Saturday, January 31, 2009

वसंत पंचमी की शुभकामनाएं


हजार तरीकों से प्यार किया है हमने
पृथ्वी से
और
स्त्री से
दोनों के भीतर है ब्रह्मांड की खुशियों के झरने
दौड़कर छू लेने वाली आंखों से देखो
सब देखो
नीली गौरैया
नदी को देख रही है
तिरछी नजर से...
(ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले की कविता पंक्तियां )
पेंटिंग ः रवींद्र व्यास

ब्रायन जॉन्सटन और बिल फ़्रिन्डल की जुगलबन्दी याद है?



क्रिकेट के जानकार बिल फ़्रिन्डल के नाम से अपरिचित नहीं होंगे. 'द बीयर्डेड वन्डर' के नाम से विख्यात फ़्रिन्डल दुनिया के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट-स्कोरर थे. ब्रायन जॉन्सटन से ले कर इंग्लिश गेंदबाज़ जोनाथन एग्न्यू तक रेडियो-टीवी पर कमेन्ट्री करने वाली कई पीढ़ियां श्रोताओं-दर्शकों को दिलचस्प आंकड़े बताने को बिल पर निर्भर रहीं. बीबीसी के 'टेस्ट मैच स्पेशल' से १९६६ में जुड़े बिल फ़्रिन्डल की २९ जनवरी को मृत्यु हो गई.

३ मार्च १९३९ को जन्मे बिल अपने समय में अच्छे ख़ासे क्रिकेटर थे और आगे के दिनों में स्कोरर-कमेन्टेटर के अलावा लॉर्ड टैवर्नर्स नामक क्रिकेट क्लब के प्रमुख सदस्य बने. लॉर्ड टैवर्नर्स के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव मैथ्यू पैटन ने बिल को याद करते हुए कहा: "बिल हमारे क्लब के अभिन्न थे. उन्हें यह याद करने में मज़ा आता था कि उन्होंने लॉर्ड टैवर्नर्स की तरफ़ से खेलते हुए जैक रॉबर्टसन के साथ पारी की शुरुआत की थी. जॉन स्नो और डेनिस लिली के ख़िलाफ़ गार्ड लिया था और एक दफ़ा रेग सिम्पसन को गेंदबाज़ी की थी जबकि गॉडफ़्री इवान्स विकेटकीपिंग कर रहे थे."

मुझे ख़ुद बचपन से क्रिकेट के आंकड़े इकठ्ठा करने का जुनून रहा है. यह शौक़ मुझे अपने स्कूल के अंग्रेज़ी अध्यापक श्री एम.डी. जोशी की वजह से लगा था जो बात-बात पर क्रिकेट के आलीशान किस्से सुनाया करते थे. उन्होंने ही बताया था कि अच्छी अंग्रेज़ी बोलने के लिए बीबीसी की क्रिकेट कमेन्ट्री सुनने से बेहतर कोई अभ्यास नहीं हो सकता. बिल फ़्रिन्डल का नाम भी उन्होंने ही बताया था. बिल की आत्मकथा 'बीयर्डर्स: माई लाइफ़ इन क्रिकेट' अब भी मेरे पुस्तकालय की शोभा है.

पता नहीं नई पीढ़ी के लोग किसी स्कोरर की मौत पर लिखी पोस्ट का कितना मतलब समझेंगे लेकिन बिल का जाना व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए एक पूरे रोमान्टिक युग का अवसान है. रज़ाई के भीतर रेडियो धरे हुए ब्रायन जॉन्सटन और बिल फ़्रिन्डल की जुगलबन्दी वाली बीबीसी की क्रिकेट कमेन्ट्री सुनने की यादों के सामने आज के हाईटैक कैमरों से सुसज्जित टीवी वाली अक्सर एकरस और फुस्स कमेन्ट्री सुनना कई दफ़े खीझ असहायता से भर देता है.

पर न वो बखत रहा न वैसी निश्चिन्तताभरी ज़िन्दगी. न ही तब क्रिकेट कैसे भी फ़कत पैसा कमाने भर का जरिया हुआ करता था.

गुडबाई बिल चच्चा!

Friday, January 30, 2009

बोरों के लब लपक के खोल दे



(... गतांक से आगे, भाग-२)

लंबू्द्वीप के नागरिकों में भुसभराई का काम जिन दिनों जारी था उन्हीं दिनों भूसे की किल्लत हो गई जिसे इतिहास में "ग्रेट भूसा क्राइसिस" के नाम से जाना जाता है। उन्हीं दिनों "भूसा, कपड़ा और पेड़ की छांव" नामक एक फिल्म आई जो पालतू मवेशियों में इतनी लोकप्रिय हुई कि सिनेमा हालों में लगातार इकहत्तर हफ्ते तक चलती रही। लंबू द लपड़झप्प की कला जिस वक्त परवान चढ़ रही थी हार्वेस्टर कम्बाइन नामक एक मशीन से गेंहू की कटाई और मड़ाई होने लगी जो गेंहू की बालियों को काटकर डंठल खेत में ही छोड़ देती थी, भूसा निकलने का सवाल ही नहीं था। ऐसे में थ्रेसर युग के पहले से चले आ रहे तरीके यानि बैलों की खुरों से मड़ाई द्वारा निकलने वाला अत्यअल्प भूसा ब्लैक में बिकने लगा। भूसे की चाहत भटकाते हुए बहुतेरों को जापान तक ले गई इनमें से एक प्रजाति को "गीशा काउज" के रूप में जाना जाता है।

जो बैल जूते नहीं पहनते उनकी खुरों से एक रसायन का स्राव होता है जिसे अफगानिस्तान के वैज्ञानिक गिजा-ए-कॉमनसेंस के नाम से जानते हैं। यह रसायन मूलतः आदमी की संदेह ग्रंथियों को उत्तेजित करता है। यह रसायन नागरिकों की खाल में भरे जाते भूसे के साथ दिमाग तक पहुंचा और वे लपड़झप्प लंबू की नकली बघीरे की आवाज में स्त्रियों में बात कर अपनी ओर आकर्षित करने की कला का अवलोकन जरा और एकाग्रता से करने लगे।

भुसभरे आदमी इतने हल्के हो चले थे कि वायु निःसृत करते समय राकेट नोदन के सिद्धांत के मुताबिक जमीन से कई फीट ऊपर उठ जाते थे लेकिन इसी हल्केपन के कारण विरोधी उनकी खूब कुटाई भी करते थे। अंदर भूसा भरा होने के काऱण चोट कम लगती थी लेकिन संदेह ग्रंथियों के उत्तेजित होने का कारण उनमें से कुछ को खटका लगा रहता था कि कहीं उनका अपमान तो नहीं किया जा रहा है। लंबू द लपड़झप्प जब नकली बघीरे की आवाज में जब अपनी टांगे झटकते हुए कला का प्रदर्शन किया करता तब लोगों को लगता कि उनके अपमान का बदला लिया जा रहा है और नकली तालियां इतनी जोर से बजाते कि अंदर भरा भूसा नाखूनों से झरने लगता। बहुत से लोगों ने इतनी तालियां बजाईं कि उनके अंदर भरा सारा भूसा झर गया और वे अपने कानों के ऊपर काल्पनिक गोलाई में कंघी घुमाते हुए अपनी कमीजों के दामन पेट पर बांध कर सड़कों पर टहलने लगे। वे खुद लपड़झप्प होना चाहते थे लेकिन अंदर भूसा ही नहीं बचा था।

इसी समय लपडझप्प को लगने लगा कि तालियां नकलीं हैं और वह बोर हो चला। पिलपिल झूंसवी उसे क्या बनाना चाहते थे और वह क्या बन गया। जवानें गायें उसका पीछा करती थीं, बछड़े उसकी तरह टांगे उछालते थे और गधे नकली बघीरे की आवाज में रेंकते हुए अपने कान आगे कर देते थे और उसे मजबूरी में वहां अपना नाम लिखना पड़ता था। मजबूरी थी, आखिर वह भूसे का ब्रांड अंबेसडर था।

एक दिन वह बोरियत से बेजार होकर भूसे की एक लकीर पर चलने लगा। यह लकीर किसी के नाखूनों के झरते भूसे से बनी थी जो कहीं आगे, बहुत दूर चला जा रहा था। लपड़झप्प को यकीन था कि यह लकीर सच्चे दिल से बस उसके लिए झरे भूसे से बनी है और उसे वहां ले जाएगी जहां उसे जरा लंबे आकार-प्रकार के बंदर की तरह कूद-फांद करने से मुक्ति मिल जाएगी और एक सार्थक जिंदगी की शुरुआत होगी।

बचपन में पिता यानि पिलपिल झूंसवी उसे सुबह अपने साथ घुमाने ले जाते थे और प्रति कनटाप अपनी एक कविता कंठस्थ कराया करते थे। यह साहित्य और मनुष्य के जैविक इतिहास में अपनी जगह सुरक्षित करने की अपनी जुगाड़मय तरकीब थी। उन्हें पता था लपड़झप्प को लोग एक दिन टिकट लेकर वैसे ही देखेंगे जैसे चिड़ियाघर में जिराफ को देखने जाते हैं। उस समय वह उनकी कविता गाएगा, इस तरह वे भूसे के तिनकों से जैविक इतिहास में और फिर कागजी इतिहास में पहुंच जाएंगे। उस लकीर के साथ लहराते चलते लपड़झप्प, अपने पिता की एक कविता बुदबुदाने लगा जिसका सार यह था कि भूसे की चाहे जितनी किल्लत हो, तू बस उस लकीर पर बां-बां करता चलता जा देखना तेरे अकीदे की तासीर से तुझे अपार भूसा मिलेगा...।

बोरे हों बड़े-बड़े
ऊंघते पड़े-पड़े
पवन का वेग तेज जो
बोरों के लब, लपक के खोल दे
और अंतरिक्ष में तू रच
तृण पथ-तृण पथ।


उस पथ पर चलते चलते उसने आपको एक देवी के घर के सामने पाया जो अपना यौवन अक्षुण्ण रखने के लिए काली बिल्लियों को चींटियों के दूध पर पालती थी फिर उनका कोरमा खाती थी। उसने लपड़झप्प को देखकर अपनी नाक सुड़क कर उस पर तर्जनी चाकू की तरह चलाई। ऐसा करते हुए वह कमसिन बंदरिया लग रही थी उस दृश्य में ऐसा कुछ था कि लपड़झप्प के भीतर बंदर के बजाय मदारी बनने की इच्छा जागृत हुई।

(सुधीजनो, लम्बूद्वीप की कथा जारी है ...)

Thursday, January 29, 2009

लम्बूद्वीप, नकली बघीरे की आवाज़ और भूसा

उमर खैयाम की कनगू (कानों से निकला जाने वाला मटेरियल) से अपनी खैनी को स्वादिष्ट बनाने के शौकीन पिलपिल 'झूंसवी' नामक एक शायर के घर जब उस बालक का अवतरण हुआ तो जम्बूद्वीप के नभ पर मेघ छाये हुए थे. बिजली रह रह कर कड़क रही थी जब एक दैववाणी ब्रॉडकास्ट हुई पर मौसम के खराब होने की वजह से कोई भी उसे ठीक तरह नहीं सुन पाया.

दैववाणी के हिसाब से जम्बूद्वीप का टैम खराब चल्लिया था जिसे और भी खराब बनाने के महती अनुष्ठान में अपना योगदान करने की नीयत से देवताओं ने जम्बूद्वीप का नाम लम्बूद्वीप करने का निर्णय कर लिया था. लम्बूद्वीप में रहने वाले लोगों को एक सहत्राब्दी के वास्ते एक टैम्प्रेरी देवता टाइप लपड़झप्प की आवश्यकता हुई सो उक्त पिलपिल शायर के घर पर अवतरित हुए बालक को लम्बू नाम दे कर देवताओं ने अपना काम पूरा किया. ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो सद्यःस्वतन्त्रताप्राप्त लम्बूद्वीप में रहने वाले नागरिकों ने किसी दैवीय प्रेरणा के प्रभाव में आ कर अपनी खाल में जहां मौका लगे भुस भरा लेने का कौल उठा लिया.

उक्त लपड़झप्प लम्बू को नकली बघीरे की आवाज़ निकालने का कुटैव बचपन से ही लग गया था. इस चक्कर में वह अपनी नैसर्गिक आवाज़ ही खो बैठा (उसके मां-बाप-भाई-चचा-मामू इत्यादि से इस तथ्य की तस्दीक करा लेने के उपरान्त ही यह लिख पाने की छूट ले पा रहा है इन पंक्तियों का नाचीज़ लेखक). नकली बघीरे की ध्वनि सुनकर लम्बूद्वीप के निवासी मुदित होते और भूसे के ढेरों पर बैठे नकली ताली बजाया करते. उनकी देहों में इतना भूसा भर चुका था कि अब कतई जगह नहीं बची थी. लेकिन उनका भूसप्रेम इस कदर उन के सर पर बतर्ज़ फ़िराक गोरखपुरी सौदा बन कर सवार था कि वे भूसे को देखते ही अपना होश खो बैठते और बच्चों के हाथों के पिलास्टिक की थैलियां थमा कर अपने आसपास के माहौल को भूसीकृत किये जाते.

भुस भरे जाने का व्यवसाय अब सबसे सफल इन्डस्ट्री और भुस भरवाए जाने का अपरिहार्य कर्तव्य आधुनिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था. भूसदेवता नामक काल्पनिक दैत्य का गोल मन्दिर दिल्ली नामक चौर्यस्थल में स्थापित किया जा चुका था.

पहले के समय में भुस भरे जाने के लिए आदमी की खाल में चीरा लगाया जाना होता था. दर्द के मारे आदमी चीखते थे और बाकी के अनभुसे आदमी उसके सपोर्ट में आ जाया करते थे. इस अवांछित गतिविधि से निजात पाने को भूसदेवता ने बहुत सारी कमेटियां बिठाईं जिनकी सलाहों को फ़ॉलो करते हुए लेज़र से भुस भरे जाने का ठेका अमरीका की कुछेक फ़र्मों को दिया गया.

नकली बघीरे की आवाज़ निकालने को लम्बूद्वीप में कला का शीर्षस्थ पैमाना घोषित किया गया.

( लम्बूद्वीप की कथा जारी है ... )

गृहस्थो, हम आ रहे हैं

(दू्सरी जुगलबन्दी पोस्ट. पहली का लिंक ये रहा)

अशोक पाण्डे: बेग़म की मार खा चुकने के उपरान्त चन्द रोज़ अपने दीवानख़ाने में तन्हाई की सज़ा काट चुका बादशाह बाहर आया तो क्या देखता है कि महल की सारी बुर्जियों पर कव्वे, कवाब और रूमाली रोटियों की दावत-ए-परिन्दानां को निबटाने में लगे हैं.

बादशाह ने कव्वों के सरदार से पूछा : "क्यूं बे कव्वे, मैंने तुस्से कई थी कि मुझे अपने महल में एक भी परिन्दा ना चइये!"

"मालिक अभी तो सारे कव्वे खाना निबटाने में मुब्तिला हैं ... मार्कीट मद्दा चल्लिया दिक्खे!"

"अबे कलुवे, जे सब तो तब कई गई थी जब तुमैं खाना ना मिलै"

"पैं ... " कहकर वह कव्वा उड़ा तो सारे कव्वे भी उस पीछे उड़ चले। सरदार के गले में रूमाली रोटी का छ्ल्ला पड़ा था जिसमें प्याज के तिरछे, बांके कतरे झूल रहे थे।


अनिल यादव: अपनी गिनती के एतबार नौ दिन- आठ रात मुसलसल पंख हिलाने के बाद कव्वे जंबू द्वीप के ऊपर पहुंचे तो पाया कि हवा में एक दो गाना तैर रहा है- "उड़ जा काले कांवां जा रे खंड बिच पांवा मिठियां।" भूख लग आई और उसके खिंचाव से कव्वे नीचे उतर आए।

एक गृहस्थ अपनी स्त्री और तीन साल के बच्चे के साथ गदर नामक चित्र देख कर निकला था और तेज कदमों से घर की राह चला जाता था। अचानक सामने कव्वों के सरदार को पाकर दंपति के हाथ जुड़ गए और बच्चे ने जब पालागन करनी चाही तो सरदार ने पंजे सिकोड़ लिए। रोटी के छल्ले से लटके प्याज के कतरे गिर गए। वहां आज एक प्रसिद्ध तीर्थ है।

खैर उस वक्त, गृहस्थ ने हाथ बांधे कहा, "आप के एक ही आंख है फिर भी सबकुछ देख लेते हो। आप की चोंच वहां पहुंची है जहां कवि-शायर भी नहीं पहुंच पाते। आप हमारा नेतृत्व करें।"

"पैं..."कव्वे के मुंह से आदतन निकला तो गृहस्थ की आंखों में आंसू आ गए।

झुंड की कव्वियों ने जरा अलग ले जाकर सरदार से कहा, बाजीचएअतफलाना हरकत तो करे मती, हां कर दे। और कितना उड़ें, अब हरम में जाकर जाकूजी गुसल का वक्त आन पहुंचा है।

कुछ सोच कर, अपने सयानेपन के साफ्टवेयर पर क्लिक करने बाद कौवे ने गृहस्थ से कहा, "अच्छा तुम लोग अपने ठीए पे जाओ। चुनाव में मुलाकात होगी।"

बस निर्वाचन आयोग तारीखों की घोषणा कर दे। वे आपके घर भी आएंगे। उन्हें प्लीज खंड बिच मिठियां यानि अपना वोट देना न भूलिएगा।

Wednesday, January 28, 2009

एक अमरीकी करोड़पति का सौ साल पहले लिया गया इन्टरव्यू: अन्तिम हिस्सा

"हम्म्म्म ... आप बड़े मजाकिया आदमी हैं" संशय के साथ अपना सिर हिलाते हुए उसने कहा "मैं क्यों किसी कवि को पसन्द करूं? और किसी कवि को किस बात के लिए पसन्द किया जाना चाहिए?"

"माफ कीजिए" अपने माथे से पसीना पोंछते हुए मैंने कहा "मैं आप से पूछ रहा था कि आप की चैकबुक के अलावा आप की सबसे पसन्दीदा किताब कौन सी है ..."

"वह एक अलग बात है!" उसने सहमत होते हुए कहा "मेरी सबसे पसन्दीदा दो किताबों में एक है बाइबिल और दूसरा मेरा बहीखाता। वे दोनों मेरे दिमाग को बराबर मात्रा में उत्तेजित करती हैं। जैसे ही आप उन्हें अपने हाथ में थामते हैं आपको अहसास होता है कि उनके भीतर एक ऐसी ताकत जो आप को आप की जरूरत का हर सामान उपलब्ध करा सकती है ..."

"ये आदमी मेरी मजाक उड़ा रहा है" मुझे लगा और मैंने सीधे सीधे उसके चेहरे को देखा। नहीं। उसकी बच्चों जैसी आंखों ने मेरे सारे संशय दूर कर दिए। वह अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ था अपने खोल में घुसे अखरोट की तरह सिकुड़ा हुआ और यह बात साफ थी कि उसे अपने कहे हर शब्द की सच्चाई पर पूरा यकीन था।

"हां!" अपने नाखूनों की जांच करते हुए उसने बोलना जारी रखा "वे शानदार किताबें हैं! एक फरिश्तों ने लिखी और दूसरी मैंने। आप को मेरी किताब में बहुत कम शब्द मिलेंगे। उसमें संख्याएं ज्यादा है। वह दिखाती है कि अगर आदमी ईमानदारी और मेहनत से काम करता रहे तो वह क्या पा सकता है। सरकार मेरी मौत के बाद मेरी किताब छापे तो वह अच्छा काम होगा। लोग भी तो जानें कि मेरी जैसी जगह पर आने के लिए क्या क्या करना पड़ता है़"

उसने विजेताओं की सी मुद्रा बनाई।

मुझे लगा कि साज्ञाात्कार खत्म करने का समय आ चुका है। हर कोई सिर इस कदर लगातार कुचला जाना बरदाश्त नहीं कर सकता।

"शायद आप विज्ञान के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?" मैंने शान्ति से सवाल किया।

"विज्ञान?" उसने अपनी एक उंगली छत की तरफ उठाई। फिर उसने अपनी घड़ी बाहर निकाली समय देखा और उसकी चेन को अपनी उंगली पर लपेटते हुए उसे हवा में उछाल दिया। फिर उसने एक आह भरी और कहना शुरू किया:

"विज्ञान … हां मुझे मालूम है। किताबें। अगर वे अमेरिका के बारे में अच्छी बातें करती हैं तो वे उपयोगी हैं। मेरा विचार ये … कवि लोग जो किताबें विताबें लिखते हैं बहुत कम पैसा बना पााते हैं। ऐसे देश में जहां हर कोई अपने धन्धे में लगा हुआ है किताबें पढ़ने का समय किसी के पास नहीं है …। हां और ये कवि लोग गुस्से में आ जाते हैं कि कोई उनकी किताबें नहीं खरीदता। सरकार ने लेखकों को ठीकठाक पैसा देना चाहिए। बढ़िया खाया पिया आदमी हमेशा खुश और दयालु होता है। अगर अमेरिका के बारे में किताबें वाकई जरूरी हैं तो अच्छे कवियों को किराए पर लगाया जाना चाहिए और अमरीका की जरूरत की किताबें बनाई जानी चाहिए … और क्या।"

"विज्ञान की आपकी परिभाषा बहुत संकीर्ण है।" मैंने विचार करते हुए कहा।

उसने आंखें बन्द कीं और विचारों में खो गया। फिर आंखें खोलकर उसने आत्मविश्वास के साथ बोलना शुरू किया:

"हां हां … अध्यापक और दार्शनिक … वह भी विज्ञान होता है। मैं जानता हूं प्रोफेसर¸ दाइयां¸ दांतों के डाक्टर ये सब। वकील¸ डाक्टर¸ इंजीनियर। ठीक है ठीक है। वो सब जरूरी हैं। अच्छे विज्ञान ने खराब बातें नहीं सिखानी चाहिए। लेकिन मेरी बेटी के अध्यापक ने एक बार मुझे बताया था कि सामाजिक विज्ञान भी कोई चीज है …। ये बात मेरी समझ में नहीं आई …। मेरे ख्याल से ये नुकसानदेह चीजें हैं। एक समाजशास्त्री अच्छे विज्ञान की रचना नहीं कर सकता उनका विज्ञान से कुछ लेना देना नहीं होता। एडीसन बना रहा है ऐसा विज्ञान जो उपयोगी है। फोनोगाफ और सिनेमा – वह उपयोगी हे। लेकिन विज्ञान की इतनी सारी किताबें। ये तो हद है। लोगों ने उन किताबों को नहीं पढ़ना चाहिए जिनसे उन के दिमागों में संदेह पैदा होने लगें। इस धरती पर सब कुछ वैसा ही है जैसा होना चाहिए और उस सब को किताबों के साथ नहीं गड़बड़ाया जाना चाहिए।"

मैं खड़ा हो गया।

"अच्छा तो आप जा रहे हैं?"

"हां" मैंने कहा "लेकिन शायद चूंकि अब मैं जा रहा हूं क्या आप मुझे बता सकते हैं करोड़पति होने का मतलब क्या है?"

उसे हिचकियां आने लगीं और वह अपने पैर पटकने लगा। शाायद यह उसके हंसने का तरीका था?

"यह एक आदत होती है" जब उसकी सांस आई वह जोर से बोला।

"आदत क्या होती है?" मैंने सवाल किया।

"करोड़पति होना ॰॰॰ एक आदत होती है भाई!"

कुछ देर सोचने के बाद मैंने अपना आखिरी सवाल पूछा:

"तो आप समझते हैं कि सारे आवारा नशेड़ी और करोड़पति एक ही तरह के लोग होते हैं?"

इस बात से उसे चोट पहुंची होगी। उसकी आंखें बड़ी हुईं और गुस्से ने उन्हें हरा बना दिया।

"मेरे ख्याल से तुम्हारी परवरिश ठीकठाक नहीं हुई है।" उसने गुस्से में कहा।

"अलविदा" मैंने कहा।

वह विनम्रता के साथ मुझे पोर्च तक छोड़ने आया और सीढ़ियों के ऊपर अपने जूतों को देखता खड़ा रहा। उसके घर के आगे एक लान था जिस पर बढ़िया छंटी हुई घनी घास थी। मैं यह विचार करता हुआ लान पर चल रहा था कि मुझे इस आदमी से शुक्र है कभी नहीं मिलना पड़ेगा। तभी मुझे पीछे से आवाज सुनाई दी:

"सुनिए"

मैं पलटा। वह वहीं खड़ा था और मुझे देख रहा था।

"क्या यूरोप में आपके पास जरूरत से ज्यादा राजा हैं?" उसने धीरे धीरे पूछा।

"अगर आप मेरी राय जानना चाहते हैं तो हमें उनमें से एक की भी जरूरत नहीं है।" मैंने जवाब दिया।

वह एक तरफ को गया और उसने वहीं थूक दिया।

"मैं सोच रहा कि अपने दिए दोएक राजाओं को किराए पर रखने की।" वह बोला। "आप क्या सोचते हैं?"
"लेकिन किस लिए?"

"बड़ा मजेदार रहेगा। मैं उन्हें आदेश दूंगा कि वे यहां पर मुक्केबाजी कर के दिखाएं …"

उसने लान की तरफ इशारा किया और पूछताछ के लहजे में बोला:

"हर रोज एक से डेढ़ बजे तक। कैसा? दोपहर के खाने के बाद कुछ देर कला के साथ रहना अच्छा रहेगा … बहुत ही बढ़िया।"

वह ईमानदारी से बोल रहा था और मुझे लगा कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है।

"लेकिन इस काम के लिए राजा ही क्यों?"

"क्योंकि आज तक किसी ने इस बारे में नहीं सोचा" उसने समझाया।

"लेकिन राजाओं को तो खुद दूसरों को आदेश देने की आदत पड़ी होती है" इतना कह कर मैं चल दिया।

"सुनिए तो" उसने मुझे फिर से पुकारा।

मैं फिर से ठहरा। अपनी जेबों में हाथ डाले वह अब भी वहीं खड़ा था। उसके चेहरे पर किसी स्वप्न का भाव था।

उसने अपने होंठों को हिलाया जैसे कुछ चबा रहा हो और धीमे से बोला:

"तीन महीने के लिए दो राजाओं को एक से डेढ़ बजे तक मुक्केबाजी करवाने में कितना खर्च आएगा आपके विचार से?"

Tuesday, January 27, 2009

एक अमरीकी करोड़पति का सौ साल पहले लिया गया इन्टरव्यू: भाग तीन

(पिछली पोस्ट से जारी)

उसने फिर से आंखें बन्द कर लीं और अपनी कुर्सी पर आराम से हिलते हुए बोलना जारी रखा:

"ईर्ष्या की उन पापी भावनाओं और लोगों की बात पर जरा भी कान न दो जो तुम्हारे सामने किसी की गरीबी और किसी दूसरे की सम्पन्नता का विरोधाभास दिखाती हैं। ऐसे लोग शैतान के कारिन्दे होते हैं। अपने पड़ोसी से ईर्ष्या करने से भगवान ने तुम्हें मना किया हुआ है। अमीर लोग भी निर्धन होते हैं :प्रेम के मामले मे। ईसामसीह के भाई जूड ने कहा था अमीरों से प्यार करो क्योंकि वे ईश्वर के चहेते हैं। समानता की कहानियों और शैतान की बाकी बातों पर जरा भी ध्यान मत दो। इस धरती पर क्या होती है समानता? आपने अपने ईश्वर के सम्मुख एक दूसरे के साथ अपनी आत्मा की शुद्धता में बराबरी करनी चाहिए। धैर्य के साथ अपनी सलीब धारण करो और आज्ञापालन करने से तुम्हारा बोझ हल्का हो जाएगा। ईश्वर तुम्हारे साथ है मेरे बच्चो और तुम्हें उस के अलावा किसी चीज की जरूरत नहीं है!"

बूढ़ा चुप हुआ और उसने अपने होंठों को फैलाया। उसके सोने के दांत चमके और वह विजयी मुद्रा में मुझे देखने लगा। "आपने धर्म का बढ़िया इस्तेमाल किया" मैंने कहा। "हां बिल्कुल ठीक! मुझे उसकी कीमत पता है।" वह बोला "मैं अपनी बात दोहराता हूं कि गरीबों के लिए धर्म बहुत जरूरी है। मुझे अच्छा लगता है यह। यह कहता है कि इस धरती पर सारी चीजें शैतान की हैं। और ए इन्सान अगर तू अपनी आत्मा को बचाना चाहता है तो यहां धरती पर किसी भी चीज को छूने तक की इच्छा मत कर। जीवन के सारे आनन्द तुझे मौत के बाद मिलेंगे। स्वर्ग की हर चीज तेरी है। जब लोग इस बात पर विश्वास करते हैं तो उन्हें सम्हालना आसान हो जाता है। हां धर्म एक चिकनाई की तरह होता है। और जीवन की मशीन को हम इससे चिकना बनाते रहें तो सारे पुर्ज़े ठीकठाक काम करते रहते हैं और मशीन चलाने वाले के लिए आसानी होती है …"

"यह आदमी वाकई में राज है" मैंने फैसला किया।

"और क्या आप अपने आप को अच्छा ईसाई समझते हैं ?" सूअरों के झुण्ड से निकली उस नवीनतम संतति से मैंने बड़े आदर से पूछा।

"बिल्कुल!" उसने पूरे विश्वास के साथ कहा "लेकिन" उसने छत की तरफ इशारा करते हुए धीरगम्भीर आवाज में कहा "साथ ही मैं एक अमरीकी हूं और कड़ा नैतिकतावादी भी …"

उसके चेहरे पर एक नाटकीय भाव आया और अपने होंठों पर जबान फेरी। उसके कान उसकी नाक के नजदीक आ गए।

"आपका सही सही मतलब क्या है ?" मैंने धीमी आवाज में उससे पूछा।

"आपके मेरे बीच की बात है" वह फुसफुसाया "एक अमरीकी के लिए ईसामसीह को पहचानना असंभव है।"

"असम्भव?" थोड़ा ठहरकर मैंने फुफुसाते हुए पूछा।

"बिल्कुल" वह सहमत होते हुए फुसफुसाया।

"लेकिन क्यों?" एक क्षण को खामोश हो कर मैंने पूछा।

"उसका जन्म किसी विवाह का परिणाम नहीं था।" आंख मारते हुए बूढ़ा अपनी निगाह कमरे में इधर उधर डालता हुआ बोला। "आप समझ रहे हैं ना ? जिसका भी जन्म किसी विवाह का परिणाम न हो उसे तो यहां अमरीका में ईश्वर के बारे में बोलने का अधिकार तक नहीं मिल सकता। भले लोगों के समाज में कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं। कोई भी लड़की उस से शादी नहीं करेगी। हम लोग बहुत कड़े कायदे कानूनों वाले होते हैं। और अगर हम ईसामसीह को स्वीकार करते हैं तो हमें सारे हरामियों को समाज में सम्मानित नागरिकों की तरह स्वीकार करना होगा ... चाहे वे किसी नीग्रो और किसी गोरी औरत की पैदाइश क्यों न हों। जरा सोचिए कितना हैबतनाक होगा यह सब! है ना!"

ऐसा वास्तव में हैबतनाक होता क्योंकि बूढ़े की आंखें हरी हो गईं और किसी उल्लू की सी नजर आने लगीं। अपने निचले होंठ को उसने बमुश्किल ऊपर की तरफ खींचा और अपने दांतों से चिपका लिया। उसे यकीन था कि ऐसा करने से वह ज्यादा प्रभावशाली और कठोर नजर आता होगा।

"और आप किसी भी नीग्रो को सीधे सीधे इन्सान नहीं समझते?" एक लोकतांत्रिक देश की नैतिकता से उदास होकर मैंने पूछा।

"आप भी कितने भोले हैं!" उसने मुझ पर दया जताते हुए कहा। "एक तो वे काले होते हैं। दूसरे उन से बदबू आती है। हमें जब भी पता लगता है कि किसी नीग्रो ने किसी गोरी औरत को बीवी बना कर रखा है तो हम तुरन्त उसका इन्साफ कर देते हैं। हम उसकी गरदन पर एक रस्सी बांधकर बिना ज्यादा सोचविचार के सबसे नजदीकी पेड़ पर लटका देते हैं। जब भी नैतिकता की बात आती है हम लोग बहुत कठोर होते हैं …"

अब उसके लिए मेरी भीतर वह इज्जत जागने लगी जो एक सड़ती हुई लाश को लेकर जागती है। लेकिन मैंने एक काम उठाया हुआ था और मैं उसे पूरा करना चाहता था।

"समाजवादियों के लिए आपका क्या रवैया है ?"

"वे तो शैतान के असली चाकर हैं!" उसने अपने घुटने पर हाथ मारते हुए तुरन्त जवाब दिया "समाजवादी जीवन की मशीन में बालू की तरह होते हैं जो हर जगह घुस जाती है और मशीन को ठीक से काम नहीं करने देती। अच्छी सरकार के सामने कोई समाजवादी नहीं होना चाहिए। तब भी वे अमरीका में पैदा हो रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि वाशिंगटन वालों को उनके काम धन्धों की जरा भी जानकारी नहीं हे। उन्होंने समाजवादियों को नागरिक अधिकारों से वंचित कर देना चाहिए। कुछ तो होगा इस से। मेरा मानना है कि सरकार को वास्तविकता के ज्यादा नजदीक रहना चाहिए। और ऐसा तब हो सकता है जब उसके सारे सदस्य अरबपति हों। असल बात यह है।"

"आप अपनी बातों पर कायम रहने वाले इन्सान हैं" मैने कहा।

"बिल्कुल सही!" उसने स्वीकार करते हुए अपना सिर हिलाया। उसके चेहरे पर से बच्चों वाला भाव समाप्त हो गया और उसके गालों पर गहरी झुर्रियां उतर आईं।

मैं उस से कला के बारे में कुछ सवाल करना चाहता था।

"आपका रवैया ..." मैंने बोलना शुरू किया पर उसने उंगली ऊंची करते हुए कहा :

"दिमाग में नास्तिकता और शरीर में अराजकता : यही होता है समाजवादी। उसकी आत्मा को शैतान ने पागलपन और गुस्से के पंखों से सुसज्जित कर दिया है …। समाजवादी से लड़ने के लिए हमें और ज्यादा धर्म और सिपाहियों की जरूरत पड़ेगी। नास्तिकता के लिए धर्म और अराजकता के लिए सैनिक। पहले तो समाजवादी के दिमाग को चर्च के उपदेशों से भरा जाए। और अगर इस से उसका उपचार न हो सके तो सैनिकों से कहा जाए कि उसके पेट में गोलियां ठूंस दें।"

उसने ठोस विश्वास के साथ सिर हिलाते हुए कहा:

"शैतान की ताकत बहुत बड़ी होती है।"

"यकीनन ऐसा ही है" मैंने तुरन्त स्वीकार कर लिया।

ऐसा पहली बार हो रहा था कि मुझे सोना नाम के पीले दैत्य की ताकत और उसके प्रभाव देखना का मौका मिला था। इस बूढ़े की जर्जर हडि्डयों वाली कमजोर देह ने अपनी त्वचा के भीतर सड़े हुए कूड़े का ढेर छिपा रखा था जो इस वक्त झूठ और अध्यात्मिक भ्रष्टाचार के परमपिता की ठण्डी और क्रूर इच्छाशक्ति के प्रभाव में उत्तेजित हो गया था। बूढ़े की आंखें जैसे दो सिक्कों में बदल गई थीं और वह ज्यादा ताकतवर और रूखा दिखने लगा था। अब वह पहले से कहीं ज्यादा एक नौकर लगने लगा था लेकिन मुझे मालूम चल गया कि उसका मालिक कौन है।

"कला के बारे में आपके क्या विचार हैं?" मैंने सवाल किया।

उसने मुझे देखा¸ और अपने चेहरे पर हाथ फिराते हुए वहां से कठोर ईर्ष्या के भाव हटा दिए। एक बार फिर कोई बालसुलभ चीज उसके चेहरे पर उतर आई।

"क्या कहा आपने?" उसने पूछा।

"कला के बारे में आपके क्या विचार हैं?"

"ओह" उसने ठण्डे स्वर में जवाब दिया "मैं उसके बारे में कुछ नहीं सोचता। मैं उसे खरीद लेता हूं …"

"मुझे मालूम है। पर शायद कला के बारे में आपके कुछ विचार हों और यह कि आप उस से क्या उम्मीद रखते हैं?"

"ओह शर्तिया। मैं जानता हूं मुझे कला से क्या चाहिए होता है ... कला ने आपका मनोरंजन करना चाहिए। उसे देख कर मुझे हंसी आनी चाहिए। मेरे धन्धे में ऐसा ज्यादा कुछ नहीं जो मुझे हंसा सके। दिमाग को कभी कभी ठण्डाई की जरूरत पड़ती है .... और शरीर को उत्तेजना की। छतों और दीवारों पर लगे कुलीन चित्रों ने भूख बढ़ाने का काम करना चाहिए ... विज्ञापनों को सबसे बढ़िया और चमकीले रंगों से बनाया जाना चाहिए। विज्ञापन ने आपको एक मील दूर से ललचा देने लायक होना चाहिए ताकि आप तुरन्त उसकी मर्जी का काम करें। तब तो कुछ फायदा है। मूर्तियां और गुलदस्ते हमेशा तांबे के बढ़िया होते हैं बजाय संगमरमर या पोर्सलीन के। नौकरों से पोर्सलीन की चीजें टूट जाने का खतरा बना रहता है। मुर्गियों की लड़ाई और चूहों की दौड़ भी ठीक होती हैं। मैंने उन्हें लन्दन में देखा था ... मजा आया था। मुक्केबाजी भी अच्छी होती है पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि मुकाबले का अन्त किसी हत्या में न हो ... संगीत देशभक्तिपूर्ण होना चाहिए। मार्चेज़ अच्छे होते हैं पर अमेरिकी मार्च सब से बढ़िया होता है। अच्छा संगीत हमेशा अच्छे लोगों के पास पाया जाता है। अमेरिकी दुनिया के सबसे अच्छे लोग होते हैं। उनके पास सबसे ज्यादा पैसा है। इतना पैसा किसी के पास नहीं। इसीलिए बहुत जल्दी सारी दुनिया हमारे पास आएगी ॰॰॰"

जब मैं उस बीमार बच्चे की चटरपटर सुन रहा था मैंने कृतज्ञता के साथ तस्मानिया के जंगलियों को याद किया। कहते हैं कि वे लोग नरमांस खाते हैं लेकिन उनका सौन्दर्यबोध तब भी विकसित होता है।

"क्या आप थियेटर जाते हैं?" पीले दैत्य के गुलाम से मैंने पूछा ताकि मैं उसकी उस शेखी को रोक सकूं जो वह अपने मुल्क के बारे में बघार रहा था जिसे उसने अपने जीवन से प्रदूषित कर रखा था।

"थियेटर? हां हां वह भी कला है!" उसने आत्मविश्वास के साथ कहा।

"और थियेटर में आपको क्या पसन्द है?"

"एक तो वहां बहुत सारी जवान महिलाएं होती हैं जिन्होंने नीची गरदन वाले गाउन पहने होते हैं। आप ऊपर से उन्हें देख सकते हैं" एक पल सोचने के बाद उसने कहा।

"लेकिन थियेटर में आप को सब से ज्यादा क्या पसन्द आता है?" मैंने बेचैन महसूस करते हुए पूछा।

"ओह" अपने होंठों को करीब करीब अपने कानों तक ले जाते हुए उसने कहना शुरू किया। "जैसा हरेक को लगता है मुझे भी अभिनेत्रियां सबसे ज्यादा पसन्द हैं ... अगर वे सारी जवान और खूबसूरत हों तब। लेकिन तुरन्त देख कर आप बता नहीं सकते कि उनमें से कौन सी जवान है। वे सब इस कदर बनी संवरी रहती हैं। मेरे ख्याल से यही उनके पेशे की मांग होती होगी। लेकिन कभी कभी आप को लगता कि वो लड़की बढ़िया दिखती है! मगर बाद में आपको पता लगता है कि वह पचास साल की है और उसके कम से कम दो सौ आशिक हैं। यह शर्तिया बहुत अच्छा नहीं लगता। सर्कस की लड़कियां उन से कहीं बेहतर होती हैं। वो हमेशा ज्यादा जवान होती हैं और उनके शरीर लोचदार ..."

निश्चय ही इस विषय पर वह उस्ताद की हैसियत रखता था। खुद मैं जो जीवन भर पापों में उलझा रहा था¸ इस आदमी से काफी कुछ सीख सकता था।

"और आप को कविता कैसी लगती है?" मैंने पूछा।

"कविता?" अपने जूतों को देखते हुए उसने मेरी ही बात को दोहराया। उसने एक क्षण को सोचा अपना सिर उठाया और अपने सारे दांत एक ही बार में दिखाता हुआ बोला "कविताएं? अरे हां! मुझे कविताएं पसन्द हैं। अगर हरेक आदमी विज्ञापनों को कविता में लिखना चालू कर दे तो जिन्दगी बहुत खुशनुमा हो जाएगी।"

"आप का सब से प्रिय कवि कौन है?" मैंने जल्दी जल्दी अगला सवाल पूछा।

कुछ परेशान होते हुए बूढ़े ने मुझे देख कर धीमे से पूछा: "आपने क्या कहा?"

मैंने अपना सवाल दोहराया।

(... जारी है)

Monday, January 26, 2009

एक अमरीकी करोड़पति का सौ साल पहले लिया गया इन्टरव्यू: भाग दो

(पिछली पोस्ट से जारी ...)

जब हमारे मुल्क में बहुत सारे ऐसे आप्रवासी हो जाएंगे जो कम पैसे पर काम करें और खूब सारी चीजें खरीदें तब सब कुछ ठीक हो जाएगा.

उसकी बच्चों जैसी बुद्धिमत्ता के सामने मैं खुद को बहुत छोटा पा रहा था।

"लेकिन अगर एक आदमी कई लोगों को बर्बाद कर रहा हो तो क्या वह व्यक्तिगत काम माना जाएगा?" मैंने विनम्रता के साथ पूछा।

"बर्बादी?" आंखें फैलाते हुए उसने जवाब देना शुरू किया "बर्बादी का मतलब होता है जब मजदूरी की दरें ऊंची होने लगें। या जब हड़ताल हो जाए। लेकिन हमारे पास आप्रवासी लोग हैं। वो खुशी खुशी कम मजदूरी पर हड़तालियों की जगह काम करना शुरू कर देते हैं। जब हमारे मुल्क में बहुत सारे ऐसे आप्रवासी हो जाएंगे जो कम पैसे पर काम करें और खूब सारी चीजें खरीदें तब सब कुछ ठीक हो जाएगा।"

वह थोड़ा सा उत्तेजित हो गया था और एक बच्चे और बूढ़े के मिश्रण से कुछ कम नजर आने लगा था।उसकी पतली भूरी उंगलियां हिलीं और उसकी रूखी आवाज मेरे कानों पर पड़पड़ाने लगी:

"सरकार? ये वास्तव में दिलचस्प सवाल है। एक अच्छी सरकार का होना महत्वपूर्ण है उसे इस बात का ख्याल रहता है कि इस देश में उतने लोग हों जितनों की मुझे जरूरत है और जो उतना खरीद सकें जितना मैं बेचना चाहता हूं; और मजदूर बस उतने हों कि मेरा काम कभी न थमे। लेकिन उससे ज्यादा नहीं! फिर कोई समाजवादी नहीं बचेंगे। और हड़तालें भी नहीं होंगी। और सरकार ने बहुत ज्यादा टैक्स भी नहीं लगाने चाहिए। लोग जो देना चाहें वह मैं लेना चाहूंगा। इसको मैं कहता हूं अच्छी सरकार।"

"वह बेवकूफ नहीं है। यह एक तयशुदा संकेत है कि उसे अपनी महानता का भान है।" मैं सोच रहा था। "इस आदमी ने वाकई राजा ही होना चाहिए …"

"मैं चाहता हूं" वह स्थिर और विश्वासभरी आवाज में बोलता गया "कि इस मुल्क में अमन चैन हो। सरकार ने तमाम दार्शनिकों को भाड़े पर रखा हुआ है जो हर इतवार को कम से कम आठ घण्टे लोगों को यह सिखाने में खर्च करते हैं कि कानून की इज्ज्त की जानी चाहिए। और अगर दार्शनिकों से यह काम नहीं होता तो वह फौज बुला लेती है। तरीका नहीं बल्कि नतीजा ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। गाहक और मजदूर को कानून की इज्ज्त करना सिखाया जाना चाहिए। बस!" अपनी उंगलियों से खेलते हुए उसने अपनी बात पूरी की।

"नहीं यह शख्स़ बेवकूफ नहीं है। राजा तो यह हर्गिज नहीं हो सकता।" मैंने विचार किया और फिर उससे पूछा : "क्या आप मौजूदा सरकार से संतुष्ट हैं?"

उसने तुरन्त जवाब नहीं दिया।

"असल में वो जितना कर सकती है उस से कम कर रही है। मैं कहता हूं : आप्रवासियों को फिलहाल देश में आने देना चाहिए। लेकिन हमारे यहां राजनैतिक आजादी है जिसका वो लुत्फ उठाते हैं सो उन्हें इसकी कीमत देनी चाहिए। उन में से हर किसी ने अपने साथ कम से कम पांच सौ डालर लाने चाहिए। ऐसा आदमी उस आदमी से दस गुना बेहतर है जिसके पास फकत पचास डालर हों। जितने भी बुरे लोग होते हैं : मिसाल के लिए आवारा, गरीब, बीमार और बाकी ऐसे ही, वो भी किसी काम के नहीं हाते।"

"लेकिन" मैंने श्रमपूर्वक कहा "इस की वजह से आप्रवासियों की तादाद कम होने लगेगी।"

बूढ़े ने सहमति में सिर हिलाया।

"मैं प्रस्ताव दूंगा कि कुछ समय के बाद उनके लिए हमारे देश के दरवाजे हमेशा के लिए बन्द कर दिए जाएं ॰॰॰ लेकिन फिलहाल के लिए हर किसी ने अपने साथ थोड़ा बहुत सोना लेकर आना चाहिए ॰॰॰ जो हमारे देश के लिए अच्छा होगा। इसके अलावा यह भी जरूरी है कि यहां के हिसाब से ढलने के लिए उन्हें ज्यादा समय दिया जाए। समय के साथ साथ यह सारा पूरी तरह बन्द कर दिया जाना चाहिए। अमेरीकियों के लिए जो भी काम करना चाहे वह इस के लिए आजाद हे लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि उन्हें भी अमरीकी नागरिकों की तरह अधिकार दिए जाएं। वैसे भी हमने पर्याप्त अमेरिकी पैदा कर लिए हैं। उन में से हर कोई हमारी आबादी बढ़ा पाने में सज्ञाम है। यह सब सरकार का सिरदर्द है। लेकिन इस सब को एक दूसरे आधार पर व्यवस्थित किए जाने की जरूरत है। सरकार के सारे सदस्यों को औद्योगिक इकाइयों में शेयर दिए जाने चाहिए ताकि वे देश के फायदे की बात अच्छे से और जल्दी सीख सकें। फिलहाल तो मुझे सीनेटरों को खरीदना है ताकि मैं उन्हें ॰॰॰ इस या उस बात के लिए पटा सकूं। तब उसकी जरूरत भी नहीं पड़ेगी।"

उसने आह भरी और अपनी टांग को झटकते हुए जोड़ा :

"जिन्दगी को सही कोण से देखने के लिए आपको बस सोने के पहाड़ की चोटी पर खड़ा होना होता है"

"और धर्म के बारे में आप का क्या ख्याल है?" अब मैंने प्रश्न किया जबकि वह अपना राजनैतिक दृष्टिकोण स्पष्ष्ट कर चुका था।

"अच्छा!" उसने उत्तेजना के साथ अपने घुटनों को थपथपाया और बरौनियों को झपकाते हुए कहा : "मैं इस बारे में भली बातें सोचता हूं। लोगों के लिए धर्म बहुत जरूरी है। इस बात पर मेरा पूरा यकीन है। सच बताऊं तो मैं खुद इतवारों को चर्च में भाषण दिया करता हूं ... बिल्कुल सच कह रहा हूं आप से।"

"और आप क्या कहते हैं अपने भाषणों में?" मैंने सवाल किया।

"वही सब जो एक सच्चा ईसाई चर्च में कह सकता है!" उसने बहुत विश्वस्त होकर कहा। "देखिए मैं एक छोटे चर्च में भाषण देता हूं और गरीब लोगों को हमेशा दयापूर्ण शब्दों और पितासदृश सलाह की जरूरत होती है ... मैं उनसे कहता हूं ..."

एक क्षण को उस के चेहरे पर बच्चों का सा भाव आया और उसने अपने होंठों को आपस में कस कर चिपका लिया। उसकी निगाह छत की तरफ उठी जहां कामदेव के शर्माते हुए चाकर एक मांसल औरत के निर्वसन शरीर को छिपा रहे थे। औरत का बदन यार्कशायर की किसी घोड़ी की तरह गुलाबी था। छत के रंग उसकी बेचमक आंखों में प्रतिविम्बित हुए और उनमें एक कौंध रेंग आई। फिर उसने शान्त स्वर में बोलना शुरू किया :

"ईसामसीह के भाइयो और बहनो! ईष्र्या के दैत्य के लालच से खुद को बचाओ और दुनियादारी से भरी चीजों को त्याग दो। इस धरती पर जीवन संक्षिप्त होता है : बस चालीस की आयु तक आदमी अच्छा मजदूर बना रह सकता है। चालीस के बाद उसे फैक्ट्रियों में रोजगार नहीं मिल सकता। जीवन कतई सुरक्षित नहीं है। काम के वक्त आपके हाथों का एक गलत काम और मशीन आपकी हडि्डयों को कुचल सकती है। एक सनस्ट्रोक और आपकी कहानी खत्म हो सकती है। हर कदम पर बीमारी और दुर्भाग्य कुत्ते की तरह आपका पीछा करते रहते हैं। एक गरीब आदमी किसी ऊंची इमारत की छत पर खड़े दृष्टिहीन आदमी जैसा होता है। वह जिस दिशा में जाएगा अपने विनाश में जा गिरेगा जैसा जूड के भाई फरिश्ते जेम्स ने हमें बताया है। भाइयो आप को दुनियावी चीजों से बचना चाहिए। वह मनुष्य को तबाह करने वाले शैतान का कारनामा है। ईसामसीह के प्यारे बच्चो तुम्हारा सामाज्य तुम्हारे परमपिता के सामाज्य जैसा है। वह स्वर्ग में है। और अगर तुम में धैर्य होगा और तुम अपने जीवन को बिना शिकायत किए बिना हल्ला किए बिताओगे तो वह तुम्हें अपने पास बुलाएगा और इस धरती पर तुम्हारी कड़ी मेहनत के परिणाम के बदले तुम्हें ईनाम में स्थाई शान्ति बख्शेगा। यह जीवन तुम्हारी आत्मा की शुद्धि के लिए दिया गया है और जितना तुम इस जीवन में सहोगे उतना ज्यादा आनन्द तुम्हें मिलेगा जैसा कि खुद फरिश्ते जूड ने बताया है।"

उसने छत की तरफ इशारा किया और कुछ देर सोचने के बाद ठण्डी और कठोर आवाज में कहा:

"हां मेरे प्यारे भाइयो और बहनो अगर आप अपने पड़ोसी के लिए चाहे वह कोई भी हो इसे कुर्बान नहीं करते तो यह जीवन खोखला और बेहद आम है। ईर्ष्या के राक्षस के सामने अपने दिलों को समर्पित मत करो। किस चीज से ईर्ष्या करोगे? जीवन के आनन्द धोखा भर होते हैं; राक्षस के खिलौने। हम सब मारे जाएंगे¸ अमीर और गरीब¸ राजा और कोयले की खान में काम करने वाले मजदूर¸ बैंकर और सड़क पर झाड़ू लगाने वाले। यह भी हो सकता है कि स्वर्ग के उपवन में आप राजा बन जाएं और राजा झाड़ू लेकर रास्ते से पत्तियां साफ कर रहा हो और आपकी खाई हुई मिठाइयों के छिलके बुहार रहा हो। भाइयो¸ यहां इस धरती पर इच्छा करनो को है ही क्या? पाप से भरे इस घने जंगल में जहां आत्मा बच्चों की तरह पाप करती रहती है।प्यार और विनम्रता का रास्ता चुनो और जो तुम्हारे नसीब में आता है उसे सहन करो। अपने साथियों को प्यार दो उन्हें भी जो तुम्हारा अपमान करते हैं …"

(... जारी है)

Sunday, January 25, 2009

एक अमरीकी करोड़पति का सौ साल पहले लिया गया इन्टरव्यू: भाग एक



'मां' जैसी क्लासिक रचना लिखने वाले महान रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की आज से क़रीब सौ साल पहले अमरीका गए थे पार्टी के लिए धन इकठ्ठा करने और समाजवाद के प्रचार हेतु। उनके तब के लिखे लिखे लेख एक पुस्तक की सूरत में सामने आए।

पेश है उसी ज़रूरी किताब के एक अध्याय का पहला भाग।


गणतन्त्र का एक सम्राट

… संयुक्त राज्य अमेरिका के इस्पात और तेल के सम्राटों और बाकी सम्राटों ने मेरी कल्पना को हमेशा तंग किया है। मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि इतने सारे पैसेवाले लोग सामान्य नश्वर मनुष्य हो सकते हैं।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि उनमें से हर किसी के पास कम सप कम तीन पेट और डेढ़ सौ दांत होते होंगे। मुझे यकीन था कि हर करोड़पति सुबह छ: बजे से आधी रात तक खाना खाता रहता होगा। यह भी कि वह सबसे महंगे भोजन भकोसता होगा : बत्तखें¸ टर्की¸ नन्हे सूअर¸ मक्खन के साथ गाजर¸मिठाइयां¸ केक और तमाम तरह के लजीज व्यंजन। शाम तक उसके जबड़े इतना थक जाते होंगे कि वह अपने नीग्रो नौकरों को आदेश देता होगा कि वे उसके लिए खाना चबाएं ताकि वह आसानी से उसे निगल सके। आखिरकार जब वह बुरी तरह थक चुकता होगा¸ पसीने से नहाया हुआ¸ उसके नौकर उसे बिस्तर तक लाद कर ले जाते होंगे। और अगली सुबह वह छ: बजे जागता होगा अपनी श्रमसाध्य दिनचर्या को दुबारा शुरू करने को।

लेकिन इतनी जबरदस्त मेहनत के बावजूद वह अपनी दौलत पर मिलने वाले ब्याज का आधा भी खर्च नहीं कर पाता होगा।

निश्चित ही यह एक मुश्किल जीवन होता होगा। लेकिन किया भी क्या जा सकता होगा? करोड़पति होने का फायदा ही क्या अगर आप और लोगों से ज्यादा खाना न खा सकें?

मुझे लगता था कि उसके अंतर्वस्त्र बेहतरीन कशीदाकारी से बने होते होंगे¸ उसके जूतों के तलुवों पर सोने की कीलें ठुकी होती होंगी और हैट की जगह वह हीरों से बनी कोई टोपी पहनता होगा। उसकी जैकेट सबसे महंगी मलमल की बनी होती होगी। वह कम से कम पचास मीटर लम्बी होती होगी और उस पर सोने के कम से कम तीन सौ बटन लगे होते होंगे। छुट्टियों में वह एक के ऊपर एक आठ जैकेटें और छ: पतलूनें पहनता होगा। यह सच है कि ऐसा करना अटपटा होने के साथ साथ असुविधापूर्ण भी होता होगा … लेकिन एक करोड़पति जो इतना रईस हो बाकी लोगों जैसे कपड़े कैसे पहन सकता है …

करोड़पति की जेबें उस गडढे जैसी होती होंगी जिनमें वह समूचा चर्च¸ सीनेट की इमारत और छोटी मोटी जरूरतों को रख सकता होगा … लेकिन जहां एक तरफ मैं सोचता था कि इन महाशय के पेट की क्षमता किसी बड़े समुद्री जहाज के गोदाम जितनी होती होगी मुझे इन साहब की टांगों पर फिट आने वाली पतलून के आकार की कल्पना करने में थोड़ी हैरानी हुई। अलबत्ता मुझे यकीन था कि वह एक वर्ग मील से कम आकार की रजाई के नीचे नहीं सोता होगा। और अगर वह तम्बाकू चबाता होगा तो सबसे नफीस किस्म का और एक बार में एक या दो पाउण्ड से कम नहीं। अगर वह नसवार सूंघता होगा तो एक बार में एक पाउण्ड से कम नहीं। पैसा अपने आप को खर्च करना चाहता है …

उसकी उंगलियां अद्भुत तरीके से संवेदनशील होती होंगी और उनमें अपनी इच्छानुसार लम्बा हो जाने की जादुई ताकत होती होगी : मिसाल के तौर पर वह साइबेरिया में अंकुरित हो रहे एक डालर पर न्यूयार्क से निगाह में रख सकता था। अपनी सीट सेे हिले बिना वह बेरिंग स्टेट तक अपना हाथ बढ़ाकर अपना पसंदीदा फूल तोड़ सकता था।

अटपटी बात यह है कि इस सब के बावजूद मैं इस बात की कल्पना नहीं कर पाया कि इस दैत्य का सिर कैसा होता होगा। इसके अलावा मुझे लगा कि वह सिर मांसपेशियों और हडि्डयों का ऐसा पिण्ड होता होगा जिसकी गति को फकत हर एक चीज से सोना चूस लेने की इच्छा से प्रेरणा मिलती होगी। लब्बोलुबाब यह है कि करोड़पति की मेरी छवि एक हद तक अस्पष्ट थी। संक्षेप में कहूं तो सबसे पहले मुझे दो लम्बी लचीली बांहें नजर आती थीं। उन्होंने ग्लोब को अपनी लपेट में ले रखा था और उसे अपने मुंह की भूखी गुफा के पास खींच रखा था जो हमारी धरती को चूसता चबाता जा रहा था : उसकी लालचभरी लार उसके ऊपर टपक रही थी जैसे वह तन्दूर में सिंका कोई स्वादिष्ट आलू हो …

आप मेरे आश्चर्य की कल्पना कर सकते हैं जब एक करोड़पति से मिलने पर मैंने उसे एक निहायत साधारण आदमी पाया।

एक गहरी आरामकुर्सी पर मेरे सामने एक बूढ़ा सिकुड़ा सा शख्स बैठा हुआ था जिसके झुरीर्दार भूरे हाथ शान्तिपूर्वक उसकी तोंद पर धरे हुए थे। उसके थुलथुल गालों पर करीने से हजामत बनाई गई थी और उसका ढुलका हुआ निचला होंठ बढ़िया बनी हुई उसकी बत्तीसी दिखला रहा था जिसमें कुछेक दांत सोने के थे। उसका रक्तहीन और पतला ऊपरी होंठ उसके दांतों से चिपका हुआ था और जब वह बोलता था उस ऊपरी होंठ में जरा भी गति नहीं होती थी। उसकी बेरंग आंखों के ऊपर भौंहें बिल्कुल नहीं थीं और सूरज में तपा हुए उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। उसे देख कर महसूस होता था कि उसके चेहरे पर थोड़ी और त्वचा होती तो शायद बेहतर होता ; लाली लिए हुए¸ गतिहीन और मुलायम वह चेहरा किसी नवजात शिशु के जैसा लगता था। यह तय कर पाना मुश्किल था कि यह प्राणी दुनिया में अभी अभी आया है या यहां से जाने की तैयारी में है …

उसकी पोशाक भी किसी साधारण आदमी की ही जैसी थी। उसका धारण किया हुआ सोना घड़ी अंगूठी और दांतों तक सीमित था। कुल मिलाकर शायद वह आधे पाउण्ड से कम था। आम तौर पर वह यूरोप के किसी कुलीन घर के पुराने नौकर जैसा नजर आ रहा था …

जिस कमरे में वह मुझसे मिला उसमें सुविधा या सुन्दरता के लिहाज से कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। फ़र्नीचर विशालकाय था पर बस इतना ही था।

उसके फ़र्नीचर को देखकर लगता था कि कभी कभी हाथी उसके घर तशरीफ लाया करते थे।

"क्या आप … आप … ही करोड़पति हैं?" अपनी आंखों पर अविश्वास करते हुए मैंने पूछा।

" हां हां!" उसने सिर हिलाते हुए जवाब दिया।

मैंने उसकी बात पर विश्वास करने का नाटक किया और फैसला किया कि उसकी गप्प का उसी वक्त इम्तहान ले लूं।
"आप नाश्ते में कितना बीफ़ खा सकते हैं ?" मैंने पूछा।

"मैं बीफ़ नहीं खाता" उसने घोषणा की "बस सन्तरे की एक फांक एक अण्डा और चाय का छोटा प्याला …"

बच्चों जैसी उसकी आंखों में धुंधलाए पानी की दो बड़ी बूंदों जैसी चमक आई और मैं उनमें झूठ का नामोनिशान नहीं देख पा रहा था।

"चलिए ठीक है" मैंने संशयपूर्वक बोलना शुरू किया "मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे ईमानदारी से बताइए कि आप दिन में कितनी बार खाना खाते हैं ?"

"दिन में दो बार" उसने ठण्डे स्वर में कहा "नाश्ता और रात का खाना। मेरे लिए पर्याप्त होता है। रात को खाने में मैं थोड़ा सूप थोड़ा चिकन और कुछ मीठा लेता हूं। कोई फल। एक कप काफी। एक सिगार …"

मेरा आश्चर्य कद्दू की तरह बढ़ रहा था। उसने मुझे सन्तों की सी निगाह से देखा। मैं सांस लेने को ठहरा और फिर पूछना शुरू किया:

" लेकिन अगर यह सच है तो आप अपने पैसे का क्या करते हैं ?"

उसने अपने कन्धों को जरा उचकाया और उसकी आंखें अपने गड्ढों में कुछ देर लुढ़कीं और उसने जवाब दिया:

"मैं उसका इस्तेमाल और पैसा बनाने में करता हूं …"

"किस लिए ?"

"ताकि मैं और अधिक पैसा बना सकूं …"

"लेकिन किस लिए ?" मैंने हठपूर्वक पूछा।

वह आगे की तरफ झुका और अपनी कोहनियों को कुर्सी के हत्थे पर टिकाते हुए तनिक उत्सुकता से पूछा:

"क्या आप पागल हैं ?"

"क्या आप पागल हैं ?" मैंने पलट कर जवाब दिया।

बूढ़े ने अपना सिर झुकाया और सोने के दांतों के बीच से धीरे धीरे बोलना शुरू किया :

"तुम बड़े दिलचस्प आदमी हो … मुझे याद नहीं पड़ता मैं कभी तुम्हारे जैसे आदमी से मिला हूं …"

उसने अपना सिर उठाया और अपने मुंह को करीब करीब कानों तक फैलाकर खामोशी के साथ मेरा मुआयना करना शुरू किया। उसके शान्त व्यवहार को देख कर लगता था कि स्पष्टत: वह अपने आप को सामान्य आदमी समझता था। मैंने उसकी टाई पर लगी एक पिन पर जड़े छोटे से हीरे को देखा। अगर वह हीरा जूते ही एड़ी जितना बड़ा होता तो मैं शायद जान सकता था कि मैं कहां बैठा हूं।

"और अपने खुद के साथ आप क्या करते हैं?"

"मैं पैसा बनाता हूं।" अपने कन्धों के तनिक फैलाते हुए उसने जवाब दिया।

"यानी आप नकली नोटों का धन्धा करते हैं" मैं खुश होकर बोला मानो मैं रहस्य पर से परदा उठाने ही वाला हूं। लेकिन इस मौके पर उसे हिचकियां आनी शुरू हो गईं। उसकी सारी देह हिलने लगी जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे गुदगुदी कर रहा हो। वह अपनी आंखों को तेज तेज झपकाने लगा।

"यह तो मसखरापन है" ठण्डा पड़ते हुए उसने कहा और मेरी तरफ एक गीली संतुष्ट निगाह डाली। "मेहरबानी कर के मुझसे कोई और बात पूछिए" उसने निमंत्रित करते हुए कहा और किसी वजह से अपने गालों को जरा सा फुलाया।

मैंने एक पल को सोचा और निश्चित आवाज में पूछा:

"और आप पैसा कैसे बनाते हैं?"

"अरे हां! ये ठीकठाक बात हुई!" उसने सहमति में सिर हिलाया। "बड़ी साधारण सी बात है। मैं रेलवे का मालिक हूं। किसान माल पैदा करते हैं। मैं उनका माल बाजार में पहुंचाता हूं। आप को बस इस बात का हिसाब लगाना होता है कि आप किसान के वास्ते बस इतना पैसा छोड़ें कि वह भूख से न मर जाए और आपके लिए काम करता रहे। बाकी का पैसा मैं किराए के तौर पर अपनी जेब में डाल लेता हूं। बस इतनी सी बात है।"

"और क्या किसान इस से संतुष्ट रहते हैं?"

"मेरे ख्याल से सारे नहीं रहते!" बालसुलभ साधारणता के साथ वह बोला "लेकिन वो कहते हैं ना लोग कभी संतुष्ट नहीं होते। ऐसे पागल लोग आपको हर जगह मिल जाएंगे जो बस शिकायत करते रहते हैं …"

"तो क्या सरकार आप से कुछ नहीं कहती ?" आत्मविश्वास की कमी के बावजूद मैंने पूछा।

"सरकार?" उसकी आवाज थोड़ा गूंजी फिर उसने कुछ सोचते हुए अपने माथे पर उंगलियां फिराईं। फिर उसने अपना सिर हिलाया जैसे उसे कुछ याद आया हो: "अच्छा … तुम्हारा मतलब है वो लोग … वाशिंगटन वाले? ना वो मुझे तंग नहीं करते। वो अच्छे बन्दे हैं … उनमें से कुछ मेरे क्लब के सदस्य भी हैं। लेकिन उनसे बहुत ज्यादा मुलाकात नहीं होती … इसी वजह से ऐसा होना ही होता है कि कभी कभी मैं उनके बारे में भूल जाता हूं। ना वो मुझे तंग नहीं करते।" उसने अपनी बात दोहराई और मेरी तरफ उत्सुकता से देखते हुए पूछा:

"क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ऐसी सरकारें भी होती हैं जो लोगों को पैसा बनाने से रोकती हैं?"

मुझे अपनी मासूमियत और उसकी बुद्धिमत्ता पर कोफ्त हुई।

"नहीं" मैंने धीमे से कहा "मेरा ये मतलब नहीं था ॰॰॰ देखिए सरकार ने कभी कभी तो सीधी सीधी डकैती पर लगाम लगानी चाहिए ना ॰॰॰"

"अब देखिए! " उसने आपत्ति की "ये तो आदर्शवाद हो गया। यहां यह सब नहीं चलता। व्यक्तिगत कार्यों में दखल देने का सरकार को कोई हक नहीं ॰॰॰"

(जारी है.)

(संवाद प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक 'पीले दैत्य का नगर' से)

Friday, January 23, 2009

किस खेत की मूली ?

कौन कहता है कि मामूली मूली
आती है केवल खाने के काम ,
जब न हो कोई शील्ड या ट्राफी
तो यह बन जाती है ईनाम !!

Wednesday, January 21, 2009

मीडिया को आजादी क्यों चाहिए?

एक आधुनिक और सभ्य समाज में विचारों की आजादी से बड़ा दूसरा कोई मूल्य नहीं। ये लोकतंत्र की बुनियाद है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में न्यूज चैनलों से इस आजादी को छीन लेने की कोशिश हुई तो लोगों को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। केबल नेटवर्क रेग्युलेशन एक्ट में संशोधन की कोशिश ने चैनलों को चाहे जितना परेशान किया हो, भारतीय समाज में कोई आलोड़न नहीं हुआ। किसी को नहीं लगा कि इमरजेंसी लगने वाली है या फिर वैसा खतरा सामने है जैसा बिहार प्रेस बिल के आने पर दो दशक पहले महसूस किया गया था।
वैसे मीडिया की नकेल कसने की चाहत तो कम-ज्यादा सभी रंग की सरकारों में होती है। और न्यूज चैनलों ने तो नाक में दम ही कर रखा है। उनकी वजह से ही लोगों ने देश की एक बड़ी पार्टी के मुखिया को रिश्वत लेते देखा, घूस लेकर सांसदों को सवाल पूछते देखा, हथियार खरीदने की ख्वाहिश पर मचा तहलका देखा...कानून को अंगूठा दिखाने वाले बददिमाग रईसजादों को जेल जाते देखा ..पैसे लेकर फतवा देने वाले मजहबी दुकानदारों की पोल खुलते देखा...वगैरह...वगैरह....जाहिर है उसके अच्छे कामों की लंबी फेहरिस्त है। सत्तातंत्र के खुला खेल फर्ऱुखाबादी को बेपर्दा करने की उसकी ताकत बार-बार जगजाहिर हुई है। इसीलिए मुंबई हमले के बहाने इस 'दुश्मन' को निशस्त्र करने की कोशिश की गई। स्वाभाविक था कि न्यूज चैनल इसका जमकर विरोध करते। और फिर प्रधानमंत्री ने मुस्कराते हुए आश्वास्त किया कि सरकार मीडिया की आजादी को कहीं से कम नहीं करना चाहती। गोया उन्हें अपने सूचना प्रसारण मंत्री की उन कोशिशों की जानकारी नहीं थी, जिन्होंने मीडिया को मरणासन्न कर देने वाले दिशा निर्देश तैयार कराए थे। खैर, अंत भला तो सब भला।
लेकिन इस पूरी लड़ाई में न्यूज चैनल जिस तरह अकेले नजर आए, वो चौंकाने वाला है। विपक्ष के नेताओं ने कैमरे के सामने जरूर चिंता जाहिर की लेकिन न बुद्धिजीवियों, न ही देश भर में फैले मानवाधिकार या सामाजिक संगठनों को लगा कि लोकतंत्र खतरे में है। कहीं लोगों को ये तो नहीं लगता कि न्यूज चैनलों के आजाद या गुलाम होने से लोकतंत्र पर कोई फर्क पड़ने वाला है। ये वो बिंदु है जिस पर न्यूज चैनलों को आत्मनिरीक्षण की जरूरत है क्योंकि खतरा सिर्फ टला है, खत्म नहीं हुआ है।
दरअसल, मीडिया की आजादी का भारत के संविधान में कहीं अलग से उल्लेख नहीं है। ये देश के सभी नागरिकों को मिली बोलने की आजादी का ही विस्तार है। मीडिया को महान और पवित्र गाय मानने के पीछे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विकसित हुए मूल्य हैं। मीडिया की आजादी को इस अपेक्षा के साथ महत्वपूर्ण समझा गया कि वो पूंजी और सत्ता के दबाव को दरकिनार करके सत्य के संधान का जरिया बनेगा। भारत को वास्तविक अर्थों में लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र बनाने के मिशन से भटकने वालों का पर्दाफाश करेगा। और इस कसौटी पर न्यूज चैनलों को कसते ही लोगों की बेजारी की वजह साफ हो जाती है।
भारत में न्यूज चैनलों के विकास के साथ-साथ ये बात बहुत जोर देकर कही जाने लगी कि पत्रकारिता मिशन नहीं प्रोफेशन है। यहां प्रोफेशनल होने का अर्थ दक्षता तक सीमित होता, तो कोई बात नहीं थी, लेकिन इसका मतलब ये निकला कि ये भी साबुन या तेल बनाने जैसा कोई धंधा है जिसमें मुनाफा कमाना बुनियादी बात है। ऐसे में, न्यूज चैनल घाटे का सौदा क्यों करते। उन्होंने खुद को कुछ महानगरों तक सीमित कर लिया जहां विज्ञापनदाताओं को प्रतिसाद देने वाला अच्छा-खासा उपभोक्ता वर्ग मौजूद था। नतीजा ये हुआ कि टी.वी.का पर्दा चकमक रोमांचलोक में तब्दील हो गया जहां सत्य के संधान से ज्यादा जनप्रिय होना महत्वपूर्ण हो गया। 'क्या' 'क्यों', 'कहां', 'कैसे', 'कब' और 'किसने' के जवाब से लोगों को लैस करने की बुनियादी जिम्मेदारी भुला दी गई। भारत में अपेक्षाकृत इस नए माध्यम को खबरों के लिहाज से साधने की जरूरत थी लेकिन चैनल मनोरंजन के मेले में तमाशगीर बनकर बैठ गए। लोगों ने भी इसका भरपूर मजा लिया। फिल्मों में टी.वी.रिपोर्टर मजाक की चीज बनकर प्रकट होने लगे, और टी.वी.पर छाई राजू श्रीवास्तव, सुनील पाल एंड कंपनी ने जैसा और जितना चाहा, उनका चुटकुला बनाया।
लोकतंत्र में बहुमत का महत्व है, लेकिन ये बहुमत न्यूज चैनलों के लिए कोई मतलब नहीं रखता। दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक समुदाय मिलकर बहुमत का निर्माण करता है। पर इस बहुमत को मथने वाले सवाल न्यूज चैनलों में तभी जगह पाते हैं जब मामला हिंसक हो उठे। न्यायपालिका और विधायिका ने जिस आरक्षण को सामाजिक परिवर्तन का वाहक करार दिया है उसके प्रति चैनलों में हिकारत का भाव साफ नजर आता है। करोड़ों की तादाद में आदिवासियों को जंगल और जमीन से विस्थापित किया गया पर चैनलों की नजर उन पर शायद ही जाती हो। सत्ता उनके संघर्ष को महज नक्सलवादी हिंसा बताकर उलझा देती है और चैनल मुंह मोड़ लेते हैं। दलित-पिछड़ों का राजनीति में बढ़ा प्रभाव उनकी नजर में महज 'जातिवाद' है। इन मुद्दों पर गहरे उतरने के लिए उनके पास वक्त नहीं।
इसमें शक नहीं कि चैनलों ने आमतौर पर सांप्रदायिक सद्भाव के पक्ष में आवाज उठाई है, लेकिन ये भी सच है कि भड़काऊ बयान देने वालों को वे भरपूर स्पेस देते हैं। माहौल को उत्तेजक बनाए रखना इस धंधे का उसूल है। इसके अलावा न्यूज चैनलों ने जिस तरह सुबह-शाम ज्योतिषियों, बाबाओं और हिंदू व्रत-पर्व-त्योहारों को महत्व देना शुरू किया, उससे अल्पसंख्यकों के बीच उन्हें लेकर पराएपन का अहसास बढ़ा है।
इसके अलावा कभी वे नाग-नागिन, भूत-प्रेत के आगे दंडवत होते हैं तो कभी एलियन और साईंबाबा के चमत्कारों पर निहाल होते हैं। जबकि लोगों ने देखा है न्यूज चैनल के पुरोधा एस.पी.सिंह को, जिन्होंने गणेश मूर्तियों के दूध पीने के उन्मादी प्रचार के बीच मोची की निहाई पर दूध को जज्ब होते दिखाया था। जब लोगों को वैज्ञानिक कारण का पता चला तो उन्माद झाग की तरह बैठ गया। लोगों को न्यूज चैनल की ताकत का पता चला और एस.पी. को भरपूर सराहना मिली जो जानते थे कि टेलीविजन महान वैज्ञानिक प्रयास का नतीजा है। इसका इस्तेमाल अंधविश्वास मिटाने के लिए होना चाहिए।
जिस संविधान की दुहाई देकर न्यूज चैनल मीडिया की आजादी की दुहाई देते हैं, वो समाजवादी भी है। हालांकि ये शब्द 1976 के संशोधन में जोड़ा गया लेकिन संविधान निर्माताओं में इस बात को लेकर कोई मतभेद नहीं था कि आजाद भारत में गैरबराबरी खत्म करना बड़ा लक्ष्य होगा। पर 60 साल बाद अरबपतियों की लिस्ट में भारतीय नामों में इजाफा हुआ है तो सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही, अस्सी करोड़ लोग 20 रुपये रोज पर गुजारा करते हैं। जाहिर है गैरबराबरी बढ़ाने वाली नीतियों को कठघरे में खड़ा करना न्यूज चैनलों की बड़ी जिम्मेदारी थी लेकिन उन्होंने पूरी तरह आंख मूंद ली। यही नहीं वे शेयर बाजार के लालचतंत्र के प्रचारक भी बन बैठे। अगर वे सजग रहते तो शायद पूंजीतंत्र को लूटतंत्र बनने से रोका जा सकता था। लेकिन उन्होंने 'संदेह' के पुरातन हथियार को त्याग दिया और 'सत्यमों' की सफलता को ढिंढोरची की तरह पीटने लगे। नतीजा, वे बुरी तरह चूके और रामलिंगा राजू के गुनाह कबूलने के बाद ही जान पाए कि वे सत्यम नहीं, झूठम पर बलिहारी थे।
साफ है कि जिन वजहों से पत्रकार और पत्रकारिता को सम्मान की नजरों से देखा जाता था... मीडिया की आजादी को जरूरी माना जाता था, वे बुरी तरह छीजीं हैं। न्यूज चैनल भूल गए कि मनोरंजन महान कला हो सकती है पर ये उनका काम नहीं है। मीडिया की आजादी के नाम पर अंधविश्वास फैलाना कानून के प्रति और युद्धोन्माद फैलाना इंसानियत के प्रति गुनाह है। खासतौर पर जब मसला भारत-पाक जैसे दो परमाणु हथियारों से लैस देशों का हो।
हालांकि सभी चैनलों को एक ही तराजू पर तौलना ठीक नहीं। उनके तरीके और इरादे में फर्क जरूर है। पर ये फर्क परिदृश्य नहीं बदला पाता। कुछ संपादकों का कहना है कि टी.वी.अभी बच्चा है..धीरे-धीरे परिपक्व होगा। लेकिन वे भूल जाते हैं कि जब बच्चा बिग़ड़ता है तो मां-बाप पिटाई करते हैं, रिश्तेदार लानते भेजते हैं और पड़ोसी अपने बच्चों को दूर रहने की सलाह देते हैं। न्यूज चैनलों के साथ फिलहाल यही हो रहा है।
इसलिए इतना कहने से बात नहीं बनेगी कि चैनल आत्मनियंत्रण से काम लेंगे। जरूरी ये भी है कि जो वे नहीं कर रहे हैं, उसके बारे में भी गौर करें। उन्होंने देश के बहुमत को खारिज किया तो बहुमत उन्हें भी खारिज कर देगा। मीडिया की आजादी का सीधा संबंध, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत की मजबूती से है। एक के बिना दूसरे की गुजर नहीं।

Tuesday, January 20, 2009

धमकाने की अमेरिकी अदा, ओबामा, बुजुर्ग पादरी वगैरह ...



समारोह के पहले जिस तरह वहाँ के ताकतवर लोगों को प्रस्तुत किया गया वह पूरी दुनिया को धमकाने की अमेरिकी अदा है. जान लेना होगा कि ओबामा के आ जाने से पूंजीवाद और पश्चिमी तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद का आधुनिक मुखौटा 'बाज़ारवाद' का चेहरा नहीं बदल जाएगा. ओबामा अश्वेत शरीर में श्वेतात्मा है. भाषण देने और लिखवाने में वह रिपब्लिकन जॉन मकैन से अव्वल रहे. जीत-हार की यही असलियत और अन्तर है. शपथग्रहण के वक्त भी ओबामा का भाषण शानदार रहा. वह अमेरिकी जनता को धोखा दे सकते हैं दुनिया को नहीं. लोगों को मुगालता हो हमें नहीं है


दुनिया और भारत की मजलूम जनता को बधाई हो! अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का शपथग्रहण समारोह संपन्न हो गया है. टीवी चैनलों के माइकों के जरिए ऊह-कू और ऊह-पू की समवेत ध्वनियाँ सारी दुनिया में नाद कर रही हैं. करीब ७५० करोड़ डॉलर इस समारोह में ख़र्च किए गए है; आख़िर किसलिए? क्या यह दिखाने के लिए कि हमारे यहाँ मंदी है लेकिन हम अब भी पैसा पानी की तरह बहा सकते हैं! आख़िर यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा नहीं तो क्या अमेरिकी माफिया का धन है? मैं अर्थशास्त्री तो नहीं लेकिन मुझे मंदी की इस चाल में भी अमेरिका की कोई गहरी राजनीति लगती है. अमेरिकी जनता का एक हिस्सा तो इसी पर लट्टू है कि एक अश्वेत व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया. हमें भी इस ख़बर से ख़ास नुकसान नहीं है लेकिन आप तक वे खबरें कभी नहीं आने दी जाएँगी कि प्रतिरोध की अमेरिकी आवाजें ओबामा के बारे में क्या सोचती-समझती और कहती रही हैं! माफ़ कीजिएगा, वहाँ भारतीय मीडिया की तरह भूसा-खाता नहीं है!

'चेंज' के आवाहन पर जीत कर आने वाले ओबामा ने कभी यह नहीं कहा कि वह मेहनतकशों का जीवन सुधारेंगे अथवा अमेरिका के सदियों से दबे-कुचले अश्वेत लोगों को नौकरियों में प्राथमिकता देंगे या दुनिया के मजलूमों के लिए कोई वैश्विक अर्थनीति प्रस्तुत करेंगे. अलबत्ता उन्होंने एक असंतुष्ट अमेरिकी वर्ग को यह समझाकर कि बेरोजगारी दूर करने के लिए आउटसोर्सिंग बंद कर देंगे, एक झांसा दिया है. पाक के ख़िलाफ़ एक सांकेतिक बयान देकर भारतीय मूल के मतदाताओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया. यह भी समझ लेना चाहिए कि माइकल या जेनेट जैक्सन तथा हॉलीवुड में चंद अश्वेतों की सफलताओं से अमेरिका के अश्वेतों के बारे में कोई राय बना लेना भ्रामक होगा.

बहरहाल, जिस तरह शपथग्रहण से पहले जिन जीवित पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों जिमी कार्टर, सीनियर बुश तथा बिल क्लिंटन और अब जूनियर बुश को भी मिला लें तो, अमेरिकी जनता और टीवी-इन्टरनेट के जरिए पूरी दुनिया के सामने पेश किया गया उनके काले कारनामे सिर्फ़ एशिया महाद्वीप में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर द्वीप में दर्ज़ हैं. अखबारों में छपने के बाद सीएनएन और बीबीसी तथा चंद भारतीय न्यूज चैनलों के एंकर यह इतिहास बताना नहीं भूले कि कैपिटल हिल तथा व्हाइट हाउस अश्वेत दासों की मेहनत से बने थे और आज कैसा महान क्षण आया है कि एक अश्वेत उसी कैपिटल हिल में शपथ लेगा तथा उसी व्हाइट हाउस में निवास करते हुए दुनिया का भाग्य विधाता बनेगा


लेकिन इनसे काफी पहले के अमेरिकी राष्ट्रपतियों की करतूतों पर नजर डालने वाला यह आलेख मैने काफी अहले 'आज़ाद लब' में प्रस्तुत किया था. आज फिर दे रहा हूँ. लेकिन उससे पहले एक बात- अगर ओबामा का भाषण-लेखक आधुनिक हिन्दी कविता पढ़ लेता तो उसे अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती. उनमें कहीं ज़्यादा उथली, करिश्माई और हवाई बातें होती हैं. एक बात और, जब वो बुजुर्ग पादरी ओबामा के लिए ईशप्रार्थना करते हुए कैपिटल हिल पर लगभग रो रहा था तब मुझे कामू के उपन्यास 'ला स्ट्रेंजर' के उस पादरी की याद आ गयी जो नायक को मृत्यु की सज़ा पा जाने के बाद जेल की कोठरी में ईश्वर पर भरोसा दिलाने के लिए आया करता था.) अब कृपया वह लेख पढ़िए जिसका सम्बन्ध पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों से है. लिंक ये रहा-

'आज़ाद लब'

साल 2050, परमाणु युद्ध के बाद


Monday, January 19, 2009

ग़ालिब बरास्ता रामनाथ सुमन-2

जैसा कि पहली पोस्ट में कहा कि यह व्याख्याएं श्री रामनाथ सुमन की हैं। आज से पचास साल पहले उन्होंने ग़ालिब को समझने और दूसरों को समझाने की अपनी तरह की पहली और अकेली कोशिश की थी। उनके समझाए पर बहस हो सकती है यह भाई विजयशंकर चतुर्वेदी की पोस्ट से साबित हुआ। विजय ने जिसे ग़ालिब की कमज़ोरी कहा, आज का शेर फिर उसी तरह का है। उम्मीद है मज़ा आएगा। और हां, अशोक दा और आदरणीय अनूप जी ने सुमन जी के बेटे का नाम इंगितों में बताया- अभिधात्मक खुलासा अभी बाक़ी है।



तेरे वादे पर जिए हम, तो यह जान, झूट जाना !
कि खुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता !!



सुमन - उर्दू काव्य में माशूक़ के वादे पर न जाने कितने शेर लिखे गए होंगे पर मिर्ज़ा ने अपने कहने के ढंग से उसमें एक जद्दत पैदा कर दी है। और लोग उसके वादे पर जीते हैं परन्तु ग़ालिब इसलिए जीते हैं कि उसके वादे को झूटा समझते हैं।
कहते हैं - " तेरे वादे पर जो हम जीते रहे तो समझ कि ऐसा नहीं है, मैंने उसे झूटा ही समझा था। अगर तेरे वादे पर विश्वास होता तो मारे खुशी के मर न जाते?" माशूक़ के वादों पर कैसा तीखा व्यंग्य है।
-----------------------------------------------------------------------------------
भाई बोधिसत्व ने रामनाथ सुमन की किताब को पहला और अनोखा प्रयास बताने पर आपत्ति की है। उन्होंने फोन पर मुझे उन किताबों के बारे में बताया जो सुमन से पहले छपीं और स्तर में उससे कहीं आगे हैं। उन्होंने अपनी आपत्ति के साथ किताबों की सूची देने का वादा भी किया है। मुझे अच्छा लग रहा है कि ये बहस सही दिशा में जा रही है और ग़ालिब के बारे में और उन्हें लेकर हिंदी में हुए पुस्तकीय प्रयासों के बारे में हमारी जानकारी बढ़ रही है। अब मैं उस सूची के लिखित रूप में प्राप्त होने का इंतज़ार कर रहा हूं, ताकि उसे भी कबाड़खाने पर लगाया जा सके।
-----------------------------------------------------------------------------------

Sunday, January 18, 2009

यह ग़ालिब की सबसे बड़ी कमजोरी है!

अव्वल तो शिरीष जी की इसके ठीक पिछली पोस्ट का ये शेर-

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
दिल कहां कि गुम कीजे, हमने मुद्दआ पाया

खालिस रोमांटिक शेर है. लेकिन दिक्कत यह है कि गालिब इतना चतुर था कि एक तीर से हज़ार शिकार किया करता था. ग़ालिब उपर्युक्त शेर में भी मोहब्बत की इन्तेहाँ पर है. जैसे कि तब, जब वह यह कहता है-

जहाँ तेरा नक्श-ए-क़दम देखते हैं,
खयाबाँ-खयाबाँ इरम देखते है.

अब रामनाथ सुमन जी के बयान की बात. मैं उनके बखान से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता. क्योंकि ग़ालिब का इस शेर में कहने का मतलब वह नहीं है जो सुमन जी तजवीज करते हैं. ग़ालिब महबूबा के लिए अपना दिल खोल कर दिखाने से सम्बंधित दसियों अश'आर में अलग-अलग तरीकों से कहता आया है.

बहरहाल, शिरीष के 'कबाड़खाना' में ऊपर दिए गए शेर में दरअसल ग़ालिब कह रहा है कि दिल अब मेरे पास है ही कहाँ कि उसके गुल होने का ग़म किया जा सके. यानी वह तो महबूबा के पास पहले से है. लेकिन ऐसे अधिकांश मामलों में ग़ालिब के अश'आर से यह जाहिर होता है कि वह अपनी तरफ़ से यह मान कर चलता है कि महबूबा बेवफ़ा है. यह ग़ालिब की सबसे बड़ी कमजोरी लगती है! आप दीवान-ए-ग़ालिब तलाश लीजिए. इन मामलों में वह महबूबा का उजला पक्ष सामने नहीं रखता. कोई दानिश्वर अगर मेरी इस कमअकली को दुरुस्त कर दे तो मैं सुकून पाऊँ.

'हमने मुद्द'आ पाया' कहकर वह तंज़ कर रहा है कि महबूबा को मालूम है कि दिल उसके ही पास है लेकिन संगदिल कितनी सरकश है कि गोया मेरी मोहब्बत के उस उरूज को, जिसमें मैंने यहाँ तक कह दिया कि 'जाहिर हुआ के दाग़ का सरमाया दूद था', यह बात उड़ाकर कि महबूबा ने यकीनन दिल पड़ा पाया है, वैसी ही हरकत की है जैसी पत्थरदिल सनम किया करते हैं. हालांकि ग़ालिब के मन में कहीं हिकारत का भाव नहीं है. यह कमाल है! लेकिन ग़ालिब ऐसा क्यों करता था यह पहले इतिहासकारों और मनोवैज्ञानिकों को अध्ययन करना चाहिए.

Please note- (यह संपादित पोस्ट है. पिछली पोस्ट में कई चीज़ें गड्डमड्ड हो गयी थीं).

Saturday, January 17, 2009

ग़ालिब बरास्ता रामनाथ सुमन


सिद्धेश्वर भाई ने इस बीच कुछ समय ग़ालिब की खुमारी में बिताया और उसका एक हिस्सा हम तक भी पहुंचाया। इसलिए यह पोस्ट उन्हीं नज़्र है।

मुझे ग़ालिब पर श्री रामनाथ सुमन की लिखी और 1960 में ज्ञानपीठ से छपी एक किताब मिली है। रामनाथ सुमन को हिंदी वाले उनके बेटे की वजह से भी जानते हैं, सो मैं चाहूंगा कि आपमें से कोई उनके बेटे का नाम भी बताए, जाहिर है कई लोग बता देंगे। इस किताब में ग़ालिब के साहित्य की व्याख्या है और मैं इसमें से कुछ चुनकर आपके सामने प्रस्तुत करूंगा।



आज का शेर

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया

दिल कहां कि गुम कीजे, हमने मुद्दआ पाया



सुमन - अगर किसी की खोई चीज़ किसी और को मिल जाती है तो वह छेड़ने के लिए कहता है कि अगर हमें मिल गई तो हम न देंगे। कभी दूसरे की चीज़ लेने की मन में आती है तो उसे छिपाकर कहते हैं कि तुम्हारी चीज़ हमें मिल गई तो हम न देंगे। यही स्थिति इस शेर में भी है।

"तुम कह रहे हो कि अगर तुम्हारा दिल हमें कहीं पड़ा मिल गया तो हम न देंगे। पर वह है कहां? हमारे पास तो है नहीं कि खोने का डर हो। हां, तुम्हारी बात से मैं तुम्हारा मतलब समझ गया कि तुम्हें मेरे दिल की कामना है या तुम उसे पहिले ही पा चुके हो। वह तो तुम्हारे पास ही है। तब मुझे क्यों नाहक छेड़ रहे हो?"

Thursday, January 15, 2009

सखी संवाद


प्रस्तावना :

आज से कई बरस पहले एक अदद पी-एच० डी० की डिग्री हासिल करने की तैयारी के सिलसिले में बी.एच.यू. के केन्द्रीय पुस्तकालय की खाक छानते - छानते १९६० -६५ के दौर के 'ज्ञानोदय' में छपी एक कविता पसंद आई थी जिसे डायरी में उतार लिया था. वक्त की मार से मुकाबला करने की जद्दोजहद में वह डायरी भी कहीं खो गई लेकिन उस कविता की शुरूआती पंक्तियाँ अब भी याद हैं -

रात कहने लगे मेरी बाँह पकड़ कर सैयाँ
तेरे जूड़े का किरनफूल बहुत सुंदर है .
ऐ सखी लाज से में मैं मर - मर गई
मेरा जूड़ा तो मुआ घास का इक जंगल है।

विषय प्रवेश :
इस नज्म को किसने लिखा है कुछ पता नहीं पर इसकी बहर बहुत अच्छी लगी थी. बाद में अपने शहर आकर इसी बहर की कापी करते हुए तब यार -दोस्तों के शुद्ध मनोरंजन के वास्ते एक नज्म लिखी थी - 'सखी संवाद'. मित्रों को शिकायत रहती थी कि मेरी कवितायें बहुत 'कैड़ी' होती है वाल मैगजीन पर लगने वाली कवितायें अधिकांश लोगों के सर के ऊपर से निकल जाती हैं. सो एक फरमाइशी कविता ने जन्म लिया और अपने व्यक्तित्व से गंभीरता की केंचुल कुछ उतरी. बात दरअसल यह थी कि विद्यार्थी समुदाय में भावी डाक्साब लोग, खासकर कला संकाय के शोधार्थी कुछ करते - धरते हुए दिखते नहीं थे . छात्रावास, विभाग , पुस्तकालय, कैंटीन और अंतत: चचा की चाय की दुकान पर ठलुआगीरी करते हुए दुनिया - जहान को बदल देने के मंसूबे बाँधते हुए भीतर हीतर कुछ पुष्पगंधी - प्रेमिल तंतुओं को लपेट -समेटकर शाम कर दे्ना और फिर मालरोड पर मटरगश्ती कर छात्रावास के घोंसले में वास , भोजन -पानी, खाना-पीना... कुछ गप्प - कुछ शप्प , कुछ पढ़ाई...नींद..सपने..सपनों में सजना.....जिन लोगों को झील, बादल , बारिश, धुंध वाले शहर नैनीताल की रूमानियत की याद हो और जिसने अपने कालेज - यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई के दिनों में पढ़ना - लिखना छोड़कर बाकी सारे करम किए हों उन्हें शायद इस नज्म के बहाने अपना विद्यार्थी जीवन याद आ जाए तो क्या कहने ! तो आइए देखे हैं वह नज्म जिसका शीर्षक था -'सखी संवाद' :

प्रथम सखी उवाच :

ऐ सखी वो जो मुझे कालेज के गलियारे में
ध्यान से देखकर कैंटीन में घुस जाता है.
अपने होस्टल की तरफ अक्सर निगाहें कर के
चाय पीते हुए सिगरेट भी पीता जाता है.
देखती हूं कि वो लाईब्रेरी में रोजाना सखी
किताबों- थीसिसों में कैद नजर आता है.
लेकिन जब सामने पड़ जाती हूँ तो जाने क्यों
प्यार से देखता है आहिस्ते से मुस्काता है.
सोचती हूँ कि कभी उससे कोई बात करूँ.
उसकी तन्हाई से तन्हा हो मुलाकात करूँ.

अन्य सखी उवाच :

ऐ सखी तू अभी कमसिन भी है नादान भी है
जमाने की हवा में बह गई तो क्या होगा !
मैंने देखा है इस कैंपस का हर इक मंजर
सीख ले इससे शायद तेरा ही भला होगा !
राह चलते हुए यहाँ सैकड़ों मिल जाते हैं
देखकर तितलियों को प्यार लुटाने वाले.
आहें भरने वाले - बातें बनाने वाले
सीधी नजरों के तिरछे तीर चलाने वाले.
तेरा वो भी मुझे कुछ ऐसा ही - सा लगता है
सँभल - सँभल के कदम अपने बढ़ाना प्यारी
अगर वो रिसर्च स्कालर है तो और भी चौकन्नी रह
उनका तो काम है बस दिल ही लगाना प्यारी !

उपसंहार :

( दोस्तों , तब मुहब्बत नामक एक शै हुआ करती थी. कोई बताओ तो-
१. आज वह कहाँ है ?
२.कैसी है ?
३. किधर है ?
*** क्या आपको कुछ खबर है ? )

मां की बनाई गई घुघुतों की माला



आज हमारे यहां काले कव्वा था. 'है' इस लिए नहीं बोल रहा कि त्यौहार सुबह सुबह निबट गया है. हल्द्वानी में ही रहने वाली मेरी छोटी बहन को एक जनवरी के दिन पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी. फ़िलहाल मां उसी के घर गई है. नए आए पोते और उससे बड़े आदित्य के लिए घुघुतों की मालाएं ले कर. बाकी भाई बहनों के बच्चों की मालाएं मन्दिर के बगल में टांग दी गई हैं. जब भी वे यहां आएंगे उनका इन्तज़ार होता रहेगा.

घुघुती बासूती जी ने एक उम्दा पोस्ट इस बाबत आज लगाई है. इस कुमाऊंनी त्यौहार के बारे में उन्होंने बहुत चाव से लिखा है और बहुत अच्छा लिखा है. यह त्यौहार क्या होता है यह जानने की इच्छा हो तो एक दफ़ा उनके ब्लॉग पर जाने का कष्ट ज़रूर करें.

Wednesday, January 14, 2009

अपनी मौत भी मरता है कैंसर

'अमर उजाला' के बरेली संस्करण में कार्यरत भाई योगेश्वर सुयाल इस साल कबाड़ियों की जमात में शामिल होने वाले पहले हैं. अच्छे पढ़े-लिखे आदमी हैं और हम आशा कर सकते हैं कि वे जब-तब हमें अपनी रचनात्मकता से रू-ब-रू होने का मौका देंगे. कबाड़ख़ाना उनका स्वागत करता है और इस मौके पर प्रस्तुत करता है उन्हीं के द्वारा उपलब्ध कराई गई उनकी एक बिल्कुल ताज़ा रपट:

लखीमपुर के बुजुर्ग किसान ने `लाइलाज´ कैंसर को बिना इलाज हराया

कैंसर अपनी मौत भी मरता है। इसके लिए न दवा या चीरे की जरूरत है, न ही कष्टकारी कीमो या रेडियो थेरेपी की। मगर कैंसर को हराने वाले ऐसे भाग्यशाली लड़ाके करोड़ों में एक होते हैं। लखीमपुर खीरी के किसान परागी लाल लोधी उन्हीं में से एक हैं। दाएं फेफड़े में कैंसर की गांठ के कारण डाक्टरों ने उन्हें आठ-दस महीनों का मेहमान मान लिया था। करीब छह सेमी लंबी यह गांठ बिना किसी इलाज के खत्म हो गई है।

जन साधारण भले ही इसे `चमत्कार´ माने मगर डाक्टर कहते हैं, कैंसर बिना किसी इलाज के भी ठीक होता है। पिछले अस्सी साल के चिकित्सा इतिहास में दुनिया भर में ऐसे 216 केस सामने आए हैं। सामान्यता इसका श्रेय प्रतिरोधक क्षमता को जाता है मगर परागी लाल में तो यह चमत्कार सत्तर बरस की उम्र में हुआ, जबकि प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है।
लखीमपुर में नई बस्ती निवासी धूम्रपान के शौकीन परागी लाल को 2007 की शुरुआत में बलगम में खून आने की शिकायत हुई। डाक्टरों ने उन्हें टीबी की दवाइयां खिलाईं। सीने में शूल के कारण दिल की दवाइयां भी दीं। महीने गुजर गए। वह ठीक नहीं हुए। नवंबर 2007 में यहां शील अस्पताल पहुंचे। एक्सरे और सीटी स्कैन से उसके दाएं फेफड़े में छह सेमी की गांठ दिखाई दी। ब्रोंकोस्कोपी से कैंसर की पुष्टि हुई और फिर दिल्ली की लाल पैथोलाजी ने भी बायोप्सी में छोटी कोशिकाओं का कैंसर पकड़ा, जो तेजी से बढ़ने के कारण `अतिघातक´ माना जाता है।

चिकित्सा शास्त्र के हिसाब से इलाज होता या नहीं, उनकी आठ-दस महीने से ज्यादा बचने की उ मीद नहीं थी, थोरेसिक सर्जन डा. पवन अग्रवाल कहते हैं। बूढ़ा मरीज होने के कारण सिर्फ कीमो और रेडियो थेरेपी करवाने को कहा, ताकि वह `चंद महीनोंं की बची-खुची जिंदगी´ थोड़े आराम से जी सकें। परागी लाल ने ऐसा कुछ नहीं करवाया। डाक्टर भी उसे भूल गए और इन नौ-दस महीनों में चमत्कार हो गया।

पिछले अगस्त में वह मूत्र संबंधी नई समस्या के कारण दुबारा यहां आए तो उन्हें `अन्यथा स्वस्थ´ पाकर डाक्टर भी चौंक गए। पुराने लक्षण गायब। सीटी स्कैन में फेफड़े की गांठ भी गायब। दिल्ली की लैब में सुरक्षित बायोप्सी की स्लाइडों की दुबारा जांच करवाई गई तो उसमें कैंसर ही था। मरीज में किसी भी प्रकार की सर्जरी या कीमो या रेडियो थेरेपी के चिह्न भी नहीं मिले।
हमने ऐसा सिर्फ किताबों में पढ़ा था, केजीएमयू लखनऊ से थोरेरिक सर्जरी में एमसीएच कर चुके डा. पवन बताते हैं। लंग कैंसर के प्राकृतिक रूप से ठीक होने के सिर्फ आठ केस ज्ञात हैं।

खुद परागी लाल कहते हैं : मैं ठीक हूं। मैंने बीड़ी, शराब और मांस छोड़ दिया था। सुबह जल्दी उठकर खेतों पर टहलना हमेशा की तरह जारी रखा। योग या जड़ी बूटियों के बारे में भी वह नहीं जानते हैं।

कई बीमारियां होती हैं और ठीक भी हो जाती हैं, मदीना में प्रिंस आफ सऊदी अरबिया के फिजीशियन रह चुके डा. सरकार हैदर कहते हैं। सारा खेल इम्यून सिस्टम का है। इतना जरूर है कि कैंसर जैसे रोग का अपने आप ठीक होना विरल मामला है।
ऐसे में परागी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। व्यापक जनहित का सवाल यह है कि मानव शरीर में ऐसी कौन सी प्रक्रिया है, जो कैंसर को ठीक कर देती है? इसका वैज्ञानिक प्रयोग कैसे अन्य कैंसर रोगियों में हो सकता है? परागी का खून यह पता लगाने के काम आ सकता है। इसे हमेशा के लिए सुरक्षित रखते हुए यह केस ब्रिटिश मेडिकल जर्नल को भी भेजा गया है।
----

कैंसर पर नई दृष्टि

अमेरिकी के बाल्मीटोर में चिकित्सा, जनस्वास्थ्य समेत कई क्षेत्रों में अनुसंधान में रत जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी ने कैंसर शोध में नई दृष्टि प्रदान की है :
१. हर व्यक्ति के शरीर में कैंसर कोशिकाएं होती हैं मगर करोड़ों गुणा बढ़ने पर ही ये किसी जांच में पकड़ी जा सकती हैं।
२. अगर व्यक्ति की प्रतिरोधी प्रणाली मजबूत है तो कैंसर कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं।
३. कैंसर होने का मतलब है, व्यक्ति में बहुपोषणीय कमियां - वजहें कई हो सकती हैं - जेनेटिक, आबोहवा, भोजन या लाइफस्टाइल। भोजन और जीवनशैली बदलने से भी इससे उबर सकते हैं।
४. कीमो और रेडियोथेरेपी में अगर कैंसर कोशिकाएं खत्म होती हैं तो अच्छी कोशिकाएं भी। इनसे शुरुआती लाभ हो सकता है, मगर लंबे इस्तेमाल से इम्यून सिस्टम बैठने के कारण आदमी दूसरे संक्रमणों से मर सकता है।
५. कीमो और रेडियोथेरेपी से शरीर में विष बढ़ सकता है, जो अंतत: कैंसर कोशिकाओं के लिए खाद का काम करता है।
६. बेहतर है कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने का मौका न दिया जाए। चीनी कैंसर के लिए सबसे बढ़िया भोजन है, इसे बंद करें। इसका विकल्प है शहद, वह भी कम मात्रा में।
७. दूध से भी शरीर में यूकस बनता है, खासकर पेट और आंतों में, यूकस में भी कैंसर फलता है। दूध की बजाय बिना चीनी का सोया मिल्क लें।
८. अम्लीय माध्यम में कैंसर बढ़ता है। चाय, काफी, चाकलेट, धूम्रपान, शराब अम्ल बनाते हैं। मांस भी। इन्हें बंद करने का मतलब है कैंसर कोशिकाओं का भोजन बंद करना। परागीलाल ने भी यही किया।
९. कैंसर शरीर, मस्तिष्क और मन की बीमारी है। मन को चंगा रखें, घृणा, प्रतिस्पर्धा, तनाव से दूर रहें, कैंसर से लड़ने में मदद मिलेगी।
१०. आक्सीजन बहुल माहौल में कैंसर ज्यादा नहीं जी पाएगा। गहरी सांसें लें, सुबह शाम टहलें, कैंसर हारने लगेगा।



परागीलाल जी (ऊपर लगी तस्वीर उन्हीं की है) ने यही किया।

मकर संक्रांति पर गुलजार की प्रेम-पतंग!


रोज रात छत पर तारे आते हैं और आंखें झपकाकर कहते हैं कि कह दे। रोज रात चंद्रमा सिर पर आकर खड़ा हो जाता है और मुंह बनाकर कहता है -कह दे। पता नहीं, ये हवाएं कहां से चली आती हैं और हलचल मचाती हुई कह जाती हैं कि कह दे। और तो और अधखुली खिड़की में वह पीला फूल बार-बार झांककर कहता है कि कह दे। गुलजार हमारे दिल में दबी और होठों पर रूकी इन्हीं बातों को बहुत सादा लफ्जों में लेकिन दिलकश अंदाज में बयां कर देते हैं। बसंत अभी दूर है लेकिन गुलजार के गीत से बहती हवाएं हमेशा ही इश्क के मौसम को गुलजार रखती हैं। उनके गीतों की रंगतें, अदा और अंगड़ाई अजब-गजब हैं। गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड की वजह से स्लमडॉग सुर्खियों में है लेकिन इसी फिल्म में गुलजार का लिखा गीत जय हो पर किसी का ध्यान नहीं गया है। मकर संक्रांति के ठीक पहले यह गुलजार की मोहक प्रेम-पतंग है। उन्होंने इसे अपनी कल्पना की नर्म -अो-नाजुक ठुनकियों से उठान दी है। उनके पास दिल का ऐसा उचका है जिसकी मोहब्बत की रंग-बिरंगी महीन डोर कभी न खत्म होती है न कभी आहत करती है। उनमें इश्क के पेंच लड़ाने की अदाएं तो हैं लेकिन किसी प्रेम पतंग को काटने की आक्रामकता नहीं। कटना मंजूर है, काटना हरगिज नहीं। इस गीत में भी वे अपनी महीन बात को कहने के लिए कुदरत का एक हसीन दृश्य चुनते हैं जिसमें तारों भरी रात को वे जरी वाले नीले आसमान में और भी खूबसूरत बना देते हैं। फिर इसी नीले आसमान के नीचे वे जान गंवाने, कोयले पर रात बिताने और तारों से उंगली जलाने की मार्मिक बात कहते हैं। उनकी इस अदा पर कौन न मर जाए। जरा गौर कीजिए-
आजा जरी वाले नीले आसमान के तले/रत्ती रत्ती सच्ची मैंने जान गवाई है/नाच नाच कोयलों पे रात बिताई है/अंखियों की नींद मैंने फूंकों से उड़ा दी/गिन गिन तारे मैंने ऊंगली जलाई है।
प्रेम और विरह का कितना सुंदर खयाल और किस किस मारू अंदाज के साथ। गुलजार के गीत रात, आसमान, तारे और चंद्रमा से मिलकर बनते हैं। इस गीत में भी वे हैं। लेकिन अपने शब्दों का महकता हार बनाने के लिए वे शब्दों को फूलों की तरह चुनते हैं। इस गीत में रत्ती रत्ती, नाच नाच औऱ गिन गिन शब्दों के जरिये वे लगभग न पकड़ में आने वाले अमूर्त भावों को कितनी सहजता से अभिव्यक्त कर जाते हैं। और फिर उनकी असल कविता तो सच्ची मैंने जान गंवाईं, कोयलों पे रात बिताई और तारे से उंगली जलाई पंक्तियों में जिंदा होती है। ये है अकेलेपन की तड़प, प्रेम की घनी उपस्थिति। और फिर इसमें रात को शहद मानकर चख लेने की और काले काजल को काला जादू कहने की बातें हैं। लेकिन रूकिए, असल बात तो अब है। आंखें झुकी हैं, और लब पे रुकी बात को कह डालने की यह नाजुक घड़ी है। देखिए तो सही-
कब से हां कब से जो लब पे रूकी /कह दे कह दे हां कह दे/अब आंख झुकी है/ऐसी ऐसी रोशन आंखे/रोशन दोनों हीरे हैं , क्या? / आजा जिंद नीले शामियाने के तले। जय हो, जय हो।
आंखें झुकी हैं और यह एक हसीन मौका है। इसलिए अपने दिल की , होठों पे रूकी बात कह की गुजारिश है। इस बार मकर संक्रांति पर गुलजार की यह प्रेम-पतंग कट कर हमारे आंगन में आई है। इसे अपने दिल की डोर से बांधिए, मोहब्बत से उडाइए। हवा भी मेहरबान है और सूरज भी। क्या पता, आप जिसे चाहते हैं, वह भी इस बदलते मौसम में मेहरबान हो जाए। मकर संक्रांति की शुभकामनाएं।

Tuesday, January 13, 2009

प्रेम भटी का मदवा पिला के मतवारी कर दीन्ही मोसे नैना मिलाय के



हज़रत अमीर ख़ुसरो की सम्भवतः सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रचना है 'छाप तिलक सब छीनी रे'. रंगे-सुख़न पर जनाब एस. बी सिंह, कर्मनाशा और इसी कबाड़ख़ाने पर सिद्धेश्वर बाबू द्वारा और कई अड्डों पर अलग अलग मित्र-साथियों द्वारा यह रचना अलग अलग आवाज़ों में सुनवाई गई हैं.

कल एक साहब मेरे वास्ते बहाउद्दीन क़ुतुबुद्दीन क़व्वाल एण्ड पार्टी का दुर्लभ कलेक्शन 'फ़्लाइट ऑव द सोल' कहीं से जुगाड़ लाए. इन क़व्वाल-बन्धुओं से मेरा परिचय फ़क़त एक ही (लेकिन क्या शानदार) क़व्वाली से था. कल रात भर इस अल्बम को कई मर्तबा सुना गया. आज लगा थोड़ा ज़्यादा सम्पन्न समृद्ध हुआ हूं. यह महज़ इत्तफ़ा़क़ है कि इस से ठीक पहले बाबा नुसरत विराजमान हैं और वे भी इसे गा चुके हैं.

सुनिये, लुत्फ़ लीजिये और हैरत कीजिये कि एक ही रचना कितनी कितनी बार कितने कितने तरीकों से गाई जा सकती है.



डाउनलोड लिंक: http://www.divshare.com/download/6311018-1df

फूल रही सरसों सकल बन



बाबा नुसरत फ़तेह अली ख़ान से सुनिये राग बहार में कम्पोज़ की गई यह अमर रचना.

Monday, January 12, 2009

कैलेण्डर, पतझड़, मौसमे-बहार वगैरह के बहाने मिलिए शम्भू राणा से

८ सितम्बर १९६९ को देहरादून में जन्मे हमारे प्रिय मित्र शम्भू राणा से इस नए साल में आप को बहुत बार मिलवाया जाएगा. जनाब पत्रकार हैं, लेखक हैं घुमक्कड़ हैं और सबसे ऊपर उम्दा इन्सान हैं. नैनीताल से कोई तीस सालों से लगातार निकलने वाले 'नैनीताल समाचार' नामक जनपक्षधर और सचेत पाक्षिक अखबार का मुझे इधर चस्का लगवाने का श्रेय शम्भू जी को जाता है. पिछले कई सालों में और ख़ासतौर पर पिछले एकाध साल में उन्होंने एक से एक चीज़ें लिखी हैं. उनकी शैली और कथ्य को बहुत करीब से पढ़ने समझने वाला पाठक यह भी जान जाता है वे बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं. इस साल उनके लेखों की एक पुस्तक किसी ठीकठाक जगह से ला पाना मेरा स्वप्न है क्योंकि यह शानदार लेखक इस वक्त हमारे देश में लिख रहे भले-भले लेखकों से सौ गुना बेहतर है और उसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पढ़ाया जाना चाहिये. नए साल पर लिखा उनका एक पीस पेश है.



सभी को पता है फिर भी बताना ठीक रहता है कि नया साल आ गया। अपना मकसद नये साल की बधाई देना नहीं है। अपनी ज़बान में कुछ ऐसी तासीर है कि जिसे नया साल मुबारक कहा, उनमें से ज्यादातर की जेब साल की शुरूआत में ही कट गयी। इसी तरह लोगों की दुआ भी अपने लिये दुआ ही रही दवा नहीं बन पायी।

दरअसल मैं कुछ और कह रहा था, शुरूआत में ही भटक गया। कहना चाह रहा था कि दिसम्बर महीने का अंत और जनवरी की शुरूआत कैलेण्डरों के लिये पतझड़ भी है और मौसमे-बहार भी। पुराने कैलेण्डर उतर जाते हैं, उनकी जगह नये दीवारों में टाँक दिये जाते हैं। यह कैलेण्डर और डायरियाँ बटोरने का सीजन होता है। चाहे जहाँ से, जितने मिल जायें, न कहने का रिवाज नहीं है। कोई चाहे एक करोड़ कैलेण्डर छाप ले, शर्तिया कम पड़ेंगे और कई लोग नाराज मिलेंगे- भाई साहब हमें आपका कैलेण्डर नहीं मिला। हम आपको ऐसा नहीं समझते थे। आदमी कुछ इस अदा से शिकायत करता है जैसे कैलेन्डर रूपी पासपोर्ट के बिना उसे नये साल में दाखिल होने से रोक दिया गया हो। बेचारे की आपने जिंदगी तबाह कर दी। एक जरा सी कागज के टुकड़े के लिये। हद है कमीनेपन की भी।

कोई आदमी कैलेण्डर लेकर जा रहा हो तो, जरा देखूँ कैसा है कह कर भाग जाने की भी परम्परा है। लुटा हुआ आदमी भी कुछ खास बुरा नहीं मानता, लुटेरे को दो-चार गालियाँ देकर बात भूल जाता है।

जिस तरह कुछ लोगों को पानी भरने का खब्त होता है, वैसे ही कुछों को कैलेण्डर बटोरने का रोग होता है। जगह के अभाव में भले ही एक के ऊपर दूसरा-तीसरा टाँक देंगे पर कैलेण्डर के लिये खुशामद, सिफारिश और छीन-झपट से भी परहेज नहीं करेंगे।

यह सब एक प्रकार का सोद्देश्य कर्मयोग है, जो कैलेन्डर रूपी फल की इच्छा से किया जाता है। इसकी शिक्षा गीता नहीं देती। उसका कारण है। श्रीकृष्ण के जमाने में कैलेण्डर नहीं होते थे। अगर होते तो महाभारत का युद्ध जनता की भारी माँग पर 19 दिन चलता और गीता 18+1 अध्याय की होती। कृष्ण ने अर्जुन से अवश्य यह कहा होता कि हे अर्जुन, सुन जरा ध्यान से और वेदव्यास, तू भी सुन इस अध्याय को जरा बड़े फोंट में लिखना। प्रूफ की गलती तो हरगिज मत करना। तो अर्जुन चाहे जो हो, तू दिसम्बर के महीने में न तो आखेट को जाना, न युद्ध करना और न ही किसी सुंदरी के अपहरण का प्लान बनाना। आउट ऑफ स्टेशन मत होना, शहर में ही रहना और हर लाले-बनिये, बैंक एल.आइ.सी. से कैलेण्डर और डायरी प्राप्त करने का जी तोड़ प्रयत्न करना। प्यार से माँगना, खुशामद करने में मत शर्माना। इस पर भी न मिले तो खड्ग दिखाना। फिर भी न मिले कैलेण्डर तो अपमान का घूँट पी जाना। थोड़ा धैर्य रखना। मार्च में होलियों से निपट कर कैलेण्डर न देने वाले के खिलाफ युद्ध छेड़ देना। धर्म और नीति यही कहती है। हे पार्थ, जो मनुष्य अपने इस कर्म से विमुख होता है उसकी आत्मा उसे बाकी के तीन सौ पैंसठ दिन कचोटती रहती है। मृत्यु के बाद ऐसे व्यक्ति के लिये द्वारपाल बावजूद सुविधाशुल्क के नरक के दरवाजे नहीं खोलते। हे महाबाहो, तू इस पाप का भागी मत बनना।

साधारण से कैलेण्डरों के लिये जब इतनी मारामारी है तो विजय माल्या के कैलेण्डर पाने के लिये कोई किसी का कत्ल कर दे या सरकार अल्पमत में आ जाये तो कम से कम अपने को कोई हैरानी नहीं होगी।

कैलेण्डरों की लोकप्रियता पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिये। जो चीज लोकप्रिय होती है उसका अगर कोई रचनात्मक और लोक कल्याणकारी इस्तेमाल किया जाये तो क्या बुरा है। धंधे को प्रभावित किये बिना अगर थोड़ी समाज सेवा भी हो जाये तो किसे एतराज होगा। मसलन, मेरे दिमाग में एक आइडिया है जिसे जनहित में प्रकाशित करवाना चाहता हूँ। इससे लोगों का समय बचेगा और स्वास्थ्य भी उत्तम रहेगा। आइडिया कुछ यूँ है- शेर की दहाड़ती हुई सजीव तस्वीर वाला कैलेण्डर छापा जाये। किसी फिल्म स्टार से ऐसे कैलेण्डर का प्रचार करवाया जाये कि इसे कमरे में नहीं, पाखाने में अपने बैठने के ऐन सामने टाँकें। फिल्म स्टार से कहलवाया जाय कि जब से मैंने इस कैलेण्डर को इसके उचित स्थान पर टाँका तब से मैं शूटिंग में समय से पहुँचता हूँ। मेरी रूठी हुई गर्ल फ्रैंड भी लौट आयी, मेरे कैरियर में टर्निंग प्वाइंट आया वगैरा-वगैरा...

यह तो एक मिसाल थी। ऐसे और भी बहुत से विचार हो सकते हैं, जिनसे कैलेण्डरों को और ज्यादा सार्थक और उपयोगी बनाया जा सकता है। कृपया सब मिल कर सोचें।

Friday, January 9, 2009

क्या तेरा बिगड़ता, जो न मरता कोई दिन और

मिर्ज़ा ग़ालिब से जुड़ा कोई तारीखी वाक़या जब भी पेश आता है अच्छे लोग दरपेश हो जाया करते हैं. इससे साबित होता है कि दुनिया भर में ग़ालिब के प्रशंसकों की तादाद में दिनों दिन इजाफ़ा हो रहा है. पिछले दिनों ग़ालिब की पुण्यतिथि के आसपास 'कबाड़खाना' और कुल मिलाकर ब्लॉगजगत में भी आपने इसका सबूत पाया है. चाहनेवाले ग़ालिब को तरह- तरह से याद किया करते हैं. उनका मर्सिया भी अक्सर पढ़ा जाता है. आज पढ़िए ख़ुद मिर्ज़ा ग़ालिब का लिक्खा अपने भानजे (ज़ैनुल आबदीन जो ईसवी सन १८५२ में महज ३६ वर्ष की अल्पायु में खुदा को प्यारे हो गए थे. इन्हें ग़ालिब ने गोद ले लिया था.) का मर्सिया-





लाजिम था कि देखो मिरा रस्ता; कोई दिन और
तन्हा गए क्यों अब रहो तन्हा कोई दिन और

मिट जाएगा सर, गर तिरा पत्थर न घिसेगा
हूँ दर प तिरे नासिय: फ़रसा कोई दिन और

आए हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊं
माना, कि हमेशा: नहीं अच्छा, कोई दिन और

जाते हुए कहते हो, क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब, क़यामत का है गोया कोई दिन और

हाँ आय फ़लक-ए-पीर, जवाँ था अभी 'आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता, जो न मरता कोई दिन और

तुम माहे-ए-शब-ए-चारदहुम थे, मिरे घर के
फ़िर क्यों न रहा घर का वह नक्शा कोई दिन और

Thursday, January 8, 2009

भाषा का बहता नीर और मुहावरों की पतली गली

पिछले महीने ५ -६ दिसंबर को ( अब तो पिछले साल भी कहना पड़ेगा ) 'पहाड़' के रजत जयंती कार्यक्रम मे शामिल होने के सिलसिले में पिथौरागढ़ जाना हुआ था. उस कार्यक्रम की रपट अखबारों में प्रमुखता से छपी है . व्यकिगत रूप से यह मेरे वास्ते मित्र मिलन भी था. आयोजनकर्ताओं ने प्रतिभागियों की खूब आवभगत की. किसी किस्म की दिक्कत नहीं हुई. मेघना रेस्टोरेंट के भोजन का स्वाद अभी तक जिह्वा के कोर पर उतराया हुआ है. ६ तारीख को नगरपालिका सभागार में संपन्न ' पहाड़ सम्मान' के अवसर पर कई लोगों को टोपी पहनाई गई- मतलब कि टोपी पहनाकर सम्मानित किया गया. मंच से घोषणा होती रही और लोग टोपी पहनाकर -पहनकर खुश होते रहे, मुस्कराते रहे. निश्चित रूप से यह सम्मान - सौजन्य के प्रकटीकरण का एक बेहद सादा कार्यक्रम था- खुशनुमा और गर्मजोशी से लबरेज- न फूल , न माला , न बुके.. बस्स आदर से दोनो हाथों में सहेजी गई एक अदद टोपी और अपनत्व से नत एक शीश. उसी समय मुझे लगा कि घर पहुँचकर फुरसत से मुहावरा कोश खँगालना पड़ेगा , यह जानने के लिए कि हिन्दी में टोपी पर कितने व कितनी तरह के मुहावरे हैं . आपको यह नहीं लगता कि 'टोपी पहनाना' वाक्यांश मुहावरे की तरह इस्तेमाल होता है और उसका वह अर्थ तो आज की हिन्दी में भाषा नहीं ही होता है जो 'पहाड़' के आयोजकों की नेक मंशा थी. यही कारण था कि सभागर में विराजमान दर्शक - श्रोता टोपी पहनाने के बुलावे की घोषणा होते ही मंद-मंद मुस्कुराने लग पड़ते थे. मुहावरा कोश में मुझे टोपी पर कुल चार मुहावरे और उनके अर्थ कुछ यूँ मिले -

१. टोपी उछालना - इज्जत उतारना / अपमानित करना
२. टोपी देना - टोपी पहनाना , कपड़े देना / पहनाना
३. टोपी बदलना - भाई चारा होना
४. टोपी बदल भाई - सगे भाई न होते हुए भी भाई समान

ध्यान रहे कि इन मुहावरों का संदर्भ पगड़ी से भी जुड़ा है क्योंकि टोपी के मुकाबले पगड़ी से हिन्दी के भाषायी समाज का रिश्ता निकटतर है / रहा है.

इसी प्रसंग में मैंने जब अपने निकट की बोलचाल की हिन्दी को टटोलकर देखा तो पता चला कि कबीर ने सही कहा था कि 'भाखा बहता नीर'. कोश -थिसारस आदि किताबें हैं - दस्तावेज , प्रामाणिक संग्रह किन्तु इनकी सीमाओं के पार भाषा और उसकी प्रयुक्ति की एक ऐसी दुनिया है जो रोज बन रही है व बदल रही है. हमारी अपनी हिन्दी रोज नई चाल में ढल रही है और नए - नए मुहावरे अपनी नई नई अर्थछवियों के साथ नित्य उदित और उपस्थित हो रहे हैं. मैं कोई भाषाविद नहीं हूँ , इसलिए मेरे पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बता सकूँ इनमें से कितने मुहावरा कोश ग्रंथों में सहेजे जा चुके हैं. आइए एक नजर उन दस मुहावरों पर डालते हैं जो हिन्दी के नये रंग में अपनी छटा बिखेर रहे हैं -

१. चिड़िया लगाना / चिड़िया बिठाना
२. चाय पानी करना / चाय पानी करवाना
३. सुविधा शुल्क देना / लेना
४. झंड होना / झंड करना
५. फंडे देना / फंडू होना
६. सेटिंग करना / सेटिंग करवाना
७. लाइन मारना / लाइन देना
८. गोली देना
९. सैट होना / टैट होना
१०. पतली गली पकड़ना / पतली गली से निकल लेना

ऊपर दिए गए मुहावरों का क्रम दस पर ही बस नहीं होता है.ऐसे ढेरों मुहावरे हैं / होंगे जिनका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है. इसीलिए ऊपर जानबूझ कर उनके अर्थ भी नहीं दिए गए क्योंकि ये सब आज की बोलचाल की हिन्दी का हिस्सा हैं.शुद्ध हिन्दी ,मानक हिन्दी, परिष्कृत हिन्दी, परिनिष्ठित हिन्दी, संस्कारवान हिन्दी, चालू - चलताऊ हिन्दी, असली हिन्दी, हिंगलिश, जैसी कई तरह की हिन्दी हमारे निकट विद्यमान है. सवाल यह है कि हमें अपने जीवन संस्कार में भाषा के किस संस्कार को अपनाना है . जो भी हो मुहावरे हर तरह की हिन्दी में हैं .मैंने तो अपने आसपास सुनाई देने वाली हिन्दी से कुछ मुहावरेदार नमूने पकड़े और पेश किए हैं . अगर इनसे किसी को किसी तरह की असुविधा लगे तो क्षमा चाहते हुए इतना ही कहना है कि ये भाषा की परिधि में मौजूद हैं - ये आपकी, मेरी भाषा का अविभाज्य अंग बनें या न बनें यह चुनाव नितांत वैयक्तिक है परंतु उनकी सामाजिक उपस्थिति से कतई इनकार नहीं किया जा सकता.

खैर,आपने यह पोस्ट पढ़ी. आभार. अब तो भलाई इसी में है कि मैं पतली गली से निकल...नहीं नहीं फूट ही लेता हूँ

Wednesday, January 7, 2009

सुक्रे-शबाबो-यादे-यार, दर्दे- फ़िराक़ो-इंतज़ार

"ग़ज़ल शब्द के दो अर्थ होते हैं - एक ग़ज़ल, दूसरा बेग़म अख़्तर"।
ऐसा मानने वाले कैफ़ी आज़मी साहब की एक शुरुआती ग़ज़ल बेग़म अख़्तर ने गाई थी जो खासी मक़बूल है। इसी ग़ज़ल के बहाने दोनों को एक साथ याद कर रहा हूँ। हैरानी होती है कि बेग़म अख़्तर का ग़ज़लों का चुनाव इतना सटीक कैसे होता था। कोई भी ग़ज़ल निराश नहीं करती।
बहरहाल बकवाद बंद और ग़ज़ल चालू...




इतना तो ज़िन्दगी में किसी की खलल पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ऐ- गम
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।

इक तुम कि तुम को फ़िक्रे-नशेबो-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े।

मुद्दत के बाद उसने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े।

साकी सभी को है गम-ए-तश्ना:लबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिसके उबल पड़े।

Saturday, January 3, 2009

अनदिखे -अनकहे टूटन की तसल्लीबख्श मरम्मत के वास्ते एक गीत

दिल लगाकर , लग गया उनको भी तन्हा बैठना,
बारे , अपनी बेकसी की हमने पाई दाद याँ.

भाई मीत ने 'कबाड़खाना' पर नए साल का आगाज़ अपने अंदाज में किया - 'आके सीधी लगी'. अच्छा लगा यह सीधा लगना-

ग़ालिब मेरे कलाम में क्यूँ कर मज़ा न हो,
पीता हूँ धोके खुसरू-ए-शीरीं-सुखन के पाँव.

इधर एकाध दिन से मैं देख रहा हूँ कि नए बरस में कबाड़ी संप्रदाय के सदस्य शायद छुट्टी के मूड में आए हुए हैं या फिर कुछ ऐसा लगता है (शायद) 'रूठु' गये हैं -

दिखा के जुंबिशे लब ही तमाम कर हमको,
न: दे जो बोस: तो मुँह से कहीं जवाब तो दे.

हालाँकि मुझे अच्छी तरह से पता है कबाड़ीगण 'रूठु' नहीं गए हैं -और भी काम हैं कबाड़ खँगालने के सिवा. यह भी पता है कि इस नाचीज को छोड़कर सारे के सारे कबाड़ी उम्दा कबाड़ के संग्रहकर्ता है और हाँ , प्रस्तुतकर्ता भी. हमारे ठिए पर आने वाले सहॄदय ही सचमुच के सहॄदय हैं.जैसा कि आप देख ही रहे हैं ऊपर दिए गए कुछ अशआर इस बत को बयाँ करने के वास्ते काफी हैं कि फिलहाल यह बंदा मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी की गिरफ़्त में चल रहा है.अतएव चलते-चलते सारे कबाड़ियों व इस मुकाम पर पधारने वाले सहॄदयों के लिए महाकवि ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल के ये दो शे'र -

नक्श को उसके , मुसव्विर पर भी क्या-क्या नाज़ है,
खेंचता है जिस कदर , उतना ही खिंचता जाए है.

हो के आशिक , वो परी रुख़ और नाज़ुक बन गया,
रंग खुलता जाए है, जितना के: उड़ता जाए है.

इस काव्य -चर्चा / कबाड़ चर्चा के बाद आइए सुनते हैं यह गीत जो किशोरावस्था को फँलांगने के दौर में अलग और 'कुछ हट के ' लगता था. तब क्या पता था कि कभी जीवन किसी कालखंड में ऐसे ही गीत 'नून -तेल - लकड़ी' की जद्दोजहद में भीतर के अनदिखे -अनकहे टूटन की तसल्लीबख्श मरम्मत का साधन बनेंगे. खैर...



स्वर : शोभा गुर्टू
संगीत : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
फ़िल्म : मैं तुलसी तेरे आँगन की

Thursday, January 1, 2009

आके सीधी लगी




कबाड़खाना है इसलिए भी ....और कुछ कबाड़ भी है अपने पास ......

नए साल को कुछ इस अंदाज़ में शुरू करें तो क्या बुरा हो ?

एक ये GENIUS है जिस के बारे में कुछ भी कहना अपने बस में नहीं .....

आप भी सुनें .... ये यक़ीन करना भी मुश्क़िल सा लगता है कि इस गीत के संगीतकार "सलिल चौधरी" हैं और गीतकार "शैलेन्द्र" ..... फ़िल्म का नाम है : "हाफ़ टिकट"