वही परिवार के मुखिया थे. जापान का आक्रमण होने से पहले तब ख़ुद भी शंघाई और तोकियो में रह आये थे. रेशमी कपड़ों का व्यापार था. अमेरिकन ढंग की अंग्रेज़ी बोल रहे थे. अभी भी परिवार के चार सदस्य प्रशांत महासागर के विभिन्न टापुओं में अवरुद्ध थे. कहां तक गिनाऊं, सिंधियों के साथ बात करने पर जब दुनिया के छोटे-बड़े शहरों के नाम निकल आते हैं, और ऐसा बहुधा होता है, तो मेरा घुमक्कड़ मन उछलने लगता और अंत में उसी लोमड़ी की भांति बैठ जाता है, जिसने निराश होकर कहा था - अंगूर खट्टे हैं.

 सिंध के सबसे अधिक प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत और सुशिक्षित लोग आमिल हैं. हिंदुओं में प्रमुख ये ही दो जातियां हैं, आमिल और भाईबंद. एक बुद्धिजीवी है तो दूसरा वाणिज्यजीवी. ब्राह्मण थोड़े ही हैं, दाल में नमक के बराबर, ‘तोयस्थं लवणं यथा.’ अमल से आमिल शब्द की व्युत्पत्ति है. ये लोग दीवान कहलाते हैं, मुस्लिम शासन-काल में बड़े-बड़े ओहदे पर रहने के कारण इस जाति का नाम ही आमिल  पड़ गया. यह अपने नाम के साथ द्विवेदी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, उपाध्याय, मिश्र आदि की भांति कृपालाणी, गिदवाणी, वासवाणी, गुलराजणी, मीरचंदाणी आदि वंशगत उपाधियां जोड़ते हैं. भेद इतना ही है कि द्विवेदी, त्रिपाठी आदि उपनाम बहुत प्राचीन हैं और ज्वलंत ब्रह्मत्व की याद दिलाते हैं; परंतु कृपालाणी और गिदवाणी आदि उपाधियां दस-पांच पुस्त पहले के अपने-अपने प्रख्यात वंशधरों की अभिधा को सूचित करते हैं - कृपाल का कृपालाणी, गिदू का गिदवाणी, वासू का वासवाणी आदि. बहुत दिमाग़ लड़ाया कि यह आणी क्या है. एकाएक ख्याल आया गार्ग्यायाणि, दांडायनि आदि. अपत्य अर्थ को बतलानेवाला गोत्रा-सूचक यह ‘आयनि’ और आमिल लोगों के उपनाम की यह ‘आणि’ आदि दोनों मिलाये जायें तो भाषा-विज्ञान के प्रेमियों को इस संबंध में निराश नहीं होना पड़ेगा. हमारे आचार्य कृपलानी (कृपालाणी कहिए) इसी आमिल जाति के कुल-दीपक हैं. आचार्य गिडवाणी (सिंधी उच्चारण गिदवाणी) भी इसी जाति के रत्न थे और साधु टी. एल. वासवाणी का नाम कौन नहीं जानता है? इस प्रकार हम देख सकते हैं कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी सिधिंयों का नाम जिन्होंने उज्जवल किया है, वह सबके सब आमिल हैं.

बुद्धिजीवी होने के कारण आमिलों को भी उसी तरह बेकारी से लड़ना पड़ता है, जैसे बंगालियों को. शादी-ब्याह में कन्या-पक्षवालों को भी बंगाल की तरह ही यहां भी दिक़्क़तें उठानी पड़ती हैं. हर एक सपूत का बाप कन्यावालों को निचोड़कर सीड्ढी बना डालता है. नतीजा यह हो रहा है कि हज़ारों आमिल लड़कियां वयः प्राप्त होने पर भी बाध्यतामूलक अविवाहित जीवन बिता रही हैं, लड़कियों के विवाह की यह समस्या भाई-बंदों में नहीं है. उनके यहां न तो अति उच्च-शिक्षा प्राप्त लड़कियां हैं कि जिनके लिए अति उच्च शिक्षित लड़कों की अनिवार्य आवश्यकता हो, न वैसे लड़के हैं जिनकी कीमत पचीस-पचीस हज़ार कूती जाये. मिडिल या मैट्रिक तक की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाएं दिलवाकर वे अपने बच्चों को धंधे में लगा देते हैं; लड़कियां उनके यहां अविवाहित कदाचित् ही रहती हैं.

जनता का तीसरा वर्ग है कृषकों का. उनमें पचानवे प्रतिशत मुसलमान हैं. बड़े-बड़े जागीरदारों और गद्दीनशीन पीरों की हुकूमत के अंदर सिंध के देहाती मुसलमान बहुत ही पिछड़ी हालत में पड़े हैं. उनमें पंजाबी मुसलमानों को मैंने अधिक जागरूक पाया. अपने पीरों के प्रति उनके हृदय में गंभीर श्रद्धा है. ऐसे बीसों पीर होंगे, जिनके मुरीदों की संख्या लाखों तक पहुंचती होगी. ये धर्माचार्य भला कब चाहने लगे कि अनुयायियों में शिक्षा प्रसार हो, उनकी निरक्षरता हटे? कल-कारखाने सिंध में उतने नहीं हैं कि लाखों खेतिहर सर्वहारा की लंबी कतार में खड़े होकर ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगायें. कांग्रेस का शंखनाद वहां देहातों में पहुंचते-पहुंचते इतना धीमा पड़ जाता है कि ग्रामीणों को सुनायी नहीं पड़ता.

नव-जागरण का संदेश वहां नागरिकों तक सीमित है. साधारण जनता अभी तक पीरों और गुरुओं के मुंह से जो दो-चार पद सुनती है, उन्हीं तक उनकी अभिज्ञता की इतिश्री समझिये.

(जारी) 

मिसाल देने में शायर से हो गयी है भूल - मेहदी हसन



खान साहेब मेहदी हसन के फ़िल्मी गीतों में से एक और नगीना. फिल्म है धूप छाँव -

Wednesday, June 27, 2012

चलती का नाम गाली उर्फ़ झोल ही महान है

फ़िल्म का ख़ासा इंतज़ार करवाया था मीडिया ने. और जाहिर है शुरुआती रिव्यूज में इसे अतिमानवीय कारनामा बतलाते हुए निर्देशक महोदय को भूत-वर्तमान-भविष्य में देख लेने वाला बताया जा रहा था. कुछेक अभिनेताओं के काम को कालातीत बताया गया. मैंने इस फ़िल्म का ट्रेलर कुछ दिन पहले देखा था. उसमें इस कदर बेशुमार गालियाँ थीं कि इंतज़ार करने की कोई ज़रूरत ही नहीं बची थी. पिछले कुछ सालों में हिन्दी पट्टीवासियों को अपनी फ़िल्मों में माँ-बहन की गालियाँ सुनने की उत्तेजना झेलने की आदत पड़ चुकी है. बैंडिट क्वीन के समय तक यह ख़ासा एडवेंचरस लगता था कि कोई निर्देशक अपने देश की किसी अभिनेत्री को नंगा दिखा दे या उसके मुंह से पुरुषों वाली एक गाली निकलवा ले. पर इधर ऐसी अति हुई है कि गालियों पर आधारित गाने ही किसी फ़िल्म को हिट करवा दे रहे हैं. सैक्स के नाम पर ऐसी जुगुप्सा फैलाई गयी है कि हम छोटे शहरों के बाशिंदों के मुंह से न आह निकल सके न वाह न कराह. और हिंसा के ऐसे हैबतनाक चेहरे ... उफ़! क्या हिटलर का दमन-राज वर्तमान से बेहतर था जिसे कैसे-कैसे बड़े निर्देशकों ने अपनी कालजयी फिल्मों में दिखाया है?

इस तरह की फ़िल्मों का इंतज़ार आदतन नहीं रहता पर जब-तब रात-बेरात अपनी पसंद की किसी फ़िल्म को एक दफा और देखने के उपरान्त मुझे चोर दरवाजों से झाँकने की आदत से निजात अब तक नहीं मिली है. एक मित्र अंगम शाएजा ने अपनी फेसबुक दीवार पर लिखा - sad, waylaid, populist, hijacked, stretched, mixed up, confused ... poor director. जवाब में मुम्बई से एक और दोस्त जीवन गर्ब्याल ने लिखा - Overrated Director, ... makes khichdi of Quentin/Martin and tries to serve in Indian thali.... totally depends on marketing hype...( Typical Hansraj College guy and he is...) ... gets his way thru Censor board in the name of Cinematic freedom...

इसके बाद जब कल अनिल यादव ने इस फ़िल्म का रिव्यू जैसा अपनी फेसबुक दीवार पर किया तो “गैंग्स ऑफ वासेपुर" पर लिखी उनकी टिप्पणी को यहाँ लगाने का लालच हुआ. 


बड़ी मुश्किल से खुद को “गैंग्स आफ वासेपुर” का रिव्यू लिखने से रोक पा रहा हूं. अब औचित्य नहीं है. अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं. सितारेदार प्री-पेड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है. वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है. कहानी की खामोश ताकत से अनजान निर्देशक गालियों और गोलियों पर ही गदगद है.

मैं यह फिल्म देखने लखनऊ की एक दीवार पर लाल-काले फ्रेम की एक ‘वाल राइटिंग’ से प्रेरित होकर गया था जिसमें कहा गया था सीक्वेल का ट्रेलर देखना न भूलें, सो फिल्म खत्म होने के बाद भी बैठा रहा. लेकिन हाल तेजी से खाली होता जा रहा था, बिल्कुल खाली हो गया, जो अपने आप में एक प्रामाणिक प्रतिक्रिया थी. मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलते हुए मैने पाया, सिर में कई ओर तेज ‘सेन्सेशन’ हो रहे हैं जो कुछ देर बाद दर्द के रूप में संगठित हो जाने वाले थे.

घर लौटकर मैं ध्यान में चला गया. जानना जरूरी था कि फिल्म की जैविक प्रतिक्रिया ऐसी नकारात्मक और तकलीफदेह क्यों है. फिल्म देखते हुए सांस कई बार उखड़ी थी, भीतर नए रसायन लीक हुए थे और दिमाग के कई हिस्से अनियंत्रित ढंग से उछल रहे थे. ऐसा उन आवाजों और कई दृश्यों के कारण था जो सीधे निर्मम जिन्दगी से अचानक आए थे. मसलन उस दाई की दयनीय आवाज जो नवजात सरदार खान को उसके बाप को सौंपते हुए एक सांस में कहती है- ...(मां का नाम भूल गया)...तो मू गई लेकिन बड़ा सुंदर लइका भयल है....कसाई टोले में लटकी भैंसों की ठठरियों के बीच एक आदमी का बोटियाया जाना जिसकी रान अधखुले दरवाजे से दिखाई दे रही है...रामाधीर सिंह का एक बच्चे को, उसी के बाप (जिसे अभी उसने कटवा दिया है) के खून का तिलक लगाते हुए कहना, तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े आदमी थे. बमों के धमाके बीच एक बूढ़े का ढोलक बजाकर कराहना- ए मोमिनों दीन पर ईमान लाओ...कुएं पर बंगालिन का एक एंद्रिक एंठन में अपना मुंह बालों में छिपा लेना...अपनी मां को एक गैरमर्द के साथ अधनंगे देख लेने के बाद बच्चे फजल का गुमसुम हो जाना...सरदार खान का एक आदमी को अनौपचारिक निस्संगता से गोद कर मारना जैसे कोई गेहूं के बोरे में परखी चलाता हो... ‘बिना परमिशन’ हाथ छू लेने पर प्रेमिका द्वारा स्नब किए जाने पर फजल खान जैसे चंट गंजेड़ी का रो पड़ना आदि.

यह सब स्मृति के स्पेस में छितरा हुआ अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहा था लेकिन उन्हें आपस में पिरोने वाला धागा गायब था. धांय धांय, गालियों, छिनारा, विहैवरियल डिटेल्स, लाइटिंग, एडिटिंग के उस पार देखने वालों को यह जरूर खटकेगा कि सरदार खान (लीड कैरेक्टर: मनोज बाजपेयी) की फिल्म में औकात क्या है. उसका दुश्मन रामाधीर सिंह कई कोयला खदानों का लीजहोल्डर है, बेटा विधायक है, खुद मंत्री है. सरदार खान का कुल तीन लोगों का गिरोह है. हत्या और संभोग उसके दो ही जुनून हैं. उसकी राजनीति, प्रशासन, जुडिशियरी, जेल में न कोई पैठ है न दिलचस्पी है. वह सभासद भी नहीं होना चाहता न अपने गैंग में से ही किसी को बनाना चाहता है. उसका कैरेक्टर बैलठ (मतिमंद) टाइप गुंडे से आगे नहीं विकसित हो पाया है जो यूपी बिहार में साल-सवा साल जिला हिलाते हैं फिर टपका दिए जाते हैं. होना तो यह चाहिए था कि रामाधीर सिंह उसे एक पुड़िया हिरोईन में गिरफ्तार कराता, फिर जिन्दगी भर जेल में सड़ाता. लेकिन यहां सरदार के बम, तमंचे और शिश्न के आगे सारा सिस्टम ही पनाह मांग गया है. यह बहुत बड़ा झोल है.

कहानी के साथ संगति न बैठने के कारण लगभग सारे गाने बेकार चले गए हैं. ‘बिहार के लाला’ सरदार खान के मरते वक्त बजता है. गोलियों से छलनी सरदार भ्रम, सदमे, प्रतिशोध और किसी तरह बच जाने की इच्छा के बीच मर रहा है. उस वक्त का जो म्यूजिक है वह बालगीतों सा मजाकिया है और गाने का भाव है कि बिहार के लाला नाच-गा कर लोगों का जी बहलाने के बाद अब विदा ले रहे हैं. इतने दार्शनिक भाव से एक अपराधी की मौत को देखने का जिगरा किसका है, अगर किसी का है तो वह पूरी फिल्म में कहीं दिखाई क्यों नहीं देता. ‘कह के लूंगा’ जैसे द्विअर्थी गाने की उपस्थिति इस बात का पुख्ता सबूत है कि अनुराग को माफिया जैसे पापुलर सब्जेक्ट के गुरुत्व और असर का अंदाजा कतई नहीं था. फ्लाप होने की असुरक्षा और एक दुर्निवार विकृत लालच के मारे निर्देशक फूहड़ गानों और संवादों से अच्छे सब्जेक्ट की संभावनाओं की हमेशा हत्या करते आए हैं. रचना के पब्लिक डोमेन में आने के बाद स्वतंत्र शक्ति बन जाने के नजरिए देखें तो शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं ‘कस के लेगी’ इसमें कोई दो राय नहीं है.

ध्यान में जरा और गहरे धंसने पर जब प्रतिक्रिया पैदा करने वाले सारे टुकड़े विलीन हो गए तो सांसें और उन्हें महसूस करती चेतना बचे रह गए. फिर भी खाली जगह में एक बड़ा सा क्यों कुलबुला रहा था. ऐसा निर्देशक जो कई बार कान्स हो आया है, देसी है, दर्शकों से जिसका सीधा संवाद है, जिसकी रचनात्मकता का डंका बजाया जा रहा है- वह ऐसी फिल्म क्यों बनाता है जो कोल माफिया पर है लेकिन उसमें खदान की जिन्दगी नहीं है. कोलियरी मजदूरों की बस्तियां भी नहीं है जिसका जिक्र पूरबिए अपने लोकगीतों में करते आए हैं. सीपिया टोन के दो फ्रेम और अखबारी कतरनों में उसे निपटा दिया गया जिसे समीक्षक गहन रिसर्च बता रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं है कि कई देशों के सिनेतीर्थों की मिट्टी लेकर भव्य मूरत तो गढ़ ली गई लेकिन भारतीय माफिया की आत्मा ने उसमें प्रवेश करने से इनकार कर दिया.

इस ‘क्यों’ पर ज्यादा दबाव के कारण स्मृति ने कहीं देखा हुआ एक कार्टून दिखाया जिसमें एक जड़ीला संपादक एक लेखिका से कह रहा है-“We loved all the words in your manuscript but we were wondering if you could maybe put them in a completely different order.”

कैसा संयोग... किसी और शहर में ठीक वही शो कथाकार और फिल्म समीक्षक दिनेश श्रीनेत भी देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उनका एसएमएस आया- “ हर बेहतर फिल्म निजी जिंदगियों की कहानी कहती है और इस तरह से विस्तार लेती है कि वह कहानी निजी न होकर सार्वभौमिक हो जाती है- कोई बड़ा सत्य उद्घाटित करती है (उदाहरण- रोमान पोलांस्की की पियानिस्ट, स्पाइडरमैन, बैटमैन सिरीज़ या फिर सलीम-जावेद की लिखी अमिताभ की फिल्में) यहां उल्टा है, इतिहास से चलती हुई कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक व्यक्ति की निजी जिंदगी के फंदे में झूल जाती है.”



सिंध में सत्रह महीने - २


(पिछली कड़ी से आगे)

दो.

सत्राह महीने तक सिंध से मेरा संपर्क रहा. हैदराबाद की सारस्वत ब्राह्मण पाठशाला में प्रधानाध्यापक पद पर कुछ दिन, और कुछ दिन सिंध की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मुख्य पत्रा ‘कौमी बोली’ के संपादक रूप में.

1941 की मर्दुमशुमारी के अनुसार सिंध प्रांत की जनसंख्या 45 लाख है, जिसमें 11 लाख हिंदू है. जनता की धार्मिक मनोवृत्ति सूफ़ी और नानकपंथी है. आठवीं सदी के शाहनमाह के अरबी लेख से पता चलता है कि उस समय वहां बौद्ध और ब्राह्मण दोनों ही संस्कृति के लोग रहते थे. सिंध पर अरबी आक्रमण मुहम्मद-बिन-कासिम द्वारा 692 ई. में हुआ. तब से इस भूमि में इस्लामी भावनाओं का प्राधान्य चला आ रहा है. मीरों, कलहारों और नवाबों की सामंतशाही से ऊबकर स्थानीय जनता राजपूताना, गुजरात और पंजाब में जा बसी और सिंधुनद के उपजाऊ इलाकों को आगंतुकों के लिए खाली कर गयी. उन्हें तलवार छोड़कर तराजू का सहारा लेना पड़ा. इसी से सिंध का नागरिक जीवन आज हिंदू-प्रधान हो गया.

गुरु नानक की संतवाणी यहां के हिंदुओं और दूसरे लोगों में काफ़ी लोकप्रिय है. सूफी संतों की परंपरा यहां ऐसी प्रबल रही है कि सभी सिंधी सूफ़ी धारणाओं से ओत-प्रोत हैं. किसी सिंधी हिंदू से आप मिलिये और पूछिये कि तुम क्या मानते हो, वह अवश्य गुरु नानक और शाह अब्दुल लतीफ़ के दो-चार पद सुना देगा. शाह अब्दुल लतीफ़ बहुत बड़े सूफ़ी कवि थे. सिंध में वह इतने लोकप्रिय हैं कि उन्हें वहां का तुलसीदास कहा जाता है. सिंधी मुसलमानों को बहुधा मैंने हिंदू मंदिर, वरुण चैत्य और गुरुद्वारों के सामने सिर झुकाते देखा है. हिंदुओं को पीरों की दरगाहों के समक्ष नतमस्तक पाया है. हिंदू हो या मुसलमान, सिंधी का हृदय प्रेम-मार्गी होता है. अठारहवीं सदी के मस्त फ़कीर सचल सरमस्त का यह दोहा कितना बढ़िया है –

 “आहि रूहु मुंही जो अरब जो ऐं खाकि हिंदूजी अहमद मिल्यों हुते त हिति श्याम मिल्यो अहि” (मेरी आत्मा अरब की है, तो शरीर हिंदू का; वहां अगर मुहम्मद मिले तो यहां श्याम मिले हैं.)

सांप्रदायिक दंगे सिंध में उतना उग्र रूप नहीं धारण करते, जैसा कि अन्य प्रांतों में. पीरों की दरगाहों पर होने वाले मेलों में मैं कई बार शामिल हुआ हूं. एकतारा पर पीरों के गुणगान करने वाले हिंदू भगतों को झूमते देखा है. मुल्तान कभी सिंध के अंतर्गत था. वर्तमान प्रांत-विभाजन के अनुसार मुल्तान कमिश्नरी पंजाब के अंदर है, परंतु औरतों की नाकों में पुखराजवाली नथ देखकर सहसा उनकी तुलना आप सिंधी महिलाओं से कर बैठेंगे. जल-पूजा मुल्तान में भी प्रचलित है. सिंध के महात्मा उडेरो (लाल) वरुण के अवतार माने गये हैं और वरुण असुर सभ्यता का उतना ही पूज्य देवता है, जितना कि इंद्र वैदिक सभ्यता का. असुर सभ्यता के अवशेष सिंध के मोहन-जोदड़ो और पंजाब के हड़प्पा में समान रूप से पाये गये हैं. तत्कालीन सभ्यता का यह चिद्द (जल-पूजन) भी मुल्तान के निकटवर्ती स्थानों तक प्रचलित है. और सिंध में तो जलपूजकों का एक संप्रदाय ही बन गया है, जिसे दरियापंथी कहते हैं.

(जारी)

तुम को क़सम महबूब मेरे, राह में छोड़ के जाना ना - मेहदी हसन


मेहदी हसन साहेब का गया एक फ़िल्मी गीत प्रस्तुत है. यह गीत फिल्म "टकराव" के लिए रेकॉर्ड किया गया था -

Tuesday, June 26, 2012

प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी जसम की श्रद्धांजलि


कल २५ जून को लखनऊ के सहारा अस्पताल में प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी का निधन हो गया.

साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद के खिलाफ जन-आन्दोलनों की एक सशक्त बौद्धिक आवाज़ हमारे बीच अचानक खामोश हो गयी. पिछले २३ मार्च को गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में प्रतिरोध के सिनेमा पर उनका उद्बोधन सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनकी अंतिम उपस्थिति के बतौर लोगों की स्मृति में दर्ज रह जाएगा.

२ नवम्बर, १९२९ को जन्मे प्रो. त्रिपाठी आजमगढ़ जनपद के मूल निवासी थे जहां शिबली कालेज से इंटरमीडियट तक की शिक्षा लेने के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद आए. इलाहाबाद में वे कम्यूनिस्ट पार्टी के भूतपूर्व महासचिव पी. सी. जोशी के संपर्क में आए और स्टूडेंट फेडरेशन की सदस्यता के रास्ते होते हुए भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य भी हो गए. राजनीति विज्ञान के मेधावी विद्यार्थी वे थे ही जिसके चलते उन्हें सन ५२-५४ में इलाहाबाद विश्विद्यालय में अध्यापन का अवसर मिला , लेकिन उस समय सरकार की कम्यूनिस्ट -विरोधी मुहीम के चलते विश्विद्यालय में उनकी नौकरी स्थायी नहीं हो सकी. कुछ ही दिनों बाद वे सी. एम्. पी. डिग्री कालेज में स्थायी प्रवक्ता नियुक्त हुए. १९५८ में गोरखपुर विश्विद्यालय खुला जहां वे राजनीति-विज्ञान विभाग में असिस्टंट प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए और सेवानिवृत्ति तक वे वहीं रहे.

गोरखपुर ही उनका स्थायी आवास और बौद्धिक कर्मभूमि बना. प्रो. त्रिपाठी न केवल राजनीतिक विचारों के इतिहास के अत्यंत लोकप्रिय शिक्षक थे , बल्कि छात्रों और बौद्धिकों के बीच सार्वजनिक जीवन में सकारात्मक हस्तक्षेप के रोल-माडल भी थे. वे यह मानते थे कि लोकतंत्र की हिफाज़त के लिए लगातार जनता के बुनियादी सवालों पर जन-आन्दोलन होते रहने चाहिए. गोरखपुर और पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ऐसे बहुतेरे आन्दोलनों में वे प्रत्यक्ष भागीदारी भी करते थे, चाहे वह बन-टांगिया मज़दूरों के विस्थापन का सवाल हो या पूरे अंचल में साम्प्रदायिकता के उफान का विरोध करने का मसला हो. लम्बे समय से पूरे अंचल में मानवाधिकार, लोकतंत्र, भ्रष्टाचार-विरोध, साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद- विरोध की कोई भी बौद्धिक पहलकदमी उनके बगैर शायद ही संपन्न होती रही हो. वे ऐसे हर आयोजन में अनिवार्य उपस्थिति थे. कम्युनिस्ट पार्टी की आतंरिक बहसों के कारण पार्टी सदस्यता छोड़ देने के बाद भी लगातार वामपक्षीय विचारों और जन-आन्दोलनों के साथ रहे. गांधी के लोक-संपर्क और जन-जागरण के भी वे कायल थे. दर्शन, राजनीति-शास्त्र और साहित्य के गंभीर अध्येता होने के साथ साथ वे तमाम समाज-विज्ञानों की नवीनतम शोधों के प्रति जागरूक विद्वान् थे. जीवन के आखिरी दिनों तक नौजवानों से उनकी दोस्ती, बहस-मुबाहिसे कभी ख़त्म नहीं हुए. एक सच्चे बौद्धिक की तरह वे खुले दिल-दिमाग के साथ ही आन्दोलनों और गोष्ठियों में शिरकत करते थे और अपनी बातें बगैर लाग-लपेट के लोगों के समक्ष रखते थे.
 
सन २००३ में जब योगी आदित्यनाथ की साम्प्रदायिक मुहीम के खिलाफ लोग बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, उन्होंने पीपुल्स फोरम जैसी संस्था के संस्थापक अध्यक्ष बनकर योगी और उनकी साम्प्रदायिक कार्रवाइयों का सार्वजनिक विरोध किया. पिछले दिनों अन्ना आन्दोलन के समर्थन में भारी जुलूस में वे 'वाकर' के सहारे चलते हुए शामिल हुए. ये उनकी दुर्घर्ष प्रतिबद्धता का ही प्रमाण था. लेकिन वे समर्थन भी आँख मूँद कर नहीं करते थे. अन्ना आन्दोलन का समर्थन करते हुए भी उन्होंने उसके कई तौर-तरीकों और विचार-दृष्टि की आलोचना सार्वजनिक तौर पर की. 

जन संस्कृति मंच की पहल पर प्रतिरोध के सिनेमा के फेस्टिवल की जो मुहीम गोरखपुर से चलकर अब कई राज्यों तक सार्थक सिनेमा की मुहीम के बतौर फ़ैल चुका है, उसके संरक्षक , प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक प्रो. त्रिपाठी शुरू से लेकर मृत्यु-पर्यंत बने रहे. बगैर किसी स्पांसरशिप के, जनता के सहयोग के भरोसे सिनेमा के ज़रिए प्रगतिशील मूल्यों के प्रचार के वे सूत्रधार रहे. साहित्य में प्रेमचंद और सिनेमा में चार्ली चैपलिन उनके आदर्श थे. पिछले एक दशक में उन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के कई कार्यक्रमों में शिरकत की.
आज जब वे नहीं हैं, तो उनकी कमी हमें बराबर खलेगी. इस विरले जनपक्षधर बुद्दिजीवी को जन संस्कृति मंच का सलाम. हम उनके परिजन, छात्र और ढेरों चाहने वालों के दुःख में शरीक हैं. वे हमें सदा याद रहेंगे.

( २६ जून, इलाहाबाद, प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच, द्वारा जारी)

सिंध में सत्रह महीने - १



बाबा नागार्जुन का यह संस्मरणात्मक यात्रावृत्त हुंकार में 23 एवं 30 दिसंबर 1945 को प्रकाशित हुआ  था.

एक.

गर्मी बेहद थी. ट्रेन में रेत उड़-उड़कर इतनी आ रही थी कि सभी आंख-मुंह ढके हुए थे. स्टेशनों पर पानी का मिलना असंभव था. कई जगह देखा, देहाती लोग पानी के लिए मिट्टी का बर्तन लेकर इंजन  की प्रतीक्षा में खड़े थे. पंजाब-सिंध सरहद के इस इलाक़े में पानी की इतनी कमी है कि लोगों को या तो शहर से पानी लाना होता है या रेलगाड़ी के ड्राइवरों की कृपा पर वे निर्भर रहते हैं. दो-तीन प्रकार के मरु-उम्दिदों के क्षितिजचुंबी जंगलों में सैकड़ों ऊंट चर रहे थे. बस ऊंट ही ऊंट और जानवरों का नाम तक नहीं. पथ और पगडंडियां जनशून्य थीं. सहयात्री एक मुसलमान फ़कीर था. पूछने पर जवाब मिला - "हूरों के उत्पात से छोटे-छोटे स्टेशन बंद हो गये हैं."

सुबह हम मुल्तान में गाड़ी पर चढ़े थे. समासहा जंक्शन तक तो पंजाबी वातावरण-सा रहा, उसके बाद हिंदुओं के परिधान में धोती के दर्शन होने लगे. तहमत और पाजामा पंजाब के साथ-साथ पीछे छूट गया. ट्रेन ज्यों-ज्यों सिंधु नद के कछार में आती गयी, त्यों-त्यों जंगल घना होता गया. यह जंगल  विराटकाय वनस्पतियों के नहीं थे, तो भी काफ़ी घने थे. रोहड़ी के पास उस महान सिंधु नदी की झांकी मिली कि जिसकी धारा में डूब लगाकर सिकंदर ने अपने देश-देवता जुपीटर को अर्घ्य दिये थे.

रोहड़ी सिंधु के किनारे अवस्थित एक प्राचीन नगर है. आजकल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे का जंक्शन होने के कारण उसकी प्रसिद्धि है. पर पहले बड़े-बड़े सूफ़ियों की लीला-भूमि के रूप में ही यह स्थान विख्यात था. अभी भी सूफ़ियों के दो-चार अखाड़े वहां मौजूद हैं. सिंधु के उस पार सक्खर जैसा प्रसिद्ध नगर है. बीच में साधुबेला जैसा प्रसिद्ध टापू पड़ता है. पास में इंजीनियरिंग का महान चमत्कार वह महासेतु है. पंजाब से आनेवाली गाड़ियां यहां काफ़ी देर ठहरती हैं, फिर क्वेटा या करांची की ओर जाती हैं. 

रोहड़ी स्टेशन पर उतरते ही ‘पल्ला’ मछली के तले हुए बड़े-बड़े टुकड़ों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. जन्मजात मत्स्य-लोलुपता पानी बनकर जीभ पर उतर आयी और मैंने अंदर-ही-अंदर अपने मैथिल पूर्वजों की स्वादवृत्ति को प्रणाम किया. तो क्या प्रणाम ही करके रह गया? नहीं, स्टेशन से बाहर निकलकर सराय  में ठहरा और गुरु नानक होटल में बैठकर इत्मीनान से भगवान के मत्स्यावतार की पूजा की. दूसरे दिन पुल पार करके सक्खर देखने गया. बाज़ारों में हिंदुओं को धोती ही पहने पाया. नौजवानों और बच्चों की बात छोड़ दीजिये. अभी कल सुबह तक मैं पंजाब में था, जहां धोती का पहनावा हिकारत  की निग़ाह से देखा जाता था. पाधा-पुरोहित, पूजा-पाठ, भोजन-भंडारा के समय धोती पहन लें, तो पहन  लें; वरना वे भी पंजाब का भद्र परिधान ही पहनते हैं. चुस्त पाजामा, अचकन या कोट और सिर पर साफ़ा. चादर हुई तो हुई. इस प्रकार पंजाब के दैनिक जीवन से धोती को हिंदुओं ने हटा दिया है. पंजाब ही क्यों, लखनऊ से हम यही हाल देखते आ रहे थे. सिंधु के किनारे-किनारे मीलों तक चली गयी है सक्खर बस्ती. ज़रा दूर हटकर नया सक्खर भी बस रहा है. उस दिन शायद पूर्णिमा थी. हज़ारों नागरिक सिंधुनद के दर्शन करने आये थे. दोने में कुंकुम और अक्षत डालकर दीप जलाकर उसे प्रवाह में छोड़ रहे थे. शत-सहस्र दीपिकाओं का वह समूह अरब सागर की ओर बहा जा रहा था. और मैं सिंधी जनता के श्रद्धा-निवेदन का वह मधुर प्रतीक देख-देखकर चित्र-लिखित-सा खड़ा था. एक वृद्ध सज्जन ने भावावेश  में पाकर मुझे छेड़ दिया - "कहां से आये महाराज?"

मैंने संक्षेप में बता दिया और पूछा - "नदी के किनारे इस प्रकार श्रद्धापूर्वक दीप बहाते तो मैंने कहीं नहीं देखा है, आपके देश में यह कौन-सी रीति है?"

वृद्ध सज्जन ने कहा - "हम सिंधी वरुण के उपासक हैं. जहां जायेंगे, आप इस देश में यही रीति पायेंगे."

उसी प्रसंग में उक्त सज्जन ने एक अनुष्टुप सुनाया-

"केचिदत्रा निराकाराः साकाराश्च तथाऽपरे.
वयं संसार संतप्ता नीराकारमुपास्महे."

अर्थात् - कुछ आदमी तो इस दुनिया में निराकार की उपासना करते हैं, कुछ साकार की; परंतु भव-ताप से संतप्त हम प्राणी निराकार यानी जलमय भगवान् की उपासना करते हैं.

मैं यह सुनकर दंग रह गया. आगे कई बार, कई जगह सिंध में इस प्रकार के दृश्य देखने को मिले. उन पर पृथक् ही एक लेख लिखा जा सकता है. प्रकारांतर वरुण की उपासना में यहां के मुसलमान भी भाग लेते हैं. सिंधुनद को ‘दरियाशाह’ जैसे महामान्य नाम से वे संबोधित करते हैं. उस दिन घूमघाम कर साधुबेला भी देख आया. उदासी साधुओं का बहुत बड़ा अखाड़ा है. पांच सौ बीघे का रकबा होगा. साधुओं का बगीचा ठहरा, हिंदुस्तान-भर से तरह-तरह के फलों की गुठलियां ला-लाकर यहां वे लगाते हैं. एक ही जगह आम, अमरूद, जामुन, कटहल, केला, लीची, संतरा, अंगूर, नासपाती, सेब, बेर आदि मैंने वहीं देखे.

(जारी)

मुझे खुद अपनी निगाहों पे ऐतमाद नहीं



बाबा मेहदी हसन की गई एक और गज़ल पेश है -

चराग-ए-तूर जलाओ  बड़ा अँधेरा है
ज़रा नकाब उठाओ  बड़ा अँधेरा है 

मुझे खुद अपनी निगाहों पे ऐतमाद नहीं
मेरे क़रीब न आओ बड़ा अँधेरा है

वो जिन  के होते हैं खुर्शीद आसमानों में
उन्हें कहीं से बुलाओ बड़ा अँधेरा है

अभी तो सुबह के माथे का रंग काला है
अभी फरेब न खाओ बड़ा अँधेरा है

Monday, June 25, 2012

लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं


मरहूम मेहदी हसन खान की गई मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल -

 

दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यों गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल?
इन्सान हूँ, प्याला-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं

या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं

हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं

(दायम - हमेशा, गर्दिश-ए-मुदाम - हमेशा की गर्दिश, लौह-ए-जहां - संसार का कागज़, हर्फ़-ए-मुक़र्रर - बार बार लिखी गयी इबारत, उक़ूबत - तकलीफ) 

Saturday, June 23, 2012

वो मेरी भूख को भी अब कुपोषण ही बताता है

ख्यात जनकवि बल्ली सिंह चीमा की एक नई गज़ल पेश है. इत्तेफाक है कि बल्ली भाई अभी हल्द्वानी में मेरे घर पर विराजमान हैं और  ये गज़ल उन्होंने बाकायदा डिक्टेट कर के लिखाई है. 


पराई कोठियों में रोज संगमरमर लगाता है
किसी फुटपाथ पर सोता है लेकिन घर बनाता है

लुटेरी इस व्यवस्था का मुझे पुरजा बताता है
वो संसाधन गिनाता है तो मुझको भी गिनाता है

बदलना चाहता है इस तरह शब्दों व अर्थों को
वो मेरी भूख को भी अब कुपोषण ही बताता है

यहाँ पर सब बराबर हैं ये दावा करने वाला ही
उसे ऊपर उठाता है मुझे नीचे गिराता है

मेरे आज़ाद भारत में जिसे स्कूल जाना था
वो बच्चा रेल के डिब्बों में अब झाड़ू लगाता है

तेरे नायक तो नायक बन नहीं सकते कभी 'बल्ली'
कोई रिक्शा चलाता है तो कोई हल चलाता है



पुनश्च - इस गज़ल का अंग्रेज़ी अनुवाद  हाल के दिनों में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के एक अंक के लिए किया गया है. उसे भी यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. अनुवाद निशा थपलियाल, विकास गुप्ता और यमल गुप्ता का है.

Lays marble in strangers houses
Makes houses but sleeps on the footpath
He counts me as a tool of this predatory system;
He counts me only when he counts the resource.
He who claims that everyone is equal;
Pulls me down and elevates others.
He plays with words and meanings;
My hunger is only malnutrition to him now.
In my free India who was supposed to go to school;
That child now sweeps the floor in trains.
Your heroes will never be called heroes, Balli!
Some pull rickshaws and some heave ploughs.

Thursday, June 21, 2012

ग़ज़ल-गायकी के मीर को जसम का सलाम



ग़ज़ल-गायकी के मीर

(मेहदी हसन साहेब को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि )

प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच की और से जारी  

१८ जुलाई १९२७ को राजस्थान के झुंझनू जिले के लूणा गाँव में मेहदी हसन पैदा हुए. मेहदी साहब का बचपन तंगहाली में गुजरा पर संगीत के मामलेमें वे शुरू से ही धनी रहे. उनके परिवार की पन्द्रह पीढियां संगीत से जुडी थीं. संगीत की शुरुआती तालीम उन्होंने अपने पिता उस्ताद अजीम खान औरचाचा उस्ताद इस्माइल खान से ली. दोनों बढ़िया ध्रुपदिये थे. बंटवारे की टीस उन्हें हमेशा ही सालती रही. अपनी जमीन से विस्थापित मेहदी साहब का परिवार पाकिस्तान चला गया. पाकिस्तान जाने के बाद जिंदगी चलाने के लिए उन्हें काफी मेहनत मशक्कत करनी पड़ी. पर जिंदगी चलती रही.

१९५७ से १९९९ तक गज़ल के इस महान फनकार ने ग़ज़ल-गायकी के प्रतिमान स्थापित किए और हमारे उप-महाद्वीप में विकसित इस महान साहित्यिक विधा को लोकप्रियता के चरम तक पहुंचाया. उन्होंने सार्वजनिक स्तर पे पिछले १२ सालों से गाना छोड़ दिया था. उनका आख़िरी अल्बम २०१० में 'सरहदें' नाम से आया था. यह लता मंगेशकर के साथ उनका युगल एल्बम था. ८४ बरस की उमर में पिछले १३ जून को उनका निधन हो गया. इस महान कलाकार को जसम की श्रद्धांजलि !

मरुभूमि में बहुधा बहुत चटख रंग के फूल खिलते हैं. मेहंदी साहब की गायकी भी ऐसी ही थी. जब वे बात करते थे, तो एक शाइस्ता राजस्थानी आदमी का बोल -चाल का लहज़ा दिखता था. पाकिस्तान में बसने के छः दशक बाद भी पंजाबी के वर्चस्व ने उनके व्यक्तित्व के किसी भी हिस्से को प्रभावित नहीं किया था. न तलफ्फुज को, न लहजे को और न वेश-भूषा को ही. रहते भी वे कराची में थे, जहां आम-तौर पर मुहाजिर रहते आए हैं. ध्रुपदिये पुरखों के साथ-साथ मरुभूमि के विराट विस्तार में फैलता 'पधारो म्हारे देस' में मांड का दुर्निवार स्वर उन्हें बार बार अपनी जन्मभूमि की और खींचता था. क्लासकीय के साथ-साथ लोक की राग-रागिनियां भी उनकी गायकी के अहसास में शामिल रहीं.

मेहदी हसन ने जिस दौर में गाना शुरू किया, वह १९५० का दशक उस्ताद बरकत अली, बेगम अख्तर और मुख्तार बेगम जैसों का था. गज़ल गायकी के इन धुरंधरों के सामने अपनी जगह बना पाना काफी मुश्किल था. पर मेहदी साहब के पास कुछ और था, ध्रुपद की तालीम और ग़ज़लों का बेशकीमती खजाना. यह थोड़ा मुश्किल जोड़ था. ध्रुपद की बंदिशों से एकदम अलग गज़लें ख्याल की बंदिशों के रूप में इस्तेमाल होती रही है. मेहदी साहब ने अपनी ध्रुपद विरासत के आधार पर गज़ल गायकी की नयी आवाज़ विकसित की. बेगम साहिबा गज़ल की उस परम्परा से आती थीं, जो मुग़ल दरबार और दीगर रियासती दरबारों से निकली-बढ़ी थी. वे गज़ल की ख्याल गायकी के शीर्ष का प्रतिनिधित्व करती थीं. मेहदी साहब कहा करते थे कि जिस गज़ल को बेगम साहिबा ने छू लिया, उसे गाने का कोई मतलब नहीं. उनके प्रिय शायर मीर थे. मीर की शायरी जैसी ही क्लासिकीयता उनके गायन में भी आपको मिलेगी. मीर की ही तरह मेहदी हसन ने लोकप्रिय और शास्त्रीय के बीच की दीवार गिरा दी. वे खासपसंद भी हैं और आमपसंद भी. फिल्मों के लिए उनकीगाई गयी ढेरों गज़लें इसका सबूत हैं.

जब शायरी और गायकी की दो विधाएं मिलती हैं, तो एक अद्भुत कीमियागरी होती है. लिखी गयी ग़ज़लों को पढ़ना हमेशा ही उनके अर्थ को महदूद कर देता है. रिवायती ऐतबार से ग़ज़ल 'कही' जाती है, उसका सम्बन्ध ''वाचिक' से रहा, भले ही मुद्रण के साथ वो छपे अक्षरों में भी अपने जलवे बिखेरती रही. मेहदी हसन ने मौसीकी के ज़रिए सुनने वालों को अहसास कराया कि उसके कहे जाने में क्या जादू रहा होगा और है. वे शर्तिया ग़ज़ल का काव्यशास्त्र जानते थे, उसकी तालीम उनकी भले ही औपचारिक न रही हो. अकेले वे ही थे जो गाते वक्त ये विवेक रख सकते थे कि अगर किसी ग़ज़ल के भाव संश्लिष्ट हैं , तो उसका मुख्य भाव क्या है और कौन से भाव अंडरटोन में हैं. जब मीर की ग़ज़ल 'आ के सज्जादा-नशीं कैस हुआ मेरे बाद' हम मेहदी साहेब से सुनते हैं, तभी ये समझ में ज़्यादा आता है कि इश्क के विषाद से भी ज़्यादा इस ग़ज़ल में इश्क के मैदान में 'मीर' होने का भाव अव्वल है .'खुदी' को बुलंद करना अहम है. मेहदी साहब की अदायगी में 'इश्क के मैदान में बादशाहत ' की मीर की दावेदारी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति पाती है.

ग़ज़लों को सुनना श्रोता को गायन के सहारे अर्थ की और गहरी और विस्तृत दुनिया तक ले जाता है. सलीम कौसर की एक गज़ल 'मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है/ सरे आइना मेरा अक्स है पसे आइना कोई और है' को मेहदी हसन ने भैरवी ठाठ में गाया है. जब मेहदी साहब इसे अदा करते हैं तो बेहद सीधी-सादी दिखने वाली गज़ल इंसान के ऐतिहासिक संघर्षों का बयान बन जाती है. मानवीय संघर्षों के बावजूद हकीकतें 'मेरा जुर्म तो कोई और था, ये मेरी सज़ा कोई और है' की हैं. मेहदी साहब ने इस गज़ल को अदा करने के लिए उदास भाव वाला भैरवी ठाठ चुना जो कि पूरी गज़ल कीअदायगी में साफ़ है. पर एक बड़े गायक की तरह वे इस भैरवी ठाठ की उदासी को अकेला नहीं छोडते. मक्ते के शेर 'जो मेरी रियाजाते नीम शब् को सलीम सुबहो न मिल सके' में आयी सुबह को वे सुबह के राग में गाते हैं. शास्त्रीय संगीत के ठेठ बन्धो-उपबंधों के लिहाज से यह भले ही ठीक न हो, पर सुनने वाला इस उदास गज़ल के भीतर एक सुबह का तसव्वुर कर लेता है. परवीन शाकिर की गज़ल 'कू ब कू फ़ैल गयी बात शनासाई की' (दरबारी) भी इसी तरहकी एक गज़ल है जिसे मेहदी साहब ने अद्भुत स्वर और अर्थ दिए. 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ' (कल्याण) जैसी गज़ल की अपनी अदायगीसे उन्होंने उसके रूमानी और राजनैतिक दोनों अर्थों को बखूबी खोल दिया.  ग़ज़ल की अदायगी में किस राग का आधार लेना है, इसे मेहदी साहब ग़ज़ल के मानी के तर्क से चुनते थे. वे बता सकते थे कि 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन' को राग काफी में या ' ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ' को भीमपलासी में या ,'कोंपलें फिर फूट आईं ' को मेघ में, 'एक बस तू ही नहीं' को मियाँ की मल्हार में या 'शोला था जल बुझा हूँ' को किरवानी में गाना उन्हेंक्यों ठीक लगा. कभी-कभी इंटरव्यू में वे बताते भी थे.

उन्होंने हज़ारों सालों से प्रचलित राग-रागिनियों मालकौस , दरबारी, यमन, भैरवी , मल्हार आदि का निचोड़ लेकर ग़ज़ल के शब्दों की ढेरों अर्थ-छवियों की अदायगी जिस तौर पर की , वैसा पहले कभी न हो पाया था. ये हुनर उन्हें इस कदर सिद्ध था की कई दफा बगैर कम्पोजीशन पहले से बनाए वे सिर्फराग सोच लेते थे और गाते हुए तर्ज़ आप से आप बनती जाती थी.

उन्होंने माजी के महान शायरों मीर, ग़ालिब से लेकर अपने समकालीनों फैज़, फ़राज़, शहजाद और परवीन शाकिर तक को गाया, लेकिन मिजाज़ और तबीयत के लिहाज से उनका जैसा रिश्ता मीर से बना वैसा शायद ही किसी और से. लोगों का ख्याल है की ग़ालिब में वे वैसा नहीं रम पाए, लेकिन इसका क्या कीजिएगा कि ग़ालिब की एक ग़ज़ल 'अर्जे-नियाज़ इश्क के काबिल नहीं रहा, जिस दिल पे नाज़ था, वो दिल नहीं रहा' बहुतों ने गाई, लेकिन उसग़ज़ल के भाव के साथ न्याय सिर्फ मेहंदी कर पाए.

फैज़ साहब ने जब ग़ज़ल कहने की एक अलग राह निकाली तो मेहदी साहेब की गायकी ने ही उसकी विशेषता को सबसे पहले पकड़ा. ये अकारण नहीं कि जिस ग़ज़ल से सबसे पहले मेहंदी साहेब को मकबूलियत हासिल हुयी वह 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले' थी. फ़राज़ की अलग तेवर की रूमानी गज़लों की ख्याति के पीछे मेहंदी साहेब की अदायगी की भी करामात ज़रूर थी.

मेहदी साहब का आख़िरी वक्त तंगहाली में गुजरा. उनका बेहतरीन इलाज नहीं हुआ. भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों मुल्कों की सरकारों को इस पर शर्म आनी चाहिए. उनका भारत में इलाज के लिए आना जैसा मुद्दा बनाया गया, वह अफसोसनाक था. नेता-उद्योगपति और धनियों-मानियों केलिए यह सीमा कभी रोक नहीं बनी पर कलाकार के लिए वीजा-पासपोर्ट के अनंत झंझट थे. तीनों मुल्कों को अपनी आवाज़ के धागे से गूंथता यह फनकार आज हमारे बीच नहीं है पर उसकी आवाज अभी भी इन मुल्कों के आम-अवाम के दिलो-दिमाग में गूँज रही है.

मेहंदी साहेब को सुननेवालों की ज़िंदगी में वे शामिल थे. वे सुनने वाले तमाम लोग राग-रागिनियों की बारीकियां भले न जानते हों, लेकिन हर सुनने वाले के पास मेहदी साहेब के सुरों के संस्मरण हैं. मेहदी साहेब की गायकी उनके दुखों, उनकी खुशी, उनके संघर्षों में साथ निभाती है, सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, ज़िंदगी की तमीज विकसित करने में सहयोग करती है. कोई भी कला इससे ज़्यादा और क्या कर सकती है?

पाकिस्तान के निजाम ने भले ही उन्हें कितने ही तमगों से नवाज़ा हो, उन्होंने व्यवस्था-विरोधी शायरों को गाना कभी बंद नहीं किया. सामंती-फ़ौजी-धार्मिक- पूंजीवादी हुकूमतें जिन जज्बातों को प्रतिबंधित करना अपना फ़र्ज़ समझती हैं, मेहदी उन्ही जज्बातों के अनोखे अदाकार थे.उनकी सुरीली ज़िंदगी इस बात की गवाह है की नागरिकता (जो की किसी राष्ट्र की होती है) सभ्यता की स्थानापन्न नहीं होती.

Wednesday, June 20, 2012

अनिल यादव की फेसबुक दीवार से


कबीर के छूते ही भाषा की लचक और मार दोनों बढ़ जाती है, तोपें झेंपने लगती हैं-


ऐसा लोग न देखा भाई, भूला फिरै लिए गफिलाई।
महादेव को पंथ चलावै, ऐसो बड़ो महंत कहावे।
हाट बजारे लावै तारी, कच्चे सिद्ध न माया प्यारी।
कब दत्ते मावासी तोरी, कब सुखदेव तोपची जोरी।
नारद कब बंदूक चलाया, व्यासदेव कब बंब बजाया।
करहि लराई मतिकै मंदा, ई अतीत की तरकस बंदा।
भए बिरक्त लोभ मन ठाना, सोना पहिरि लजावै बाना।

Tuesday, June 19, 2012

बहुत बड़ा लाल सूरज कितना धीरे-धीरे डूबता

सूर्यास्त


-  आलोक  धन्वा 

बहुत देर तक सूर्यास्त
लंबी गोधूलि
देर शाम होने तक गोधूलि

एक प्राचीन देश का सुदूर
झुकता हुआ
प्रशांत अंतरिक्ष
मैं बहुत करीब तक जाता हूं

एक महाजाति की स्मृति
मैं बार-बार वापस आऊंगा
दुनिया में मेरे काम
अधूरे पड़े हैं
जैसा कि समय है
कितनी तरह से हमें
निस्संग किया जा रहा है

बहुत बड़ा लाल सूरज
कितना धीरे-धीरे डूबता
विशाल पक्षियों के दुर्लभ
नीड़ उस ओर!

Monday, June 18, 2012

वह जो छुप-छुप कर एकांत ढूंढने के लिए छुपना

बचपन

-आलोक  धन्वा 

क्या किसी को पता है
कि कौन-सा बचपन
सिर्फ उसका बचपन है
उतने बच्चों के साथ
मैं भी एक बच्चा

क्या किसी को पता है
कि बचपन की बेला बीत गई
वे जो पीले नींबू के रंग के सूर्यास्त
जो नानी को याद करो
तो मामी भी वहीं बैठी मिलेगी
और दोनों के
नकबेसर का रंग भी पीला

जो गली से बाहर निकलो
तो खेत ही खेत
किसी में छुपा लेने वाली फसल
कहीं खाली ही खाली

अगर बाएं हाथ की पगडंडियां
दौड़ लो तो
जैतूनी रंग का तालाब
और तालाब के घाट की सीढ़ियां
उतरते  हुए यह महसूस होता
कि खेत ऊंचाई पर हैं
और तालाब का पानी
छूने के लिए आना पड़ता नीचे
बचपन की प्रतिध्वनियां
आती रहीं हर उम्र में
आती रहती हैं

किशोर उम्र की वासनाएं भी
शरीर में कैसी अनुगूंज
बारिश के बुलबुले
और लड़कियों की चमकती आंखें

वह जो छुप-छुप कर
एकांत ढूंढने के लिए छुपना
वह जो एकांत में बनी गरमाहट

हम किशोरों को
उन किशोरियों ने सिखाया
कि खाने-पीने और
लिखने-पढ़ने से अलग भी
एक नैसर्गिक सुख है
जो आजीवन भटकाएगा

उन दिनों दिन हमेशा छोटे
और रातें तो और भी छोटी
पेड़ों के बीच
हमारी पाठशाला
पढ़ने के लिए हमें
बुलाती
कभी हम वहां सिर्फ
खेलने के लिए भी जाते
उसके पास जो
मैदान था
याद करने पर आज भी
बिना कोशिश के याद आता है।

Sunday, June 17, 2012

आखिर मैं क्या कर पाऊंगा उनके बिना?

युवा भारत का स्वागत

- आलोक  धन्वा 

युवा नागरिकों से
भारत का अहसास
ज्यादा होता है

जिस ओर भी उठती है
मेरी निगाह
सड़कें, रेलें, बसें,
चायखाने और फुटपाथ
लड़के और लड़कियों से
भरे हुए
वे बातें करते रहते हैं
कई भाषाओं में बोलते हैं
कई तरह के संवाद

मैं सुनता हूं
मैं देखता हूं देर तक
घर से बाहर निकलने पर
पहले से अधिक अच्छा
लगता है

कितना लंबा गलियारा है
क्रूरताओं का
जिसे पार करते हुए ये युवा
पहुंच रहे हैं पढ़ाई-लिखाई के बीच

दाखिले के लिए लंबी कतारें लगी हैं
विश्वविद्यालयों में

यह कोई साधारण बात नहीं है
आज के समय में
वे जीवन को जारी रख रहे हैं
एक असंभव होते जा रहे
गणराज्य के विचार
उनसे विचलित हैं

उनकी सड़कें दुनिया भर में
घूमती हैं
वे कहीं भी बसने के लिए
तैयार हैं

यह सिर्फ लालच नहीं है
और न उन्माद
आप पुस्तकालयों में जाइए
और देखिए
इतनी भीड़ युवा पाठकों की

वहां कला होती थी
मैं डालता हूं उनकी भीड़ में
अपने को
मुझे उनसे बार-बार घिर जाना
राहत देता है

आखिर मैं क्या कर
पाऊंगा उनके बिना?