Sunday, February 26, 2017

रीपोस्ट - प्रशान्त चक्रबर्ती की कवितायेँ - 1


ऋण

मेरी आत्मा पर के अपमान
चाबुक बरसाते हैं मेरी धारीदार पेशियों पर
न चुकाए गए तमाम ऋण
विस्मृति के कारनामे
पीड़ा का उत्सव हैं एक
बोध के सुदूर छोर पर
हमारी निरावृत्त इन्द्रियाँ बदल जाती हैं लुगदी में
बराबर भरपाई होती है
हमारी सारी
एन्द्रिक परेशानियों की
औपचारिकता की 

Credit

Indignities on my soul
Lashings on my striated muscles
All unpaid debts
Acts of forgetfulness
Are a festival of pain
On the far side of senses
Our exposed organs turn into pulp
All solemnity
Of our erotic trouble
Are recompensed equitably

Saturday, February 25, 2017

मतलब कुछ तो ये बन्दा खुदा से ज़रूर लेकर आया था - वेदप्रकाश शर्मा के बहाने

हाल ही में दिवंगत हुए वेदप्रकाश शर्मा पर यह लेख मेरे आग्रह पर ऋषि उपाध्याय ने कुछ दिन पहले भेजा था. व्यस्तताओं के चलते इसे यहाँ नहीं लगा सका. ऋषि की कविताओं पर एक पोस्ट जनवरी 2015 में कबाड़खाने पर पोस्ट की गयी थी. उनका परिचय जानने के लिए इस पोस्ट पर जाया जा सकता है - बहोत काम पड़ा है आर. डी. : ऋषि उपाध्याय से मिलिए 




बात बरसों पुरानी है,मेरे बचपन की. हमारे दादाभाई याने कपिल भैया ने अपनी  बुक स्टाल के लिए कहीं से एक बोरा भर के पुराने उपन्यास खरीद लिए. दादा भाई की नासमझी और बकौल ताऊ जी पैसे को आग लगाने वाले इस कृत्य से घर में अजीब मातम पसर गया. बगैर खाना खाये ताऊ जी का घर से जाना और देर शाम वापस लौटना और हम बच्चों का रजाई में दुबके ही अंदाज़ा लगाना चलता रहा की अब दादा भाई का क्या होगा. फिर दादाभाई ने हिम्मत जुटा कर जब ताऊजी से ये कहा की ये सब नॉवेल पुराने हैं मगर ज़्यादातर उपन्यास वेदप्रकाश शर्मा के हैं. रजाई में दुबके हमें ताऊजी की हूँ ...  सुनाई दी और सुनाई दिया अगला वाक्य - चलो कम से काम इतना दिमाग तो लगाया की वेद प्रकाश के उपन्यास लाया...

उस रात ये ज्ञान मिला की ये वेदप्रकाश साहब जो आज दादाभाई के लिए संकटमोचन बन गए थे कोइ बड़े सेलेब्रिटी हैं. और वाकई कुछ और बड़ा होने पर उनका सेलेब्रिटित्व ,चोरी छुपे पढ़े गए कुछ उपन्यासों में साबित हो गया.

तो यूँ समझिये ये लुगदी साहित्यकार दशकों तक शहरों से छोटे-छोटे गांव तक दादाभाई जैसे कई लोगों के बुक स्टाल हिट करवाने में योगदान करते रहे साथ ही तकरीबन दो-तीन पीढ़ियों को ये काग़ज़ी चरस परोसते रहे.

आज उनके जाने पे उनके साहित्य पे कोई सम्मान जनक भाषण लिखने का कारण नहीं बनता पर हकीकत ये है की प्रेमचंद और रेणु को आउट डेटेड मान चुकी हमारी पीढ़ी के हाथ में किताबें बचाये रखने का क्रेडिट शर्मा जी दिया जा चाहिए.

भाईसाब, हमने अपने कस्बों में होटलों पर और चाय की टपरियों में नशेड़ियों के जानिब दिनभर नॉवेल चाटते तकरीबन हर उम्र के लोग देखे हैं. शायद आज भी हम इतना वक़्त अपने सबसे बुरे अडिक्शन-सेलफोन को ना देते होंगे वैसे वाली दीवानगी हुआ करती थी उनके नॉवेल्स की उस दौर में. मतलब कुछ तो ये बन्दा खुदा से ज़रूर लेकर आया था.


आठ लाइन की एक कविता फेसबुक पे पोस्ट करने के बाद हम हांफने लगते हैं ये गुरु १७३ उपन्यास लिखा गए जिसमे कई बेस्ट सेलर और कुछ तो करोड़ों प्रतियों में बिकने वाले। स्वीकार कर लीजिये की हमारी पूरी जनरेशन अपने साहित्यिक रुचियों के अधोपतन में कुछ चटपटा ढूंढ रही थी और शर्मा जी ने अपनी चाट परोस दी और ऐसे परोसी की वो दशकों तक चटकारे देती रही और  ही नहीं प्रेमचंद और रेणू तम्बाकू के गुटके की पुड़िया में लिपट गए और शर्मा जी हमारे दादाभाई के उद्धारक बन गए.

आप बेशक उन्हें ये कह के गरिया सकते हैं की किताबें तो मस्तराम की भी बिकी हैं उन्हें भी साहित्य रत्न नवाज़ा जाए? पर जिस तरह ध्रुपद गायन के गायन के दौर में दादरा, टप्पा ख़याल और ठुमरी को हेय संगीत माना जाता था और आज यही सब शास्त्रीय परम्परा के अभिन्न अंग हैं उसी तरह कौन जाने आने वाली कोई जमात शर्मा जी के १७३ नगों को हिंदी साहित्य की धरोहर घोषित कर दे.


अंत में बस इतना ही  कि हज़ारों परिवर्तनों और भाषाई, सांस्कृतिक और वैचारिक घालमेल से समृद्ध हमारी भाषा को आने वाले कई परिवर्तनों के लिए तैयार रहने की चेतावनी देते हुए वेदप्रकाश शर्मा जी को नमन करें.

Wednesday, February 22, 2017

कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा के चित्र - 6







कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा के चित्र - 5








कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा के चित्र - 4








कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा के चित्र - 3








कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा के चित्र - 2








कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा के चित्र - 1

1968 में जन्मी कज्जाक चित्रकार एलेना फिलातोवा ने साइबेरिया के ओम्स्क और फिर मॉस्को में कला और संगीत का अध्ययन किया और चाबारोव्स्क (एशिया) और पोर्टलैंड (अमेरिका) में ग्राफिक डिज़ाईनर के रूप में नौकरी की. वे 1995 से जर्मनी में रह रही हैं. वे तमाम कला माध्यमों के साथ काम करती रही हैं.