Sunday, June 30, 2013

आइये इस ज़रूरी प्रपत्र पर हस्ताक्षर करें

यह वक्तव्य मुझ तक नैनीताल समाचार की तरफ़ से भेजी गयी एक मेल की मार्फ़त मिला है.

जस का तस

...

देहरादून में वैज्ञानिक डा. रवि चोपड़ा, वयोवृद्ध पर्यावरणविद और टिहरी बाँध आन्दोलन के योद्धा रहे एन.डी. जयाल, उत्तराखंड आर.टी. आई. क्लब के अध्यक्ष बी.पी.मैठाणी आदि अनेक मित्रों के साथ मिलकर हमने यह वक्तव्य इस तरह बनाया कि इसमें उत्तराखंड के हर हितैषी की सहमति मिल जाये. मुद्दे बुनियादी हैं और भाषा एकदम शिष्ट. हम चाहते हैं कि उत्तराखंड के हर आम और ख़ास व्यक्ति की ही नहीं, उत्तराखंड के बाहर के हमारे शुभचिंतकों की भी इसमें सहमति मिल जाये. हज़ारों लोग जब इस वक्तव्य को लेकर अपनी एकजुटता दिखायेंगे तो शायद उत्तराखंड की सरकार हमारी आवाज़ दबाने में कामयाब नहीं होगी, विकास का यह विनाशकारी मॉडल टूटेगा और इस त्रासदी की पुनरावृत्ति नहीं होगी. हम चाहते हैं कि आप अकेले नहीं, बल्कि सभी मित्र-परिचितों के साथ इस पर सहमति व्यक्त करें, अपने हस्ताक्षर करें...

‘‘पिछले दिनों की अतिवृष्टि के बारे में मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि बंगाल की खाड़ी से गर्म हवा पश्चिम की ओर तथा कश्मीर से ठंडी हवा पूर्व की ओर आने और उनका टकराव उत्तराखंड के निकट होने से उत्तराखंड में कम दबाव का क्षेत्र बना और अरब सागर से नम हवाओं का खिंचाव इस दिशा में हुआ. इन नम हवाओं के हिमालयी श्रृंखलाओं से टकराने से सम्पूर्ण उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में अतिवृष्टि हुई. अकेले नैनीताल में तीन दिनों में 1116 मिमी. वर्षा हुई जो नैनीताल की वार्षिक औसत वर्षा के 40 प्रतिशत से अधिक है. देहरादून में वर्षा का 88 साल का रिकार्ड टूट गया.

‘‘पिछले दो दशकों से वैश्विक स्तर पर किये गये अध्ययनों का निष्कर्ष है कि ग्लोबल वार्मिंगके कारण इस तरह की मौसम सम्बंधी चरम घटनाओं की आकस्मिता तथा आवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है. उदाहरण के लिये उत्तराखंड में ही वर्ष 2012 में उत्तरकाशी तथा उखीमठ तथा वर्ष 2010 में अल्मोड़ा जिले की बादल फटने की घटनाओं का जिक्र किया जा सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड में मोटरवाहन जनित प्रदूषण तथा सड़कों व बाँधों के निर्माण से उत्पन्न धूल के कणों से ऐसी अतिवृष्टि की संभावना बढ़ती है.

‘‘16-17 जून की अतिवृष्टि के कारण उत्तराखंड की छोटी-बड़ी नदियों में कई जगहों पर बाढ़ आई. चार धाम क्षेत्र में हुई भयंकर तबाही की खबरें लगभग पूरी तरह जगजाहिर हो गई हैं. किन्तु शेष प्रदेश, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, में हुई तबाही के समाचार बहुत धीरे-धीरे आ रहे हैं और पूरी तस्वीर साफ होने में अभी काफी समय लगेगा. इस आपदा में जहाँ चार धाम में आये देश भर के हजारों श्रद्धालुओं ने अपने प्राण गँवाये, वहीं तीर्थ यात्रा के व्यवसाय से जुड़े हजारों परिवारों के कमाने वाले पुरुषों के मारे जाने की भी आशंका है. मंदाकिनी घाटी के 46 गाँवों के डेढ़ हजार से अधिक पुरुष अभी तक अपने घरों को नहीं लौटे हैं. प्रदेश भर में उफनाई हुई नदियों ने अपने रास्ते में अवरोध बनने वाले पहाड़ी गाँवों, कस्बों, मवेशियों, खेतों, गूलों, पेयजल योजनाओं, पुलों, निर्माणाधीन बाँधों, मोटर वाहनों, होटल-रिजॉर्टों को नष्ट कर दिया. नदियों पर हुआ हर तरह का अतिक्रमण नदियों की चपेट में आया.

‘‘इस आपदा ने उत्तराखंड में आपदा प्रबन्धन तंत्र की पूर्व तैयारियों तथा प्रबन्धन की पोल खोल कर रख दी. दो दिन तक सदमे में पड़ी सरकार जब हरकत में आयी भी तो उसका ध्यान केवल चार धाम यात्रियों पर केन्द्रित रहा. यहाँ भी जो जानें बचाई जा सकीं, वह सेना तथा अर्द्धसैनिक बलों के कारण. अन्य क्षेत्रों में राहत की बात तो दूर रही, क्षति का आँकलन भी अभी तक नहीं हो सका है. देश भर से राहत के लिये आये स्वयंसेवी संगठनों को दिशा निर्देश देने वाला भी अभी कोई नहीं है. बेहिसाब राहत सामग्री यहाँ-वहाँ बेकार पड़ी बर्बाद हो रही है.

‘‘एक अतिवृष्टि किस तरह इतनी बड़ी मानवीय आपदा बन गई, इसके लिये हमें विकास के मौजूदा सोच का समझना पड़ेगा. उपभोक्तावादी मानसिकता और बाजारवाद प्रकृति के साथ लगातार छेड़खानी कर ऐसी घटनाओं को जन्म देते हैं. इसलिये उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौर में ही यहाँ की जनता ने इस तरह के विकास को खारिज कर जल, जंगल और जमीन पर अपना अधिकार माँगा था. तब यह आशा की गई थी कि नंगी पहाड़ी ढलानों पर हरियाली होगी. इन्ही जंगलों से यहां के निवासियों की ईंधन, चारा और पानी की जरूरतें पूरी होंगी, पुरुषों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलने से पलायन रुकेगा और खुशहाली बढ़ेगी. जलागम प्रबन्धन से सूखी नदियों में पानी आयेगा. शराब के आतंक से मुक्ति मिलेगी.

‘‘मगर उत्तराखंड के 13 वर्षों के जीवन में यहाँ के पहाड़ों के चरित्र और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की अवहेलना करते हुए यहाँ की सरकारों ने प्राकृतिक संसाधनों से पैसा कमाने को ही विकास का एकमात्र लक्ष्य बनाया. इसके लिये कमजोर पहाडि़यों पर भी बिना सोचे समझे सड़को, बाँधों, सुरंगों, पुलों एवं होटल- रिजॉर्टों का निर्माण किया गया. इससे जो पैसा उत्पन्न हुआ वह तो कुछ ही हाथों तक पहुँचा, लेकिन प्रकृति से छेड़छाड़ से हुई आपदाओं की मार व्यापक पर्वतीय समाज को झेलनी पड़ी.

‘‘इस वक्त जबकि सारा देश उत्तराखंड के कष्टों को महसूस कर रहा है, हमें विकास का यह रास्ता छोड़ना पड़ेगा. इससे पहले कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सिलसिला फिर से शुरू हो, हमें कुछ जरूरी निर्णय कर लेने चाहिये. सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि उत्तराखंड का विकास मानव, सामाजिक एवं प्राकृतिक संपदा के विकास में ही निहित है. इसी से रोजगार एवं स्वावलंबी व टिकाऊ आर्थिक विकास के अवसर पैदा होंगे. यह तभी संभव है जब संविधान द्वारा 73वें-74वें संशोधन में निर्देशित विकेन्द्रित शासन व्यवस्था लागू हो और संविधान के अनुच्छेद ‘39 बीके अनुसार प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदायों का स्वामित्व स्थापित हो. इस कदम से मौजूदा विकास की नीतियों से उत्पन्न हुआ पूँजी का केन्द्रीकरण रुकेगा और आर्थिक समानता का रास्ता खुलेगा.


‘‘फिलहाल प्रदेश भर में इस आपदा में हुई क्षति का जन सहभागिता से पूरी पारदर्शिता के साथ आँकलन कर त्वरित राहत पहुँचाना पहली प्राथमिकता है. जनजीवन के लिय आवश्यक सम्पर्क मार्ग, पेयजल लाइनें, नहरें, स्कूल, स्वास्थ्य सेवायें, विद्युतापूर्ति आदि पुनर्स्थापित की जायें. प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित आजीविका के स्रोतों के सष्जन हेतु ठोस कार्य योजना बनाई जाये.’’

इस वक्तव्य पर देश और प्रदेश के अधिकाधिक विशिष्ट व्यक्तियों तथा विशेषज्ञों की सहमति लेकर जन-जागरण किया जायेगा, ताकि उत्तराखंड ऐसी आपदाओं के दुष्चक्र से मुक्त होकर वास्तविक विकास के मार्ग पर आगे बढ़े.

एक आकार - गुलज़ार

१९६०-७० के दशकों में कार्यरत देश के विलक्षण वृत्तचित्र  निर्माता सुखदेव सिंह संधू पर गुलज़ार द्वारा फ़िल्म्स डिवीज़न के लिए बनाई गयी डॉक्यूमेंट्री देखिये. सुखदेव सिंह के बारे में एक बड़ी पोस्ट कल इसी ब्लॉग पर



आग लगे इस राम-राज में

दिग्गज कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता-

आग लगे इस राम-राज में

१.
आग लगे इस राम-राज में
ढोलक मढ़ती है अमीर की
चमड़ी बजती है गरीब की
खून बहा है राम-राज में
आग लगे इस राम-राज में
२.
आग लगे इस राम-राज में
रोटी रूठी, कौर छिना है
थाली सूनी, अन्न बिना है,
पेट धँसा है राम-राज में
आग लगे इस राम-राज में

ऊंची कविता आधुनिक पकड़ सकै ना कोय


सरबत सखी जमावड़ा - १

-संजय चतुर्वेदी

कविता में तिकड़म घुसी जीवन कहाँ समाय
सखियाँ बैठीं परमपद सतगुरु दिया भगाय

घन घमंड के झाग में लम्पट भये हसीन
खुसुर पुसुर करते रहे बिद्या बुद्धि प्रबीन

सतगुरु ढूंढे ना मिलै सखियाँ मिलें हज़ार
किटी पार्टी हो गया कविता का संसार

रूपवाद जनवाद की एक नई पहचान
सखी सखी से मिल गयी हुआ खेल आसान

ऊंची कविता आधुनिक पकड़ सकै ना कोय
औरन बेमतलब करै खुद बेमतलब होय

कवियों के लेहड़े चले लिए हाथ में म्यान
इत फेंकी तलवार उत मिलन लगे सम्मान

कविता आखर खात है ताकी टेढ़ी चाल
जे नर कविता खाय गए तिनको कौन हवाल

जनता दई निकाल सो अब मनमर्जी होय
मंद मंद मुस्काय कवि कविता दीन्ही रोंय

खुसुर पुसुर खडयंत्र में फैले सकल जुगाड़
निकल रही यश वासना तासें बंद किवाड़

सरबत सखी जमावड़ा गजब गुनगुनी धूप
कल्चर का होता भया सरबत सखी सरूप


(शेष कल सुबह पढ़ें) 

Saturday, June 29, 2013

वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया


गुलाम अली और आशा भोंसले के अल्बम ‘मेराज़-ए-ग़ज़ल’ से एक उम्दा ग़ज़ल –




दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक्ल तो दिखा गया

जुदाइयों के ज़ख्म दर्द-ए-ज़िन्दगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गयी मुझे भी सब्र आ गया

ये सुबह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया

वो दोस्ती तो खैर अब नसीब-ए-दुश्मनां हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया

ये किस खुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ गई ये मैं कहाँ समा गया

रघुबीर यादव का इंटरव्यू – इरफ़ान कबाड़ी - दूसरा हिस्सा


रघुबीर यादव के इंटरव्यू की दूसरी क़िस्त पेश है.



हमारे शानदार कबाड़ी मित्र इरफ़ान के साथ उनकी फिल्मों और फ़िल्म जगत के अनुभवों की बाबत यह बातचीत पिछली क़िस्त की निरंतरता में देखी जाए तो आनंद दूना हो जाएगा. गारंटी. पिछली क़िस्त का लिंक यह रहा –

रघुबीर यादव का इंटरव्यू – इरफ़ान कबाड़ी 



इस पोस्ट के आख़िर में प्यारे रघु भाई की जगतविख्यात रेसिपी पर किसी ज़माने में लगी पोस्ट का लिंक दे रहा हूँ. इसमें मौज की डबल गारंटी – 

फारसी खाने का लुत्फ़: बकर तोतला


अकबर इलाहाबादी के दो शेर


उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा

बहरे-ख़ुदा नाब यह दें हम को इत्तेला

साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा

(बहरे-ख़ुदा-भगवान के वास्ते)

फिर मैंने केले खाने शुरू किये और छिलके आमतौर पर पैगम्बरों के रास्ते में फेंकता गया


गोलियां चलने से पहले

-संजय चतुर्वेदी

हर मूर्ख अपने आपको तपस्वी समझता है
हर लफंगा मनीषी
मुझे चाहकर भी ग़लतफ़हमी नहीं हो पाई
मैं सिर्फ़ एक मूर्ख लफंगे की तरह नमूदार हुआ
दुनिया के पापों और पुण्यों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए
न मैंने क्रिश्चियन को केवल क्रिश्चियन कहा
न मिशनरी को केवल मिशनरी
मैंने मक्का मदीना जाने का मन बना लिया पक्की तौर पर
लेकिन मेरी काफ़िरी को देखते
मेरे मुस्लिम दोस्तों ने ऐसा न करने की सलाह दी
फिर मैंने करबला जाने की कोशिश की
लेकिन तब तक स्वतंत्रता के रखवाले
इराकी सीमाओं को बंद कर चुके थे
मैं वृंदावन गया अलबत्ता
जहां मुझे वेणुगोपाल मिला
जो स्कूटर के पीछे बैठा गन्ना चूस रहा था
मैंने एक बकरी को संटी से धमकाकर भगाया
और निधिवन में प्रवेश किया
हरिदास बाबा की समाधि पर मुझे सचमुच रोमांच हो आया
लेकिन वहां मिला मुझे एक पंडा
जो अभी अभी कृष्ण भगवान से मिलकर आया था
और थरथर काँप रहा था
जब उस लीला-पुरुषोत्तम ने देखा मैं सुस्त घोड़े की तरह उसे देखे जा रहा हूँ
तो उसने चलते-चलते कोशिश की
कि मैं उसे दो दौ रूपये चंदे के दे दूं
अब मेरी हंसी छूट गयी और उसने मुझे कस के श्राप दिया
रात स्टेशन की बेंच पर
खटमलों ने मार-मार जूते मेरा परलोक सुधार दिया
मैंने कनॉट प्लेस से बांसुरी खरीदी और चांदनी चौक से पेड़े
मैं हरी कमीज़ पहन कर मन्दिर में घुसा भगवा ओढ़ कर तवाफ़ को निकला
मैंने ढेर सारी कविताएँ लिखीं
लेकिन आलोचकों ने अपनी सुविधा के हिसाब से छः-सात चुनीं
और भुनगे की तरह मुझे उन पर ठोक दिया
फिर मैंने केले खाने शुरू किये
और छिलके आमतौर पर पैगम्बरों के रास्ते में फेंकता गया
मैंने तमाम ज्योतिषियों के हाथ बांचे
औलियाओं, मुल्लाओं के फाल निकाले
एक मुबारक दरगाह पर मुझे एक मुबारक महात्मा की पूंछ का बाल मिला
मैंने उसकी खाल निकाल ली
जिसकी जैकेट बनवाकर मैं फ़ायरिंग स्क्वाड के सामने चला
गोलियाँ चलने से पहले मैं दो-एक बातें और आपको बता दूं
पवित्र आत्माओं के दिन
गोल्फ़ लिंक का एक क्रांतिकारी
मार्क्सवाद की चांदनी में नौकाविहार कर रहा था
मैंने उसका बजरा पलट दिया
जब उसने देखा यह तो सचमुच की हुई जा रही है
उसने दिल कड़ा करके गोता लगाया
और गुनगुनी रेत की तरफ भागा
अगले दिन वह तमाम अखबारों में बयान देता डोला
क्रान्ति के दुश्मनों का नाश हो
मेरा बजरा पलट दिया हरामखोरों ने
मैंने कौए की चोंच और छछूंदर के नाखून एक ताबीज़ में भरे
और मकर संक्रांति के दिन कमर तक गंगा में खड़े हो भविष्यवाणी की
2023 के तेईसवें गुरूवार को
दुनिया के सारे ज्योतिषी नष्ट हो जाएंगे
मुझे अलीगढ़ी के लिए ज्ञानपीठ मिला
और हाथरसी के लिए साहित्य अकादमी
हालांकि मैं लगातार हिन्दी में लिखता रहा
मेरी सूरत देखकर किसी की तबीयत नहीं खराब होती थी
इसलिए मुझे विद्वान नहीं माना गया
मैंने तीज-त्यौहारों पर अपनी प्रतिबद्धताओं के बक्से नहीं खोले
मैं कभी कहीं इतना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया
कि लोग बहस करते
यह शैतान की औलाद था या भगवान की
मैंने विचारहीन गर्भ का मज़ाक उड़ाया
लेकिन मैंने कभी जन्म का मज़ाक नहीं उड़ाया
मृत्यु को तो मैंने सदा बड़े आदर के साथ देखा
मैंने कुछ राजनैतिक और सांस्कृतिक भविष्यवाणियां भी की थीं
जिन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.


(यह कविता ‘वर्तमान साहित्य’ में वर्ष १९९१ में छपी थी) 

Friday, June 28, 2013

कोल थॉमसन की जापान डायरी, २००६ – तस्वीरों में

चुज़ेन्जी गाँव 

अनुष्ठानिक वॉश बेसिन

दो किमोनो

महल की दीवार की डीटेल

एकाकी

माला के मोती

छत की डीटेल

मंदिर का दरवाज़ा

प्राचीन जापानी ताला

पैलेस ब्रिज, तोक्यो

जापानी पौधा

बोली में बिराजी रहै धमक कबित्त की

आज संजय चतुर्वेदी की तीन कवितायेँ. ये कविताएँ जून १९९९ में छपे ‘पहल’ के अंक ६० में छपी थीं.


भक्तिकाल

- संजय चतुर्वेदी

कई दिनों से लिखना भूले
यहाँ लोग कविता लिखते थे
शायद ऊब गए है बन्दे
पहले असल ख़ुदा लिखते थे

वे दिन भी मुश्किल के दिन थे
शोषण और दमन का हल्ला
उथल-पुथल नागर जीवन में
दुखी गाँव, घर, गली, मुहल्ला
पर संतों ने हार न मानी
कठिन कर्म का थामा पल्ला
सच्चे की सच्चाई लेकर
छोटे लोग बड़ा लिखते थे

दुनिया में फ़ैली हिंसा को
ब्यौरेवार सहा लोगों ने
सगुण विश्व की चिंताओं से
आगे भी देखा लोगों ने
जो भी देखा उसे सगुण का
प्रतिसंसार कहा लोगों ने
कोलाहल में घिरे मनीषी
ध्वनि से बाहर क्या लिखते थे

घोर अभाव अँधेरा आंगन
टिमटिम सी सच्चाई होगी
बालसुलभ उम्मीद लगाए
सदियों की बीनाई होगी
बेसूरत की ख़ूबसूरती
पंचभूत में पाई होगी
सूरदास जैसे लोगों में
रूपकार दुआ लिखते थे.

बाक़ी जंजाल का हवाल

हिन्दी कविता में भक्तिकाल महाकाल हुआ,
                   बाक़ी जंजाल का हवाल अभी होना है.
आधुनिकता के नाम गड़बड़ी हज़ार हुई,
                   साझा वह भूल थी मलाल अभी होना है.
शब्द के दरोगा जिसे लीपते रहे हैं उसी,
चिकनी ज़मीन पे वबाल अभी होना है.
आधुनिकता का सामान हो गया है मगर,
                   आधुनिकता का कविकाल अभी होना है.

काब्यदेस

एशिया को दक्खिन भूभाग काब्यदेस अहै,
कोऊ-कोऊ जाने गति उतपाती चित्त की.
बेदन की भासा कथानक में रेखता में,
छंदकूटछाया है अनूठे बात-पित्त की.
टूटै गीतकाया पुनि पुनि प्रगीतमाया जुरै,
नित्त-नित्त लीला छबिरचना अनित्त की.
गद्य में पद्य में निखद्द भद्द-भद्द हू में,
बोली में बिराजी रहै धमक कबित्त की.