इमरजेन्सी अक्सर आती रहती है. सभी भाईलोग इस विषम विपत्ति से अक्सर दोचार रहा ही करते हैं. कभी ऐसा भी होता है कि कुछ भी दिखाई देना बन्द हो जाता है. तब यारों का सहारा सबसे मुफ़ीद और ग्रान्टीवाला माना गया है. मंज़िल तक जाने वाली किसी पगडंडी की एक ज़रा सी कोई झलक दिखा दे, कोई ज़रा सा हाथ थाम कर चौराहा पार करा दे.
चीज़ें जल्दी नॉर्मल होने की मूलभूत प्रवृत्ति रखती हैं. आदमी को क्या चाहिये: बस ज़रा सा धैर्य, और कम लालच.
अपने स्कूली सहपाठी और हरसी बाबा के शिष्य दीपक पांडे उर्फ़ माइकेल होल्डिंग उर्फ़ उस्ताद-ए-जमां अरस्तू की एक महान कहावत को कबाड़ख़ाना अपनी अमर सूक्तियों में जगह देता हुआ गौरवान्वित है:
अंधा क्या चाहे, एक आंख
Saturday, August 30, 2008
हमरी अटरिया पर आजा रे सांवरिया ! देखा-देखी तनिक हुई जाए
Friday, August 29, 2008
पानी में घिरे हुए लोग
पानी में घिरे हुए लोग
प्रार्थना नहीं करते
वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को
और एक दिन
बिना किसी सूचना के
खच्चर बैल या भैंस की पीठ पर
घर-असबाब लादकर
चल देते हैं कहीं और
यह कितना अद्भुत है
कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो
उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है
थोड़ी-सी धूप
थोड़ा-सा आसमान
फिर वे गाड़ देते हैं खम्भे
तान देते हैं बोरे
उलझा देते हैं मूंज की रस्सियां और टाट
पानी में घिरे हुए लोग
अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध
वे ले आते हैं आम की गुठलियां
खाली टिन
भुने हुए चने
वे ले आते हैं चिलम और आग
फिर बह जाते हैं उनके मवेशी
उनकी पूजा की घंटी बह जाती है
बह जाती है महावीर जी की आदमकद मूर्ति
घरों की कच्ची दीवारें
दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े
फूल-पत्ते
पाट-पटोरे
सब बह जाते हैं
मगर पानी में घिरे हुए लोग
शिकायत नहीं करते
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी-सी आग
फिर डूब जाता है सूरज
कहीं से आती हैं
पानी पर तैरती हुई
लोगों के बोलने की तेज आवाजें
कहीं से उठता है धुआं
पेड़ों पर मंडराता हुआ
और पानी में घिरे हुए लोग
हो जाते हैं बेचैन
वे जला देते हैं
एक टुटही लालटेन
टांग देते हैं किसी ऊंचे बांस पर
ताकि उनके होने की खबर
पानी के पार तक पहुंचती रहे
फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखें डाले हुए
वे रात-भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ
सिर्फ उनके अंदर
अरार की तरह
हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है
छपाक........छपाक.......
-केदारनाथ सिंह
प्रार्थना नहीं करते
वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को
और एक दिन
बिना किसी सूचना के
खच्चर बैल या भैंस की पीठ पर
घर-असबाब लादकर
चल देते हैं कहीं और
यह कितना अद्भुत है
कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो
उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है
थोड़ी-सी धूप
थोड़ा-सा आसमान
फिर वे गाड़ देते हैं खम्भे
तान देते हैं बोरे
उलझा देते हैं मूंज की रस्सियां और टाट
पानी में घिरे हुए लोग
अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध
वे ले आते हैं आम की गुठलियां
खाली टिन
भुने हुए चने
वे ले आते हैं चिलम और आग
फिर बह जाते हैं उनके मवेशी
उनकी पूजा की घंटी बह जाती है
बह जाती है महावीर जी की आदमकद मूर्ति
घरों की कच्ची दीवारें
दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े
फूल-पत्ते
पाट-पटोरे
सब बह जाते हैं
मगर पानी में घिरे हुए लोग
शिकायत नहीं करते
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी-सी आग
फिर डूब जाता है सूरज
कहीं से आती हैं
पानी पर तैरती हुई
लोगों के बोलने की तेज आवाजें
कहीं से उठता है धुआं
पेड़ों पर मंडराता हुआ
और पानी में घिरे हुए लोग
हो जाते हैं बेचैन
वे जला देते हैं
एक टुटही लालटेन
टांग देते हैं किसी ऊंचे बांस पर
ताकि उनके होने की खबर
पानी के पार तक पहुंचती रहे
फिर उस मद्धिम रोशनी में
पानी की आंखों में
आंखें डाले हुए
वे रात-भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने
पानी की तरफ
पानी के खिलाफ
सिर्फ उनके अंदर
अरार की तरह
हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है
छपाक........छपाक.......
-केदारनाथ सिंह
टप-टप चुएला पसीना सजन बिना
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgUTUO17ToSxc9aVkNjdwPzrjtdHJ_xLOHK1mp7NP9yq-ksHGqiThXz1osSsV0HXNIYppxRt_wAZ6gfaIyuaxnch6PZ8JugGN16Q3nTfjNm2fQYnV8_5S9mi3Zu4lE6FUuLWxeOa913ySZu/s200/pasina.jpg)
Wednesday, August 27, 2008
आज सर डॉन की जन्म शताब्दी है
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhu5D32DpGtcd8lNXFG6C9gGZqqXfCpyYDMrq0yES7Ucx1gB-QMZAd2mEmZNWrWNGbceKJXgMJeoUY09KpsZ-IKN5TWBNXHglTaWs0Fz6ovh6zrMngtINxH2hc_bP2hT6e1mtxPt7uRybI/s400/don.jpg)
आज सर डॉन की जन्म शताब्दी है. क्रिकेट के महानतम खिलाड़ी डॉनल्ड ब्रैडमैन की स्मृति में पर लिखा अपना एक पुराना लेख आप की ख़िदमत में प्रस्तुत करता हूं:
कहते हैं जिसने मीर तक़ी मीर का नाम नहीं सुना, उसे उर्दू शायरी का ज़रा भी ज्ञान नहीं हो सकता. क्रिकेट में ठीक यही बात सर डॉन ब्रैडमैन के बारे में कही जाती है. उनके बारे में उनके साथ खेले और टाइगर के नाम से विख्यात स्पिनर बिल ओ' रिली ने अपनी एक किताब में लिखा: "मेरे अनुमान से उस जैसा खिलाड़ी न हुआ न होगा. आप तमाम चैपल और वॉ भाइयों और एलन बॉर्डर वगैरह को मिला कर भी उस जैसा खिलाड़ी नहीं बना सकते. उस के सामने ये बच्चे हैं. मैंने तो उसे खेलते हुए देखा है साहब और उस आदमी की योग्यता का आप अनुमान भी नहीं लगा सकते. ये अमरीका वाले क्या बेब रूथ (बेब रूथ को बेसबॉल में ब्रैडमैन वाला दर्ज़ा प्राप्त है) की रट लगाए रहते हैं. ब्रैडमैन था आधुनिक समय का असली चमत्कार"
खेल के मैदान पर लम्बे समय तक डॉन से व्यक्तिगत मतभेद रखने वाले टाइगर के इस कथन की पुष्टि ब्रैडमैन के खेल जीवन में बिखरे तमाम किस्सों कहानियों द्वारा होती है.
१९३० में डॉन अपने पहले इंग्लैंड दौरे पर गए तो उनकी ख्याति उनसे पहले वहां पहुंच चुकी थी. यॉर्कशायर के साथ खेले गए एक शुरुआती अभ्यास मैच में जॉर्ज मैकॉले नामक एक उत्साही गेंदबाज़ ने ओवर समाप्त होने पर कप्तान से गेंद मांगते हुए बड़ी बदतमीज़ी से कहा: "इस छोकरे को बॉलिंग मुझे करने दो यार"
पहला ओवर उसने मेडन फेंका. दूसरे में डॉन ने पांच चौके लगाए और अगले में चार. "इस छोकरे की बात का इतना भी बुरा मत मानो, डॉन!" दर्शकों में से कोई चिल्ला कर बोला. इन साहब को दुबारा गेंदबाज़ी करने का पूरे मैच में मौका नहीं मिला.
इस सीरीज़ में सर डॉन ब्रैडमैन ने कुल ९७४ रन बनाए. हैडिंग्ली के मैदान पर उन्होंने एक ही दिन में ३०९ रन स्कोर किए. इसके बाद इंग्लैंड से साथ उन्होंने कुल सात एशेज़ श्रृंखलाएं खेलीं और इस दौरान अविश्वसनीय लगने वाले कीर्तिमानों का अम्बार जुटाया. इन में से ऑस्ट्रेलिया केवल एक बार हारा और वह भी तब जब डॉन के आतंक का सामना करने को अंग्रेज़ों ने क्रिकेट को हमेशा के लिए शर्मसार बना देने वाली बॉडीलाइन गेंदबाज़ी का सहारा लिया - उल्लेखनीय है कि इस के बावजूद बॉडीलाइन सीरीज़ में ब्रैडनैन का औसत ५६ का रहा. कुल बावन टेस्टों की अस्सी पारियां खेलीं इस खिलाड़ी ने और उनतीस शतक ठोके. जब वे ओवल में अपनी आख़िरी पारी के लिए उतरे तो सौ रन प्रति पारी का असंभव करियर-औसत पाने के लिए उन्हें महज़ चार रन चाहिए थे. लेकिन वे दूसरी ही गेंद पर शून्य पर आउट हो गए और उनका औसत बना ९९.९४. यह विचित्र संयोग भी सर डॉन ब्रैडमैन की दास्तान का अमर हिस्सा बन चुका है.
१९३१ में लिथगो के साथ एक प्रथम श्रेणी मैच खेलते हुए बिल ब्लैक नाम के एक ऑफ़-स्पिनर ने डॉन को मात्र बावन के स्कोर पर आउट कर दिया. अम्पायर तक इस बात से इतना उत्तेजित हुआ कि उसने कहा: "आखिरकार तुमने आउट कर ही दिया डॉन को". मैच के बाद बिल ने अम्पायर से सर डॉन का बेशकीमती विकेट लेने वाली वह गेंद ले ली और उसे बाक़ायदा फ़्रेम करवा कर स्थानीय क्रिकेट क्लब में प्रदर्शन हेतु रखा.
उसी सीज़न में दोनों खिलाड़ी एक बार फिर से आमने सामने थे. बिल अपना रन अप मार्क कर रहे थे तो डॉन ने विकेटकीपर से पूछा: "ये साहब किस तरह की बॉलिंग करते हैं?"
विकेटकीपर ने शरारत भरे स्वर में कहा: "आपको इस की याद नहीं? कुछ हफ़्ते पहले इस ने आप को आउट किया था और
तब से इसका दिमाग खराब हो गया है - अपनी ही तूती बजाता फिरता है हर जगह"
"ऐसा?" ब्रैडमैन ने संक्षिप्त सी प्रतिक्रिया दी.
उन दिनों ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में आठ गेंदों का ओवर हुआ करता था. दो ओवर फेंक चुकने के बाद बिल ब्लैक ने अपने कप्तान से गेंदबाज़ी से हटा लिए जाने की विनती की. उस के दो ओवरों में सर डॉन ब्रैडमैन ने बासठ रन कूट डाले थे. अपनी पारी के दौरान एक समय उन्होंने तीन ओवरों में सेंचुरी मारी और कोई ढाई घन्टे बाद जब वे आउट हो कर लौट रहे थे तो उनका स्कोर था २५६ जिसमें चौदह छक्के थे और उनतीस चौके.
*सर डॉन पर रचे गए एक गीत को कबाड़ख़ाने में यहां सुनें:
ही वॉज़ मोर दैन जस्ट अ बैट्समैन
Tuesday, August 26, 2008
श्रद्धांजलि: अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माजी है 'फ़राज़'
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisH5Pablk5s-NNl4RpMACMI4whc97ORWDmqA2SEgcABqlaolKH6yPaObrQnMJ01XTNcrFPKhBITylsQE_Xay9rmyNLPjYJlc1WcVtzXVeY2ONzx1g97Ttj3kakCmfz7-M-Sm2W26YZjM_J/s320/faraz+2.jpg)
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-
बुझाकुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
अपनी शायरी के जरिये ' गम-ए-दुनिया भी गम-ए-यार में शामिल कर लो ' का संदेसा देने वाले हमारे समय के इस हिस्से के सर्वाधिक मशहूर शायर अहमद फ़राज़ साहब ( १४ जनवरी १९३१ -२५ अगस्त २००८) अब इस दुनिया को अलविदा कहकर दूर, बहुत दूर अनंत यात्रा पर जा चुके हैं. अभी पिछले महीने ही यह उड़ती हुई -सी खबर आई थी कि वे नहीं रहे जो बाद में सही नहीं निकली .वे काफ़ी लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे थे. सोमवार की रात उनके पुत्र जनाब शिब्ली 'फ़राज़' के हवाले से जब उनके इंतकाल की खबर फ़ैली तो दुनिया भर में फ़ैले उनके असंख्य प्रशंसको को भरे मन से मान ही लेना पड़ा कि ' हंस तो उड़ गया'. याद है, उन्होंने स्वयं ही तो किसी जगह कहा है -
अबके हम बिछडे तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें .
अपनी शायरी के जरिये ' गम-ए-दुनिया भी गम-ए-यार में शामिल कर लो ' का संदेसा देने वाले हमारे समय के इस हिस्से के सर्वाधिक मशहूर शायर अहमद फ़राज़ साहब ( १४ जनवरी १९३१ -२५ अगस्त २००८) अब इस दुनिया को अलविदा कहकर दूर, बहुत दूर अनंत यात्रा पर जा चुके हैं. अभी पिछले महीने ही यह उड़ती हुई -सी खबर आई थी कि वे नहीं रहे जो बाद में सही नहीं निकली .वे काफ़ी लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे थे. सोमवार की रात उनके पुत्र जनाब शिब्ली 'फ़राज़' के हवाले से जब उनके इंतकाल की खबर फ़ैली तो दुनिया भर में फ़ैले उनके असंख्य प्रशंसको को भरे मन से मान ही लेना पड़ा कि ' हंस तो उड़ गया'. याद है, उन्होंने स्वयं ही तो किसी जगह कहा है -
अबके हम बिछडे तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें .
'फ़राज़' तखल्लुस धारण कर उर्दू की आधुनिक शायरी को नई दृष्टि और दिशा देने वाले इस महान कवि का वास्तविक नाम सैयद अहमद शाह था. एक समय अपने मुल्क पाकिस्तान सियासी हलचलों था अभिव्यक्ति की आजादी पर आयद पाबंदियों से तंग आकर उन्होंने लगभग तीनेक बरस के लिए खुद को आत्म निर्वासन के हवाले कर कनाडा और यूरोप में बिताया. बाद में पाकिस्तान आने पर 'पाकिस्तान बुक फ़ाउंडेशन' के अध्यक्ष की हैसियत से काम करते रहे. वर्ष 2004 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान 'हिलाले-इम्तियाज़' दिया गया जिसे उन्होंने बाद में विरोध सहित वापस कर दिया.
फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी ,नही
मगर करार से दिन कट रहे हों यूं भी नही
साहित्यिक हलकों में अहमद फ़राज़ की तुलना इक़बाल और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे बड़े शायरों से की जाती है. उनकी शायरी के एक दर्जन से ज्यादा संग्रह 'शहरे-सुख़न' शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं. साथ ही प्रमुख कविताएं और गज़लें हिंदी में भी छपी हैं और समादृत हुई हैं. फ़राज़ की शायरी की तमाम खुसूसियातों से एक और यकीनन सबसे अधिक रेखांकित करने योग्य बात यह है कि पेशावर विश्वविद्यालय में फ़ारसी और उर्दू के अध्येता और अध्यापक रहे इस कवि ने निहायत सरल, सहल और सीधी-सच्ची आमफ़हम भाषा में अपने अशआर कहे हैं .संभवतः यह भी एक महत्वपूर्ण वजह रही है कि गजल गायकों के लिए वह सर्वाधिक प्रिय शायर रहे हैं. अगर और , बाकी सब छोड़ भी दें तो 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ' के कारण उनकी अमरता को कौन संगीतप्रेमी झुठला सकता है!
'कबाड़खाना' की ओर से फ़राज़ साहब को श्रद्धांजलि ! नमन!! प्रस्तुत है इस दिवंगत शायर के शब्द और स्वर का एक अंदाज -
फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी ,नही
मगर करार से दिन कट रहे हों यूं भी नही
साहित्यिक हलकों में अहमद फ़राज़ की तुलना इक़बाल और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे बड़े शायरों से की जाती है. उनकी शायरी के एक दर्जन से ज्यादा संग्रह 'शहरे-सुख़न' शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं. साथ ही प्रमुख कविताएं और गज़लें हिंदी में भी छपी हैं और समादृत हुई हैं. फ़राज़ की शायरी की तमाम खुसूसियातों से एक और यकीनन सबसे अधिक रेखांकित करने योग्य बात यह है कि पेशावर विश्वविद्यालय में फ़ारसी और उर्दू के अध्येता और अध्यापक रहे इस कवि ने निहायत सरल, सहल और सीधी-सच्ची आमफ़हम भाषा में अपने अशआर कहे हैं .संभवतः यह भी एक महत्वपूर्ण वजह रही है कि गजल गायकों के लिए वह सर्वाधिक प्रिय शायर रहे हैं. अगर और , बाकी सब छोड़ भी दें तो 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ' के कारण उनकी अमरता को कौन संगीतप्रेमी झुठला सकता है!
'कबाड़खाना' की ओर से फ़राज़ साहब को श्रद्धांजलि ! नमन!! प्रस्तुत है इस दिवंगत शायर के शब्द और स्वर का एक अंदाज -
हरित दुति होय' उर्फ नये कबाड़ी रवीन्द्र व्यास का ( एक बार और ) स्वागत !
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB5i3DAuwnQvgwdqCYamqnIGa5a4PbAViU7kbS9E-lhoyNKhTE053T65cGbpk-ArjIqEiSiIL9IPWg2lqREuqTYfD5VUZDgaec_uN8M4kLxRUfOY11J3GPQb5x_3_1hZPMvWByL5PP3clN/s320/hara.jpg)
मौला करे गरीब की खेती हरी रहे,
संदल से मांग बच्चों से गोदी भरी रहे....
संदल से मांग बच्चों से गोदी भरी रहे....
एक लंबे अंतराल के बाद किसी नए कबाड़ी की आमद हुई है। इंदौर में रहने वाले पत्रकार,कथाकर और चित्रकार रवीन्द्र व्यास 'कबाड़खाना' से जुड़ चुके हैं , मुझे तो यह बात कल शाम को पता चली जब हमारे मुखिया अशोक पांडे ने फोन किया और कहा कि सारे कबाड़ियों की ओर से मैं नए कबाड़ी के स्वागत में 'चार लाइनां' लिखूं. एकाध दिन देर ही सही लेकिन यह निश्चित रूप से हम सब के लिये हर्ष और सम्मान का विषय है कि रवीन्द्र व्यास के आने से यह ब्लाग समृद्ध होगा. उनकी कलम और कूची की करीगरी से अधिकाश लोग परिचित होंगे. मैं व्यकिगत रूप से उनके 'वेबदुनिया' वाले आलेखों की भाषा और भाव (प्रवणता) का मुरीद हूं. उनके चित्रों का एक मुजाहिरा हम सब फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविता वाली पोस्ट में देख चुके हैं. 'उनका एकदम नया ब्लॉग 'हरा कोना' अपने नाम से ही जाहिर करता है कि हरे रंग से इस शख़्स को प्यार होना चाहिये.'
यह जो हरा है
इसी में जीवन भरा है !
इसी में है उजास
इसी से नभ है, धरा है !!
इसी में जीवन भरा है !
इसी में है उजास
इसी से नभ है, धरा है !!
प्यारे भाई रविन्द्र व्यास, 'कबाड़खाना' में आपका स्वागत है ! खुश आमदीद !! आपके आने से यहां 'हरियाली' तो रहेगी ही 'रास्ता' भी सहल हो जाएगा। दोस्त ! आपकी ही लिखी एक पोस्ट और आपका ही बनाया एक चित्र बेहद प्यार और आभार के साथ आप के लिए और सब के लिए प्रस्तुत है -
मैं आज गिलहरी के मरने की खबर बनाता हूं / रविन्द्र व्यास
सुबह की खिली और नर्म धूप में उस सड़क पर घूमना किसी दहशत और आंतक से रूबरू होना है। शहर के आखिर में बनी एक नई कॉलोनी में जहां मैं रहता हूं, वहां एक चिकनी सड़क बन गई है जो तीन-चार किलोमीटर दूर इस इलाके को एबी रोड से जोड़ती है। मेरे घर के सामने सिर्फ एक प्लॉट छोड़कर ही अब भी खेतों में फसलें लहलहाती हैं और बारिश में पेड़ नाचते हुए अपने भरे-पूरे हरेपन में इतराते रहते हैं। इनमें पांच गुलमोहर के पेड़ भी हैं और भरी दोपहर में इनकी नाजुक-लचकती बांहों पर अंगारे की तरह फूलों के गुच्छे हवा में झूलते रहते हैं। मैं इन्हें जब भी देखता हूं मुझे राहत और हिम्मत भी मिलती है। इन पेड़ों में कुछ की लचकती शाखें काट डाली गई हैं क्योंकि वे आते-जाते वाहनों की गति में आड़े आती थीं। खेतों के पीछे जो खेत हैं, सुना है वे बिक चुके हैं और वहां एक बड़ा मॉल बनने की तैयारी है।
सुबह की खिली और नर्म धूप में उस सड़क पर घूमना किसी दहशत और आंतक से रूबरू होना है। शहर के आखिर में बनी एक नई कॉलोनी में जहां मैं रहता हूं, वहां एक चिकनी सड़क बन गई है जो तीन-चार किलोमीटर दूर इस इलाके को एबी रोड से जोड़ती है। मेरे घर के सामने सिर्फ एक प्लॉट छोड़कर ही अब भी खेतों में फसलें लहलहाती हैं और बारिश में पेड़ नाचते हुए अपने भरे-पूरे हरेपन में इतराते रहते हैं। इनमें पांच गुलमोहर के पेड़ भी हैं और भरी दोपहर में इनकी नाजुक-लचकती बांहों पर अंगारे की तरह फूलों के गुच्छे हवा में झूलते रहते हैं। मैं इन्हें जब भी देखता हूं मुझे राहत और हिम्मत भी मिलती है। इन पेड़ों में कुछ की लचकती शाखें काट डाली गई हैं क्योंकि वे आते-जाते वाहनों की गति में आड़े आती थीं। खेतों के पीछे जो खेत हैं, सुना है वे बिक चुके हैं और वहां एक बड़ा मॉल बनने की तैयारी है।
मैं डायबिटीक हूं और मेरे डॉक्टर ने कहा है कि आप अपनी ब्लड शुगर कंट्रोल नहीं कर पाएंगे तो आपको इंसुलिन लेना पड़ेगी। तो मैं रोज चार किलोमीटर पैदल घूमता हूं। तो सुबह की खिली और नर्म धूप में जब इस सड़क पर चलता हूं तो रोज मेरा मौत से सामना होता है। इस सड़क पर किसी सुबह कोई चूहा मरा मिलता है, तो किसी सुबह गिरगिट। किसी सुबह बिल्ली मरी मिलती है। आज सुबह एक कुचली हुई, मरी हुई गिलहरी मिली। ये सब पानी के टैंकरों (जिनमें तालाबों और नदियों का पानी है) औऱ ट्रकों(जिनमें सूख चुकी नदियों की रेत भरी है), नई चमचमाती कारों, ट्रेक्टरों, स्कूल और कॉलेज की बसों से कुचले जाकर मारे जा रहे हैं।
मैं बारिश का बेसब्री से इंतजार करता हूं। बारिश में ही मुझे पहली बार एक लड़की से प्रेम हुआ, बारिश में ही मैंने उसे पहली बार चूमा, बारिश में ही वह मुझसे बिछड़ी, बारिश में ही मुझे बेहतरीन दोस्त मिले और बारिश में ही उन्होंने दूसरे शहर जाते हुए मुझसे विदा ली, बारिश में ही मैंने अपनी पहली कहानी बारिश पर ही लिखी। बारिश बारिश बारिश...मैं मई में भी होता हूं तो मुझे जुलाई-अगस्त की रिमझिम सुनाई देती है। लेकिन कुचले गए इन प्यारे जीवों को इस सड़क पर मरा पाता हूं तो पहली बार बारिश का इंतजार एक दहशत में बदल जाता है। मैं जानता हूं जुलाई की किसी भीगी सुबह मुझे मेंढ़क मरे हुए मिलेंगे। विकास के नाम बनी एक सड़क के लिए किन किन को अपनी कुर्बानियां देना पड़ रही है। और इनकी किसी अखबार, किसी रेडियो, किसी टीवी में कहीं कोई खबर नहीं छपती। जो चीयर लीडर्स के हिलते नितंबों पर फिदा हैं उन्हें वे मुबारक, मैं गिलहरी के कुचलकर मर जाने को खबर बनाता हूं।
मेरे घर के सामने तो सिर्फ सड़क ही बनी ही है, जहां बांध बन रहे हैं वहां कितने हजारों लोगों को अपना जीवन कुर्बान करना पड़ रहा होगा, कितने कीट-पतंगों और जीव-जंतुओं को, कितने पेड़ों और पौधों को, कितने बीजों और फूलों को, और कितनी तितलियों को....
(आभार सहितः आलेख http://ravindra.mywebdunia.com से और चित्र http://ravindravyas.blogspot.com से)
(पुनश्च: मित्रों! इस पोस्ट को कल रात ही लग जाना चाहिए था लेकिन बिजली कल शाम के बाद अभी कुछ देर पहले ही आई है. आफ़लाइन में पोस्ट को तैयार करने बाद जब आनलाइन हुआ तो क्या देखता हूं कि नए कबाड़ी का स्वागत तो अशोक पांडे ने आज दोपहर में कर दिया, शायद्फ़ उन्होंने मेरे आलसीपने को भांपकर ऐसा किया होगा, चलो ठीक है. अशोक भय्ये, मैं आपका कहा टालता नहीं हूं परंतु बिजली भैनजी पर मेरा कोई बस ना है. अब यह पोस्ट बन गई तो गेर ही देता हूं .वसे भी दो बार 'सुआगत' करने में कुछ बिगड़ तो ना रिया हैगा !)
(पुनश्च: मित्रों! इस पोस्ट को कल रात ही लग जाना चाहिए था लेकिन बिजली कल शाम के बाद अभी कुछ देर पहले ही आई है. आफ़लाइन में पोस्ट को तैयार करने बाद जब आनलाइन हुआ तो क्या देखता हूं कि नए कबाड़ी का स्वागत तो अशोक पांडे ने आज दोपहर में कर दिया, शायद्फ़ उन्होंने मेरे आलसीपने को भांपकर ऐसा किया होगा, चलो ठीक है. अशोक भय्ये, मैं आपका कहा टालता नहीं हूं परंतु बिजली भैनजी पर मेरा कोई बस ना है. अब यह पोस्ट बन गई तो गेर ही देता हूं .वसे भी दो बार 'सुआगत' करने में कुछ बिगड़ तो ना रिया हैगा !)
नए कबाड़ी का स्वागत: वो चलकर क़यामत की चाल आ गया
रवीन्द्र व्यास उम्दा चित्रकार हैं और इन्दौर में रहते हैं. उनकी कुछ कृतियों को आप लोग कबाड़ख़ाने में हाल ही के दिनों में देख चुके हैं. इधर उन्होंने हरा कोना नाम से अपना एक ब्लॉग भी शुरू किया है. हमारे आग्रह पर रवीन्द्र जी ने कबाड़ियों की टोली में जुड़ने हेतु सहमति दे दी, जिस के लिए हम सारे कबाड़ी उनका आभार भी व्यक्त करते हैं और ख़ैरमकदम भी.
टेलीफ़ोन पर उनसे हुई बातचीत के दौरान मुझे लगातार उनके हरे रंगों की छटाएं दूर दराज़ की यादों तक पहुंचा दे रही थीं. मैंने उनसे वायदा किया था कि मैं उनके सम्मान अपने सबसे पसन्दीदा गीतों में एक को यहां कबाड़ख़ाने पर पेश करूंगा. गाना बहुत सुना-सुनाया है लेकिन इसके बोल और रफ़ी साहब की अदायगी अद्भुत है. छोटे मुंह बड़े बोल लेकिन मुझे यह कहने की भी इच्छा हो रही है कि वरिष्ठ हिन्दी कवि आदरणीय श्री विष्णु खरे (जिनका शास्त्रीय संगीत और फ़िल्मी गीतों का अपार ज्ञान स्पृहणीय है) इस बात की तसदीक करेंगे कि उन्होंने एक बार मेरे ज़िद्दी इसरार पर यह गाना मुझे टेलीफ़ोन पर संभवतः फ़्रैंकफ़र्ट से सुनाया था.
सुनिए रवीन्द्र भाई के साथ आप सारे भी:
(*कुछ अपरिहार्य कारणों से रवीन्द्र जी का यहां परम्परागत स्वागत तनिक देर से हो पाया. उसके लिए वे क्षमा करेंगे)
टेलीफ़ोन पर उनसे हुई बातचीत के दौरान मुझे लगातार उनके हरे रंगों की छटाएं दूर दराज़ की यादों तक पहुंचा दे रही थीं. मैंने उनसे वायदा किया था कि मैं उनके सम्मान अपने सबसे पसन्दीदा गीतों में एक को यहां कबाड़ख़ाने पर पेश करूंगा. गाना बहुत सुना-सुनाया है लेकिन इसके बोल और रफ़ी साहब की अदायगी अद्भुत है. छोटे मुंह बड़े बोल लेकिन मुझे यह कहने की भी इच्छा हो रही है कि वरिष्ठ हिन्दी कवि आदरणीय श्री विष्णु खरे (जिनका शास्त्रीय संगीत और फ़िल्मी गीतों का अपार ज्ञान स्पृहणीय है) इस बात की तसदीक करेंगे कि उन्होंने एक बार मेरे ज़िद्दी इसरार पर यह गाना मुझे टेलीफ़ोन पर संभवतः फ़्रैंकफ़र्ट से सुनाया था.
सुनिए रवीन्द्र भाई के साथ आप सारे भी:
(*कुछ अपरिहार्य कारणों से रवीन्द्र जी का यहां परम्परागत स्वागत तनिक देर से हो पाया. उसके लिए वे क्षमा करेंगे)
Sunday, August 24, 2008
क्षमाप्रार्थी हों कविगण - चन्द्रकांत देवताले
विकट कवि-कर्म जोखिम भरा
उलटा-पुलटा हो जाता कभी-कभी
धरती का रस निचोड़ने में
मशगूल लोगों के
खुशामदी लालची धूर्त कपटी और हिंसक
चरित्र को उजागर करने के लिए
कवियों और पुरखों ने मदद ली
जीव-जंतुओं के गुण-धर्मों से
छोटे-मोटों की क्या बिसात
हाथी-घोड़ों तक का क़द छोटा हुआ
अपनों पर ही घात करने
या बेबात अड़ने वालों के पीछे
पुष्ट होती हडि्डयां जिस नेकी से
उसे भेड़िये ने तो नहीं गाड़ा खोद कर ज़मीन में
गूंगे-कायर होने का
प्रशिक्षण देने नहीं आया विशेषज्ञ सियार
रंग बदलने वालों की देह में
क्या छिपकर बैठा था गिरगिट
या केंचुआ उनकी आत्मा में
जो नहीं खड़े हो पाए कहने को `नहीं´ तनकर
उल्टी ही तो बह रही गंगा
सचमुच लांछित हुआ ऐसी ही तुलनाओं से
यदि जीव-जंतु जगत
यदि वे महसूस करते शर्मिन्दगी इससे
और भेजते हों लानत मनुष्य आचरण पर
तो बेशक क्षमाप्रार्थी हों सब कविगण !
उलटा-पुलटा हो जाता कभी-कभी
धरती का रस निचोड़ने में
मशगूल लोगों के
खुशामदी लालची धूर्त कपटी और हिंसक
चरित्र को उजागर करने के लिए
कवियों और पुरखों ने मदद ली
जीव-जंतुओं के गुण-धर्मों से
छोटे-मोटों की क्या बिसात
हाथी-घोड़ों तक का क़द छोटा हुआ
अपनों पर ही घात करने
या बेबात अड़ने वालों के पीछे
पुष्ट होती हडि्डयां जिस नेकी से
उसे भेड़िये ने तो नहीं गाड़ा खोद कर ज़मीन में
गूंगे-कायर होने का
प्रशिक्षण देने नहीं आया विशेषज्ञ सियार
रंग बदलने वालों की देह में
क्या छिपकर बैठा था गिरगिट
या केंचुआ उनकी आत्मा में
जो नहीं खड़े हो पाए कहने को `नहीं´ तनकर
उल्टी ही तो बह रही गंगा
सचमुच लांछित हुआ ऐसी ही तुलनाओं से
यदि जीव-जंतु जगत
यदि वे महसूस करते शर्मिन्दगी इससे
और भेजते हों लानत मनुष्य आचरण पर
तो बेशक क्षमाप्रार्थी हों सब कविगण !
ब्रजेश्वर मदान की एक कविता
कई हफ्ते पहले ब्रजेश्वर मदान साहेब ने एक कविता ब्लाग पर प्रकाशित करने के लिये दी थी. अपने समय के बेह्तरीन फ़िल्म पत्रकार रहे मदानजी की पहला कविता संग्रह जल्द ही उनके पाठकों के सामने होगा. उसी संग्रह की यह कविता है:
पालीबैग
नहीं फेंक पाता
वह पालीबैग
किसी रैग पिकर के लिए
जिसमें तुमने
वापस भेजी थी
मेरी किताब
जो कि मेरी नहीं
दूसरे लेखकों की थी
रख लिया है
तुम्हारी याद के तौर पर
जिस पर लिखा है
वीक एंडर
- वियर योर एटीट्यूड
लगता है दोष तुम्हारा नहीं
बाजार का है
जो बदल देता है
एटीट्यूड
जहाँ हर चीज होती है
यूज एंड थ्रो के
लिए
देखता हूँ मैं अपने
आप को
इस पालीबैग में
एक वस्तु में
बदलते हुए
जैसे आदमी नहीं
कंडोम हूँ।
पालीबैग
नहीं फेंक पाता
वह पालीबैग
किसी रैग पिकर के लिए
जिसमें तुमने
वापस भेजी थी
मेरी किताब
जो कि मेरी नहीं
दूसरे लेखकों की थी
रख लिया है
तुम्हारी याद के तौर पर
जिस पर लिखा है
वीक एंडर
- वियर योर एटीट्यूड
लगता है दोष तुम्हारा नहीं
बाजार का है
जो बदल देता है
एटीट्यूड
जहाँ हर चीज होती है
यूज एंड थ्रो के
लिए
देखता हूँ मैं अपने
आप को
इस पालीबैग में
एक वस्तु में
बदलते हुए
जैसे आदमी नहीं
कंडोम हूँ।
Saturday, August 23, 2008
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi13kAbJxVnOLPe6EizFZQYofkXZ_lhm-Te698Mhy8CEyPdimtkkqJhl233b3m6m1iGerorMSWqk9bAaNok0jpSnwfRiITmWyGQSvScxeZ2zLF2kYjswKZlWwfR7RzdoM8Occthamu0ZWsF/s200/chhaya.jpg)
आज सुनते है छाया गांगुली जी के सुमधुर और सधे हुए स्वर में हिंदोस्तानी शायरी के बाबा नज़ीर अकबराबादी की एक अति लोकप्रिय और सदाबहार रचना , हालांकि मौसम बारिशों का है लेकिन गुजरे फ़ागुन और आने वाले फ़ागुन को याद कर लेने में हर्ज ही क्या है !
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
Friday, August 22, 2008
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का
तर्पण
अनीता वर्मा
जब नहीं थे राम बुद्ध ईसा मोहम्मद
तब भी थे धरती पर मनुष्य
जंगलों में विचरते आग पानी हवा के आगे झुकते
किसी विश्वास पर ही टिका होता था उनका जीवन
फिर आए अनुयायी
आया एक नया अधिकार युद्ध
घृणा और पाखण्ड के नए रिवाज़ आए
धरती धर्म से बोझिल थी
उसके अगंभीर भार से दबती हुई
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का
जैसे फूलों को घूरती हिंसक आंख
हमने रंग से नफ़रत पैदा की
सिर्फ़ उन दो रंगों से जो हमारे पास थे
उन्हें पूरक नहीं बना सके दिन और रात की तरह
सभ्यता की बढ़ती रोशनी में
प्रवेश करती रही अंधेरे की लहर
विज्ञान की चमकती सीढ़ियां
आदमी के रक्त की बनावट
हम मस्तिष्क के बारे में पढ़ते रहे
सोच और विचार को अलग करते रहे
मनुष्य ने संदेह किया मनुष्य पर
उसे बदल डाला एक जंतु में
विश्वास की एक नदी जाती थी मनुष्यता के समुद्र तक
उसी में घोलते रहे अपना अविश्वास
अब गंगा की तरह इसे भी साफ़ करना मुश्किल
कब तक बचे रहेंगे हम इस जल से करते हुए तर्पण.
---------------------------------
कबाड़ख़ाने पर अनीता जी की कविताएं यहां भी हैं:
प्रभु मेरी दिव्यता में सुबह-सबेरे ठंड में कांपते रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है
प्रार्थना
वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत
अनीता वर्मा
जब नहीं थे राम बुद्ध ईसा मोहम्मद
तब भी थे धरती पर मनुष्य
जंगलों में विचरते आग पानी हवा के आगे झुकते
किसी विश्वास पर ही टिका होता था उनका जीवन
फिर आए अनुयायी
आया एक नया अधिकार युद्ध
घृणा और पाखण्ड के नए रिवाज़ आए
धरती धर्म से बोझिल थी
उसके अगंभीर भार से दबती हुई
सभ्यता के साथ अजीब नाता है बर्बरता का
जैसे फूलों को घूरती हिंसक आंख
हमने रंग से नफ़रत पैदा की
सिर्फ़ उन दो रंगों से जो हमारे पास थे
उन्हें पूरक नहीं बना सके दिन और रात की तरह
सभ्यता की बढ़ती रोशनी में
प्रवेश करती रही अंधेरे की लहर
विज्ञान की चमकती सीढ़ियां
आदमी के रक्त की बनावट
हम मस्तिष्क के बारे में पढ़ते रहे
सोच और विचार को अलग करते रहे
मनुष्य ने संदेह किया मनुष्य पर
उसे बदल डाला एक जंतु में
विश्वास की एक नदी जाती थी मनुष्यता के समुद्र तक
उसी में घोलते रहे अपना अविश्वास
अब गंगा की तरह इसे भी साफ़ करना मुश्किल
कब तक बचे रहेंगे हम इस जल से करते हुए तर्पण.
---------------------------------
कबाड़ख़ाने पर अनीता जी की कविताएं यहां भी हैं:
प्रभु मेरी दिव्यता में सुबह-सबेरे ठंड में कांपते रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है
प्रार्थना
वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत
Thursday, August 21, 2008
इस समय कहां हैं विमल कुमार - महज दिल्ली में या फिर कविता में भी ? खोजक- शिरीष कुमार मौर्य
(विमल कुमार के काम ने सिर्फ उम्मीद ही पैदा नहीं की है, समकालीन कविता में अपनी जगह भी बना ली है। वह परिपक्व संवेदना, आलोचनात्मक अन्तर्दृष्टि और स्वाभाविक विवेकशीलता के कवि हैं, और ऐसे स्वभाव के मालिक भी जो गरैजरूरी तराश, हुनरमंदी और काव्यचातुर्य से परहेज करता है और एक दुनियावी जिम्मेदारी के साथ प्रामाणिक सामग्री के संधान में लगा रहता है।
विमल की कविता में एक निम्नमध्यवर्गीय युवक का मानसिक संसार है जो टूटन, पराजय और निराशा झेलने को तैयार है और उन्हीं से अपनी अधिकांश नैतिक ऊर्जा बटोरता है। आठवें और नवें दशक के उत्तरभारतीय समाज के तनाव, दबाव और अन्तर्विरोध इस कविता का वास्तविक फलक है। विमल की कामयाबी यह है कि उनके पात्रों के जीवन और कथानक के केंद्र में एक प्रकार की सामाजिक और नैतिक अपरिहार्यता समायी नज़र आती है। यों तो इसे सामाजिक नियतिवाद की संज्ञा भी दी जा सकती है, पर गौर से देखें तो यह थोथी उत्सवधर्मिता के विरुद्ध की गई एक गंभीर एस्थेटिक पोजीशन है।
विमल कुमार की कविता में पिछले दो-ढाई दशक की नयी हिंदी कविता का निचोड़ मौजूद है। उनके पास चुनने और बारीकी से समझने की क्षमता है और इस क्षमता का उन्होंने उतनी ही समझदारी से इस्तेमाल किया है। - असद ज़ैदी )
लड़कियां
इस घर में हर जगह लड़कियां नज़र आ रही हैं
एक लड़की बैठी है गंदी-सी मेज़ पर
एक लड़की छोटी है चारपाई के नीचे जा घुसी है
एक लड़की निकल रही है धीरे-धीरे संदूक से बाहर
एक और लड़की संदूक में पड़ी है है बाईस साल उम्र है उसकी
एक लड़की तकिए के भीतर से कुछ बोल रही है
सातवीं क्लास में पढ़ती होगी
एक ऐसी भी लड़की है जो इस छोटे-से घर में
कहीं छिप जाने के बारे में सोच रही है
एक लड़की अपने बाल खोल रही है
और पता चल रहा है कि उसके पास ढेर सारे सपने हैं
एक लड़की आपसे पूछ रही है आप कब आए
वह आजकल बहुत गंभीर हो गई है
एक लड़की रसोई में से आ रही है और कह रही है
खाना बनकर तैयार है
एक लड़की बता रही है वह बाहर जा रही है
शाम तक लौट कर आएगी
एक लड़की ढेर सारे कपड़े लेकर खड़ी है नहाने जाएगी वह काफी लम्बी है
एक लड़की कोने में किताब पढ़ रही है और किसी को नहीं देख रही है
उसका रिबन खुला हुआ है
एक लड़की बग़ल के कमरे में से बार-बार आ रही है
पूछ रही है क्या आप मेरे सवालों को हल कर सकते हैं
उसने चश्मा लगा लगा रखा है
एक लड़की एक लड़के से हंस-हंसकर बातें कर रही है
और दोनों एक दूसरे को कुछ बता रहे हैं वह काफी अल्हड़ है
एक लड़की एक लड़के के साथ खेल रही है
और खेल में इतना डूबी है कि उसे पता तक नहीं कि उसकी फ्राक गंदी हो गई है
एक लड़की अपने छोटे-छोटे चार पांच भाइयों को
एक साथ चूम रही है उसकी आंखें बड़ी-बड़ी हैं
ये सारी लड़कियां यहां जेल में बंद थीं महीनों से
कुछ दिन हुए यहां आयी हैं
ये सारी लड़कियां इससे पहले महिला सुधार निवास में रहती थीं
ये सारी लड़कियां इससे पहले दुनिया में कहीं नहीं रहती थीं
ये सारी लड़कियां कहीं काम करती थीं और दिन भर घुटती रहती थीं
ये सारी लड़कियां कहीं शाम को नाचती थीं और रात भर रोती थीं
ये सारी लड़कियां घर से भाग जाती थीं और महीने दो महीने पर लौट आ जाती थीं
ये सारी लड़कियां मां के साथ चिपककर सोती थीं क्योंकि रात में अकेले में डर जाती थीं
ये सारी लड़कियां बागीचे में जाती थीं और झाडियों में छिप जाती थीं
ये सारी लड़कियां कुंआरी थीं और उम्र से पहले मां बन जाती थीं
ये सारी लड़कियां जब तब ज़हर खाकर कुंए में गिर जाती थीं
ये सारी लड़कियां प्रेम के लिए तड़पती थीं और स्कूल कालेज से भागकर पिक्चर देखती थीं
ये सारी लड़कियां भाइयों डरती थीं और पिता के सामने आने से सकुचाती थीं
ये सारी लड़कियां आपस में बहुत झगड़ती थीं गुस्से में अनाप-शनाप बकती थीं
और एक-दूसरे को बहुत प्यार करती थीं
ये सारी लड़कियां घर बसाने की सोचती थीं और राह चलते पुरुषों को देखकर मन ही मन
जीवनसाथी का चुनाव करती थीं
ये सारी लड़कियां अधेड़ उम्र की महिलाओं से पूछती थीं बच्चे कैसे पाले जाते हैं
और जब उनकी छातियों में जैसे कुछ भर जाता था और
हिलोरें मारने लगता था
वे किसी हमउम्र औरत से पूछतीं
अपना दूध कैसे पिलाया जाता है बच्चे को?
विमल की कविता में एक निम्नमध्यवर्गीय युवक का मानसिक संसार है जो टूटन, पराजय और निराशा झेलने को तैयार है और उन्हीं से अपनी अधिकांश नैतिक ऊर्जा बटोरता है। आठवें और नवें दशक के उत्तरभारतीय समाज के तनाव, दबाव और अन्तर्विरोध इस कविता का वास्तविक फलक है। विमल की कामयाबी यह है कि उनके पात्रों के जीवन और कथानक के केंद्र में एक प्रकार की सामाजिक और नैतिक अपरिहार्यता समायी नज़र आती है। यों तो इसे सामाजिक नियतिवाद की संज्ञा भी दी जा सकती है, पर गौर से देखें तो यह थोथी उत्सवधर्मिता के विरुद्ध की गई एक गंभीर एस्थेटिक पोजीशन है।
विमल कुमार की कविता में पिछले दो-ढाई दशक की नयी हिंदी कविता का निचोड़ मौजूद है। उनके पास चुनने और बारीकी से समझने की क्षमता है और इस क्षमता का उन्होंने उतनी ही समझदारी से इस्तेमाल किया है। - असद ज़ैदी )
लड़कियां
इस घर में हर जगह लड़कियां नज़र आ रही हैं
एक लड़की बैठी है गंदी-सी मेज़ पर
एक लड़की छोटी है चारपाई के नीचे जा घुसी है
एक लड़की निकल रही है धीरे-धीरे संदूक से बाहर
एक और लड़की संदूक में पड़ी है है बाईस साल उम्र है उसकी
एक लड़की तकिए के भीतर से कुछ बोल रही है
सातवीं क्लास में पढ़ती होगी
एक ऐसी भी लड़की है जो इस छोटे-से घर में
कहीं छिप जाने के बारे में सोच रही है
एक लड़की अपने बाल खोल रही है
और पता चल रहा है कि उसके पास ढेर सारे सपने हैं
एक लड़की आपसे पूछ रही है आप कब आए
वह आजकल बहुत गंभीर हो गई है
एक लड़की रसोई में से आ रही है और कह रही है
खाना बनकर तैयार है
एक लड़की बता रही है वह बाहर जा रही है
शाम तक लौट कर आएगी
एक लड़की ढेर सारे कपड़े लेकर खड़ी है नहाने जाएगी वह काफी लम्बी है
एक लड़की कोने में किताब पढ़ रही है और किसी को नहीं देख रही है
उसका रिबन खुला हुआ है
एक लड़की बग़ल के कमरे में से बार-बार आ रही है
पूछ रही है क्या आप मेरे सवालों को हल कर सकते हैं
उसने चश्मा लगा लगा रखा है
एक लड़की एक लड़के से हंस-हंसकर बातें कर रही है
और दोनों एक दूसरे को कुछ बता रहे हैं वह काफी अल्हड़ है
एक लड़की एक लड़के के साथ खेल रही है
और खेल में इतना डूबी है कि उसे पता तक नहीं कि उसकी फ्राक गंदी हो गई है
एक लड़की अपने छोटे-छोटे चार पांच भाइयों को
एक साथ चूम रही है उसकी आंखें बड़ी-बड़ी हैं
ये सारी लड़कियां यहां जेल में बंद थीं महीनों से
कुछ दिन हुए यहां आयी हैं
ये सारी लड़कियां इससे पहले महिला सुधार निवास में रहती थीं
ये सारी लड़कियां इससे पहले दुनिया में कहीं नहीं रहती थीं
ये सारी लड़कियां कहीं काम करती थीं और दिन भर घुटती रहती थीं
ये सारी लड़कियां कहीं शाम को नाचती थीं और रात भर रोती थीं
ये सारी लड़कियां घर से भाग जाती थीं और महीने दो महीने पर लौट आ जाती थीं
ये सारी लड़कियां मां के साथ चिपककर सोती थीं क्योंकि रात में अकेले में डर जाती थीं
ये सारी लड़कियां बागीचे में जाती थीं और झाडियों में छिप जाती थीं
ये सारी लड़कियां कुंआरी थीं और उम्र से पहले मां बन जाती थीं
ये सारी लड़कियां जब तब ज़हर खाकर कुंए में गिर जाती थीं
ये सारी लड़कियां प्रेम के लिए तड़पती थीं और स्कूल कालेज से भागकर पिक्चर देखती थीं
ये सारी लड़कियां भाइयों डरती थीं और पिता के सामने आने से सकुचाती थीं
ये सारी लड़कियां आपस में बहुत झगड़ती थीं गुस्से में अनाप-शनाप बकती थीं
और एक-दूसरे को बहुत प्यार करती थीं
ये सारी लड़कियां घर बसाने की सोचती थीं और राह चलते पुरुषों को देखकर मन ही मन
जीवनसाथी का चुनाव करती थीं
ये सारी लड़कियां अधेड़ उम्र की महिलाओं से पूछती थीं बच्चे कैसे पाले जाते हैं
और जब उनकी छातियों में जैसे कुछ भर जाता था और
हिलोरें मारने लगता था
वे किसी हमउम्र औरत से पूछतीं
अपना दूध कैसे पिलाया जाता है बच्चे को?
चन्द्रकान्त देवताले की कविता पर रवीन्द्र व्यास की पेन्टिंग
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPPFKGSAN3O3ebCn_QDp7Vqsnun9DA4wlpb4un_b1Y6qUC6V4QrJaPJm7NFsAsuHvpWIGEd108Firs5aNzS3P6mb2TZkb-IPVyyvNuhhRK3cSdOaongf0vzsQybAxII8fsyIWyHwU1m_c/s400/2222.jpg)
जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा
पानी के पेड़ पर जब
बसेरा करेंगे आग के परिंदे
उनकी चहचहाहट के अनंत में
थोड़ी-सी जगह होगी जहां मैं मरूंगा
मैं मरूंगा जहां वहां उगेगा पेड़ आग का
उस पर बसेरा करेंगे पानी के परिंदे
परिंदों की प्यास के आसमान में
जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा
वहां छायाविहीन एक सफेद काया
मेरा पता पूछते मिलेगी
(*पेन्टिंग को बड़ा देखने के लिए इमेज पर क्लिक करें)
Wednesday, August 20, 2008
कबाड़खाना की पाँच सौंवी पोस्ट – आपके स्वागत में राजस्थानी माँड
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8WnTfq-nIQzGaVEkE9m_6iMxcdRqzB1WU_MfJyx8tyIatdAj1GeWb3EE03faUOBPHKhKdumFUmy_J7KcVER5CjHstXt3eVO9q1FA3PV4JJQi8GKNbmxJAVuVxICqWApFTvSi3UHpBuAUU/s320/rajasthan.jpg)
हम सबके अज़ीज़ अशोक भाई का कबाड़खाना ...यानी हम सब का प्यारा ठिकाना ; अपनी पाँच सौंवी पायदान पर आ गया....मुबारक हो आप सबको ये सिलसिला. शब्द और स्वर का ख़ैरमकदम करता कबाड़खाना आपके स्वागत में आज रंग-रंगीले राजस्थान की माँड लाया है. जश्न मनाते हुए मुलाहिज़ा फ़रमाएँ बीकानेर राज-दरबार की बेजोड़ गायिका अल्ला-जिलाई बाई की गाई ये माँड. कैसे अनूठे सुर की मालकिन थीं ये लोक-संगीत गायिका. खनकती आवाज़ से झरते राजस्थानी अदब और रंगत के दमकते तेवर. ये आवाज़ आपको कहीं सिध्देश्वरी देवी, कहीं बेगम अख़्तर तो कहीं रेशमा की आवाज़ के टिम्बर की सैर करवाती है. आँख बंद कर सुनें, शब्द पर जाने की क्या ज़रूरत है....उस अहसास में जियें जो राजस्थान के मरूथल की रेत में दस्तेयाब है....तारीख़ और घड़ी को रोकने की ताक़त है इस आवाज़ में...आपके स्वागत में गातीं अल्ला जिलाई.....पाँच सौ नज़राने पेश करती माँड के साथ आपसे रूबरू....
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Tuesday, August 19, 2008
ज़िंदगी जीने की ज़रुरत ही नहीं समझी; जीने का सलीक़ा भी नहीं आया
रश्मि रमानी समकालीन कविता परिदृष्य पर एक सशक्त हस्ताक्षर हैं.
इन्दौर में रहतीं हैं और मान कर चलती हैं कि कविता और उसे रचने
वाले के लिये एकांत से अच्छा संगसाथ और कुछ और नहीं हो सकता.
वे अपनी तमाम पारिवारिक व्यस्तताओं में से बेहतरीन कविताएँ रचतीं
हैं और देश भर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहतीं है.परिवेश,संबंध
और प्रकृति को लेकर अपने काव्य-बिम्ब तलाशने वाली रश्मि रमानी की
रचनाएँ आज कबाड़खाना के काव्य-प्रेमियों के लिये ...मुलाहिज़ा फ़रमाएँ
जीने की रीत
ज़िंदगी जीने की ज़रुरत ही नहीं समझी
तो जीने का सलीक़ा भी नहीं आया
गहरी नींद का तो सिर्फ़ एक एहसास था
सपने देखने का ख़्याल भी
एक सपना ही था
इतना पराया महसूस किया अपने आपको
किसी और से प्यार करने की हसरत ही मर गई
एक दिन
वीराने में देखा मैंने
अकेला अनजान फूल
उस बेनाम फूल में
न थी कोई ख़ूबसूरती, ना ही कोई रौनक़
पर, फूल के अस्तित्व ने
बदल दिया था
वीराने का अर्थ
सलीक़े से खिला था
वो मामूली फूल
मैंने
फूल को ध्यान से देखा
मेरी हैरानी पर फूल मुस्कुराया
कहा...
तुम क्या सोच रही हो?
चंद घंटों का मेरा जीवन और ये मस्ती ?
पर मेरी दुनिया में तो
यही है जीने की रीत
पतझड़ का फूल
पतझड़ के उदास मौसम में
खिला है
मेरे पहले प्यार का
आ़ख़िरी फूल
यह फूल कहीं कुम्हला न जाये
इसके लिये
सम्हाल कर रखे मैंने अपने आँसू
मेरे प्यार का बूटा सलामत रहे
इसलिए पसीना बहाया मैंने पानी समझकर
इस फूल की निराली ख़ुशबू की ख़ातिर
मैंने इसे दी
अपनी सॉंसों की सुगन्ध
सिर्फ़
इस एक फूल का अस्तित्व हो
ख़ूबसूरती और महक से भरपूर
मिटा दिये मैंने अपने ज़ज़्बात
बिखेर दिये सारे रंग
खो दिया अपने आप को
फिर जान पाई मैं
प्यार के अनजान सच को।
बाक़ी है
बाक़ी है
अब भी बहुत कुछ
तलछट की आख़िरी बूँद तक
पी सकते हो जिसे तुम
तृप्ति पाने के लिये
बाक़ी है
अनगिनत इच्छाएँ
जिन्हें पूरा करने के लिये
कम पड़ेंगे शायद
सौ-सौ जनम भी
कभी मत सोचना
कि अकेले रह गये तुम इस जहान में
अच्छी चीज़ों की तादाद भले ही कम हो
पर मिल ही जाती हैं अक्सर
वे भी हर किसी को
कभी-कभी
मिल जाते हैं वे ख़ुशमिजाज़ अजनबी
आख़िर तक दूर रखता है जिनका साथ
सफ़र की नीरसता और अकेलेपन को
अचानक
पता चलता है
ख़त्म हो गया है सफ़र
सामने खड़ी है मंज़िल
इन्तज़ार
यही है वह रात
जिसके इन्तज़ार में गुज़ारे मैंने कितने दिन
ये रात
भरपूर है अनगिनत तारों और चॉंदनी से
बेहद ख़ूबसूरत इस रात में
समायी है अनजान को जानने की इच्छा
नई दास्तान शुरू करने की हसरत
कल तक
तुम मेरे लिये एक अजनबी
पर आज मेरे वजूद का हिस्सा बनकर
बदल रहे हो सब कुछ
सिर्फ़ एक पल में
खिले हैं अनगिनत फूल
रजनीगन्धा की नशीली ख़ुशबू से महक उठी है हवा
स्याह रात में
जुगनुओं की चमक बन गई है
नूर का दरिया
मेरे चेहरे पर हैं
इन्द्रधनुष के सातों रंग
क्योंकि आँसुओं पर पड़ रही है
तुम्हारी मुस्कुराहट की किरणें
तितली के परों पर सवार
आज मेरी ज़िंदगी
भूल गई है पीड़ा का भार
मेरे हाथों में है
सारा संसार
प्रतीक्षा
रात उदास है
और,
तारे ख़ामोश
सोये शहर की नींद के बीच,
जागती है एक लड़की,
गुमशुदा अतीत की याद-सी,
घूरती है पीली छत
याद करती है गुज़रे दिन
रोशन पगडंडियॉं,
नीला समुद्र,
गर्म दबाव, अनाम स्पर्श
यादों के फरफराते पन्नों से,
एक काला पड़ चुका गुलाब
गिर पड़ता है,
जो कभी लाल था।
उस सूखे काले गुलाब को
सीने से लगाकर
वह लड़की सो जाती है गहरी नींद
दूसरे लाल गुलाब खिलने की
प्रतीक्षा में।
पेड़
पेड़ खड़ा है अपनी जगह पर
बरसों से चुपचाप
जम गई हैं उसकी जड़ें
ज़मीन में अच्छी तरह
कभी बीज की शक्ल में
दबा था पेड़ मिट्टी की तहों में
सतह फोड़कर जब आया था नन्हा अंकुर
तो आँखें मलते हुए देखता था
आसपास के संसार को
हवा के मस्त झोंको से हिल गया था
नन्हा पौधा
उसने भी चाहा था दौड़े, कूदे, उछले
छोटे बच्चों की तरह
थक कर हो जाए चूर
सो जाए मीठी नींद में
पर पेड़ तो बढ़ता गया
पौधे से पेड़ बन गया
बरसों से एक ही जगह खड़े-खड़े
अब थक गया है पेड़
चाहता है कि बैठ जाऊँ, सुस्ताऊँ
पर नहीं सुस्ताते पेड़
वे तो खड़े रहते हैं उम्र भर
झेलते धूप, वर्षा, मौसमों की मार
पत्थरों की चोटें, कुल्हाड़ियों के प्रहार
जब हो जाते हैं बूढ़े
तो गिर जाते हैं भयानक चीत्कार के साथ
या मर जाते हैं ख़ामोशी से सूखकर
सिर्फ़ एक शब्द
कुछ भी नहीं हुआ था
आँसू की तरह जब गिरा था
आसमान से एक तारा
चॉंदनी
उतनी ही रही थी
क्या फ़र्क़ पड़ा था?
अलग हो गया था पेड़ से जब
एक सूखा पत्ता
और टूट गया था
एक पुराना रिश्ता
तारा कहॉं खो गया पता नहीं
पर,
धरती की मुलायम हथेलियों ने
सूखे पत्ते को मिट्टी में मिलाकर
पेड़ की जड़ों की ओर फिर से भेज दिया था
पुनर्जन्म के लिये।
सिर्फ़ एक शब्द कहा था तुमने धीरे-से
और मेरी ख़ामोश ज़िंदगी में पैदा हो गई थी हलचल
बदल गया था रिश्तों का अर्थ
मिल गया था जीने का मक़सद
शुरू हुई थी एक नई कहानी
क्या, स़िर्फ एक शब्द काफी होता है
किसी लंबी दास्तान के लिये।
श्रीमती रश्मि रमानी :0731-2477363
इन्दौर में रहतीं हैं और मान कर चलती हैं कि कविता और उसे रचने
वाले के लिये एकांत से अच्छा संगसाथ और कुछ और नहीं हो सकता.
वे अपनी तमाम पारिवारिक व्यस्तताओं में से बेहतरीन कविताएँ रचतीं
हैं और देश भर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहतीं है.परिवेश,संबंध
और प्रकृति को लेकर अपने काव्य-बिम्ब तलाशने वाली रश्मि रमानी की
रचनाएँ आज कबाड़खाना के काव्य-प्रेमियों के लिये ...मुलाहिज़ा फ़रमाएँ
जीने की रीत
ज़िंदगी जीने की ज़रुरत ही नहीं समझी
तो जीने का सलीक़ा भी नहीं आया
गहरी नींद का तो सिर्फ़ एक एहसास था
सपने देखने का ख़्याल भी
एक सपना ही था
इतना पराया महसूस किया अपने आपको
किसी और से प्यार करने की हसरत ही मर गई
एक दिन
वीराने में देखा मैंने
अकेला अनजान फूल
उस बेनाम फूल में
न थी कोई ख़ूबसूरती, ना ही कोई रौनक़
पर, फूल के अस्तित्व ने
बदल दिया था
वीराने का अर्थ
सलीक़े से खिला था
वो मामूली फूल
मैंने
फूल को ध्यान से देखा
मेरी हैरानी पर फूल मुस्कुराया
कहा...
तुम क्या सोच रही हो?
चंद घंटों का मेरा जीवन और ये मस्ती ?
पर मेरी दुनिया में तो
यही है जीने की रीत
पतझड़ का फूल
पतझड़ के उदास मौसम में
खिला है
मेरे पहले प्यार का
आ़ख़िरी फूल
यह फूल कहीं कुम्हला न जाये
इसके लिये
सम्हाल कर रखे मैंने अपने आँसू
मेरे प्यार का बूटा सलामत रहे
इसलिए पसीना बहाया मैंने पानी समझकर
इस फूल की निराली ख़ुशबू की ख़ातिर
मैंने इसे दी
अपनी सॉंसों की सुगन्ध
सिर्फ़
इस एक फूल का अस्तित्व हो
ख़ूबसूरती और महक से भरपूर
मिटा दिये मैंने अपने ज़ज़्बात
बिखेर दिये सारे रंग
खो दिया अपने आप को
फिर जान पाई मैं
प्यार के अनजान सच को।
बाक़ी है
बाक़ी है
अब भी बहुत कुछ
तलछट की आख़िरी बूँद तक
पी सकते हो जिसे तुम
तृप्ति पाने के लिये
बाक़ी है
अनगिनत इच्छाएँ
जिन्हें पूरा करने के लिये
कम पड़ेंगे शायद
सौ-सौ जनम भी
कभी मत सोचना
कि अकेले रह गये तुम इस जहान में
अच्छी चीज़ों की तादाद भले ही कम हो
पर मिल ही जाती हैं अक्सर
वे भी हर किसी को
कभी-कभी
मिल जाते हैं वे ख़ुशमिजाज़ अजनबी
आख़िर तक दूर रखता है जिनका साथ
सफ़र की नीरसता और अकेलेपन को
अचानक
पता चलता है
ख़त्म हो गया है सफ़र
सामने खड़ी है मंज़िल
इन्तज़ार
यही है वह रात
जिसके इन्तज़ार में गुज़ारे मैंने कितने दिन
ये रात
भरपूर है अनगिनत तारों और चॉंदनी से
बेहद ख़ूबसूरत इस रात में
समायी है अनजान को जानने की इच्छा
नई दास्तान शुरू करने की हसरत
कल तक
तुम मेरे लिये एक अजनबी
पर आज मेरे वजूद का हिस्सा बनकर
बदल रहे हो सब कुछ
सिर्फ़ एक पल में
खिले हैं अनगिनत फूल
रजनीगन्धा की नशीली ख़ुशबू से महक उठी है हवा
स्याह रात में
जुगनुओं की चमक बन गई है
नूर का दरिया
मेरे चेहरे पर हैं
इन्द्रधनुष के सातों रंग
क्योंकि आँसुओं पर पड़ रही है
तुम्हारी मुस्कुराहट की किरणें
तितली के परों पर सवार
आज मेरी ज़िंदगी
भूल गई है पीड़ा का भार
मेरे हाथों में है
सारा संसार
प्रतीक्षा
रात उदास है
और,
तारे ख़ामोश
सोये शहर की नींद के बीच,
जागती है एक लड़की,
गुमशुदा अतीत की याद-सी,
घूरती है पीली छत
याद करती है गुज़रे दिन
रोशन पगडंडियॉं,
नीला समुद्र,
गर्म दबाव, अनाम स्पर्श
यादों के फरफराते पन्नों से,
एक काला पड़ चुका गुलाब
गिर पड़ता है,
जो कभी लाल था।
उस सूखे काले गुलाब को
सीने से लगाकर
वह लड़की सो जाती है गहरी नींद
दूसरे लाल गुलाब खिलने की
प्रतीक्षा में।
पेड़
पेड़ खड़ा है अपनी जगह पर
बरसों से चुपचाप
जम गई हैं उसकी जड़ें
ज़मीन में अच्छी तरह
कभी बीज की शक्ल में
दबा था पेड़ मिट्टी की तहों में
सतह फोड़कर जब आया था नन्हा अंकुर
तो आँखें मलते हुए देखता था
आसपास के संसार को
हवा के मस्त झोंको से हिल गया था
नन्हा पौधा
उसने भी चाहा था दौड़े, कूदे, उछले
छोटे बच्चों की तरह
थक कर हो जाए चूर
सो जाए मीठी नींद में
पर पेड़ तो बढ़ता गया
पौधे से पेड़ बन गया
बरसों से एक ही जगह खड़े-खड़े
अब थक गया है पेड़
चाहता है कि बैठ जाऊँ, सुस्ताऊँ
पर नहीं सुस्ताते पेड़
वे तो खड़े रहते हैं उम्र भर
झेलते धूप, वर्षा, मौसमों की मार
पत्थरों की चोटें, कुल्हाड़ियों के प्रहार
जब हो जाते हैं बूढ़े
तो गिर जाते हैं भयानक चीत्कार के साथ
या मर जाते हैं ख़ामोशी से सूखकर
सिर्फ़ एक शब्द
कुछ भी नहीं हुआ था
आँसू की तरह जब गिरा था
आसमान से एक तारा
चॉंदनी
उतनी ही रही थी
क्या फ़र्क़ पड़ा था?
अलग हो गया था पेड़ से जब
एक सूखा पत्ता
और टूट गया था
एक पुराना रिश्ता
तारा कहॉं खो गया पता नहीं
पर,
धरती की मुलायम हथेलियों ने
सूखे पत्ते को मिट्टी में मिलाकर
पेड़ की जड़ों की ओर फिर से भेज दिया था
पुनर्जन्म के लिये।
सिर्फ़ एक शब्द कहा था तुमने धीरे-से
और मेरी ख़ामोश ज़िंदगी में पैदा हो गई थी हलचल
बदल गया था रिश्तों का अर्थ
मिल गया था जीने का मक़सद
शुरू हुई थी एक नई कहानी
क्या, स़िर्फ एक शब्द काफी होता है
किसी लंबी दास्तान के लिये।
श्रीमती रश्मि रमानी :0731-2477363
Monday, August 18, 2008
वृद्धावस्था तब चट्टानों और पेड़ों का विशेषाधिकार थी
नोबेल पुरुस्कार से सम्मनित पोलिश कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का मेरी प्रियतम रचनाकारों में हैं. उनकी कई कविताएं कबाड़ख़ाने के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं. आज पढ़िये उनकी एक और कविता जिसमें हमारे पुरखों के जीवन के बहाने वे बड़ी जटिल गुत्थियों से दो दो हाथ कर रही हैं.
हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त जीवन
उनमें से बहुत थोड़े जी सके तीस की उम्र तक
वृद्धावस्था तब चट्टानों और पेड़ों का विशेषाधिकार थी
बचपन उतना ही होता था जितनी देर में भेड़िये के बच्चे बड़े हो जाते थे
जीवन के साथ चलने के लिये, आपको जल्दी करनी होती थी
-सूरज डूब जाने से पहले
-पहली बर्फ़ के आने से पहले
तेरह साल की लड़कियां बच्चे जनती थीं
चार साल के बच्चे जंगलों में चिड़ियों के घोंसले तलाशते थे
और बीस की उम्र में शिकारियों की टोली का नेतृत्व करते
-अब वे नहीं हैं, वे जा चुके हैं
अनन्तता के सिरों को जल्दी-जल्दी तोड़ दिया गया.
अपनी युवावस्था के सुरक्षित दांतों से
जादूगरनियां चबाया करती थीं टोने-टोटके.
अपने पिता की आंखों के सामने पुरुष बना एक बेटा
दादा की आंखों के खाली कोटरों के साये में जन्मा एक पोता.
जो भी हो, वे लोग वर्षों की गिनती नहीं करते थे.
वे जाले, बीज, बाड़े और कुल्हाड़े गिना करते थे.
समय जो इतनी उदारता से देखता है आसमान में किसी सुन्दर सितारे को
उसने उनकी तरफ़ एक तकरीबन ख़ाली हाथ बढ़ाया
और उसे वापस खींच लिया, मानो यह सब बहुत श्रमसाध्य रहा हो
एक कदम और, दो कदम और,
उस चमकीली नदी के साथ-साथ
जो अन्धकार से निकलकर अन्धकार में विलीन हो जाती थी.
खोने के लिये एक भी पल नहीं था,
न कोई स्थगित प्रश्न, न देर से होने वाले रहस्योद्घाटन
बस वही हा जिसे समय के भीतर भोगा गया.
सफ़ेद बालों की प्रतीक्षा नहीं करे सकती थी बुद्धिमत्ता
उसने रोशनी देखने से पहले सब कुछ देख लेना था
और सुनाई देने से पहले सुन लेना था हर आवाज़ को.
अच्छाई और बुराई-
इनके बारे में बहुत कम जानते थे वे, लेकिन जानते सब कुछ थे,
जब बुराई जीत रही हो, अच्छाई को छिपना होता है
और जब अच्छाई सामने हो, तो बुराई को,
दोनों में से किसी को बःई जीता नहीं जा सकता
न ही ऐसी किसी जगह फेंका जा सकता है, जहां से वे वापस न लौटें
इसलिए अगर आनन्द होता, तो थोड़े भ्रम के साथ
और उदासी होती, तो ऐसे नहीं कि मद्धिम सी भी उम्मीद न हो.
जीवन चाहे कितना भी लम्बा हो, रहेगा सदैव संक्षिप्त ही.
कुछ भी और जोड़े जाने के वास्ते बहुत छोटा.
हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त जीवन
उनमें से बहुत थोड़े जी सके तीस की उम्र तक
वृद्धावस्था तब चट्टानों और पेड़ों का विशेषाधिकार थी
बचपन उतना ही होता था जितनी देर में भेड़िये के बच्चे बड़े हो जाते थे
जीवन के साथ चलने के लिये, आपको जल्दी करनी होती थी
-सूरज डूब जाने से पहले
-पहली बर्फ़ के आने से पहले
तेरह साल की लड़कियां बच्चे जनती थीं
चार साल के बच्चे जंगलों में चिड़ियों के घोंसले तलाशते थे
और बीस की उम्र में शिकारियों की टोली का नेतृत्व करते
-अब वे नहीं हैं, वे जा चुके हैं
अनन्तता के सिरों को जल्दी-जल्दी तोड़ दिया गया.
अपनी युवावस्था के सुरक्षित दांतों से
जादूगरनियां चबाया करती थीं टोने-टोटके.
अपने पिता की आंखों के सामने पुरुष बना एक बेटा
दादा की आंखों के खाली कोटरों के साये में जन्मा एक पोता.
जो भी हो, वे लोग वर्षों की गिनती नहीं करते थे.
वे जाले, बीज, बाड़े और कुल्हाड़े गिना करते थे.
समय जो इतनी उदारता से देखता है आसमान में किसी सुन्दर सितारे को
उसने उनकी तरफ़ एक तकरीबन ख़ाली हाथ बढ़ाया
और उसे वापस खींच लिया, मानो यह सब बहुत श्रमसाध्य रहा हो
एक कदम और, दो कदम और,
उस चमकीली नदी के साथ-साथ
जो अन्धकार से निकलकर अन्धकार में विलीन हो जाती थी.
खोने के लिये एक भी पल नहीं था,
न कोई स्थगित प्रश्न, न देर से होने वाले रहस्योद्घाटन
बस वही हा जिसे समय के भीतर भोगा गया.
सफ़ेद बालों की प्रतीक्षा नहीं करे सकती थी बुद्धिमत्ता
उसने रोशनी देखने से पहले सब कुछ देख लेना था
और सुनाई देने से पहले सुन लेना था हर आवाज़ को.
अच्छाई और बुराई-
इनके बारे में बहुत कम जानते थे वे, लेकिन जानते सब कुछ थे,
जब बुराई जीत रही हो, अच्छाई को छिपना होता है
और जब अच्छाई सामने हो, तो बुराई को,
दोनों में से किसी को बःई जीता नहीं जा सकता
न ही ऐसी किसी जगह फेंका जा सकता है, जहां से वे वापस न लौटें
इसलिए अगर आनन्द होता, तो थोड़े भ्रम के साथ
और उदासी होती, तो ऐसे नहीं कि मद्धिम सी भी उम्मीद न हो.
जीवन चाहे कितना भी लम्बा हो, रहेगा सदैव संक्षिप्त ही.
कुछ भी और जोड़े जाने के वास्ते बहुत छोटा.
Sunday, August 17, 2008
एंडी गार्सीया की आवाज़ में नेरूदा की 'सैडेस्ट पोएम'
पाब्लो नेरूदा की 'सैडेस्ट पोएम' के बारे में पहले भी कई बार लिखा जा चुका है. जो कविता के क़रीब रहते हैं, उन्हें पता है कि यह कितनी लोकप्रिय रही है. कबाड़ख़ाना में कुछ समय पहले अशोक पांडे ने इस कविता का हिंदी अनुवाद और होसे हुआन तोर्रेस की आवाज़ में इसे सुनाते हुए इसके बारे में लिखा भी था. उसे यहां पढ़ें-सुनें.
कहने की बात नहीं है कि कई लोगों की तरह मुझे भी यह कविता बहुत पसंद है और कई-कई बार मैं इस तक लौटकर जाता हूं. जब कभी रात में हवा का भंवर गाता हुआ-सा ऊपर उठता है या यह अहसास होता है कि एक बार फिर मैंने किसी को खो दिया है. जब यह लगता है कि प्रेम का क्षण कितना छोटा होता है और उसे भुला पाना कितनी लंबी प्रक्रिया. शायद एक अनंत प्रक्रिया. जब आत्मा यह मानने से इंकार कर देती है कि कोई हमेशा के लिए उसके घर से निकल चुका है और आंख चुराने से बड़ी कोई चोरी नहीं लगती. पूरे चांद की रात जब किसी उदास अकेले पेड़ पर बेआवाज़ उतरती है और अपने उतरने के सबूत में एक सफ़ेदी उस पर छोड़ जाती है. इस वक़्त मशीन गोद में ले मैं छत पर बैठा हूं और नीचे काली शाल ओढ़े जाती एक आकृति बार-बार नींद से लंबी इस सड़क पर, दूर, उभर-उभर आती है. मेरी दाहिनी हथेली पर एक बूंद गिरती है. बारिश की. शब्दों के आसमान से ऐसे ही गिरती होगी कविता. बेआवाज़. फिर झमाझम बरसती हैं स्मृतियां, जिनसे बचने का दुनियावी उपाय खोजना होता है.
किताब में जिस पेज पर यह कविता है, ऐसा लगता है, कि वह अपने पहले की पेज की कविताओं से कुछ पूछ रही है और अपने बाद की कविताओं को कुछ बता रही है. जैसे नेरूदा अपनी एक छोटी कविता में कहते हैं- 'क्या कहता होगा गुरुवार आने वाले शुक्रवार से'.
फिल्म है 'इल पोस्तिनो' (अंग्रज़ी में 'द पोस्टमैन'. साल 1994). पाब्लो नेरूदा की जि़ंदगी के एक टुकड़े पर बनी है. इसमें नेरूदा की कई कविताओं को पढ़ा गया है. 'सैडेस्ट पोएम' का पाठ एंडी गार्सीया ने किया था. हमारे यहां, आम लोगों ने तो नहीं ही, फिर भी ढंग का पढ़ने-लिखने, ढंग का सुनने-देखने वालों ने ज़रूर देखी होगी और इन कविताओं का आस्वाद भी लिया होगा. फिल्म के स्कोर्स की एक सीडी भी जारी हुई थी, जिसमें नेरूदा की कविताओं का पाठ मैडोना, जूलिया रॉबर्ट्स, स्टिंग, सैमुएल एल जैकसन, मिरांडा रिचर्डसन, विंसेंट पेरेस आदि ने किया था. दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में मिल भी सकती है.
कविता का अंग्रेज़ी पाठ यहां दिया गया है और उसके नीचे हिंदी में.
Tonight I can write the saddest lines.
Write, for example,'The night is shattered
and the blue stars shiver in the distance.'
The night wind revolves in the sky and sings.
Tonight I can write the saddest lines.
I loved her, and sometimes she loved me too.
Through nights like this one I held her in my arms
I kissed her again and again under the endless sky.
She loved me sometimes, and I loved her too.
How could one not have loved her great still eyes.
Tonight I can write the saddest lines.
To think that I do not have her. To feel that I have lost her.
To hear the immense night, still more immense without her.
And the verse falls to the soul like dew to the pasture.
What does it matter that my love could not keep her.
The night is shattered and she is not with me.
This is all. In the distance someone is singing. In the distance.
My soul is not satisfied that it has lost her.
My sight searches for her as though to go to her.
My heart looks for her, and she is not with me.
The same night whitening the same trees.
We, of that time, are no longer the same.
I no longer love her, that's certain, but how I loved her.
My voice tried to find the wind to touch her hearing.
Another's. She will be another's. Like my kisses before.
Her voide. Her bright body. Her inifinite eyes.
I no longer love her, that's certain, but maybe I love her.
Love is so short, forgetting is so long.
Because through nights like this one I held her in my arms
my sould is not satisfied that it has lost her.
Though this be the last pain that she makes me suffer
and these the last verses that I write for her.
Pablo Neruda
*******************************************
लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं
लिख सकता हूं उदाहरण के लिये: "तारों भरी है रात
और तारे हैं नीले, कांपते हुए सुदूर"
रात की हवा चक्कर काटती आसमान में गाती है.
लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं
मैंने प्रेम किया उसे और कभी कभी उसने भी प्रेम किया मुझे
ऐसी ही रातों में मैं थामे रहा उसे अपनी बांहों में
अनन्त आकाश के नीचे मैंने उसे बार-बार चूमा.
उसने प्रेम किया मुझे और कभी-कभी मैंने भी प्रेम किया उसे.
कोई कैसे प्रेम नहीं कर सकता था उसकी महान और ठहरी हुई आंखों को.
लिख सकता हूं आज की रात बेहद दर्दभरी कविताएं.
सोचना कि मेरे पास नहीं है वह. महसूस करना कि उसे खो चुका मैं.
सुनना इस विराट रात को जो और भी विकट उसके बग़ैर.
और कविता गिरती है आत्मा पर जैसे चारागाह पर ओस.
अब क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मेरा प्यार संभाल नहीं पाया उसे.
तारों भरी है रात और वह नहीं है मेरे पास.
इतना ही है. दूर कोई गा रहा है. दूर.
मेरी आत्मा संतुष्ट नहीं है कि वह खो चुकी उसे.
मेरी निगाह उसे खोजने की कोशिश करती है जैसे इस से वह नज़दीक आ जाएगी.
मेरा दिल खोजता है उसे और वह नहीं है मेरे पास.
वही रात धवल बनाती उन्हीं पेड़ों को
हम उस समय के, अब वही नहीं रहे.
मैं उसे और प्यार नहीं करता, यह तय है पर कितना प्यार उसे मैंने किया
मेरी आवाज़ ने हवा को खोजने की कोशिश की ताकि उसे सुनता हुआ छू सकूं
किसी और की. वह किसी और की हो जाएगी. जैसी वह थी
मेरे चुम्बनों से पहले. उसकी आवाज़ उसकी चमकदार देह उसकी अनन्त आंखें
मैं उसे प्यार नहीं करता यह तय है पर शायद मैं उसे प्यार करता हूं
कितना संक्षिप्त होता है प्रेम, भुला पाना कितना दीर्घ.
क्योंकि ऐसी ही रातों में थामा किया उसे मैं अपनी बांहों में
मेरी आत्मा संतुष्ट नहीं है कि वह खो चुकी उसे.
हालांकि यह आख़िरी दर्द है जो सहता हूं मैं उसके लिये
और ये आख़्रिरी उसके लिये कविताएं जो मैं लिखता हूं.
(अनुवाद: अशोक पांडे, संवाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत' से)
Saturday, August 16, 2008
'कते दिन रामा भरब हम गगरी'
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLVgLPVHZN-G8lLHurk5VMKbCBTwj9CidHBZgzpv1bo0w0iW0lWaL1pAbgq-0K3-GdX8ctt6aKlRZj88s_WjqVDsopZF2wMBuneJfBR89i1efyp8N8Y80zSHkGXgJuAF4zJVN7QcWCqNgd/s200/4.jpg)
मित्रों,
कई दिनों से मेरे इंटरनेट कनेक्शन जी बीमार चल रहे हैं. आप सब मिलकर दुआ करो कि उनकी तबीयत संभल जाए और मैं बेफिक्र होकर ब्लागिस्तान की सैर कर सकूं साथ ही जो भी , जैसा भी कबाड़ मेरे कने रक्खा पड़ा है उसमें से कुछ आप सबके साथ शेयर कर सकूं. अभी आज तो सफर में हूं और थोड़ी -सी मोहलत पाते ही एक ढ़ाबे पर बैठकर ये 'चार लइनां'लिख रिया हूं. और कोई माल तो इस बखत ना है .क्यों ना अपनी पसंद का एक गाना सुन लिया जाय . तो साहब ! सुनते है- शारदा सिन्हा के स्वर मे 'कते दिन रामा भरब हम गगरी'
|
बारिशों के लिए ख़ास पेशकश: गार्सिया लोर्का की हरी कविता और रवीन्द्र व्यास की हरी पेन्टिंग
इन्दौर में रहने वाले रवीन्द्र व्यास का एकदम नया ब्लॉग 'हरा कोना' अपने नाम से ही जाहिर करता है कि हरे रंग से इस शख़्स को प्यार होना चाहिये. ऊपर से वे उम्दा कोटि के कलाकार भी हैं. मेरे आग्रह पर उन्होंने अपनी दो हरी पेन्टिंग्स कबाड़ख़ाने के वास्ते भेजीं.
देखिये उनके ब्रश आपसे क्या कह रहे हैं. और महाकवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविता पढ़ते हुए थोड़ा और डूबिये इस हरे में.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhL9EJJyKWlQvCKL8U6abpgnqQPpibK6jNxzoJFZI5tSEkHNkQZKaQK0eYnZHGt2sNX3EJ-2ZJrGLqnt5iWSYI5_mrUQ0NOyRmwZsACfsaIY478PwfBMbcLkrlosIuu_P6RRJj2IdKRzvE/s400/1.jpg)
उनींदा प्रेम
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
हरी हवा, हरी टहनियां
समुन्दर में वो रहा जहाज़
और पहाड़ के ऊपर वह घोड़ा ...
उस स्त्री की कमर के घेरे के गिर्द छाया
अपने छज्जे में स्वप्न देखती है वह
हरी देह, हरे ही उसके केश
और आंखों में ठण्डी चांदी
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
बंजारे चांद के नीचे
दुनिया की हर चीज़ उसे देख सकती है
जबकि वह नहीं देख सकती किसी को भी.
हरे, किस कदर तुझे चाहता हूं हरे
भोर की सड़क दिखाने वाली
परछाईं की मछली के साथ
पाले से ढंके सितारे गिरते हैं.
जैतून का पेड़ रगड़ता है अपनी हवा को
टहनियों के अपने रेगमाल से
और एक चालाक बिल्ली सरीखा वह जंगल,
सरसराता है अपने कड़ियल रोंए
मगर कौन आएगा? और कहां से आएगा?
वह स्त्री अब भी अपने छज्जे में
हरी देह, हरे ही उसके केश
सपने देखती हुई कड़वे समुन्दर में.
मेरे दोस्त! मैं चाहता हूं अपना
घोड़ा बेचकर उसका मकान ख़रीद लूं
ज़ीन बेचकर ले लूं उसका शीशा
चाकू बेचकर उसका कम्बल.
मेरे दोस्त, मैं आया हूं वापस काबरा के द्वार से
ख़ून रिसता हुआ मुझसे
-अगर यह संभव होता लड़के,
तो मैं मदद करता इस व्यापार में तुम्हारी.
लेकिन अब मैं मैं नहीं हूं
न मेरा घर रह गया है मेरा घर.
-मेरे दोस्त मैं चाहता हूं
शालीनता से मर जाऊं अपने बिस्तर पर.
और मरूं लोहे के कारण, अगर संभव हो तो
और नफ़ीस ताने बाने वाले कम्बलों के बीच.
क्या तुम देखते नहीं यह घाव
मेरी छाती से मेरे गले तक?
-तुम्हारी सफ़ेद कमीज़ में उग आए हैं
प्यासे, गहरे भूरे गुलाब.
तुम्हारा रक्त फूटकर उड़ने लगा है
खिड़की की चौखट के किनारों पर.
लेकिन अब मैं मैं नहीं हूं
न मेरा घर रह गया है मेरा घर.
मुझे कम से कम उंचे छज्जे तक तो
चढ़ पाने की इजाज़त दो.
चढ़ने दो मुझे! चढ़ने दो मुझे
ऊपर उस हरे छज्जे तलक.
चन्द्रमा की उसकी रेलिंग
जिसके बीच गड़गड़ाता बहता है पानी.
ख़ून की एक लम्बी लकीर पीछे छोड़ते
आंसुओं की एक लम्बी लकीर पीछे छोड़ते
दोनों चढ़ना शुरू करते हैं
ऊंचे छज्जे
की तरफ़.
छत पर कांपीं
अंगूर की लताएं.
एक हज़ार स्फटिक ढोल बजे
भोर की रोशनी के साथ.
हरे, कितना प्यार करता हूं तुझे हरे,
हरी हवा, हरे छज्जे.
दोनों दोस्त चढ़े ऊपर
और कड़ी हवा ने भर दिया
उनके मुंहों में एक विचित्र घुलामिला स्वाद
पोदीने, तुलसी और पित्त का.
मेरे दोस्त, कहां है वह स्त्री - बताओ मुझे -
कहां है वह तुम्हारी कड़वी स्त्री?
कितनी दफ़ा उसने तुम्हारा इन्तज़ार किया!
कितनी दफ़ा तुम्हारा इन्तज़ार वह करती थी,
अपने ठण्डे चेहरे और काले केशों के साथ
इस हरे छज्जे पर!
पानी की टंकी के मुहाने पर
वह जिप्सी लड़की झूल रही थी,
हरी देह, हरे उसके केश
और आंखें ठण्डी चांदी!
चन्द्रमा के पाले का एक कण
उठाए रखे था उसे पानी की सतह के ऊपर.
रात और अंतरंग हो गई
किसी छोटे बाज़ार की तरह.
और
धुत्त पुलिसिये
दरवाज़ा पीट रहे थे.
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
हरी हवा, हरी टहनियां
समुन्दर में वो रहा जहाज़
और पहाड़ के ऊपर वह घोड़ा ...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ-v2udK8UIzEFyu4oKyCH3bIyZr_ZAtePdDyRPOM2JdNSoqJrC_amX5Eq_RHzyfsZaIz4Y82JK-e-uYAGGCNLvvavPHgpfaekHj46JC3lSnWQ_Z3mE0Bnfn-kx7nAh1HcDCa0En-y-fc/s400/2.jpg)
*गार्सिया लोर्का का गिटार
देखिये उनके ब्रश आपसे क्या कह रहे हैं. और महाकवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविता पढ़ते हुए थोड़ा और डूबिये इस हरे में.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhL9EJJyKWlQvCKL8U6abpgnqQPpibK6jNxzoJFZI5tSEkHNkQZKaQK0eYnZHGt2sNX3EJ-2ZJrGLqnt5iWSYI5_mrUQ0NOyRmwZsACfsaIY478PwfBMbcLkrlosIuu_P6RRJj2IdKRzvE/s400/1.jpg)
उनींदा प्रेम
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
हरी हवा, हरी टहनियां
समुन्दर में वो रहा जहाज़
और पहाड़ के ऊपर वह घोड़ा ...
उस स्त्री की कमर के घेरे के गिर्द छाया
अपने छज्जे में स्वप्न देखती है वह
हरी देह, हरे ही उसके केश
और आंखों में ठण्डी चांदी
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
बंजारे चांद के नीचे
दुनिया की हर चीज़ उसे देख सकती है
जबकि वह नहीं देख सकती किसी को भी.
हरे, किस कदर तुझे चाहता हूं हरे
भोर की सड़क दिखाने वाली
परछाईं की मछली के साथ
पाले से ढंके सितारे गिरते हैं.
जैतून का पेड़ रगड़ता है अपनी हवा को
टहनियों के अपने रेगमाल से
और एक चालाक बिल्ली सरीखा वह जंगल,
सरसराता है अपने कड़ियल रोंए
मगर कौन आएगा? और कहां से आएगा?
वह स्त्री अब भी अपने छज्जे में
हरी देह, हरे ही उसके केश
सपने देखती हुई कड़वे समुन्दर में.
मेरे दोस्त! मैं चाहता हूं अपना
घोड़ा बेचकर उसका मकान ख़रीद लूं
ज़ीन बेचकर ले लूं उसका शीशा
चाकू बेचकर उसका कम्बल.
मेरे दोस्त, मैं आया हूं वापस काबरा के द्वार से
ख़ून रिसता हुआ मुझसे
-अगर यह संभव होता लड़के,
तो मैं मदद करता इस व्यापार में तुम्हारी.
लेकिन अब मैं मैं नहीं हूं
न मेरा घर रह गया है मेरा घर.
-मेरे दोस्त मैं चाहता हूं
शालीनता से मर जाऊं अपने बिस्तर पर.
और मरूं लोहे के कारण, अगर संभव हो तो
और नफ़ीस ताने बाने वाले कम्बलों के बीच.
क्या तुम देखते नहीं यह घाव
मेरी छाती से मेरे गले तक?
-तुम्हारी सफ़ेद कमीज़ में उग आए हैं
प्यासे, गहरे भूरे गुलाब.
तुम्हारा रक्त फूटकर उड़ने लगा है
खिड़की की चौखट के किनारों पर.
लेकिन अब मैं मैं नहीं हूं
न मेरा घर रह गया है मेरा घर.
मुझे कम से कम उंचे छज्जे तक तो
चढ़ पाने की इजाज़त दो.
चढ़ने दो मुझे! चढ़ने दो मुझे
ऊपर उस हरे छज्जे तलक.
चन्द्रमा की उसकी रेलिंग
जिसके बीच गड़गड़ाता बहता है पानी.
ख़ून की एक लम्बी लकीर पीछे छोड़ते
आंसुओं की एक लम्बी लकीर पीछे छोड़ते
दोनों चढ़ना शुरू करते हैं
ऊंचे छज्जे
की तरफ़.
छत पर कांपीं
अंगूर की लताएं.
एक हज़ार स्फटिक ढोल बजे
भोर की रोशनी के साथ.
हरे, कितना प्यार करता हूं तुझे हरे,
हरी हवा, हरे छज्जे.
दोनों दोस्त चढ़े ऊपर
और कड़ी हवा ने भर दिया
उनके मुंहों में एक विचित्र घुलामिला स्वाद
पोदीने, तुलसी और पित्त का.
मेरे दोस्त, कहां है वह स्त्री - बताओ मुझे -
कहां है वह तुम्हारी कड़वी स्त्री?
कितनी दफ़ा उसने तुम्हारा इन्तज़ार किया!
कितनी दफ़ा तुम्हारा इन्तज़ार वह करती थी,
अपने ठण्डे चेहरे और काले केशों के साथ
इस हरे छज्जे पर!
पानी की टंकी के मुहाने पर
वह जिप्सी लड़की झूल रही थी,
हरी देह, हरे उसके केश
और आंखें ठण्डी चांदी!
चन्द्रमा के पाले का एक कण
उठाए रखे था उसे पानी की सतह के ऊपर.
रात और अंतरंग हो गई
किसी छोटे बाज़ार की तरह.
और
धुत्त पुलिसिये
दरवाज़ा पीट रहे थे.
हरे, कितना तुझे प्यार करता हूं हरे
हरी हवा, हरी टहनियां
समुन्दर में वो रहा जहाज़
और पहाड़ के ऊपर वह घोड़ा ...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJ-v2udK8UIzEFyu4oKyCH3bIyZr_ZAtePdDyRPOM2JdNSoqJrC_amX5Eq_RHzyfsZaIz4Y82JK-e-uYAGGCNLvvavPHgpfaekHj46JC3lSnWQ_Z3mE0Bnfn-kx7nAh1HcDCa0En-y-fc/s400/2.jpg)
*गार्सिया लोर्का का गिटार
Friday, August 15, 2008
छूने तक को न मिला असल झण्डा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkZ0eaYu8PPHTdaNwuk89zwnvQqtFIrjMfVeKVSvkHyCi5k17ZZRA10a5oqMvFz0QkHRuFS1Ct9olH8W5_AcK9tOJtKJQZrgTsKIthOmG9jgniOHNq91yCvq1Z1vAbJR2S5xkoCFQ9ALo/s400/15+august.jpg)
आज़ादी की सालगिरह की सब को मुबारकें. वीरेन डंगवाल की कविता पढ़िये ख़ास आज के मौक़े पर:
पन्द्रह अगस्त
सुबह नींद खुलती
तो कलेजा मुंह के भीतर फड़क रहा होता
ख़ुशी के मारे
स्कूल भागता
झंडा खुलता ठीक ७:४५ पर, फूल झड़ते
जन-गण-मन भर सीना तना रहता कबूतर की मानिन्द
बड़े लड़के परेड करते वर्दी पहने शर्माते हुए
मिठाई मिलती
एक बार झंझोड़ने पर भी सही वक़्त पर
खुल न पाया झण्डा, गांठ फंस गई कहीं
हेडमास्टर जी घबरा गए, गाली देने लगे माली को
लड़कों ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी
देश की बेइज़्ज़ती हुई है
स्वतंत्रता दिवस की परेड देखने जाते सभी
पिताजी चिपके रहते नए रेडियो से
दिल्ली का आंखों-देखा हाल सुनने
इस बीच हम दिन भर
काग़ज़ के झण्डे बनाकर घूमते
बीच का गोला बना देता भाई परकार से
चौदह अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती
सोलह अगस्त भर भी
यार, काग़ज़ से बनाए जाने कितने झण्डे
खिंचते भी देखे सिनेमा में
इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी असल झण्डा
कपड़े का बना, हवा में फड़फड़ करने वाला
असल झण्डा
छूने तक को न मिला!
Thursday, August 14, 2008
कुमाऊंनी रसोई से कुछ ज़ायकेदार रहस्य
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8DKj8WA3EanBDsyZ5cz4FHK_TlXk023eypKb__R4W414ei9Bc939N3CjT6PHZDB_LRvhLsJyHKRPUXImrmYtcTdcqSWErTy_RZh9yqO2NWfkir3f_v6LLbdwjdsXBhBsX4Uy3VE9Ca5Y/s400/kitchen.jpg)
इन दिनों पहाड़ झमाझम बारिश में भीग रहे हैं। हर तरह के पेड़-पौधे अपने सबसे सुंदर हरे रंग को ओढे हुए हैं। बादल आसमान से उतर कर खिड़कियों के रास्ते घर में घुसे आ रहे हैं। आप छोटे-छोटे खिड़की-दरवाजों वाले एक पुराने लेकिन आरामदायक घर के अंदर बैठे छत की पटाल (स्लेट) पर लगातार पड़ रही बूंदों की टापुर-टुपुर का आनंद ले रहे हों तो इस भीगे-भीगे से मौसम में खाने का ख्याल आना स्वाभाविक ही है। खाने की शौकीन होने के कारण मेरे लिए अच्छा मौसम भी एक बढ़िया बहाना है कुछ खाने का या कम से कम खाने को याद करने का। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है की पहाड़ी खाना इतना विविधतापूर्ण, स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के बावजूद पहाड़ से बाहर लोकप्रिय होने में कामयाब क्यों नहीं रहा ? शायद रंगरूप और नामों का खांटी भदेस होना इसकी एक वजह रही हो।
बहरहाल, आजकल खेतों में अरबी, सेम (बीन्स), शिमला मिर्च, मूली, हरी मिर्च, बैंगन, करेला, तोरी, लौकी, कद्दू, खीरे, टमाटर, राजमा लगा हुआ है। अरबी मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है। अरबी को स्थानीय भाषा में पिनालू कहा जाता है और मुझे नहीं लगता कि पहाड़ के अलावा कहीं और इसका इतना विविधतापूर्ण इस्तेमाल होता होगा। इसका मुख्य हिस्सा जड़ यानि अरबी तो खाई ही जाती है, इसकी बिल्कुल कमसिन नन्हीं रोल में मुड़ी पत्तियों को तोड़ कर, काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें गाब या गाबा कहा जाता है। अरबी के के तनों को काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें नौल कहते हैं। नौल और गाबे की सब्ज़ियों का लुत्फ सर्दियों में उठाया जाता है जब ठंड की वजह से खेतों में सब्ज़ियां बहुत कम होती हैं। इनकी तरी वाली सब्ज़ी चावल के साथ खाई जाती है।
मूली को आमतौर पर सलाद के रूप में खाया जाता है लेकिन कुमाऊंनी खाने में (मोटी जड़ वाली मटियाले रंग की पहाड़ी मूली) यह इतनी गहरी रची-बसी है कि बरसात और जाड़ों में खाई जाने वाली लगभग सारी सब्ज़ियों चाहे वह राई या लाई की पत्तियां हों या आजकल खेत में हो रही ऊपर लिखी हुई कोई भी सब्ज़ी के साथ मिला कर पकाई जाती है। मूली के साथ इन सब्ज़ियों का मेल बहुत अजीब सा सुनाई देता है न? लेकिन यकींन मानिए खाने में ये लाजवाब होती है। दरअसल पहाड़ी मूली मैदानी इलाकों में उगने वाली सफेद, सुतवां, नाजुक सी दिखने वाली रसीली मूलियों से न केवल रंगरूप में बल्कि स्वाद में भी बिल्कुल अलग होती हैं। सिर्फ मूली को सिलबट्टे में हल्का सा कुटकुटा कर मेथीदाने से छौंक कर बना कर देखिए, इसे थचुआ मूली कहते है, न कायल हो जाएं स्वाद के तो कहिएगा। मूली को दही के साथ भी बनाया जाता है।
पहाड़ी जीवन-शैली की तरह ही यहां का खाना भी सादा और आडंबररहित होता है। यही इसकी खासियत भी है। किसी भी सब्ज़ी को किसी के साथ भी मिला कर बनाया जा सकता है, पिछले हफ्ते मैं नैनीताल गई थी, रात को उमा चाची ने मुंगौड़ी - आलू की रसेदार सब्ज़ी के साथ बीन्स, शिमला मिर्च और मूली की मिली-जुली सब्ज़ी खिलाई, आनंद आ गया। सब्ज़ियों का यह तालमेल केवल एक पहाड़ी घर में ही बनाया जा सकता है। कुछ सब्ज़ियां मेरे ख्याल से केवल पहाड़ में ही होती हैं जैसे गीठी (कहीं-कहीं इसे गेठी कहते हैं) और तीमूल। बेल में लगने वाले गीठी भूरे रंग की आलूनुमा सब्ज़ी होती है जिसे एक खास तरीके से पकाया जाता है। तीमूल को पहले राख के पानी के साथ उबाल लेते हैं और उसके बाद उसे किसी भी अन्य सब्ज़ी की तरह छौंक कर सूखी या तरीवाली सब्ज़ी बना लेते हैं, बहुत ही स्वादिष्ट बनती है। एक और सब्ज़ी होती है पहाड़ में जो खूब बनाई-खाई जाती है वो है गडेरी, मैदानी इलाकों के लोग उसे शायद कचालू के नाम से पहचानेंगे। भांग के बीजों को पीस कर उसके पानी को गडेरी के साथ पकाया जाए तो इसका स्वाद कुछ खास ही होता है।
लोकप्रिय पहाड़ी खानों में भट्ट (काला सोयाबीन) की चुड़कानी, जंबू, गन्दरायणी और धुंगार जैसे मसालों से छौंके आलू के गुटके, कापा (बेसन या चावल का आटा भून कर बनाया गया पालक का साग), दालें पीस कर बनाई गई बेड़ुआ रोटी इत्यादि शामिल हैं। पहाड़ी व्यंजनों में डुबकों का अपना खास मुकाम है। यह भट्ट, चना और गहत की दाल से बनते है, डुबके बनाने के लिए दाल को रात भर भिगा कर सुबह पीस लेना होता है और फिर इसे खास तरह का तड़का लगा कर हल्की आंच में काफी देर तक पकाया जाता है। इसके अलावा उड़द की दाल को पीस कर चैंस बनाई जाती है।
पहाड़ी खाने में चटनी की खास जगह है, चाहे वह शादी ब्याह में बनने वाली मीठी चटनी सौंठ हो या भांग के बीजों (इनमें नशा नहीं होता, गांजा भांग की पत्तियों से बनाया जाता है) को भून कर पीस कर बनाई गई चटपटी चटनी। इन दिनों पेड़ों पर दाड़िम (छोटा, खट्टा अनार) लगा हुआ है, धनिया और पुदीना के पत्तों के साथ इसकी बहुत स्वादिष्ट चटनी बनती है। पहाड़ों में बड़ा नींबू जिसे मैदानी इलाकों में गलगल भी कहा जाता है बहुतायत से होता है। सर्दियों की कुनकुनी धूप में नींबू सान कर खाना एक अद्भभुत अनुभव होता है। इसके लिए नींबू को छील कर इसकी फांकों के छोटे-छोटे टुकड़े कर लेते हैं, साथ में मूली को धो-छील कर लंबे पतले टुकड़ों में काट कर नींबू के साथ ही मिला लेते हैं। भांग के बीजों को तवे पर भून कर सिलबट्टे पर हरी मिर्च और हरी धनिया पत्ती, नमक के साथ पीस लेते हैं। अब इस पीसे हुए भांग के नमक को नींबू और मूली में मिला लेते हैं। अब एक कटोरा दही को इसमें मिला लेते हैं। स्वाद के मुताबिक थोड़ी सी चीनी अब इसमें मिला लीजिए और सब चीजों को अच्छी तरह से मिला लीजिए। इसके लाजवाब स्वाद के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं खुद जायका ले कर देखें।
इन दिनों यहां खीरे हो रहे हैं, पहाड़ में खीरे को ककड़ी कहा जाता है और यह आमतौर पर मिलने वाले खीरे से आकार में दो-तीन गुना बड़ा होता है। जब खीरे नरम होते है तो उन्हें हरे नमक यानी धनिया, हरी मिर्च और नमक के पीसे मिश्रण के साथ खाया जाता है। खीरे जब पक जाते हैं तो उनका स्वाद हल्का सा खट्टा हो जाता है अब यह बड़ियां बनाने के लिए बिल्कुल तैयार है। इसे कद्दूकस करके रात भर भिगाई गई उड़द की दाल की पीठी में हल्की सी हल्दी, हींग इत्यादि मिला कर छोटी-छोटी पकौड़ियों की शक्ल में सुखा लिया जाता है। बाद में आप इसे मनचाहे तरीके से बना सकते हैं।
मुझे खाने का शौक है और खास तौर पर पहाड़ी खाना बहुत ही ज्यादा पसंद है उसमें भी सबसे ज्यादा पसंद है रस-भात। रस दरअसल बहुत सारी खड़ी दालों से बनता है। इसके लिए पहाड़ी राजमा, सूंठ (पहाड़ में होने वाली सोयाबीन की एक किस्म), काला और सफेद भट्ट, उड़द, छोटा काला चना, गहत इत्यादि दालों को अच्छी तरह से धो कर रात में ही भिगा दिया जाता है। सुबह उसी पानी में मसाले डाल कर चूल्हे की हल्की आंच में काफी देर तक उसे पकाया जाता है जब सारी दालें पक जाती हैं तो पानी को निथार कर अलग कर लिया जाता है। दालों का यही पानी रस कहलाता है जिसे शुद्ध घी में हल्की सी हींग, जम्बू और धूंगार के पहाड़ी मसालों का तड़का लगा कर गरमा-गरम चावलों के साथ खाया जाता है।
फिलहाल इतना ही, फिर किसी और दिन करेंगे चर्चा कुछ और पहाड़ी व्यंजनों की। बाहर बारिश तेज़ हो गई है।
Tuesday, August 12, 2008
थोड़ा कहना ज्यादा समझना पेश है- 'घुंघरू टूट गए'
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh65X7i12Eyu3YYWEnMu_1_0oMSR84Uu9cI_vUbmmiEi4pj7gvIGpGJ05FgTlgWmnYihmHQ2Eu1RZCIAgeFdl36zbDoxG7Ki6ntZaQd3O8o1ckKqdAqV1x10e1ecSiXCIdViUDrcpRlR6-U/s320/abida+ji.bmp)
पिछले सप्ताह भर से मेरे कंप्यूटर बाबू और इंटरनेट बबुआ के दुश्मनों की तबीयत नासाज -सी चल रही है. मन होता है चल पड़ते हैं, थोड़ा बहुत कामकाज भी कर लेते हैं नहीं तो तसव्वुरे जानां किए हुए औंधे पड़े रहते हैं. बड़ी मिन्नत-खुशामद करनी पड़ रही है बाबू जी की और बबुआ जी की. दोनों ने मिलकर जी हलकान कर रखा है. अभी -अभी तीन विशेषज्ञ आए थे सो बीमारों की तबीयत कुछ संभली है, मुंह पे थोड़ी रौनक आई है. सोचा क्या किया जाय. ध्यान में आया कि अपनी पसंद का एक गीत क्यों न सुनवा दिया जाय ताकि कुछ चैन पड़े. सो, हे मित्रो ! प्रस्तुत है आबिदा परवीन का गाया यह मधुर गीत जिसे अपन और कई गायकों के स्वर में भी सुन चुके हैं।
खैर, थोड़ा कहना ज्यादा समझना पेश है- 'घुंघरू टूट गए'
मोहे आई न जग से लाज
मैं इतना ज़ोर से नाची आज
के घुंघरू टूट गए
मैं इतना ज़ोर से नाची आज
के घुंघरू टूट गए
कुछ मुझ पे नया जोबन भी था
कुछ प्यार का पागलपन भी था
हर पलक मेरी तीर बनी
और ज़ुल्फ़ मेरी ज़ंजीर बनी
लिया दिल साजन का जीत
वो छेड़े पायलिया ने गीत
के घुंघरू टूट गए
कुछ प्यार का पागलपन भी था
हर पलक मेरी तीर बनी
और ज़ुल्फ़ मेरी ज़ंजीर बनी
लिया दिल साजन का जीत
वो छेड़े पायलिया ने गीत
के घुंघरू टूट गए
धरती पे न मेरे पैर लगे
बिन पिया मुझे सब ग़ैर लगे
मुझे अंग मिले अरमानों के
मुझे पंख मिले परवानों के
जब मिला पिया का गांव
तो ऐसा लचका मेरा पांव
के घुंघरू टूट गए
Monday, August 11, 2008
कविवर देवव्रत जोशी की ह्रदयस्पर्शी रचना-छगन बा दमामी
मालवा अंचल के जिन समर्थ रचनाकारों को देशव्यापी पहचान मिली है कविवर देवव्रत जोशी उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम है.प्रगतिशील विचारधारा के इस कवि का तेवर,कहन और शिल्प एकदम अनूठा है. दिनकर,सुमन,बच्चन और भवानीप्रसाद मिश्र जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों का स्नेहपूर्ण सान्निध्य देवव्रतजी को मिला है. वे सुदीर्घ समय तक रतलाम के निकट रावटी क़स्बे में प्राध्यापन करने के बाद अब रतलाम में आ बसे हैं.पिचहत्तर के अनक़रीब देवव्रत जोशी प्रगतिशील लेखक संघ में ख़ासे सक्रिय रहे हैं और अब जनवादी लेखक संघ की रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न हैं.जब कबाड़ाखाना पर मेरे द्वारा लिखी जा रही इस पोस्ट के पहले मैनें उनसे रतलाम चर्चा की तो उन्होंने बताया कि पहली रचना १९४८ में लिखी थी और बस फ़िर लिखने का सिलसिला आज तक जारी है. देवव्रतजी ने बताया कि यशपाल और राहुल सांकृत्यायन का दर्शन जीवन की एक अविस्मरणीय अनुभूति है.कविता का संस्कार देवव्रत जोशी को अपनी कवि ह्र्दय माँ से मिला.जाने माने साहित्यकार श्यामू सन्यासी देवव्रत जोशी के चाचा थे जो जापान विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रमुख रहे.बहु-भाषाविद श्यामू सन्यासी का हिन्दी साहित्य जगत में बहुत सम्मान है.हाल ही में हिन्दी के सुपरिचित कवियों पर दूरदर्शन ने फ़िल्मांकन का सिलसिला शुरू किया है और ख़ुशख़बर यह है कि देवव्रत जोशी पर भी वृत्तचित्र का निर्माण हो चुका है , प्रसारण प्रतीक्षित है.
कवि अपने स्वाभिमान,शर्तों और तासीर के साथ ही जीता है और ज़माने की परवाह किये बग़ैर अपनी सोच और समझ से ही रचनाकर्म करता है. देवव्रत जोशी के संदर्भ में यह बात एकदम खरी उतरती है.
छगन बा दमामी देवव्रत जोशी का काव्य संकलन है जिसकी शीर्षक रचना को आज कबाड़खाना पर जारी कर रहा हूँ.दमामी यानी ढोल और अन्य कई वाद्य बजाने वाली वह प्रजाति जिसका संगीत संस्कार न जाने कितने परिवारों में मंगल का अवगाहन करता है. ये कविता दर असल में रावटी में रहने वाले एक सच्चे पात्र छगन बा का कथा चित्र है.हिन्दी साहित्य में ऐसी लम्बी और कथानकपूर्ण रचनाएं कम हीं पढ़ने में आती हैं ..वर्ण व्यवस्था और छुद्रों की अपमानजन स्थितियों और एक इंसान और कलाकार के रूप में स्पंदित उनके मनोयोगों का दस्तावेज़ है यह कविता.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqqLNZLm0NYHdps9XTz-ntCBSUcGavOPKubPk488j9kHfmmyM5q3ALto5mkJFuO79lL9vlvCa0uCXB94aC6onRL3ym9wev85-t6rojuij7z9lm3THYraPlQAehXrX4aO-bgEhqEPOej_Qf/s320/Dhol+with+Man.jpg)
छगन बा दमामी
ढोल पर अपनी मनपसन्द खाल का खोल चढ़ाकर
लाये छगन बा और गले में टॉंगकर
जायज़ा लेने लगे-धिंग-धिंग, ढनढनाट...
गूँज गयी गॉंव के गोयरे से लेकर
दिशाकाश तक
ढोल की आवाज़...
पास के रनिवास में गूँजी ढोल की ढमक
कि रानियों की आत्माएँ ख़ुश हो नाचने लगीं
कि फूल बनने लगीं चम्पे की कलियॉं ।
ठाकुरजी के मन्दिर की घंटी बजने लगी आपोआप
राजकुँवर और नानी-डोड़ियॉं और मनसबदार
ढोर-ढंगर-गाय-भैंस-सॉंप-बिच्छू
निकल आये बाहर।
आम का बौर और और महकने लगा
मतवाला होकर... कुएँ का पानी
कुएँ के गले तक भर आया।
छगन बा का नया ढोल
आज गॉंव के इस छोर से
उस छोर तक बज रहा...
यूँ कहें कि छगन बा का मर्दाना पौरुष ही
झनझना रहा लगातार।
दरअसल बात ये कि छगन बा ढोल पीटते नहीं,
बजाते थे तमीज़, प्यार और मनुहार के साथ।
तीज-तेवार-शादी-ब्याव में
दमामी छगन बा रुआबदार धोती-कुर्ते में सजे
सबके आगे चलते / कि बीमार, बुज़ुर्ग भी
इन्तज़ार करते कि कब मरें और छगन बा
अर्थी के आगे ज़िंदगी की तान उछारते
ढोल बजाते चलें आगे-आगे।
बड़े सुकून और स्वाभिमान और मस्तीभरे
दिन थे वे छगन बा के।
कि एक दिन पंडिज्जी के घर से न्यौता :
कि छगन दमामी आएँ और बच्चा पैदा होने की
ख़ुशी में घर आकर ढोल बजाएँ।
सुबह-सवेरे छगन बा ने ड्रेस पहनी,
साफ़े पर तुर्रा लगाया / और ठाकुरजी के मन्दिर में
धोक देकर पहुँचे पंडिज्जी के घर।
गॉंव के नाने-टाबर और जवान लोग भी
हुजूम बनाके, हल्ला करते मस्तमगन
चले पीछे-पीछे...
कुछ कानाफूसियॉं कि "आज तो मज़ा आ जाएगा
कि छगन बा पंडिज्जी के घर-आँगने
ऐसा बजाएँगे ढोल कि राजा की
बन्दूकों की आवाज़ दुबक जाएगी...'
पंडिज्जी के ओटले पर धोक देकर
छगन बा ने शुरू किया अपना चमत्कार
कि कुँवरानियों से लेकर गॉंव की बूढ़ी ठकरानियों तक
नीम-बबूल से लेकर बूढ़े बरगद-पीपल तक
सब एक नशे में झूमने लगे।
नवजात शिशु ढोल सुनकर भरने लगा किलकारियॉं
और बहू-मॉं के थन से उमड़ी
दूध की धार-नदी के वेग से।
पास खड़े गृहस्थ सन्त बाप्पा और
उनकी मुँहबोली बेटी मनु जीजी के साथ
मैं, उनका पुत्र देवव्रत, महसूस करूँ इस बखत,
इस घड़ी, मेरा भी नया जन्म हो रहा...
लगी ऐसी झड़ी ढोल के बोल की, कि गद्गद
हो गये गॉंव के बामण-बनिए-कुम्हार
तेली-चमार, जात और पद के प्रपंचों से मुक्त
एक दूसरे के और पास, और पास आ गये।
श्रोताओं, यह घटना साठेक बरस पुरानी
कि जब ढोल के साथ एकमेक हो गये थे
छगन बा दमामी।
और ये क्या कि लोगों ने देखा अचरच से
कि वे धड़ाम से गिरे ओटले पर!
गले में टॅंगा ढोल लुढ़कता आया पगडंडी पर।
सब चुप और हैरान-
जैसे समूचे गॉंव को सूँघ लिया सॉंप ने।
तभी गरजे पंडिज्जी-""ये क्या तमाशा?
हुजूम इकट्ठा करके नाटक करता है
बेहोशी का। झटपट उठ और बजा ढोल
कि मुहूर्त निकला जा रहा कम्बख़्त!''
पंडिज्जी की गर्जना से मूर्च्छा टूटी छगन बा की
बोल सुने कठोर कटार-से, छाती छेदनेवाले
फटाफट ढोल को गले में टॉंग
वे मुड़े घर की ओर हुंकारते हुए-
""गुलाम नहीं हूँ तुम्हारा
कि छोरे के जनम पर ढोल बजाने आया
मैं बजाता हूँ अपनी मर्जी से
और ढोल बजता मेरी मर्जी से।
पूछ लो यकीन न हो तो-
अपने भाटे के भेरुजी से, घोड़ाकुंड की मस्तानी,
लहराती नदी से पूछ लो,
पूछ लो मन्दिर में बैठे ठाकुर जी से।
ढोल पेले मुझमें बजता है-मेरी रग-रग में
नाड़ी-नाड़ी में डोलता... और मजबूर कर देता मुझे
कि मैं उसे बजाऊँ। ... आज भी जब
मैं और ढोल बज रहे थे साथ-साथ और
पूरा गॉंव बज रहा था सीने में / और जब
ख़ुशी से नहाया मैं बेसुध गिर पड़ा ओटले पर
तो तुम कहते तमाशा!!''
""उठ और बजा ढोल ! हेकड़ी छोड़'',
गरजे पंडिज्जी।
""तो सुनो पंडिज्जी, बाबजी और गॉंव के सारे साबजी!
आज से नहीं बजाऊँगा ढोल-किसी के
जनम पर / किसी की मौत पर / किसी शादी-ब्याव में
तीज-तेवार पर नजर नी आवेगा छगन -
गले में ढोल बॉंधे।
पंडिज्जी, तुमने मुझे बिकाऊ ढोली और मेरे ढोल को
मरे चमड़े की खोल समझा, बस!
गुलाम नहीं मैं / और मेरा ढोल किसी के।
इसे आज, अभी टॉंगता हूँ खूँटी पे''
फिर गरजे छगन बा- ""मेरा कोई पूत,
पोता, आनेवाली पीढ़ियॉं हाथ नहीं लगावेगी इसको''
आज तो छगन बा तमतमाए हुए
साक्षात् भेरुजी लग रहे थे
पूरे गॉंव को।... और तब
एक जानखाऊ सन्नाटा पसर गया था सब तरफ़
छगन बा का प्रण सुन, टुकुर-टुकुर
ताक रहे थे लोग।
सिर झुकाये खड़े थे पंडिज्जी
रुक गयी थी नदी की धार
पहाड़ों ने सिर झुका लिये थे
पेड़ खड़े थे चुपचाप
साक्षी थी निस्तब्ध पृथ्वी और समूचा आकाश।
नवजात शिशु किलकारी भूल, रोने लगा था
और नद्दी की धार की ऱफ़्तार से उमगता
नयी मॉं के थन का धूध जम गया था औचक।
अन्धड़ और आँधियॉं थम गयी थीं
सूरज सिमट-सकुचाकर बरफ़ का गोला बन गया था।
श्रोताओं, यह एक दलित कलाकार की आत्मा
का रोष था / धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा तीर
कठोर प्रतिज्ञा का / छूट गया था,
कभी वापस न आने के लिए।
- एक युद्धरत महाभारत को स्तब्ध और
सुन्न करता हुआ... अदृश्य कृष्ण और
भीष्म और विदुर सहित कुन्ती और
पांचाली ने महसूस किया - प्रतिज्ञा हो तो ऐसी!
और उस दिन से छगन बा दमामी
रोटी कमाने सिर्फ़ ढोलक बजाते
कथा-सत्संग में। एकान्त में कभी
देखते खूँटी पर टॅंगे ढोल को
देखते पथराई आँखों... और ढोल देखता
बोलता उनसे बिना बजे।
(दोनों के हाहाकार इतिहास में दर्ज़
नहीं... बची यह आपके कवि की आँखों
देखी काव्यकथा कि किंवदन्तियॉं सच से
ज़्यादा विश्वसनीय होती हैं।)
श्रोताओं, छगन बा छोटे-से आदमी,
लेकिन सिर से पैर, दिल से दिमाग़ तक
सिर्फ़ कलाकार कौल के पक्के।
हेकड़बाज़, तीखे तेवर वाले, हॉं, वे
अपने पूर्वज हरिदास और कुम्भन के खरे वंशज!
आज तुम्हारी बहुत याद आयी छगन बा
बरसों बाद जब मेरे घर-आँगने
पोती जनमी / तुम्हारी ढोल पर बजती
पनिहारिन की धुन सुनी मैंने उसकी किलकारी में
और फिर दिखे तुम - अतीत की आँखों में
साफ़े पर तुर्रा लगाए -
पाखंडी पंडितों और
ध्वजाधारियों को धता बताते,
उनकी औक़ात जताते।
रेखांकन:सुमंत गोले,इन्दौर
कवि अपने स्वाभिमान,शर्तों और तासीर के साथ ही जीता है और ज़माने की परवाह किये बग़ैर अपनी सोच और समझ से ही रचनाकर्म करता है. देवव्रत जोशी के संदर्भ में यह बात एकदम खरी उतरती है.
छगन बा दमामी देवव्रत जोशी का काव्य संकलन है जिसकी शीर्षक रचना को आज कबाड़खाना पर जारी कर रहा हूँ.दमामी यानी ढोल और अन्य कई वाद्य बजाने वाली वह प्रजाति जिसका संगीत संस्कार न जाने कितने परिवारों में मंगल का अवगाहन करता है. ये कविता दर असल में रावटी में रहने वाले एक सच्चे पात्र छगन बा का कथा चित्र है.हिन्दी साहित्य में ऐसी लम्बी और कथानकपूर्ण रचनाएं कम हीं पढ़ने में आती हैं ..वर्ण व्यवस्था और छुद्रों की अपमानजन स्थितियों और एक इंसान और कलाकार के रूप में स्पंदित उनके मनोयोगों का दस्तावेज़ है यह कविता.
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqqLNZLm0NYHdps9XTz-ntCBSUcGavOPKubPk488j9kHfmmyM5q3ALto5mkJFuO79lL9vlvCa0uCXB94aC6onRL3ym9wev85-t6rojuij7z9lm3THYraPlQAehXrX4aO-bgEhqEPOej_Qf/s320/Dhol+with+Man.jpg)
छगन बा दमामी
ढोल पर अपनी मनपसन्द खाल का खोल चढ़ाकर
लाये छगन बा और गले में टॉंगकर
जायज़ा लेने लगे-धिंग-धिंग, ढनढनाट...
गूँज गयी गॉंव के गोयरे से लेकर
दिशाकाश तक
ढोल की आवाज़...
पास के रनिवास में गूँजी ढोल की ढमक
कि रानियों की आत्माएँ ख़ुश हो नाचने लगीं
कि फूल बनने लगीं चम्पे की कलियॉं ।
ठाकुरजी के मन्दिर की घंटी बजने लगी आपोआप
राजकुँवर और नानी-डोड़ियॉं और मनसबदार
ढोर-ढंगर-गाय-भैंस-सॉंप-बिच्छू
निकल आये बाहर।
आम का बौर और और महकने लगा
मतवाला होकर... कुएँ का पानी
कुएँ के गले तक भर आया।
छगन बा का नया ढोल
आज गॉंव के इस छोर से
उस छोर तक बज रहा...
यूँ कहें कि छगन बा का मर्दाना पौरुष ही
झनझना रहा लगातार।
दरअसल बात ये कि छगन बा ढोल पीटते नहीं,
बजाते थे तमीज़, प्यार और मनुहार के साथ।
तीज-तेवार-शादी-ब्याव में
दमामी छगन बा रुआबदार धोती-कुर्ते में सजे
सबके आगे चलते / कि बीमार, बुज़ुर्ग भी
इन्तज़ार करते कि कब मरें और छगन बा
अर्थी के आगे ज़िंदगी की तान उछारते
ढोल बजाते चलें आगे-आगे।
बड़े सुकून और स्वाभिमान और मस्तीभरे
दिन थे वे छगन बा के।
कि एक दिन पंडिज्जी के घर से न्यौता :
कि छगन दमामी आएँ और बच्चा पैदा होने की
ख़ुशी में घर आकर ढोल बजाएँ।
सुबह-सवेरे छगन बा ने ड्रेस पहनी,
साफ़े पर तुर्रा लगाया / और ठाकुरजी के मन्दिर में
धोक देकर पहुँचे पंडिज्जी के घर।
गॉंव के नाने-टाबर और जवान लोग भी
हुजूम बनाके, हल्ला करते मस्तमगन
चले पीछे-पीछे...
कुछ कानाफूसियॉं कि "आज तो मज़ा आ जाएगा
कि छगन बा पंडिज्जी के घर-आँगने
ऐसा बजाएँगे ढोल कि राजा की
बन्दूकों की आवाज़ दुबक जाएगी...'
पंडिज्जी के ओटले पर धोक देकर
छगन बा ने शुरू किया अपना चमत्कार
कि कुँवरानियों से लेकर गॉंव की बूढ़ी ठकरानियों तक
नीम-बबूल से लेकर बूढ़े बरगद-पीपल तक
सब एक नशे में झूमने लगे।
नवजात शिशु ढोल सुनकर भरने लगा किलकारियॉं
और बहू-मॉं के थन से उमड़ी
दूध की धार-नदी के वेग से।
पास खड़े गृहस्थ सन्त बाप्पा और
उनकी मुँहबोली बेटी मनु जीजी के साथ
मैं, उनका पुत्र देवव्रत, महसूस करूँ इस बखत,
इस घड़ी, मेरा भी नया जन्म हो रहा...
लगी ऐसी झड़ी ढोल के बोल की, कि गद्गद
हो गये गॉंव के बामण-बनिए-कुम्हार
तेली-चमार, जात और पद के प्रपंचों से मुक्त
एक दूसरे के और पास, और पास आ गये।
श्रोताओं, यह घटना साठेक बरस पुरानी
कि जब ढोल के साथ एकमेक हो गये थे
छगन बा दमामी।
और ये क्या कि लोगों ने देखा अचरच से
कि वे धड़ाम से गिरे ओटले पर!
गले में टॅंगा ढोल लुढ़कता आया पगडंडी पर।
सब चुप और हैरान-
जैसे समूचे गॉंव को सूँघ लिया सॉंप ने।
तभी गरजे पंडिज्जी-""ये क्या तमाशा?
हुजूम इकट्ठा करके नाटक करता है
बेहोशी का। झटपट उठ और बजा ढोल
कि मुहूर्त निकला जा रहा कम्बख़्त!''
पंडिज्जी की गर्जना से मूर्च्छा टूटी छगन बा की
बोल सुने कठोर कटार-से, छाती छेदनेवाले
फटाफट ढोल को गले में टॉंग
वे मुड़े घर की ओर हुंकारते हुए-
""गुलाम नहीं हूँ तुम्हारा
कि छोरे के जनम पर ढोल बजाने आया
मैं बजाता हूँ अपनी मर्जी से
और ढोल बजता मेरी मर्जी से।
पूछ लो यकीन न हो तो-
अपने भाटे के भेरुजी से, घोड़ाकुंड की मस्तानी,
लहराती नदी से पूछ लो,
पूछ लो मन्दिर में बैठे ठाकुर जी से।
ढोल पेले मुझमें बजता है-मेरी रग-रग में
नाड़ी-नाड़ी में डोलता... और मजबूर कर देता मुझे
कि मैं उसे बजाऊँ। ... आज भी जब
मैं और ढोल बज रहे थे साथ-साथ और
पूरा गॉंव बज रहा था सीने में / और जब
ख़ुशी से नहाया मैं बेसुध गिर पड़ा ओटले पर
तो तुम कहते तमाशा!!''
""उठ और बजा ढोल ! हेकड़ी छोड़'',
गरजे पंडिज्जी।
""तो सुनो पंडिज्जी, बाबजी और गॉंव के सारे साबजी!
आज से नहीं बजाऊँगा ढोल-किसी के
जनम पर / किसी की मौत पर / किसी शादी-ब्याव में
तीज-तेवार पर नजर नी आवेगा छगन -
गले में ढोल बॉंधे।
पंडिज्जी, तुमने मुझे बिकाऊ ढोली और मेरे ढोल को
मरे चमड़े की खोल समझा, बस!
गुलाम नहीं मैं / और मेरा ढोल किसी के।
इसे आज, अभी टॉंगता हूँ खूँटी पे''
फिर गरजे छगन बा- ""मेरा कोई पूत,
पोता, आनेवाली पीढ़ियॉं हाथ नहीं लगावेगी इसको''
आज तो छगन बा तमतमाए हुए
साक्षात् भेरुजी लग रहे थे
पूरे गॉंव को।... और तब
एक जानखाऊ सन्नाटा पसर गया था सब तरफ़
छगन बा का प्रण सुन, टुकुर-टुकुर
ताक रहे थे लोग।
सिर झुकाये खड़े थे पंडिज्जी
रुक गयी थी नदी की धार
पहाड़ों ने सिर झुका लिये थे
पेड़ खड़े थे चुपचाप
साक्षी थी निस्तब्ध पृथ्वी और समूचा आकाश।
नवजात शिशु किलकारी भूल, रोने लगा था
और नद्दी की धार की ऱफ़्तार से उमगता
नयी मॉं के थन का धूध जम गया था औचक।
अन्धड़ और आँधियॉं थम गयी थीं
सूरज सिमट-सकुचाकर बरफ़ का गोला बन गया था।
श्रोताओं, यह एक दलित कलाकार की आत्मा
का रोष था / धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा तीर
कठोर प्रतिज्ञा का / छूट गया था,
कभी वापस न आने के लिए।
- एक युद्धरत महाभारत को स्तब्ध और
सुन्न करता हुआ... अदृश्य कृष्ण और
भीष्म और विदुर सहित कुन्ती और
पांचाली ने महसूस किया - प्रतिज्ञा हो तो ऐसी!
और उस दिन से छगन बा दमामी
रोटी कमाने सिर्फ़ ढोलक बजाते
कथा-सत्संग में। एकान्त में कभी
देखते खूँटी पर टॅंगे ढोल को
देखते पथराई आँखों... और ढोल देखता
बोलता उनसे बिना बजे।
(दोनों के हाहाकार इतिहास में दर्ज़
नहीं... बची यह आपके कवि की आँखों
देखी काव्यकथा कि किंवदन्तियॉं सच से
ज़्यादा विश्वसनीय होती हैं।)
श्रोताओं, छगन बा छोटे-से आदमी,
लेकिन सिर से पैर, दिल से दिमाग़ तक
सिर्फ़ कलाकार कौल के पक्के।
हेकड़बाज़, तीखे तेवर वाले, हॉं, वे
अपने पूर्वज हरिदास और कुम्भन के खरे वंशज!
आज तुम्हारी बहुत याद आयी छगन बा
बरसों बाद जब मेरे घर-आँगने
पोती जनमी / तुम्हारी ढोल पर बजती
पनिहारिन की धुन सुनी मैंने उसकी किलकारी में
और फिर दिखे तुम - अतीत की आँखों में
साफ़े पर तुर्रा लगाए -
पाखंडी पंडितों और
ध्वजाधारियों को धता बताते,
उनकी औक़ात जताते।
रेखांकन:सुमंत गोले,इन्दौर
म्हारे पायल रो झणकार रे: रेगिस्तानी संगीत का भरा दौंगरा
मेरा शहर बारिश की अति का शिकार है दो एक महीने से.
सब कुछ काई-काई.
आत्मा तक फफूंद.
थार मरुस्थल के जलते रेगिस्तान के लांगाओं और मंगणियारों के इलाक़ों से सुनिए दो बारिशें.
दो बारिशें जो किसी किसी की क़िस्मत पे मेहरबान होती हैं बस.
अपने को ख़ुशक़िस्मत जानिये कि हम तब पैदा हुए हैं जब इस पाये का संगीत यूं शेयर किया जा सकता है.
(आवे हिचकी)
(निम्बुड़ा निम्बुड़ा)
सब कुछ काई-काई.
आत्मा तक फफूंद.
थार मरुस्थल के जलते रेगिस्तान के लांगाओं और मंगणियारों के इलाक़ों से सुनिए दो बारिशें.
दो बारिशें जो किसी किसी की क़िस्मत पे मेहरबान होती हैं बस.
अपने को ख़ुशक़िस्मत जानिये कि हम तब पैदा हुए हैं जब इस पाये का संगीत यूं शेयर किया जा सकता है.
(आवे हिचकी)
(निम्बुड़ा निम्बुड़ा)
राग किरवानी में सुरीली झनकार ...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifbfKwqeRojVWy442MCPDHEDk_ZRcfBEtj-zuIec0mnHqAV9_Ev-BiblCSzZgc38HpMfbWspJNN1d5-oCpgcFk56P0kb22lqBitKDE_EtX9BLiJ0xdBFl6o8u9oDzKsptwvLaCwQ8KRqcE/s400/radhika.jpg)
साथियो, कबाड़खाने में आज मिलिए नादब्रह्म की साधना करनेवाली एक ऐसी शख्सियत से जिसने कम उम्र में संगीत के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। देश की प्रथम व एकमात्र महिला विचित्रवीणा वादिका होने का गौरव प्राप्त राधिका का जिक्र यहां हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने भी ब्लागजगत में दाखिला लिया है अपने ब्लाग वाणी के जरिये । यहां राधिका का संगीत भी हम सुनवाएंगे। ग्वालियर संगीत घराने की राधिका ने सुरों की दुनिया से अपना रिश्ता विचित्रवीणा नाम के एक ऐसे वाद्ययंत्र से जोड़ा है जो सितार,सरोद, बांसुरी , वायलिन जैसे लोकप्रिय वाद्यों की तुलना में कम जाना-पहचाना है। विचित्रवीणा एक अत्यन्त कठिन वाद्य हैं । खासतौर पर महिलाओं के लिए इस विशिष्ट मगर प्राचीन वाद्य को चुनना विरल सी बात है। पहले सुनते हैं राधिका की विचित्र वीणा जिस पर उन्होंने बजाया है राग किरवानी ।
राधिका के बारे में विस्तार से यहां देखें।
Sunday, August 10, 2008
गार्सिया लोर्का का गिटार
फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का बीसवीं सदी के महानतम स्पानी कवि और नाटककार थे. ५ जून १८९९ को स्पेन के ग्रानादा शहर के पास एक छोटे क़स्बे में जन्मे लोर्का की पहली किताब बीस साल की आयु में छप कर आई थी. उसी साल वे राजधानी माद्रीद चले गए - अपनी पढ़ाई बीच में त्याग कर उन्होंने सारा समय अपनी कला को देना तय किया. वे नाटक करते थे, अपनी कविताओं का सार्वजनिक पाठ करते थे और स्पानी लोकगीतों का संग्रह भी. आन्दालूसिया की जीवन्त फ़्लामेंको और जिप्सी संस्कृति से गहरे प्रभावित रहे लोर्का ने 'जेनेरेशन ऑफ़ 1927' नामक एक समूह में शामिल होना स्वीकार किया जिसके अन्य कलाकार सदस्यों में साल्वादोर दाली और मशहूर फ़िल्मकार लुई बुनेल भी थे. इन्हीं की संगत में लोर्का सर्रियलिज़्म से रूबरू हुए. अगले साल छपी उनकी किताब 'र्रोमान्सेरो गीतानो' (बंजारों के गीत) ने उन्हें देश का सबसे चर्चित और प्रिय कवि बना दिया. उनके संक्षिप्त जीवन में इस किताब के सात संस्करण छपे.
इसके उपरान्त उनके तमाम नाटक और कविताएं धीरे-धीरे समूचे स्पेन और यूरोप में फैलना शुरू हुए. स्पानी गृहयुद्ध के दौरान वे अपने गांव में रहने लगे थे. फ़्रांको के सिपाहियों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और कुछ दिन जेल में रखने के बाद १७-१८ अगस्त को लोर्का को अपने बहनोई मानुएल फ़रनान्देज़ मोन्तेसीनोस से "मुलाकात" करने ले जाया गया. यह अलग बात थी कि ग्रानादा के पूर्व सोशलिस्ट मेयर रहे लोर्का के बहनोई का कुछ ही दिन पूर्व बेरहमी से क़त्ल कर देने के बाद उनके शव को ग्रानादा की सड़कों पर घसीटा जा चुका था.
कब्रिस्तान के पास लोर्का से गाड़ी से उतरने को कहा गया और सिपाहियों ने बन्दूकों की बटों से मार कर उन्हें नीचे गिरा दिया. इसके बाद उनके शरीर को गोलियों से भून दिया गया. उसकी सारी किताबें ग्रानादा के सार्वजनिक चौक पर जला दी गईं और फ़्रांको के स्पेन में उसकी किताबें पढ़ने या अपने पास रखने पर बैन लगा दिया गया.
आज भी कोई नहीं जानता इस महान कवि की देह कहां दफ़्न है.
लोर्का ने आधुनिक यूरोपीय कविता को अपने सुरीले गीतों से रंगा और आज भी उनके गीत बहुत बहुत लोकप्रिय हैं.
गिटार
शुरू होता है
गिटार का रुदन.
चकनाचूर हैं
भोर के प्याले.
शुरू होता है
गिटार का रुदन.
व्यर्थ है
उसे चुप कराना.
असंभव
उसे चुप कराना.
वह रोता जाता है
बोझिल
- पानी रोता है
- और बर्फ़ के खेतों पर
रोती जाती है हवा.
असंभव
उसे चुप कराना.
वह रोता है
सुदूर चीज़ों के वास्ते.
गर्म दक्षिणी रेत मरा करती है
कैमेलिया के सफ़ेद फूलों की चाह में.
तीर रोता है अपने लक्ष्य के लिए
शाम भोर के लिए
और टहनी पर
वह पहली मृत चिड़िया.
ओ गिटार!
ओ पांच तलवारों से
जानलेवा बींधे हुए हृदय!
(फ़िलिस्तीनी महाकवि महमूद दरवेश की स्मृति को समर्पित है यह पोस्ट, जिनकी कल मृत्यु हो गई. गीत चतुर्वेदी ने आज ही इस बाबत कबाड़ख़ाने में लिखा है)
इसके उपरान्त उनके तमाम नाटक और कविताएं धीरे-धीरे समूचे स्पेन और यूरोप में फैलना शुरू हुए. स्पानी गृहयुद्ध के दौरान वे अपने गांव में रहने लगे थे. फ़्रांको के सिपाहियों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और कुछ दिन जेल में रखने के बाद १७-१८ अगस्त को लोर्का को अपने बहनोई मानुएल फ़रनान्देज़ मोन्तेसीनोस से "मुलाकात" करने ले जाया गया. यह अलग बात थी कि ग्रानादा के पूर्व सोशलिस्ट मेयर रहे लोर्का के बहनोई का कुछ ही दिन पूर्व बेरहमी से क़त्ल कर देने के बाद उनके शव को ग्रानादा की सड़कों पर घसीटा जा चुका था.
कब्रिस्तान के पास लोर्का से गाड़ी से उतरने को कहा गया और सिपाहियों ने बन्दूकों की बटों से मार कर उन्हें नीचे गिरा दिया. इसके बाद उनके शरीर को गोलियों से भून दिया गया. उसकी सारी किताबें ग्रानादा के सार्वजनिक चौक पर जला दी गईं और फ़्रांको के स्पेन में उसकी किताबें पढ़ने या अपने पास रखने पर बैन लगा दिया गया.
आज भी कोई नहीं जानता इस महान कवि की देह कहां दफ़्न है.
लोर्का ने आधुनिक यूरोपीय कविता को अपने सुरीले गीतों से रंगा और आज भी उनके गीत बहुत बहुत लोकप्रिय हैं.
गिटार
शुरू होता है
गिटार का रुदन.
चकनाचूर हैं
भोर के प्याले.
शुरू होता है
गिटार का रुदन.
व्यर्थ है
उसे चुप कराना.
असंभव
उसे चुप कराना.
वह रोता जाता है
बोझिल
- पानी रोता है
- और बर्फ़ के खेतों पर
रोती जाती है हवा.
असंभव
उसे चुप कराना.
वह रोता है
सुदूर चीज़ों के वास्ते.
गर्म दक्षिणी रेत मरा करती है
कैमेलिया के सफ़ेद फूलों की चाह में.
तीर रोता है अपने लक्ष्य के लिए
शाम भोर के लिए
और टहनी पर
वह पहली मृत चिड़िया.
ओ गिटार!
ओ पांच तलवारों से
जानलेवा बींधे हुए हृदय!
(फ़िलिस्तीनी महाकवि महमूद दरवेश की स्मृति को समर्पित है यह पोस्ट, जिनकी कल मृत्यु हो गई. गीत चतुर्वेदी ने आज ही इस बाबत कबाड़ख़ाने में लिखा है)
न रहना महमूद दरवेश का
फ़लीस्तीन के कवि महमूद दरवेश का कल निधन हो गया. वह 67 साल के थे. उनकी कविता फ़लीस्तीनी सपनों की आवाज़ है. वह पहले संग्रह 'बिना डैनों की चिडि़या' से ही काफ़ी लोकप्रिय हो गए थे. 1988 में यासिर अराफ़ात ने जो ऐतिहासिक 'आज़ादी का घोषणापत्र' पढ़ा था, वह भी दरवेश का ही लिखा हुआ था. उन्हें याद करते हुए कुछ कविताएं यहां दी जा रही हैं. इनका अनुवाद अनिल जनविजय ने किया है.
एक आदमी के बारे में
उन्होंने उसके मुँह पर जंज़ीरें कस दीं
मौत की चट्टान से बांध दिया उसे
और कहा- तुम हत्यारे हो
उन्होंने उससे भोजन, कपड़े और अण्डे छीन लिए
फेंक दिया उसे मृत्यु-कक्ष में
और कहा- चोर हो तुम
उसे हर जगह से भगाया उन्होंने
प्यारी छोटी लड़की को छीन लिया
और कहा- शरणार्थी हो तुम, शरणार्थी
अपनी जलती आँखों
और रक्तिम हाथों को बताओ
रात जाएगी
कोई क़ैद, कोई जंज़ीर नहीं रहेगी
नीरो मर गया था रोम नहीं
वह लड़ा था अपनी आँखों से
एक सूखी हुई गेहूँ की बाली के बीज़
भर देंगे खेतों को
करोड़ों-करोड़ हरी बालियों से
गुस्सा
काले हो गए
मेरे दिल के गुलाब
मेरे होठों से निकलीं
ज्वालाएँ वेगवती
क्या जंगल,क्या नर्क
क्या तुम आए हो
तुम सब भूखे शैतान!
हाथ मिलाए थे मैंने
भूख और निर्वासन से
मेरे हाथ क्रोधित हैं
क्रोधित है मेरा चेहरा
मेरी रगों में बहते ख़ून में गुस्सा है
मुझे कसम है अपने दुख की
मुझ से मत चाहो मरमराते गीत
फूल भी जंगली हो गए हैं
इस पराजित जंगल में
मुझे कहने हैं अपने थके हुए शब्द
मेरे पुराने घावों को आराम चाहिए
यही मेरी पीड़ा है
एक अंधा प्रहार रेत पर
और दूसरा बादलों पर
यही बहुत है कि अब मैं क्रोधित हूँ
लेकिन कल आएगी क्रान्ति
आशा
बहुत थोड़ा-सा शहद बाक़ी है
तुम्हारी तश्तरी में
मक्खियों को दूर रखो
और शहद को बचाओ
तुम्हारे घर में अब भी है एक दरवाज़ा
और एक चटाई
दरवाज़ा बन्द कर दो
अपने बच्चों से दूर रखो
ठंडी हवा
यह हवा बेहद ठंडी है
पर बच्चों का सोना ज़रूरी है
तुम्हारे पास शेष है अब भी
आग जलाने के लिए
कुछ लकड़ी
कहवा
और लपटॊं का एक गट्ठर
जाँच-पड़ताल
लिखो-
मैं एक अरब हूँ
कार्ड नम्बर- पचास हज़ार
आठ बच्चों का बाप हूँ
नौवाँ अगली गर्मियों में आएगा
क्या तुम नाराज़ हो?
लिखो-
एक अरब हूँ मैं
पत्थर तोड़ता है
अपने साथी मज़दूरों के साथ
हाँ, मैं तोड़ता हूँ पत्थर
अपने बच्चों को देने के लिए
एक टुकड़ा रोटी
और एक क़िताब
अपने आठ बच्चों के लिए
मैं तुमसे भीख नहीं मांगता
घिघियाता-रिरियाता नहीं तुम्हारे सामने
तुम नाराज़ हो क्या?
लिखो-
अरब हूँ मैं एक
उपाधि-रहित एक नाम
इस उन्मत्त विश्व में अटल हूँ
मेरी जड़ें गहरी हैं
युगों के पार
समय के पार तक
मैं धरती का पुत्र हूँ
विनीत किसानों में से एक
सरकंडे और मिट्टी के बने
झोंपड़े में रहते हूँ
बाल- काले हैं
आँखे- भूरी
मेरी अरबी पगड़ी
जिसमें हाथ डालकर खुजलाता हूँ
पसन्द करता हूँ
सिर पर लगाना चूल्लू भर तेल
इन सब बातों के ऊपर
कृपा करके यह भी लिखो-
मैं किसी से घृणा नहीं करता
लूटता नहीं किसी को
लेकिन जब भूखा होता हूँ मैं
खाना चाहता हूँ गोश्त अपने लुटेरों का
सावधान
सावधान मेरी भूख से
सावधान
मेरे क्रोध से सावधान
Friday, August 8, 2008
अवधू मेरा मन मतवारा
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVXb0OOFjL4ZhD8hAE_g0tY-c5cFADhgUZcyJJrlcT-yGyVVN4XzEsiNnBzysApYNMerH5taBM9hxVX1yw8y_NjTX9TzEubas1CmDavJsfOEugD_ploAzJfSV8fI3QMb9DtcfX3uK4_zUL/s320/kabeer.bmp)
हम लोग बचपन से ही कबीर की कवितायें पढ़ते-सुनते आ रहे हैं। मेरे खयाल में छोटी कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय स्तर की कोई ऐसी हिन्दी पाठ्यपुस्तक नहीं होगी ,जहां कबीर मौजूद न हों. हमारे सामने कबीर के कई रूप हैं- संत कबीर का रूप, कवि कबीर का रूप, कबीर साहब का रूप, हिन्दू-मुसलमान दोनो को उनकी कमियों और कमजोरियों को बताने ,बरजने और सुधर जाने की चेतावनी देने वाले बुजुर्ग का रूप, रहस्यवादी और हठयोगी कबीर का रूप आदि-इत्यादि. साथ ही कबीर का एक ऐसा रूप भी है जो भारतीय संगीत की लोकोन्मुखी धारा से जुड़ा है.'बीजक' की अधिकांश रचनायें रागों पर आधारित हैं. कमाल है 'मसि कागद' न छू सकने वाले एक 'इश्क मस्ताना' की कारीगरी!
संगीत के साधकों के लिये कबीर के क्या मायने हैं , यह तो उन्हीं से पूछिये- शायद कहें कि एक निकष ,एक चुनौती ! और सुनने वालों के लिये तो आनंद-आर्णव में अवगाहन ! आज सुनते हैं कबीर के शब्द और हमारे समय की सबसे सुमधुर आवाजों की जादूगरनी शुभा मुदगल के स्वर का एक संगम- 'अवधू मेरा मन मतवारा'
Thursday, August 7, 2008
फिक्शन के सबसे क़रीब हैं वीडियो गेम्स
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgyfS8l1VVee-yimIJ6HnvyUucbQ786vXXnBzpwjRXtelZ9RzpeKIqqYiR_SVI0TvH5IQPqGErNSWiNB6BNbYuHcaHw9GtUtA_7Am8Q3wzXPPSCMxePQ0gxF8gLlBpurHP0mavcE2OEng/s400/murakami5+copy.jpg)
हारुकि मुराकामी से बातचीत
जापानी उपन्यासकार हारुकि मुराकामी दुनिया के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखकों में से हैं। उनकी पिछली किताब `काफ्का ऑन द शोर´ ने बिक्री के उनके ही रिकॉर्ड तोड़े। 1949 में जन्मे मुराकामी 29 की उम्र तक अपना क्लब चलाते थे, जैज़ बजाते थे और सैंडविच बांधा करते थे। क्लब बेच दिया और एक दिन झटके से लेखक बन गए। उनकी लोकप्रियता इतनी है कि टोक्यो के हर घर में उनकी कोई न कोई किताब मिल जाएगी। उन्हें नए समय का ग्राहम ग्रीन कहा जाता है और नोबेल का दावेदार माना जाता है। और ऐसे भी आलोचकों की कमी नहीं, जो उन्हें `साहित्यिक लेखक´ बिल्कुल नहीं मानते। जॉन रे द्वारा किया गया उनका यह इंटरव्यू दो साल पहले `द पेरिस रिव्यू´ में छपा था। इन अंशों में आप उनके लेखक बनने की झलक पा सकते हैं।
लेखन की शुरुआत आपने कब की?
29 साल की उम्र में। बिल्कुल किसी अचंभे की तरह। लेकिन बहुत जल्दी मैंने अपनी क़लम के साथ तालमेल बिठा लिया था। मैंने एक आधी रात को किचन के प्लेटफार्म पर लिखने की शुरुआत की थी। मुझे पहली किताब पूरा करने में दस महीने का वक़्त लगा था। मैंने उसे एक प्रकाशक के पास भेजा और उस पर मुझे कोई पुरस्कार भी मिल गया। तो वह किसी सपने की तरह था, जो सच हो रहा था और मैं हैरत में उसे ताक रहा था। एक पल के बाद ही मैंने मान लिया कि हां यार, मैं तो लेखक बन गया हूं। बहुत आसानी से हो गया सब कुछ।
आपकी पत्नी की क्या प्रतिक्रिया थी आपके लेखक बनने पर?
उसने कुछ नहीं कहा था। जब मैंने उससे कहा, `अब मैं लेखक बन गया हूं´, वह अचंभे में पड़ गई और एक तरह से चकरा गई। चकरा इसलिए गई कि लेखक बनना हज़ार तरह के संघर्षों को न्यौता देना होता है।
आपके आदर्श कौन थे? किन जापानी लेखकों ने आप पर प्रभाव डाला?
जब मैं छोटा था, तो ज़्यादा जापानी साहित्य नहीं पढ़ता था। बड़ा होने पर भी नहीं पढ़ा। दरअसल, मैं जापानी संस्कृति से दूर भागना चाहता था। वह बहुत बोरिंग है। बहुत घुटन भरी।
पर आपके पिता तो जापानी साहित्य के टीचर थे?
हां, इसीलिए मैं दूर भागता था। शायद पिता-पुत्र का संबंध ही ऐसा होता है। मैं बहुत जल्दी पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ा। जैज़ म्यूजिक सुनने लगा, दोस्तोयेवस्की, काफ्का, रेमंड शैंडलर पढ़ने लगा। ये सब मिलकर मेरी दुनिया बनाते थे, मेरा अपना आश्चर्यलोक। मैं जब चाहता था, अपने मन के भीतर सेंट पीटर्सबर्ग या वेस्ट हॉलीवुड चला जाता था। उपन्यास की ताक़त यही होती है : वह पाठक को अपने साथ ले चला जाता है। अब तो कोई भी कहीं जा सकता है, पर 1960 के दशक में ऐसा नहीं था। सो, कई जगहों पर अपनी कल्पनाओं के ज़रिए ही जाया जा सकता था, या उपन्यासों के ज़रिए। मैं उस जगह का संगीत सुनता था, और वहां मौजूद हो जाता था। ये एक कि़स्म की मन:स्थिति होती है, किसी स्वप्न की तरह।
और इसी ने आपको लेखन के लिए बेबस किया?
29 की उम्र में अचानक एक दिन मुझे लगा कि कुछ लिखना चाहिए। मैं यूं ही एक उपन्यास लिखने बैठ गया। क्या लिख रहा हूं, नहीं पता था। मैंने जापानी साहित्य का कोई शब्द पढ़ा ही नहीं था, इसलिए वह जापानी शैली में नहीं लिख पाया। चूंकि पश्चिमी साहित्य पढ़ा था, इसलिए शैली पश्चिमी हो गई, पर भाषा जापानी रही। इससे एक फ़ायदा यह हुआ कि पहली ही किताब से मेरी एक मौलिक स्टाइल बन गई।
आप अपनी किताबों का विश्लेषण नहीं करते, या नहीं होने देते? जैसे सपने का विश्लेषण करें, तो वे अपना असर खो देते हैं, कहीं वैसी ही बात तो नहीं?
जब आप कोई किताब लिख रहे होते हैं, तो दरअसल, आप जागते हुए सपना देख रहे होते हैं। असली सपने को तो आप कभी कंट्रोल नहीं कर सकते। किताब लिखते समय आप जाग रहे होते हैं, आप समय चुन सकते हैं, उसकी लंबाई चुन सकते हैं और सब कुछ चुन सकते हैं। मैं सुबह चार से पांच घंटे तक लिख सकता हूं और जब समय आता है, मैं रुक सकता हूं। रुकने के बाद अगली सुबह मैं फिर उसी जगह से शुरू कर सकता हूं। अगर यह असली सपना होता, तो ऐसा कभी नहीं हो पाता।
अपने किरदारों के बारे में बताइए, वे असल के कितना क़रीब हैं? क्या आपके नैरेटिव से अलग भी उनका महत्व है?
जब मैं अपने किरदार बुन रहा होता हूं, तो दरअसल अपने आसपास के लोगों को बहुत क़रीने से ऑब्ज़र्व कर रहा होता हूं। मुझे बहुत ज़्यादा बोलना पसंद नहीं। मैं दूसरों की कहानियां सुनता हूं। मैं यह तय करने की कोशिश नहीं करता कि वे किस कि़स्म के लोग हैं, सिर्फ़ ये जानने की कोशिश करता हूं कि वे क्या महसूस करते हैं, कैसे जीते हैं। मैं कोई चीज़ इससे ले लेता हूं, तो कोई चीज़ उससे। एक ही किरदार में मैं एक पुरुष और एक स्त्री के गुण डाल देता हूं। मुझे नहीं पता, यह यथार्थवादी तरीक़ा है या कल्पनावादी, लेकिन इतना जानता हूं कि मेरे किरदार असली लोगों से ज़्यादा असली हैं। साल के जिन छह-सात महीनों में मैं लिख रहा होता हूं, दरअसल, उस समय वे सारे लोग मेरे भीतर रह रहे होते हैं। वह एक पूरा ब्रह्मांड होता है।
आपके यहां वर्णन भी बहुत है?
आजकल तो वर्णन बहुत ज़रूरी हो गया है लेखन के लिए। मैं कभी सिद्धांतों की फि़क्र नहीं करता। मैं शब्दों के कम-ज़्यादा होने की भी चिंता नहीं करता। ज़रूरी यह है कि जो आप नैरेट कर रहे हैं, वह अच्छा है या ख़राब। इंटरनेट की दुनिया के कारण हमारे पास अब नई लोककथाएं बन रही हैं। हमें अब उन सब बातों को भी अपने लेखन में समोना है, सो हमें अपेक्षाकृत विस्तार में जाना ही पड़ेगा।
जब आपकी तुलना काफ्का या मारकेस से की जाती है, तो आप कहते हैं, वे साहित्यिक लेखक हैं। आप ख़ुद को साहित्यिक लेखक नहीं मानते?
मानता हूं, पर मैं समकालीन साहित्य का लेखक हूं। `क्लासिकल सेंस´ का नहीं। समकालीन साहित्य पहले से बहुत अलग है। जिस समय काफ्का लिख रहे थे, उस समय सिर्फ़ संगीत, किताबें और थिएटर हुआ करता था। अब इंटरनेट, फिल्में, रेंटल वीडियोज़ और बहुत कुछ हैं। बहुत ज़्यादा प्रतिस्पर्धा है। सबसे बड़ी समस्या तो समय की है। 19वीं सदी के आरामतलब तबक़े को देखिए, उसके पास कितना समय होता था, कितनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता था वह। चार-चार घंटे ऑपेरा में बैठा रहता था। पर अब समय पूरी तरह बदल गया है। अब दरअसल, कोई आरामतलब तबक़ा ही नहीं बचा। मॉबी-डिक या दोस्तोएवस्की पढ़ना अच्छा लगता है, लेकिन अब किसके पास इतना समय है। इसी रोशनी में देखिए, फिक्शन कितना बदल गया है। आपको शुरू से ही पाठक को गला पकड़कर अपनी रचना में खींचकर लाना होता है। समकालीन साहित्य के कथाकार, देखिए, कितनी अलग-अलग तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं, जैज़, म्यूजिक, फिल्मों, वीडियो गेम्स तक से अपने लिए तकनीकें ला रहे हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज के समय में वीडियो गेम्स फिक्शन के जितना क़रीब हैं, उतना कुछ और नहीं।
इतना छुप-छुपकर क्यों रहते हैं आप?
मैं अकेला रहने वाला जीव हूं। जब लेखक बन गया, और चल निकला, तो लोग पहचानने लगे। इसीलिए कभी न्यूयॉर्क रहता हूं, तो कभी लंदन। और अब यहां छोटे से क़स्बे क्योतो में रहता हूं। यहां गुमनाम रह सकता हूं। कोई पहचानता नहीं। कहीं भी जा सकता हूं। ट्रेन में सफ़र कर लूं, तो भी किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता। सबको पता है कि टोक्यो में मेरा घर है। उन्हें लगता है कि मैं वहां रहता हूं। सो, अब भी वहां लोगों की भीड़ लगी रहती है, जिन्हें निराशा ही मिलती होगी। वहां मैं सड़क पर निकल जाऊं, तो भीड़ लग जाती है। मैं उससे घबराता हूं।
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