Friday, October 30, 2009
शहीद सभा, सुपर कॉप और फर्जी सरेन्डर
पहली मुलाकात, उल्फा की मदद करने के आरोप में कुछ दिन पहले तक टाडा में बंद रहे और अब अपना बिल्कुल नया अखबार जमाने में लगे “आजि” के संपादक अजित भुंईया से हुई. खूबसूरत और सुकुमार भुंईया का परिचय एक टीवी पत्रकार ने यह ईर्ष्या भरी जानकारी के साथ दिया था कि राज्यसभा सदस्य मतंग सिंह का बेनामी पैसा उनके अखबार में लगा हुआ है. लेकिन धूल से अटे और सड़ते पानी की दुर्गंध से गमकते राजगढ़ लिन्क रोड स्थित उनके दफ्तर में दूसरा ही नजारा था. भुईयां अपना ही रोना लेकर बैठ गए कि प्रफुल्ल कुमार मंहतो की सरकार लोन देने में अड़ंगा डाल रही है, बिजली का कनेक्शन नहीं मिला इसलिए जनरेटर से अखबार निकाला जा रहा है.
कोई डेढ़ महीने बाद जब सुल्फा (सरेन्डर्ड यूनाइटेड लिबरेशन फोर्स आफ असोम) ने पुलिस के साथ साझा आपरेशन में उल्फा के उग्रवादियों के घरों पर हमले शुरू किए तब एक रात, लाउडस्पीकर से उड़कर आती एक कविता में अजित भुंईया का जिक्र सुना. उस आधी रात दीघाली पुखुरी के किनारे चल रही नरसंहार, खंत्रास विरोधी खिल्पी (कलाकार) सभा में एक चौदह साल का किशोर काव्यपाठ कर रहा था- “आमि होबो अजित भुंईया, परागदास……..” लेखक परागदास जिनकी हत्या सुल्फा ने कर दी थी, को असम में शहीद का दर्जा हासिल है. अजित भुंईया उन्हीं के दोस्त हुआ करते थे और अब उग्रवाद के प्रति सरकारी रवैये पर कुछ बोलकर नए झंझट में नहीं फंसना चाहते थे. पुराने झंझट ही बहुत थे.
अगले ही दिन लालमाटी में सेना मुख्यालय में उग्रवाद के खिलाफ बने नए संयुक्त कमान की प्रेस कांफ्रेस थी. हम लोग सुबह ही होटल ब्रह्मपुत्र पहुंच गए जिसके लाउंज के सोफों और बाहर की सड़क पर लोकल पत्रकारों का अड्डा हुआ करता था क्योंकि दिल्ली से आना वाला हर महत्वपूर्ण आदमी इसी होटल में ठहरता था. वहाँ से सूचना विभाग की एक खटारा जीप में लटक कर, सेना के मुख्यालय के भव्य लॉन में सजी कलफदार, झक्क सफेद कुर्सियों पर पहुंच गए. वहाँ सेना की हरी और पुलिस की खाकी वर्दियां लयबद्ध ढंग से आईएसआई-आईएसआई का कीर्तन कर रहीं थीं. जीओसी कार्प्स के कर्नल महेश विज बता रहे थे कि जनता के प्रति सेना के मैत्रीपूर्ण रूख के कारण हमारी मारक क्षमता सौ प्रतिशत बढ़ गई है. पिछले तीन साल में हमने पहले की तुलना में दोगुने उग्रवादी मारे हैं और लगभग दो हजार आत्मसमर्पण कराए हैं.
“…दुरकेला” बस दो घंटे पहले परिचित हुए एक असमिया रिपोर्टर ने मुझसे कहा, “सरकारी लोन लेने के लिए एक आदमी चार-चार बार सरेन्डर करता है. तुम विश्वास नहीं मानता हमारा तो तुमको ले चल कर टेलर मास्टर से मिलवा देगा जिससे आर्मी का अफसर सरेन्डर करने वाले को पहनाने के लिए उल्फा का वर्दी सिलवाता है.”
दिल्ली से आए संयुक्त गृह सचिव पिल्लै बता रहे थे कि संयुक्त कमान की सफलता से भयभीत उल्फा ने अब निरीह लोगों (साफ्ट टार्गेट्स) को मारना शुरू किया है ताकि वे असम में अपनी उपस्थिति जता सकें. दरअसल अब विचारधारा से उनका कोई नाता नहीं रह गया है और वे विशुद्ध आतंकवादी संगठन में बदल गए हैं. कई दिन से मेरे भीतर जो सवाल कुलबुला रहा था, वह पिल्लै साहब की बात खत्म होने से पहले ही टपक पड़ा, “अगर उन्हें साफ्ट टार्गेट ही चुनना है तो वे बांग्लादेशी घुसपैठियों को क्यों नहीं मारते जिन्हें यहाँ से वापस भेजना ही असम आंदोलन की सबसे प्रमुख मांग थी. घुसपैठियों को वापस भेज पाने में सरकार की विफलता के कारण ही तो असम गण परिषद (एजीपी) से नाराज लड़कों ने उल्फा बनाया था. उनके बजाय यहाँ अपने ही देश के बिहारियों को ही क्यों मारा जा रहा है.”
वहाँ मौजूद चेहरों पर व्यंग्य भरी मुस्कानें खिल गईं जैसे कोई बहुत बेतुकी बात मैने उठा दी हो, जिसे यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है.
आपका परिचय…पिल्लै ने जवाब देने के बजाय सवाल किया तो मेरी टाँगे कांप गईं. अगर कहीं इसने मेरा परिचय पत्र देखने के लिए माँग लिया तो अभी पोल खुल जाएगी. मैने हिम्मत बटोर कर कुछ ज्यादा ही जोर से कहा, मैं दिल्ली से हूँ. जवाब असम के पुलिस महानिदेशक एच के डेका देने लगे- “क्योंकि उल्फा पूरी तरह से आईएसआई के हाथ में चला गया है. आप ही लोग रोज लिखते हैं कि ढाका में उसका हेडक्वार्टर है और काक्स बाजार बंदरगाह से उसके हथियारों की खेप आती है. उल्फा कमांडर परेश बरूआ समेत कई नेताओं के ढाका में मल्टीस्टोरी बिजनेस काम्प्लेक्सेज हैं और उनके पास पाकिस्तान के सैटेलाइट फोन हैं. आप अपने ही अखबार के शीर्षकों को याद कीजिए, सब समझ में आ जाएगा.”
मेरा सारा ध्यान पुलिस महानिदेशक के जवाब पर नहीं उसके अंग्रेजी उच्चारण पर अटक गया. वह हॉलीवुड की किसी क्राइम थ्रिलर फिल्म के सुपरकॉप की तरह बोल रहा था. पता नहीं क्यों मुझे ट्रेन में मिली मोरेगाँव की सहुआईन की लड़कियों की याद आई और लगा कि उन्होंने अपनी जान और पुलिस महानिदेशक ने अपनी नौकरी बचाने के लिए भाषा का अविष्कार एक ही तरह से किया है. चारो तरफ लोग मारे जा रहे हैं, उग्रवादी दिन और समय बताकर हमले कर रहे हैं. सेना और पुलिस ने नेताओं के लंबे भाषणों से गूंजते फर्जी समर्पण समारोहों और मुठभेड़ों के मीडिया मैनेजमेंट में महारत हासिल कर ली है. ऐसे में भाषा, बंदूक से ज्यादा ज़रूरी असलहा हो जाती है जो भ्रम बनाए रखती है कि उग्रवाद को काबू में रखने के लिए काफी कुछ किया जा रहा है.
मीडिया मैनेजमेन्ट के नियमों की चहारदीवारी के भीतर सनसनीखेज स्टोरी की तलाश करते एक बूढ़े चश्माधारी पत्रकार ने सवाल किया- “उग्रवाद सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या है या दिल्ली के खिलाफ युद्ध जैसी स्थिति है?”
आप बताइए. हम लोग आपसे भी यही जानना चाहते हैं. लेफ्टिनेन्ट जनरल ने उसे टरकाया. पीछे एक टीवी चैनल का कोई घिसा हुआ कैमरामैन बुदबुदा रहा था, “एक ठो बासी पेस्ट्री और लाल सा देकर फांकी मार दिया बेट्टा.”
वाकई मुझे भी अफसोस हो रहा था. सोचा था कि कम से कम सेना मुख्यालय में तो आज ढंग का खाना मिलेगा लेकिन दाँव खाली चला गया था.
Thursday, October 29, 2009
खून की नदी में बिना पतवार की नाव
उस रात धुंध और कुहरा था और पूरा शहर खुदा पड़ा था. कई फ्लाइओवर और सड़कें बन रहे थे. कुहरे में भीड़ सड़क पर उबलती लगती थी और सोडियम लाइटों के नीचे, गिट्टियों पर रिक्शे वाले हैंडिल के आगे ढिबरी जलाए फुदक रहे थे. वे अंग्रेजों के जमाने के म्युनिस्पैलिटी कानून का जस का तस पालन किए जा रहे थे. फुटपाथों को देखकर लगता था, कहीं चुनाव ठिठका खड़ा है. असम में हर चुनाव से पहले अचानक विकास और नरसंहार दोनों एक साथ होने लगते हैं. शहरी मिडिल क्लास के लिए विकास और गंवई असमिया के ध्रुवीकरण के लिए नरसंहार आजमूदा नुस्खा है जो उन्हें पोलिंग बूथ तक ले ही आता है.
शहर के व्यापारिक केंद्र फैन्सी बाजार और पान बाजार में एक छोटा-सा समृद्ध राजस्थान बसता है जिसके आईकॉन संगरमरमर के छोटे-छोटे मंदिरों में चुनरी ढके विट्ठल जी और राणी सती हैं. बिना प्याज और लहुसन का मारवाड़ीबासा, कचौड़ी-जलेबी-फुचके (गोलगप्पे) और गलियों में ठुंसी नई मॉडल की कारें, बाकी का ठाठ सजा देते हैं. सीपीआई के बूढ़े विधायक हेमंत दास ने बाद में अपने ही ढंग से एक दिन समझाया था कि असम में सौ प्रतिशत से भी ज्यादा थोक व्यापार मारवाड़ियों के हाथ में है और असमिया सिर्फ उपभोक्ता है. बाजार के पिछवाड़े गोदामों में सैकडो ट्रकों से माल लादा- उतारा जा रहा था. लगभग सारे पल्लेदार पुरबिया, बिहारी और छिटपुट मैमनसिंघिया मुसलमान थे. डर के कारण मैं उधर नहीं गया क्योंकि हर बड़े शहर में, हमेशा ऐसी गलियों में पल्लेदारी करते मुझे अपने गाँव, जिले या आसपास के जिलों के परिचित लोग मिल जाया करते हैं जो कभी खाते-पीते किसान हुआ करते थे. मैं उनका और वे मेरा सामना नहीं कर पाते. हर जगह पलायन और पीड़ा की उदास कर देने वाली एक जैसी कहानियां सुनने को मिलती हैं.
गौहाटी एक युग से उत्तर-पूर्व में व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र रहा है. अब भी कई बेहद पुरानी दुकानों में सिर्फ नमक, टार्च और लालटेन बिकते हैं जिन्हें खरीदने के लिए सुदूर जंगलों से आदिवासियों के काफ़िले आते हैं. इन दुकानों का यूएसपी यह है कि पुराने ग्राहकों की ठहरने की जगह भी दुकान के पिछवाड़े होती है. यहाँ का सुअर बाजार तो अद्भुत है जहाँ व्यापार की भाषा भोजपुरी और पंजाबी हो जाती है क्योंकि इन्हें बोलने वाले प्रांतों से ही सबसे अधिक माल आता है.
सुबह अखबार देखे तब समझ में आया कि, जैसा ट्रेन में लगा था, हालात उससे कहीं अधिक बदतर हैं. उत्तर-पूर्व दिल्ली की मीडिया की चिंता के दायरे से बाहर है, दरअसल उसे ब्लैकआउट कर दिया गया है वरना यहाँ कश्मीर से जटिल और भयावह स्थिति है. 22 अक्तूबर को दुलियाजान और काकोजान में सोलह, 27 को नलबाड़ी में दस, 8 नवंबर को बरपेटा मे दस, 16 नवंबर को बेटावर में आठ, 25 नवंबर को नलबाड़ी में चार और 30 नवंबर को बोंगाईगाँव में दस हिन्दीभाषी मारे गए थे. इनके अलावा दूरदराज़ की जगहों में कम से कम सात हत्याएं हुई थीं जिन्हें रिपोर्ट नहीं किया गया था. सेना, गृहमंत्रालय और असम पुलिस को मिलाकर बनाई गई संयुक्त कमान के कोर ग्रुप की बैठक हो रही थी जिसमें गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के दूत के रूप में पूर्वोत्तर मामलों के संयुक्त सचिव एनके पिल्लै दिल्ली से आ रहे थे.
हर ओर चीमड़ लोकल माछ और फीके भात के अतिरेक से त्रस्त होकर रोटी के इकलौते विकल्प के रूप में हमने नेपाली मंदिर के पास एक रेस्टोरेन्ट खोजा जहाँ मैदे का पराठा और मटर का छोला मिलता था. तदुपरांत स्वीट डिश के तौर पर मलाई समसम. बाद मे यही “मलाईसमसम” हम लोगों का गुडलक साइन बन गया. असमिया जबान में “च” गायब है. चाय “सा” होती है और एक जाति सूतिया जिसे अंग्रेजी में वाकई चूतिया लिखा जाता है. हम लोग खाना खा रहे थे और सामने टेलीविजन पर खबरें आ रही थीं. एक बिहारी की हत्या के बाद उसका सिर पत्थर से कुचल दिया गया था, जिसका भेजा हमारी थालियों से ढाई फीट की दूर, रंगीन स्क्रीन पर छितरा पड़ा था. मुझे पेट में उफनता झाग महसूस हुआ. शाश्वत अपनी टिपिकल मादरी अवधी में मुझे गरिया रहा था, “ल्यौ ससुर अब भेजा देखो. पत्रकारिता करै आय हैं हियां. जहाँ देखो हुंआ लहास पड़ी है और एक मनई साला ढंग से बात करै वाला नहीं है. यू नहीं भवा कि चुपाई मार के अपने घरे रहो. बाप की दूई बात सुनि लेत्यो, भोजन तो चैन से बैठ के करत्यो.”
“तुम तो लौन्डे की जिद मान के पछताय रहे किसी गरीब बाप की तरह पिनपिना रहे हो.” मैने और उकसाया ताकि ध्यान बंटे और उल्टी करने से बच सकूं.
उसका गुस्सा जायज़ था. लखनऊ के समाजवादी गिरीश पान्डेय ने जिन मददगार समाजवादी नेता का पता दिया था, उनकी मौत चार साल पहले हो चुकी थी. पत्रकार रामबहादुर राय ने जिन पत्रकारों के पते दिए थे, उनमें से दो मर चुके थे और एक रिटायर होकर भजन कर रहे थे. लखनऊ पॉयनियर के संपादक उदय सिन्हा ने जिस अखबार मालिक का पता दिया था, वे मिलते ही हत्थे से उखड़ गए कि सिन्हा को पान चबाने के अलावा आता क्या है. वही तो हमारे अखबार को यहाँ बरबाद करके गया है. प्रभाष जोशी ने आंचलिक ग्रामदान संघ के बिनोबापंथी रवीन्द्र भाई का पता दिया था, जिनका कहीं अता-पता नहीं था. संजीव क्षितिज ने फिल्म निर्देशक जानु बरूआ का नम्बर दिया था, वे कलकत्ता में थे.
एक और बात थी. मैने शाश्वत का कैमरा गले मे लटकाने से पहले ही दिन साफ इनकार कर दिया था. यह बच्चों को जन्मदिन पर उपहार में दिया जाने वाला फुसलाऊ कैमरा था और मुझे झालरदार टूरिस्ट दिखने से पुरानी चिढ़ थी. यह कैमरा उसने सुल्तानपुर में अपने बिकाऊ पुश्तैनी घर की आखिरी तस्वीर उतारने के लिए खरीदा था.
तो अब हमें अपनी पत्रकारिता की शुरुआत करनी थी. सवा साल तक अवसाद और बेरोजगारी में सोने के बाद मैं अचानक पूर्वोत्तर का उग्रवाद कवर करने जा रहा था. मेरे पास लखनऊ से अनियमित निकलने वाले एक चौपतिया धंधेबाज साप्ताहिक अखबार का उड़ाया गया फर्जी पहचान पत्र था, जिसमें मुझे दिल्ली ब्यूरो प्रमुख बताया गया था. यह आई-कार्ड मुझे वहाँ खानसामा का काम करने वाले एक लड़के ने अखबार मालिक की जानकारी के बिना मुहर समेत बनाकर दिया था. आई-कार्ड में मेरी उम्र के आगे ठीक शताब्दी पहले की बिल्कुल सही तारीख लिखी हुई थी. पहचान के कॉलम में गलत स्पेलिंग में लिखा था कि मेरी बांई आँख के भीतर कहीं एक कटे का निशान है. मैने पहले इन सब चीजों पर कभी गौर ही नहीं किया था. खैर शाश्वत के पास तो यह कार्ड भी नहीं था. हम लोगों ने सबसे पहले लोकल अखबारों की प्रिन्ट लाइन में छपे नम्बरों पर फोन कर गुवाहाटी के पत्रकारों से मिलना तय किया ताकि जान सकें कि खून की नदी में हम अपनी पत्रकारिता की डोंगी लेकर किस दिशा में जाएं.
मिलेरपा के साथ चलेंगे आप ?
Wednesday, October 28, 2009
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह 'ज़फ़र' ( 1775-1862 ) को कौन नहीं जानता है. वह भारतीय इतिहास के एक महान नायक ही नहीं वरन भारतीय कविता के सशक्त हस्ताक्षर भी हैं. उनके उल्लेख के बिना हिन्दी - उर्दू की शायरी का चित्र पूरा नहीं होता है . इस 'बदनसीब' शायर से अपना रिश्ता बहुत गहरा और पुराना है . ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय 'ज़फ़र' की शायरी ने इतना प्रभावित किया था कि अर्थशास्त्र की कापी में माँग और पूर्ति पर नोट्स लिखने की बजाय 'ज़फ़र' की कालजयी रचना 'दो गज जमीं भी न मिली' वाली ग़ज़ल उतार डाली थी और भरी क्लास में नालायक - नाकारा की उपाधि से विभूषित किया गया था . और तो और उसी अंदाज में कुछ खुद भी तुकबन्दी जैसा कुछ लिखने की कोशिश की थी. यह सब बिगड़ने के शुरुआती दिन थे.. अब इतने दिनों के बाद स्वेच्छा से 'कबाड़ी' बन जाने के बाद लगता है कुछ सुधर- सा गया हूँ...( ! ) खैर....
कुछ दिनों से 'ज़फ़र' की शायरी का सुरूर बेतरह तारी है. कुछ पढ़ा और कुछ सुना भी .तो चीजों को साझा करने क्रम में आज आइए सुनते हैं बहादुरशाह 'ज़फ़र' की एक ग़ज़ल दो अलग - अलग आवाजों में जिनसे हमारे वक्त की मौसीकी एक युग निर्मित हुआ है.. -पहला स्वर है रूना लैला का... और दूसरा मेंहदी हसन साहब का ...
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ।
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार,
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी ।
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी.
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
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रूना लैला
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और अब यही गज़ल मेंहदी हसन के स्वर में
Tuesday, October 27, 2009
ताना न मारो मोहे तीर लागे ....
आज और इस क्षण मन कर रहा है कि एक पसंदीदा गीत को साझा किया जाय। कुछ सुना जाय , कुछ बुना जाय !
अब कि ऐसे समय में जब चारो तरफ लगभग भुस - सा भरा हुआ है और जिसे देखिए वही अपने ही भीतर के हाहाकार से हलकान है और दोष बाहर के दबावों , प्रलोभनों , उठापटक को दिए जा रहा है तब अपने मन की कुछ कर लेना , अपने वास्ते एकांत के दो पल तलाश लेना कितना -कितना कठिन हो गया है ! औरों की बात क्या करूँ ? मैं किसी के मन के भीतर तो पैठा नहीं हूँ ! अपने तईं लगता है कि मन के भीतर पैठने के वास्ते संगीत और शायरी से बढ़िया चीज कोई और नहीं मिली.
कहना बहुत कुछ है लेकिन सुनना और भी जरूरी है सबसे जरूरी. तो आइए थोड़ी देर के लिए तमाम चीजों को एक तरफ कर बैठें , तसव्वुरे जानां करे और कुछ सुनें.. और मन करे , फुरसत हो तो कुछ बुनें
.. तो आइए , आज सुनते हैं ज़िला खान का गाया यह गीत - ताना न मारो .. उम्मीद है कि पसंद आएगा..
करुणामय को भाता है
तम के परदों में आना
हे नभ की दीपावलियों!
तुम पल भर को बुझ जाना!
( चित्र परिचय : महादेवी वर्मा की पेंटिंग )
Monday, October 26, 2009
मुझे इस वशीकरण के पाश से मुक्त करो
मैं शब्दों से जीत लूँगा संसार
जीत लूँगा -
मातृभाषा को
संज्ञा को
क्रिया को
वाक्य विज्ञान को
हाँ ,सब कुछ को जीत लूँगा मैं मात्र शब्दों से ।
बुहार कर रख दूँगा
चीजों के उपजाव व आग़ाज़ को
और एक नई भाषा में चीन्हूँगा
पानी का संगीत और आग का संदेश ।
तुम्हारी आँखों में
मैं जगमग करूँगा आने वाले वक्त को
स्थिर कर दूँगा समय की आवाजाही
और काल के असमाप्य चित्रपट से
पोंछ दूँगा उस लकीर को
जिससे विलग होता है यह क्षण ।
समुद्र के तल से एक पत्र
अगर तुम मेरे दोस्त हो
तो मदद करो कि तुमसे जुदा हो सकूँ
या फिर गर हो तुम मेरे महबूब
तो मदद करो कि मैं मुहब्बत की मार से बच जाऊँ ।
अगर मालूम होता कि समुद्र बहुत गहरा है
और मुझे नहीं आती तैरने की तरकीब
तो यहाँ नहीं ही रखता अपने पाँव ।
अगर मुझे मालूम होता
कि कैसे करना है खुद का खात्मा
तो शुरुआत ही नहीं करता इस सिलसिले की ।
मुझे तुम्हारी चाह है सो, मुझे सिखाओ ख्वाहिशें न करना
मुझे सिखाओ
कि कैसे काट देना है प्रेम की जड़ को गहराई से ।
मुझे सिखाओ
कि कैसे आँखों में ही करनी है आँसुओं की मौत
और प्रेम को किस विधि से करना है आत्महत्या के लिए प्रेरित ।
अगर तुम फरिश्ते हो
तो मुझे इस वशीकरण के पाश से मुक्त करो
नास्तिकता के भँवर से पार करो मेरा बेड़ा ।
तुम्हारा प्रेम नास्तिकता जैसा है
मुझे इससे शुद्ध करो
कर दो मेरे अस्तित्व को निष्पाप ।
अगर तुम बलशाली हो
तो मुझे इस समुद्र से बाहर निकालो
क्योंकि मुझे नहीं आती तैरने की तरकीब ।
तुम्हारी आँखों की नीली लहरें
मुझे गहराइयों की ओर खींच रही हैं
नीला..
नीला...
कुछ नहीं बस हर ओर एक ही नीला रंग ।
मुझे प्यार का कोई तजुर्बा भी नहीं
और कोई नौका भी नहीं दीख रही है आसपास ।
अगर मैं तुम्हें प्रिय हूँ , तनिक भी
तो थाम लो मेरा हाथ
मैं सर से पाँव तलक ख्वाहिशों से भर कर
होता जा रहा हूँ भारी ।
मैं बमुश्किल
पानी के भीतर ले रहा हूँ साँस
मैं डूब रहा हूँ...
डूब रहा हूँ...
डूब रहा हूँ... ।
Sunday, October 25, 2009
पर्वत यात्रा की कुछ तस्वीरें और एक पहेली
ऊपर लगी तस्वीर 'उत्तर के काशी' के एक पुराने मंदिर की है.
क्या बता सकते हैं यह कौन - सी जगह है ...?
Sunday, October 18, 2009
मोहब्बत से होता है नशा जो नहीं पूछती : "कैसी हो?"
मैं जीती हूं क्योंकि
मुझे नशा हो जाता है पारदर्शी चीज़ों से.
कविता करती है ऐसा,
अल्कोहल करता है,
वह डगमग बच्चा
जिसका लोई जैसा चेहरा कल देखा था,
मोहब्बत से होता है नशा जो नहीं पूछती : "कैसी हो?"
मैट्रो में भरते स्कूली लड़कियों के ठहाके
गुड़ीमुड़ी किए जाने को तैयार सफ़ेद काग़ज़
बाहर खिड़की के परे बारिश
बारिश की बूंदों के ऊपर नन्हे पिल्ले का भौंकना
रोज़ भुनभुनाना मां का.
मैं जब भी लड़ती हूं किसी से, पारदर्शी हो जाती हूं
भीषण पारदर्शी
आज़ाद तरीके से पारदर्शी
यह प्रमाण होता है कि सब कुछ अब भी ठीकठाक है मेरे साथ
प्रमाण है कि मैं दर्द को महसूस कर सकती हूं
कि कोई ज़िन्दा है अभी भी.
जिस दिन पारदर्शिता के साथ आपस में लड़ती हैं पारदर्शी चीज़ें
आपको नशा हो ही नहीं सकता, चाहे कितनी ही पी लो!
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आज आपके लिए सियोल में रहने वाली युवा कवयित्री चोई युंग-मी की चन्द कविताएं लाया हूं. उनकी कविताओं में शहरी यथार्थवाद और ऐन्द्रिकता का बेहतरीन संयोजन पाया जाता है. उनकी काव्य-चेतना १९८० के दशक के अन्तिम सालों में उभरी जब कोरिया सैन्य शासन से लोकतान्त्रिक की दिशा में बढ़ा. उनकी रचनाओं में इस परिवर्तन से होने वाले गुणात्मक बदलावों की आशा और ऐसा न होने पर एक ख़ास क़िस्म का नैराश्य और मोहभंग दृष्टिगोचर होते हैं. अपने देश में उन्हें उत्तरआधुनिकतावाद के शुरूआती रचनाकारों में गिना जाता है.
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तीस की उम्र, क़िस्सा तमाम
जाहिर है मैं जानती हूं
मुझे क्रान्ति से ज़्यादा भाते थे क्रान्तिकारी
बीयर के गिलास से ज़्यादा बीयर-पब
विरोध में गाए जाने वाले वे गीत नहीं
जो "ओ मेरे कॉमरेड!" से शुरू होते थे
बल्कि मद्धम आवाज़ में गुनगुनाए जाने वाले प्रेमगीत
मगर मुझे बताओ न - तो भी क्या!
तमाम हुआ क़िस्सा
बीयर निबट चुकी, एक-एक कर लोग सम्हालते हैं
अपने बटुए,
अन्त में तो वह भी जा चुका, लेकिन
बिल सब ने चुकाया मिल-बांट कर,
और सब जा चुके अपने जूतों समेत-
मुझे मद्धम सी याद तब भी है कि
यहां कोई एक रह जाएगा पूरी तरह अकेला
शराबख़ाने के मालिक के वास्ते मेज़ें पोंछता,
अचानक गर्म आंसू, याद आता हुआ सब कुछ,
अचानक कोई दोबारा गाने लगेगा अधूरा छोड़ दिया गया गीत
-शायद मैं जानती हूं
कोई एक सजाएगा एक मेज़, भोर से पहले
इकठ्ठा करता लोगो को
कोई रोशन कर देगा रोशनियां, मंच बना देगा नया
मगर कोई मुझे बताओ तो - तो भी क्या!
अतृप्त प्रेम
एक अजनबी की कार के भीतर -
उसने लिफ़्ट दी थी मुझे:
सीट-बैल्ट से बंधी एक निश्शब्दता,
एक के ऊपर एक धरी टांगों में गिरफ़्तार एक कल्पना
आईने में पकड़ ली गई
धकेलती, धकियाई जाती -
ख़ुद को अन्धा बना लेने वाला निष्कम्प एक ध्यान!
Saturday, October 17, 2009
जिन्दा रहे उजास की आस !
आप अगर पूछेंगे कि त्योहरों पर क्या करना चाहिए तो मैं यही कहूँगा कि वही करना चाहिए जो कि करना आना चाहिए। पता नहीं मुझे कविता लिखनी / करनी आती है कि नहीं लेकिन आज जब घर के सभी सदस्य अपने काम में लगे थे तो यह कबाड़ी भी अपने काम में लगा था। 'उजास' सीरीज की कुछ कवितायें बन - सी गईं जिनमें एक को , सभी कबाड़ियों की अनुमति की प्रत्याशा में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।हालाँकि ऐसा करते हुए यह भान है 'कबाड़ख़ाना' पर कबाड़ी लोग खुद की कवितायें नहीं लगाते हैं. तो हे कबाड़ियों ! अगर मैंने ( अलिखित ) नियम तोड़ा है तो माफी देवो और दीपावली की मुबारक़बाद लेवो ! और हाँ , ठिकाने के सभी पाठकों को शुभ दीपावली ! हैप्पी भैया दूज !
उजास
हर ओर एक गह्वर है
एक खोह
एक गुफा
जहाँ घात लगाए बैठा है
अंधकार का तेंदुआ खूंखार.
द्वार पर जलता है मिट्टी का दीपक एक.
जिसकी लौ को लीलने को
जीभ लपलपाती है हवा बारंबार.
बरसों - बरस से
चल रहा है यह खेल
तेंदुए के साथ खड़ी है
लगभग समूचे जंगल फौज
और दिए का साथ दिए जाती है
कीट - पतंगों की टुकड़ी एक क्षीण
जीतेगा का कौन ?
किसकी होगी हार ?
हमारे - तुम्हारे दिलों में
जिन्दा रहे उजास की आस
और आज का दिन बन जाए खास !
( 'उजास' सीरीज की और दो कवितायें 'कर्मनाशा' पर )
Friday, October 16, 2009
आलू कथा वा कृषि विज्ञान का प्रेक्टिकल
आज आलू पर बहुत प्यार आ रहा है. आना भी चाहिये.इसकी महिमा का बखान करने का मन तो कर रहा है लेकिन धनतेरस , नरक चतुर्दशी, दीपावली और भैया दूज के शुभ अवसर पर मिठाइयों , पकवानों और मेवों - मखानों की बात के बदले आलू की बात ? चीनी , तेल , वनस्पति घी का भाव हाथ नहीं रखने दे रहा है.मावा - खोया - पनीर में मिलावट के अनुप्रयुक्त रसायन विज्ञान की प्रयोगशालाओं से निकला उत्पाद हमारे पेट तक पहुँच रहा है.पटाखे खरीदने जाओ तो दाम सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने पूँछ में पटाखा बाँध दिया है. तब क्या किया जाय? आलू जी की शरण के अलावा और कहीं ठौर नहीं. यह सब जानकारियाँ तो पुरानी हो गईं कि 'गुलाब दिवस' .'कद्दू दिवस' , 'हस्त - प्रक्षालन दिवस' आदि - इत्यादि दिवसों की तरह 'आलू दिवस' भी मनाया जाता है. और तो और २००८ को अंतरराट्रीय स्तर पर 'आलू वर्ष' के रूप में मनाया गया तथा इस महान वानस्पतिक उपहार की शान में न केवल खूब कसीदे पढ़े गए बल्कि इस विपुला पृथ्वी के असंख्य मनुष्यों के उदर में जलने वाली आदिम आग भूख के विरुद्ध एक सहज उपलब्ध नैसर्गिक साधन के रूप में प्रतिष्ठित किया गया. इंसानी ज्ञान, जुगतऔर खेती - किसानी की अधुनातन खोजों के फलस्वरूप धरती की कोख से निकलने वाला आलू अब नाना रूप धर पैकेटों और पाउचों में कैद होकर हमारी जिह्वा पर स्वाद की तरह तैर रहा है. गैस से भरे गुब्बारों की की फूले ( न समाते ! ) पैकेटों और पाउचों को खोलते फाड़ते हुए तनिक सोचिएगा कि इस पैकेट - पाउचबंद आलू का क्या भाव है ? यह भाव दो अंकों में शायद ही हो !
आज आलू पर बहुत प्यार आ रहा है. कई - कई चीजें , तरह - तरह के प्रसंग याद आ रहे हैं. एक उम्र है जो आलू के सानिध्य में गुजर रही है - तमाम स्मृतियों और संदर्भों के साथ - साथ चलते हुए. कक्षा सात में दिया गया कृषि विज्ञान का प्रेक्टिकल इक्जाम याद आ रहा है. अपने पड़ोसी और वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर पी. के. चक्रोबोर्ती महोदय के किचेन गार्डेन में आलू की बुआई याद आ रही है. हिन्दी साहित्य की दुनिया में उपन्यास सम्राट कहे जाने वाले प्रेमचंद की मशहूर कहानी 'कफ़न' के पात्र माधव , घीसू और बुधिया याद आ रहे हैं.इस कहानी में एक और पात्र भी है - पड़ोसी के खेत से चोरी कर लाया गया और अलाव भुनता हुआ आलू. वैन गॊग का जगत्प्रसिद्ध चित्र ' द पोटैटो ईटर्स ' ( १८८५) भी इसी क्रम में स्मृति के कैनवस पर उभर रहा है जिसके आलूखोरों की उंगलियाँ अजब इशारे करती जान पड़्ती हैं. क्लास थर्ड बी में पढ़ने वाले अपने पुत्र अंचल सिद्धार्थ की साइंस और ई.वी .ई. की किताब का एक प्रश्न भी याद आ रहा है - 'पोटैटो इज रूट आर स्टेम ?' भारतीय आलू अनुसंधान केन्द्र , कुफरी ( शिमला ) की खूबसूरत पहाड़ियाँ याद आ रही हैं. आलू का इतिहास , भूगोल, पाकशास्त्र याद आ रहा है. पेरू और बोलीविया से लगभग आठ हजार साल पहले यात्रा आरंभ करते हुए आलू के भारत आगमन का काल्पनिक मानचित्र भी बनकर लगभग तैयार है. आलू में पाए जाने वाले तत्वों की तालिका भी तैयार - सी हो रही है. और 'सबार ऊपरे आलूर सत्य' की सत्य तरह असम , अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और लगभग समूचे उत्त्तर - पूर्व भारत के भोजनालयों में 'भात' अर्थात भोजन में अतिविशिष्ट पकवान की तरह परोसा जाने वाला सरसों के तेल में तर बिना छिले आलू का 'भाजा' मुँह को द्रवित - सा कर रहा है तब भला आलू पर प्यार क्यों न आए ?
एक जरूरी अवांतर :
आज आलू पर बहुत प्यार आ रहा है. इधर आलू पर लिखी कुछ कवितायें भी पढ़ने को मिलीं. हास्य - व्यंग्य के नाम पर की जाने वाली तुकबंदी को अगर छोड़ दें जिनमें आलू के साथ लालू , भालू , चालू, टालू , शालू, कालू आदि शब्दों की तुक भिड़ाने के अलावा कुछ और नहीं होता है, तो उनके लिए , जो कविता को सचमुच कविता मानते हैं , प्रस्तुत है रामजी यादव की कविता 'आलू' का एक अंश - ( पूरी कविता पढ़ने के लिए नई कविता तक की यात्रा कर लें )
गरीब-गुरबा तो एक आलू पकाकर शोरबे में
काट देते हैं दिन
थके हुए श्रमिक आलू के चोखे में जरूरत से
ज्यादा मिर्च डालकर निकाल लेते हैं जरूरत भर रंगीनी
सिनेमा हाल के अंधेरे में
प्रेमी बनने के फेर में पड़ा यह छोकरा
अंकल चिप्स ठूंस देता है लड़की के मुंह में
और कान के पास सरगोशियों में इल्तिजा करता है.
मैं देखता हूं तुम विनम्र बना देते हो बड़े से बड़े तुर्रमों को
एक ही गोष्ठी में
सभी चाव से खा लेते हैं समोसा
और डकार लेते हुए चाय की तलब होती है
तुम मौजूद हो हर जगह
जैसे भाषा मौजूद रहती है
मगर गायब है तुम्हारा सम्मान
जैसे भावनाएं गायब हों मनुष्यों के बीच.
फुट (मिड !) नोट : ( हिन्दी में बोले तो : पाद - मध्य टिप्पणी )
इस पोस्ट को लिखते समय मन था कि अपने कक्षा सात के कृषि विज्ञान का प्रेक्टिकल इक्जाम और प्रोफेसर पी. के. चक्रोबोर्ती की आलू बुआई की कथा बाँचूंगा लेकिन कहाँ से कहाँ बहक गया. अगर अभी तक आप बोर न हुए हुए हों तो दोनो में से कम से कम एक सत्यकथा तो आज सुनाई ही जा सकती हैं -
आलू कथा : कक्षा सात में दिया गया कृषि विज्ञान का प्रेक्टिकल इक्जाम ...
कृषि विज्ञान की प्रयोगात्मक परीक्षा के लिए प्रत्येक विद्याथी को छोटी - छोटी क्यारियाँ अलाट हुई थीं. एग्रीकल्चर माट्साहेब का आदेश था सभी लड़के अपनी - अपनी क्यारियों में आलू बोयेंगे और इसके लिए घर से एक रुपया लाना है और स्कूल के गेट पर वाली दुकान से आलू का बीज खरीदना है.इस होनहार विद्यार्थी ने अपने गुरुदेव की आज्ञा का आधा पालन किया और आधा खा गया. मतलब कि घर से एक रुपया तो जरूर लाया लेकिन क्या करता ! इंटरवेल में दुकान तक गया था तो आलू का बीज ही खरीदने बुरा हो ठेले पर सिंकतीं और बिकतीं उन आलू की टिक्कियों का जिन्होंने अपनी ओर खींच लिया. खैर,अपनी क्यारी में बिना बीज के ही आलू 'बो' देने का चत्कार कर दिया गया और बढ़िया मेंड़ें बना दी गईं.अब माट्साहेब अपना हाथ थोड़े न गंदा करते और गोपीचन्द जासूस की तरह मेंड़ों की तलाशी लेते. वे आए और मौखिक परीक्षा ली-
'किस चीज की बुआई कर रहे हो लड़के ?'
लड़के ने कहा _ 'श्रीमान जी , आलू बोया गया है.'
गुरु - 'लड़के , बताओ तो आलू में कौन - सा तत्व पाया जाता है ?'
लड़का - 'जी, स्टार्च.'
गुरु- 'बहुत अच्छे , बहुत अच्छे'.
और एक होनहार विद्यार्थी , जिसके भीतर भारत का भविष्य छिपा हुआ था को, शाबासी व आशीर्वाद से सिंचित कर गुरुदेव अगली क्यारी की ओर बढ़ लिए. कुछ दिन बीते . सबकी क्यारियों में हरे - हरे कोमल पत्तों वाले आलू के पौधे आधुनिक हिन्दी कविता में प्रयोगवाद के प्रणेता कविवर अज्ञेय के शब्दों में 'फोड़ धरा को रवि को तकते निर्भय' दिखाई देने लगे लेकिन अपनी क्यारी में कुछ हो तब न उगे ! वहाँ तो प्रकृति के सुकुमार कवि पंत की तरह मैंने 'छुटपन छिपकर सिक्के ( भी नहीं ) बोए थे जो पैसों के पेड़ उगते. चोरी पकड़ी गई थी और अब सजा की बारी थी.यह स्कूल के अनुशासन का प्रश्न था कोई 'मेरा गाँव मेरा देश' फिल्म का सीन नहीं जिसमें चक्कू लेकर नाचने वाली लक्ष्मी छाया पूछती कि -'मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय , बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय !' . माट्साहेब ने क्लास सेवेन्थ ए के मानीटर दर्शनलाल 'मोटू' से बेहाया / बेशरम / सदाबहार का मजबूत डंडा स्कूल के पिछवाड़े से मँगवाया और जो पौधे कभी क्यारी में उगने चाहिए थे वे इस होनहार विद्यार्थी , जिसके भीतर भारत का भविष्य छिपा हुआ था , की हथेलियों पर उगे. पता नहीं व आलू के पौधे थे या किसी और वानस्पतिक उपहार के फिर भी जब भी कभी आलू देखता हूँ तो कक्षा सात में दिया गया कृषि विज्ञान का प्रेक्टिकल इक्जाम याद आ जाता है और क्यारी की जगह हथेलियों पर उगने वाले देह व दिलदुखाऊ पौधे भी.
और अंत में सूचना की तरह ( किन्तु सूचना के शिल्प में नहीं ) :
*आलू पहेली - 'पोटैटो इज रूट आर स्टेम ?'
** माना कि आज आलू पर बहुत प्यार आ रहा है. आलू से जुड़े प्रसंग भी बहुत परेशान किए हुए हैं लेकिन धैर्य की भी कोई सीमा होती है! अत: सभी पाठकों को सूचित किया जाता है कि आलू की अगली किश्त के रूप में प्रोफेसर पी. के. चक्रोबोर्ती की आलू बुआई की कथा जल्द ही.अभी तो धनतेरस बीता है , नरक चतुर्दशी, दीपावली और भैया दूज बाकी हैं . ये त्योहार सबको शुभ हों ,ऐसी कामना है. शुभ दीपावली ! हैप्पी भाई दूज !
*** बोलो , आलू बाबा की जय !
Thursday, October 15, 2009
अछूत होने का अभिशाप भोगती टौंस (तमसा)
यह नदी है टौंस. टौंस के बारे में मान्यता यह है कि पौराणिक काल में एक राक्षस का वध किये जाने पर उसका रक्त इस नदी में गिर गया था, जिससे यह दूषित हो गयी. यही वजह है कि इसे तमसा भी कहा जाता है.
उत्तरकाशी जनपद में दो नदियाँ रुपीन और सुपीन देवाक्यारा के भराड़सर नामक स्थान से निकलती हुई अलग-अलग दिशाओं में प्रवाहित होती हैं. रुपीन फते पट्टी के १४ गाँवों से गुजरती है जबकि पंचगाई, अडोर व भडासू पट्टियों के २८ गाँवों से जाती है. लेकिन इन गाँवों के लोग न तो इन नदियों का पानी पीते हैं और न ही इनसे सिंचाई की जाती है. नैटवाड़ में इन नदियों का संगम होता है और यहीं से इसे टौंस पुकारा जाता है.
लोकमान्यताओं के अनुसार रुपीन, सुपीन और टौंस नदियों का पानी छूना तक प्रतिबंधित किया गया है. वजह धार्मिक मान्यताएं भी हैं. कहते हैं कि त्रेता युग में दरथ हनोल के पास किरमिरी नामक राक्षस एक ताल में रहता था. उसके आतंक से स्थानीय जन बेहद परेशान थे. लोगों के आवाहन पर कश्मीर से महासू देवता यहाँ आये और किरमिरी को युद्ध के लिए ललकारा. भयंकर युद्ध के बाद महासू देव ने आराकोट के समीप सनेल नामक स्थान पर किरमिरी का वध कर दिया. उसका सर नैटवाड़ के पास स्थानीय न्यायदेवता शिव के गण पोखू महाराज के मंदिर के बगल में गिरा जबकि धड़ नदी के किनारे. इससे टौंस नदी के पानी में राक्षस का रक्त घुल गया. तभी से इस नदी को अपवित्र तथा तामसी गुण वाला माना गया है.
एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वापर युग में नैटवाड़ के समीप देवरा गाँव में कौरवों व पांडवों के बीच हुए युद्ध के दौरान कौरवों ने भीम के पुत्र घटोत्कच का सिर काट कर इस नदी में फेंक दिया था. इसके चलते भी इस नदी को अछूत माना गया है. मान्यता है कि इस नदी का पानी तामसी होने के कारण शरीर में कई विकार उत्पन्न कर देता है यहाँ तक कि अगर कोई लगातार दस साल तक टौंस का पानी पी ले तो उसे कुष्ठ रोग हो जाएगा!
सामाजिक कार्यकर्त्ता मोहन रावत, सीवी बिजल्वाण, टीकाराम उनियाल और सूरत राणा कहते हैं कि नदी के बारे में उक्त मान्यता सदियों पुरानी है और पौराणिक आख्यानों पर आधारित है. वे कहते हैं कि हालांकि इस नदी के पानी के सम्बन्ध में किसी तरह का वैज्ञानिक शोध नहीं है लेकिन स्थानीय जनता की लोक परम्पराओं में यह मान्यता इस कदर रची बसी हुई है कि कोई भूलकर भी इसका उल्लंघन नहीं करता.
नोट: यह पूरी रपट एजेंसियों की है. इसे यहाँ प्रस्तुत करने के अलावा इसमें मेरा कोई योगदान नहीं है.
Tuesday, October 13, 2009
हमने क्यों ओढ़ रखी है अजनबियत से भरी जमी हुई मुस्कान ?
अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की कवितायें अप 'कबाड़ख़ाना' पर एकाधिक बार पढ़ चुके हैं और उन्हें पसन्द भी किया गया है , ऐसा भान है। तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद कविता के लिए जगह बची है और सदैव बनी रहेगी. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में तरह - तरह की कवितायें आ रही हैं, इसमें हिन्दीतर और खासकर वैश्विक कविता का भी एक बड़ा हिस्सा सामने आ रहा है. इस सिलसिले में 'कबाड़ख़ाना' की कोशिश संभवत: अथाह - अतल समुद्र में विलीन हो जाने को आतुर एक बूँद के बराबर हो सकती है लेकिन यह कोशिश जारी रहे तो बुरा क्या है! इस बीच अनुवाद के जारी क्रम में अन्ना की कविताओं से बार - बार गुजरते हुए अक्सर यह ( यह भी ) लगता रहा है कि छोटी - छोटी चीजें कैसे एक कवि के संवेदन जगत का अंग बनकर स्वयं बड़ी व कालातीत बन जाती हैं. अच्छा हो कि कवितायें खुद बोलें , कवि को जो कहना था कह गया है और पाठकों के हिस्से में गुनना - बुनना- सुनना - समझना रह गया है ,सो अनुवादक कुछ न ही बोले तो ठीक है. तो लीजिए प्रस्तुत हैं अन्ना अख़्मातोवा की दो कवितायें -
गर बीमार पड़ो तो हो जाना चाहिए नीमपागल
गर बीमार पड़ो तो हो जाना चाहिए नीमपागल
और करनी चाहिए सबसे फिर से मुलाकात.
हवा और धूप से भरपूर
सागर तट की बगीची की चौड़ी पगडंडियों पर
करनी चाहिए बेमकसद घुमक्कड़ी।
मृतात्मायें भी आने को हैं सहर्ष तैयार
और मेरे घर वास करना चाहता है निर्वासन भी.
किसी खोए बच्चे की उंगली थाम
इधर - उधर डोलने का मन कर रहा है आज के दिन.
मृत मनुष्यों के साथ चखूँगी मैं नीले द्राक्ष
पीऊँगी बर्फानी शराब.
और अपने कड़ियल बिस्तरे पर
गिर रहे जलप्रपात को
निहारती रहूँगी खूब देर तलक.
जब आप पिए हुए हों, खूब होती है मौज
तयशुदा समय से थोड़ा पहले
आ पहुँचा है पतझड़
पीले परचमों के साथ शोभायमान हैं एल्म के पेड़.
वंचनाओं की जमीन पर बिखर गए हैं हम
पछतावे में उभ - चुभ करते
और तिक्तता से लबरेज.
हमने क्यों ओढ़ रखी है
अजनबियत से भरी जमी हुई मुस्कान ?
और शान्तचित्त प्रसन्नता के बदले
चाह रहे हैं बेधक संताप....
मैंने खुद को त्याग नहीं दिया है साथी !
अब मैं हूँ व्यसनी और सौम्य
जानते हो साथी !
जब आप पिए हुए हों, खूब होती है मौज !
( अन्ना अख़्मातोवा की विस्तृत जीवनकथा से कुछ अंश शीघ्र ही आप यहाँ देख सकेंगे.अन्ना का पोर्ट्रेट: निकोलाइ यर्सा , १९२८ )
Sunday, October 11, 2009
भला हुआ मेरी मटकी फूटी
कितने - कितने बरस बीत गए
सब धरती को कागज
सात समुद्रों को स्याही
और समूची वनराजियों को
कलम बना लेने का मंत्र देने वाला जुलाहा
अब भी बुने जा रहा है लगातार-
रेशा रेशा !
बहुत दिन हुए 'कबाड़ख़ाना' पर कुछ गीत - संगीत नहीं प्रस्तुत किया. सो आज यह गीत और इस बहाने कबीर की कुछ साखियाँ. जब भी कबीर की बात आती है अधिकांश लोग कबीर के 'दोहे' सुनाने लगते हैं लेकिन यह सच है कि उन्होंने दोहे ( लिखने की बात नही है - 'मसि कागद छूयो नहीं !) नहीं , साखियाँ कही है.याद करे 'बीजक' के तीन खंडों को - साखी , सबद और रमैनी.साखी अर्थात साक्षी. इसमें कोई दो राय नहीं कि कबीर की वाणी अपने समय में अपने समय साक्ष्य थी और और आज भी अपने समय का साक्ष्य है !
Saturday, October 10, 2009
काग़ज़ का खम्भा या खम्भे का काग़ज़
('कागद कथा', भाग एक अध्याय एक से उद्धृत)
(फ़ोटो http://vkman.wordpress.com से साभार)
एक सच्चा वाक़या बयान करता हूं. मेरा एक मित्र अमरीका में नौकरी करता है. साल में एक दफ़ा अपने माता-पिता से मिलने यहां आता है. पिता सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे, फ़िलहाल रिटायर हो चुके हैं.
दोस्त के आने की ख़बर सुनकर जाहिर है उस से मिलने उसके घर जाना होता था. अक्सर वह बिजली विभाग के किसी दफ़्तर गया पाया जाता था. और मुझे उसके लौटने तक उस के पिता से सौ बार सुना जा चुका 'रागदरबारी' के लंगड़-प्रकरण सरीखी उनकी एक संघर्षगाथा को पुनः सुनना पड़ता था.
रिटायरमेन्ट के समय मिली पीएफ़ की रकम से साहब ने मैदानी इलाके में एक प्लॉट खरीदा ताकि बुढ़ापे के जाड़ों की धूप सेकने को अपना खुद का एक ठीहा बनाया जा सके. प्लॉट एक परिचित के माध्यम से खरीदा गया. परिचित के किसी चचेरे भाई के किसी दोस्त के किसी प्रॉपर्टी डीलर से सम्बन्ध थे. तो बिना देखे, हर किसी की भलमनसाहत पर भरोसा रखते हुए जो प्लॉट इन्हें मिला उसके बीचोबीच बिजली का ट्रान्सफ़ॉर्मर था. रजिस्ट्री हो चुकी थी, पैसे का धुंआं निकल चुका था. तो पिछले तीन सालों से एक पखवाड़े के लिए घर आए मेरे दोस्त का ज़्यादातर समय बिजली विभाग के बाबुओं से अपने पिता द्वारा उक्त ट्रान्सफ़ॉर्मर को हटाए जाने सम्बन्धी आवेदन का स्टैटस मालूम करने में बीता करता था. कभी बड़ा साहब दौरे पर गया होता, कभी कोई अनापत्ति प्रमाणपत्र कम पड़ जाता.
"दिस कन्ट्री वुड नेवर इम्प्रूव! हू वान्ट्स टु कम टू दिस गटर! आई रादर टेक माई पेरेन्ट्स अलोन्ग नैक्स्ट टाइम!" अमरीका से ही लाई सिन्गल माल्ट व्हिस्की के घूंट लगाता मेरा भारत महान को इसी तरह की लानतें-मलामतें भेजता मित्र किसी शुभ दिन अमरीका चला जाता और पिताजी का प्लॉट बमय ट्रान्सफ़ॉर्मर के बरकरार बना रहता.
यह बेहद इत्तफ़ाकन हुआ कि मेरा एक स्कूली सहपाठी एक पार्टी में टकरा गया जो बिजली महकमे में एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर बन कर पिछले ही हफ़्ते मेरे शहर पोस्टेड हो कर आया था. अमरीकावासी दोस्त के पिताजी को इस बात की भनक लगने में करीब दसेक दिन लगे और वे बड़ी आशा के साथ अपने शाश्वत बनते जा रहे विद्युतविभागीय दुख की फ़ाइलों का पुलिन्दा यह कह कर मेरे घर छोड़ गए कि बस मेरे दोस्त के एक दस्तख़त से उनका काम बन जाएगा.
अगले ही दिन करीब दस फ़ाइलों का वह पुलिन्दा ले कर मैं अभियन्तामित्र के दफ़्तर गया. उसने फ़ाइलें अपने मातहत किसी कर्मचारी को थमाते हुए कहा कि कामधाम तो होता रहेगा थोड़ा गपशप की जाए.
शाम को उसका फ़ोन आया कि उसने अपने असिस्टेन्ट इंजीनियर को साइट पर भेज कर रपट तैयार करवा ली है और इस काम में प्रार्थी को एक लाख उन्नीस हज़ार रुपये खर्च करने पड़ेंगे क्योंकि ट्रान्सफ़ॉर्मर हटवाने का काम बहुत पेचीदा होता है.
अमरीकावासी मित्र के पिता को बताया तो वे बोले यह रकम तो प्लॉट की कीमत से भी ज़्यादा है. अभियन्तामित्र से मैंने कुछ रियायत करने को कहा तो उसने खुद मौका मुआयना करने का आश्वासन दिया और हफ़्ते भर बाद उक्त रकम को तेईस हज़ार बनाने का चमत्कार कर दिखाया. यह समझौता किये जाने लायक रकम थी.
अगली सुबह जब अमरीकावासी मित्र के पिता रकम लेकर बिजली दफ़्तर पहुंचे तो दोस्त ने उनसे कहा कि अभी पैसा जमा करवाने की आवश्यकता नहीं. उसने यह सलाह भी दी कि फ़िलहाल वे पैसा मेरे पास छोड़ जाएं क्योंकि पता नहीं खम्भों का इन्तज़ाम कब हो जाए. तो साहब यह रकम भी मेरे पास छोड़ दी गई.
उसी शाम अभियन्तामित्र ने अपने घर खाने पर बुलाया. एकाध घन्टे की गपशप के बाद उसे अचानक कुछ याद आया. वह फुसफुसाते हुए बोला: "देखो ये तेरे बुढ़ऊ बहुत शरीफ़ आदमी हैं इसी लिए इनका काम नहीं बनता. अगर मैं इनके पैसे जमा करा लेता तो ऑफ़ीशियली भी इस काम में कम से कम एक साल लगना था. एक तो इनकी एप्लीकेशन अस्सीवें नम्बर पर होती फिर कब कहां से तार आते, कहां से खम्भे और लेबर कब फ़्री होती ... तो ... " उसने आंख मारते हुए कहा: "तेरे परिचित मेरे भी तो कुछ हुए न यार ... ऐसा है तू उनके दस हज़ार रुपए लौटा देना ... कल तक खेत से ट्रान्सफ़ॉर्मर हटा मिलेगा."
मैंने असमंजस और अविश्वास में उसे देखना शुरू किया ही था कि वह बोला: "देख भाई, चाहो तो काम अब भी वैसे ही करवा लो. मगर उसमें कागज़-पत्तर कम पड़े तो फिर अड़ंगा लग सकता है. और क्या पता चुनाव के बाद कहीं मेरा ट्रान्सफ़र हो गया तो! अब काम को ऐसे कराने में क्या हर्ज़ है ... देख, मैं अपना हिस्सा छोड़ रहा हूं ... पर दूसरे इंजीनियर हैं, लाइनमैन हैं, उन्होंने भी तो बच्चे पालने हैं न! और कागज़-पत्तर पर कुछ लिखत-पढ़्त कराने की ज़िद न करें, बोल देना बुढ़ऊ को! फ़िज़ूल काम में अड़ंगा लगेगा."
अगली शाम तक वाकई काम हो चुका था. प्लॉट का ट्रान्सफ़ार्मर हट चुका था, सभी सम्बन्धित 'महोदय' और 'प्रार्थी' पार्टियां सन्तुष्ट थीं. तीन साल तक लंगड़ बनते बनते अमरीकावासी मित्र के पिता की गरदन और पीठ इस लायक नहीं बचे थे कि उन्हें दोबारा सीधा किया जा सके. खैर, जब मैंने उनसे फ़ाइलें वापस ले जाने के बाबत पूछा तो उन्होंने हिकारत से आसमान को देखते हुए कहा: "अरे बेटा खड्डे में डाल सालियों को." अभियन्तामित्र ने इन फ़ाइलों को लेकर जो शब्द इस्तेमाल किए उन्हें यहां लिखा नहीं जा सकता.
(जब अवसर मिलेगा, तभी इसका अगला हिस्सा लिखूंगा. तब तक के लिए जय काग़ज़ देवता की! 'अनन्त रफ़्तार' का आभार.)
Friday, October 9, 2009
पुलेला गोपीचन्द ज़िन्दाबाद!
क्रिकेट के प्रति भारत की दीवानगी के चलते हमारे यहां पर्याप्त क्षमता होने के बावजूद जिन खेलों के साथ पूरा न्याय नहीं हो पाया है, बैडमिटन उनमें प्रमुख है। छोटे-छोटे कस्बों तक में घरेलू महिलाओं-बच्चों-सरकारी अधिकारियों आदि का पसंदीदा खेल होने के बावजूद विश्व बैडमिंटन परिदृश्य में भारत की उपस्थिति उतनी मज़बूत नहीं है, जितनी वह हो सकती थी। भारत में बैडमिंटन का ज़िक्र हो तो ज़ाहिर है सबसे पहले प्रकाश पादुकोण नाम के चैम्पियन खिलाड़ी का ही नाम आएगा।
1978 से 1980 के बीच पादुकोण को विश्व में पहली रैंकिंग प्राप्त थी। बैडमिंटन की तमाम बड़ी प्रतियोगिताएं जीत चुकने के बाद पादुकोण ने इस खेल की सबसे मुश्किल और प्रतिष्ठित मानी जाने वाली ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप 1981 में इंडोनेशिया में लिम स्वी किंग को हराकर अपने कब्ज़े में की थी। ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप का बैडमिंटन में वही महत्व है जो टेनिस में विम्बलडन का है या क्रिकेट में लॉर्ड्स के मैदान पर टेस्ट जीतने का।
प्रकाश पादुकोण के रिटायर होने के बाद सैयद मोदी से बहुत उम्मीदें थीं पर 1988 में बेहद विवादास्पद परिस्थितियों में लखनऊ में उनकी हत्या हो गई। इस त्रासद घटना के कोई दस सालों तक भारतीय बैडमिंटन के दिन कोई विशेष उल्लेखनीय नहीं रहे। इस बीच आन्ध्र प्रदेश के नलगोंडा में जन्मा एक बेहद प्रतिभाशाली खिलाड़ी इस खालीपन में किसी सनसनी की तरह उभर रहा था। पुलेला गोपीचंद नाम के एक खिलाड़ी की शैली में कई विशेषज्ञों को प्रकाश पादुकोण की झलक दिखाई देती थी, लेकिन 1995 में पुणे में चल रही एक प्रतियोगिता में डबल्स के एक मैच के दौरान गोपीचन्द के घुटने में घातक चोट लगी और उनका करिअर करीब-करीब समाप्त हो गया था।
एक सामान्य खिलाड़ी और एक बडे़ खिलाड़ी में क्या फर्क होता है, यह अगले एक साल में गोपीचंद ने कर दिखाया। चोट से उबरकर उन्होंने न केवल विश्व बैडमिंटन में अपनी रैंकिंग में उल्लेखनीय सुधार किया बल्कि 2001 तक आते-आते वह कारनामा कर दिखाया जो सिर्फ प्रकाश पादुकोण कर पाए थे। पुलेला गोपीचन्द ने चीन के चेन हांग को हराकर ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप जीती। इसके पहले नवंबर 2000 में उन्होंने ईपोह मास्टर्स में तत्कालीन नंबर एक खिलाड़ी इंडोनेशिया के तौफीक हिदायत को धूल चटाई थी।
जैसा कि बाज़ारवाद के इस युग में होना ही था, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऑल इंग्लैंड चैम्पियनशिप जीतने के बाद गोपीचंद को नोटिस किया और एक कोला कंपनी ने अपने उत्पाद के विज्ञापन के लिए उनसे संपर्क किया। कोला के विज्ञापन के मायने होते हैं अच्छी खासी मोटी रकम, लेकिन तब भी अपने माता-पिता के साथ किराए के घर में रह रहे पुलेला गोपीचंद ने साफ साफ मना कर दिया। आमतौर पर बहुत शांत रहने वाले इस खिलाड़ी ने इस बात को कोई तूल नहीं दी, न ही किसी तरह की पब्लिसिटी की। मीडिया तक को इस बात का पता दूसरे स्त्रोतों से लगा।
एक इंटरव्यू में उनसे इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने कहा, चूंकि मैं खुद सॉफ्ट ड्रिंक नहीं पीता, मैं नहीं चाहूंगा कि कोई दूसरा बच्चा मेरी वजह से ऐसा करे। मैं कोई चिकित्सक नहीं हूं, लेकिन मुझे पता है कि सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं और मैंने अपने मैनेजर को इस बारे में साफ-साफ कह रखा है कि मैं किसी भी ऐसे प्रॉडक्ट के साथ नहीं जुड़ूंगा, चाहे वह सॉफ्ट ड्रिंक हो या सिगरेट या शराब।
पैसे को लेकर भी उनका दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था: "मेरे लिए ज़्यादा महत्व उसूलों का है और मैं किसी भी कीमत पर अपने उसूलों को पैसे के तराज़ू पर नहीं तोल सकता।"
आज जिस सायना नेहवाल के प्रदर्शन पर हम प्रसन्नतामिश्रित गौरव महसूस करते हैं उसे इस मुकाम पर ला पाने का पूरा श्रेय इस चैम्पियन गोपीचन्द को जाता है.
क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि हमारे क्रिकेटरों के पास भी ऐसे कोई उसूल हैं?
(यह लेख मैंने कुछ समय पहले 'नवभारत टाइम्स' के खेल पन्ने के लिए लिखा था. नभाटा का आभार.)