एक "विनम्र कवि" की वापसी -3
* तो आप दोबारा इज़राइल के हाथों में खेल रहे हैं जिसे इस स्थिति से भरपूर फ़ायदा मिल रहा है.
"पूरे समय इज़राइल यह दावा करता रहा कि बात करने वाला कोई है ही नहीं, तब भी जब बात करने वाले मौजूद थे. अब वे कहते हैं कि महमूद अब्बास से बात करना सम्भव नहीं जबकि अब्बास तब भी था जब हमास ने चुनाव नहीं जीता था. अब्बास क्या कर सकता है अगर एक भी चौकी हटाई नहीं गई है? यही इज़राइली नीति है जो फ़िलिस्तीनी अतिवाद और हिंसा को ऊर्जा देती है. शान्ति के बदले इज़राइल कुछ नहीं देना चाहता. वे १९६७ की सीमाओं से हटने को तैयार नहीं हैं, वे लौटने के अधिकार या रिहाइशी इलाक़ों को ख़ाली कराए जाने के बारे में बात करने को तैयार नहीं हैं, येरूशलम के बारे में तो क़तई नहीं - तो बात करने ओ बचता ही क्या है? हम एक डैडलॉक की स्थिति में हैं. जब तक इज़राइल इतिहास और गाथा में फ़र्क़ स्वीकार करने पर सहमत नहीं होता, मुझे इस अन्धेरी सुरंग का अन्त नज़र नहीं आता.
"आज अरब राष्ट्र इज़राइल को मान्यता देने को तैयार हैं और इज़राइल से भीख मांग रहे हैं कि उसने अरब शान्ति प्रयासों को स्वीकार कर लेना चाहिए, जिसके तहत इज़राइल को सम्पूर्ण तरीक़े से मान्यता देने और सम्बन्धों के पूर्ण सामान्यीकरण के साथ साथ १९६७ की सीमाओं पर वापस जाने और बदले में एक फ़िलिस्तीनी राष्ट्र की स्थापना की बात की गई है. हम हमेशा कहा जाता रहा है कि फ़िलिस्तीन किसी भी मौक़े का फ़ायदा उठाने का मौक़ा नहीं चूकता. तो इज़राइल अरब संसार के नकारवाद की नकल क्यों कर रहा है?'
* क्या आप समझते हैं कि आप अपने जीवन में दोनों देशों के बीच किसी तरह का समझौता देख सकेंगे?
"मैं उदास नहीं होता. मैं धैर्यवान हूं और इज़रालियों की चेतना में एक सघन क्रान्ति का इन्तज़ार कर रहा हूं. अरब संसार नाभिकीय हथियारों से मज़बूत एक इज़राल को स्वीकार करने पर सहमत है - उसे केवल इतना करना है कि अपने क़िले के दरवाज़े खोल दे और शान्ति क़ायम करे. पैग़म्बरों और रैचेल के मक़बरे के बारे में बात की जानी बन्द होना चाहिये. यह इक्कीसवीं सदी है - आप देखिये कि दुनिया में क्या हो रहा है. सब कुछ बदल चुका है, सिवाय इज़राइली स्थित से जो, जैसा मैंने कहा इतिहास को गाथा से जोड़ दिया करती है.
* धरती और मृत्यु के बीच सम्बन्ध को दोनों पक्षों द्वारा तक़रीबन स्वीकार कर लिया गया है.
" मैंने कहा था कि इज़राइल के राजनैतिज्ञों से एक सांस्कृतिक क्रान्ति की आवश्यकता है ताकि इस बात को समझा जा सके कि इज़राइल की युवा पीढ़ी को अगले युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा जाना असम्भव है. वैश्वीकरण युवा पीढ़ी को प्रभावित कर रहा है; वे यात्राएं करना चाहते हैं और सेना से अलग एक जीवन का निर्माण करना चाहते हैं. आप मुझसे यह उम्मीद नहीं करते कि मैं दोनों पक्षों के इस अतर्द्वंद्व की हताशा की तुलना करूं. अगर इज़राइलियों में उदासी का अस्तित्व है तो यह एक अच्छा संकेत है. हो सकता है कि इस हताशा से नेतृत्व पर जनता का दबाव बने कि उसे एक नई स्थिति का निर्माण करना पड़ जाए.
क्या आप एक जनरल और एक कवि के बीच का फ़र्क़ समझते हैं? जनरल युद्ध के मैदान में मारे गए दुश्मनों की संख्या गिना करता है. जबकि कवि यह गिनता है कि युद्ध में कितने जीवित लोग मारे गए. मृतकों के बीच कोई शत्रुता नहीं होती. दुश्मन सिर्फ़ एक ही होता है - मृत्यु. यह उपमा बिल्कुल साफ़ है. दोनों पक्षों के मृतक उसके बाद दुश्मन नहीं रह जाते."
(जारी)
Thursday, September 30, 2010
मनवा सुर सों प्यार करिये, मनवा बेसुर की संगत न करिये
मुझे तो हैरान कर गया वो
उर्दू ग़ज़ल की क्लासिकी परम्परा के बड़े गायकों में शुमार हबीब वली मोहम्मद साहब सुना रहे हैं नासिर काज़मी की एक मशहूर ग़ज़ल. दीगर है कि इस ग़ज़ल को ग़ुलाम अली और आशा भोंसले भी मेराज-ए-ग़ज़ल नामक अतिलोकप्रिय अल्बम में गा चुके हैं.
Wednesday, September 29, 2010
महमूद दरवेश से डालिया कार्पेल की बातचीत - 2
एक "विनम्र कवि" की वापसी - 2
* क्या आप सोचते हैं कि शान्ति के लिए तत्परता साझा थी?
"इज़राइलियों की शिकायत है कि फ़िलिस्तीनी उन्हें प्यार नहीं करते. यह बड़ी मज़ाकिया बात है. शान्ति राष्ट्रों के दरम्यान होती है और प्यार पर आधारित नहीं होती. शन्ति समझौता कोई शादी का स्वागत-समारोह नहीं होता. मैं इज़राइलियों के प्रति घृणा को समझ सकता हूं. हर सामान्य आदमी कब्ज़े के साए में रहने से नफ़रत करता है. पहले आप शान्ति स्थापित करते हैं और उसके बाद प्यार करने या न करने जैसी चीज़ों का मुआयना करते हैं. कभी कभी शान्ति स्थापित हो जाने के बाद भी प्यार नहीं होता. प्यार एक व्यक्तिगत मसला है और उसे दूसरों पर थोपा नहीं जा सकता."
* आप किस उम्मीद की बात कर रहे हैं?
"मैं इज़राइलियों पर गाज़ा पट्टी और पश्चिमी तट पर से कब्ज़ा हटाने के लिए किसी तरह की तत्परता न दिखाने का आरोप लगाता हूं. फ़िलिस्तीन के लोग फ़िलिस्तीन को आज़ाद कराने की मुहिम में नहीं लगे हैं. फ़िलिस्तीनी उस बाईस फ़ीसदी ज़मीन पर एक साधारण जीवन बिता सकने की चाहत रखते हैं जो, वे समझते हैं उनकी मातृभूमि है. फ़िलिस्तीनियों ने प्रस्ताव किया था कि मातृभूमि और राष्ट्र के बीच का अन्तर स्पष्ट किया जाए, और उन्होंने उस ऐतिहासिक घटनाक्रम को समझा जिसने आज के हालात पैदा किये हैं, जिसमें दो क़िस्म के नागरिक एक ही धरती और एक ही देश में रह रहे हैं. इस तत्परता के बवजूद बात करने को कुछ बचा ही नहीं."
* आपने गाज़ा पट्टी का ज़िक्र किया. आप के हिसाब से वहां की नई वास्तविकता क्या है?
"बड़ी त्रासद स्थिति है. गृहयुद्ध का महौल. गाज़ा में फ़तह और हमास के लोगों के बीच जो हुआ वह एक बन्द क्षितिज को प्रतिविम्बित करता है. न कोई फ़िलिस्तीनी राष्ट्र है न फ़िलिस्तीनी आधिकारिक सत्ता, और लोग भ्रमों को लेकर आपस में लड़ रहे हैं. दोनों धड़े सरकार पर नियन्त्रण चाहते हैं. यह सब एक "अगर" है - अगर एक राष्ट्र होता, अगर एक सरकार होती, अगर इस या उस विभाग का मन्त्री होता, या एक झण्डा होता और या कोई राष्ट्रगान होता. बहुत सारा अगर-मगर है लेकिन कैसी भी सन्तुष्टि नहीं. अगर और जहां आप लोगों को क़ैद में रखेंगे - और गाज़ा पट्टी एक विशाल कैदखाना है - और कैदी गरीब हैं और उनके पास हरेक चीज़ की कमी है, वे बेरोजगार हैं और उन्हें बुनियादी चिकित्सकीय सुविधाएं मुहैया नहीं हैं, तो आप को आशाहीन लोग ही मिलेंगे. इस की वजह से आन्तरिक हिंसा की एक स्पष्टतः प्राकृतिक भावना देखने को मिलेगी.वे जानते ही नहीं कि लड़ा किस से जाए सो वे आपस में लड़ने लगते हैं. इसी को गृहयुद्ध कहा जाता है. यह मानसिक और आर्थिक और राजनैतिक दबावों के बीच होने वाला विस्फोट होता है."
* क्या आप हमास के दक्षिणपन्थ से भयभीत हैं?
“धर्मनिरपेक्ष पक्ष में एक तनातनी है, जो सांस्कृतिक बहुलता और एक राष्ट्रीय मातृभूमि में यक़ीन रखती है, और बाकी लोग हैं जो फ़िलिस्तीन को सिर्फ़ इस्लामी धरोहर के प्रिज़्म से देखते हैं. यह राजनैतिक तौर पर मुझे नहीं डराता. यह सांस्कृतिक सन्दर्भ में डरावना है. अपने सिद्धान्तों को हर किसी पर थोपने का उनका रवैया सुविधाजनक नहीं है. वे केवल एक दफ़ा के लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं की चुनाव के बूथों तक पहुंचा जाए और सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया जाए. इसलिए वे लोकतन्त्र के लिए एक बड़ा हादसा हैं. यह एक अलोकतान्त्रिक लोकतन्त्र है. लेकिन दोनों पक्ष फ़तह और हमास, एक दूसरे से कटे नहीं रह सकते. इस क्षण, जब कि खून गर्म है और घाव रिसने लगे हैं, किसी वार्तालाप के बारे में बात करना मुश्किल है. लेकिन अन्त में अगर हमास गाज़ा में की गई अपनी करतूतों के लिए नाफ़ी मांग ले और गाज़ा में चले अभियान के परिणामों को सुधार ले, तो किसी बातचीत के बारे में सोच पाना सम्भव हो पाएगा. हमास को एक राजनैतिक शक्ति के रूप में नकारना असम्भव है जिसके समर्थक फ़िलिस्तीनी समाज के भीतर हैं.
(जारी)
* क्या आप सोचते हैं कि शान्ति के लिए तत्परता साझा थी?
"इज़राइलियों की शिकायत है कि फ़िलिस्तीनी उन्हें प्यार नहीं करते. यह बड़ी मज़ाकिया बात है. शान्ति राष्ट्रों के दरम्यान होती है और प्यार पर आधारित नहीं होती. शन्ति समझौता कोई शादी का स्वागत-समारोह नहीं होता. मैं इज़राइलियों के प्रति घृणा को समझ सकता हूं. हर सामान्य आदमी कब्ज़े के साए में रहने से नफ़रत करता है. पहले आप शान्ति स्थापित करते हैं और उसके बाद प्यार करने या न करने जैसी चीज़ों का मुआयना करते हैं. कभी कभी शान्ति स्थापित हो जाने के बाद भी प्यार नहीं होता. प्यार एक व्यक्तिगत मसला है और उसे दूसरों पर थोपा नहीं जा सकता."
* आप किस उम्मीद की बात कर रहे हैं?
"मैं इज़राइलियों पर गाज़ा पट्टी और पश्चिमी तट पर से कब्ज़ा हटाने के लिए किसी तरह की तत्परता न दिखाने का आरोप लगाता हूं. फ़िलिस्तीन के लोग फ़िलिस्तीन को आज़ाद कराने की मुहिम में नहीं लगे हैं. फ़िलिस्तीनी उस बाईस फ़ीसदी ज़मीन पर एक साधारण जीवन बिता सकने की चाहत रखते हैं जो, वे समझते हैं उनकी मातृभूमि है. फ़िलिस्तीनियों ने प्रस्ताव किया था कि मातृभूमि और राष्ट्र के बीच का अन्तर स्पष्ट किया जाए, और उन्होंने उस ऐतिहासिक घटनाक्रम को समझा जिसने आज के हालात पैदा किये हैं, जिसमें दो क़िस्म के नागरिक एक ही धरती और एक ही देश में रह रहे हैं. इस तत्परता के बवजूद बात करने को कुछ बचा ही नहीं."
* आपने गाज़ा पट्टी का ज़िक्र किया. आप के हिसाब से वहां की नई वास्तविकता क्या है?
"बड़ी त्रासद स्थिति है. गृहयुद्ध का महौल. गाज़ा में फ़तह और हमास के लोगों के बीच जो हुआ वह एक बन्द क्षितिज को प्रतिविम्बित करता है. न कोई फ़िलिस्तीनी राष्ट्र है न फ़िलिस्तीनी आधिकारिक सत्ता, और लोग भ्रमों को लेकर आपस में लड़ रहे हैं. दोनों धड़े सरकार पर नियन्त्रण चाहते हैं. यह सब एक "अगर" है - अगर एक राष्ट्र होता, अगर एक सरकार होती, अगर इस या उस विभाग का मन्त्री होता, या एक झण्डा होता और या कोई राष्ट्रगान होता. बहुत सारा अगर-मगर है लेकिन कैसी भी सन्तुष्टि नहीं. अगर और जहां आप लोगों को क़ैद में रखेंगे - और गाज़ा पट्टी एक विशाल कैदखाना है - और कैदी गरीब हैं और उनके पास हरेक चीज़ की कमी है, वे बेरोजगार हैं और उन्हें बुनियादी चिकित्सकीय सुविधाएं मुहैया नहीं हैं, तो आप को आशाहीन लोग ही मिलेंगे. इस की वजह से आन्तरिक हिंसा की एक स्पष्टतः प्राकृतिक भावना देखने को मिलेगी.वे जानते ही नहीं कि लड़ा किस से जाए सो वे आपस में लड़ने लगते हैं. इसी को गृहयुद्ध कहा जाता है. यह मानसिक और आर्थिक और राजनैतिक दबावों के बीच होने वाला विस्फोट होता है."
* क्या आप हमास के दक्षिणपन्थ से भयभीत हैं?
“धर्मनिरपेक्ष पक्ष में एक तनातनी है, जो सांस्कृतिक बहुलता और एक राष्ट्रीय मातृभूमि में यक़ीन रखती है, और बाकी लोग हैं जो फ़िलिस्तीन को सिर्फ़ इस्लामी धरोहर के प्रिज़्म से देखते हैं. यह राजनैतिक तौर पर मुझे नहीं डराता. यह सांस्कृतिक सन्दर्भ में डरावना है. अपने सिद्धान्तों को हर किसी पर थोपने का उनका रवैया सुविधाजनक नहीं है. वे केवल एक दफ़ा के लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं की चुनाव के बूथों तक पहुंचा जाए और सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया जाए. इसलिए वे लोकतन्त्र के लिए एक बड़ा हादसा हैं. यह एक अलोकतान्त्रिक लोकतन्त्र है. लेकिन दोनों पक्ष फ़तह और हमास, एक दूसरे से कटे नहीं रह सकते. इस क्षण, जब कि खून गर्म है और घाव रिसने लगे हैं, किसी वार्तालाप के बारे में बात करना मुश्किल है. लेकिन अन्त में अगर हमास गाज़ा में की गई अपनी करतूतों के लिए नाफ़ी मांग ले और गाज़ा में चले अभियान के परिणामों को सुधार ले, तो किसी बातचीत के बारे में सोच पाना सम्भव हो पाएगा. हमास को एक राजनैतिक शक्ति के रूप में नकारना असम्भव है जिसके समर्थक फ़िलिस्तीनी समाज के भीतर हैं.
(जारी)
कबाड़ख़ाना आज तीन साल का हो गया
कबाड़ख़ाना आज तीन साल का हो गया.
आप सब का शुक्रिया.
महमूद दरवेश की कविताएं - ८
सहृदय ग्रामीण
मैं तब तक नहीं जानता था अपनी मां के जीवन के तौर तरीकों के बारे में
न उसके परिवार के, जब समुद्र से जहाज़ आए थे.
मुझे अपने दादाजी के लबादे
और जब से मैं यहां पैदा हुआ, एक ही बार में, किसी घरेलू पशु की तरह
मैंने कॉफ़ी की अनन्त महक को जान लिया था.
धरती के चक्के से गिरने पर हम भी रोया करते हैं.
तो भी हम पुराने मर्तबानों में नहीं सम्हालते अपनी आवाज़ें.
हम पहाड़ी बकरी के सींग नहीं टांगते दीवारों पर
और अपनी धूल को नहीं बनाते अपना साम्राज्य.
हमारे सपने दूसरों की अंगूर की बेलों पर निगाह नहीं डालते.
वे नियम नहीं तोड़ते.
मेरे नाम में कोई पंख नहीं थे, सो मैं नहीं उड़ सकता था दोपहर से आगे.
अप्रैल का ताप गुज़रते मुसाफ़िरों के बलालाइकों जैसा होता था
वह हमें फ़ाख़्तों की तरह उड़ा दिया करता था.
मेरा पहला भय: एक लड़की का आकर्षण जिसने
रिझाया मुझे अपने घुटनों पर से दूध सूंघने को, लेकिन मैं उस डंक से भाग आया!
हमारे पास भी अपना रहस्य होता है जब सूरज गिरता है सफ़ेद पॉपलरों पर.
हम एक उद्दाम इच्छा से भर जाया करते कि उस के लिए रोएं जो बिना वजह मर गया
और एक उत्सुकता से कि बेबीलोन देखने जाएं या दमिश्क की कोई मस्ज़िद.
दर्द की अमर महागाथा में हम किसी फ़ाख़्ते की कोमल आवाज़ में आंसू की बूंद हैं
हम सहृदय ग्रामीण हैं और हमें अपने शब्दों पर अफ़सोस नहीं होता.
दिनों की तरह हमारे नाम भी समान हैं.
हमारे नाम हमें प्रकट नहीं करते. हम अपने मेहमानों की बातों को जज़्ब कर लेते हैं.
हनारे पास उस अजनबी औरत को उस देश के बारे में बताने को बातें होती हैं
जिन्हें वह अपने स्कार्फ़ पर काढ़ रही होती है
लौट रही अपनी गौरैयों के पंखों की किनारियों से.
जब जहाज़ आए थे समुद्र से
इस जगह को सिर्फ़ पेड़ थामे हुए थे.
हम गायों को उनकी कोठरियों में भोजन दे रहे थे
और अपने हाथों बनाई आल्मारियों में अपने दिनों को तरतीबवार लगा रहे थे.
हम घोड़ों को तैयार कर रहे थे, और भटकते सितारे का स्वागत.
हम भी सवार हुए जहाज़ों पर, रात में हमारे जैतून में जगमग करते पन्ने
हमारा मनोरंजन करते थे,
से आने वाली महक का पता था,
और कुत्ते जो गिरजाघर की मीनार के ऊपर गतिमान चांद पर भौंक रहे थे
हम निडर थे तब भी.
क्योंकि हमारा बचपन नहीं चढ़ा था हमारे साथ.
हम एक गीत भर से सन्तुष्ट थे
जल्द ही हम अपने घर वापस चले जाएंगे
जब जहाज़ उतारेंगे अपना अतिरिक्त बोझा.
*बलालाइका: एक पारम्परिक रूसी वाद्य यन्त्र
(चित्र: वान गॉग की मशहूर कृति द पोटैटो ईटर्स)
आप सब का शुक्रिया.
महमूद दरवेश की कविताएं - ८
सहृदय ग्रामीण
मैं तब तक नहीं जानता था अपनी मां के जीवन के तौर तरीकों के बारे में
न उसके परिवार के, जब समुद्र से जहाज़ आए थे.
मुझे अपने दादाजी के लबादे
और जब से मैं यहां पैदा हुआ, एक ही बार में, किसी घरेलू पशु की तरह
मैंने कॉफ़ी की अनन्त महक को जान लिया था.
धरती के चक्के से गिरने पर हम भी रोया करते हैं.
तो भी हम पुराने मर्तबानों में नहीं सम्हालते अपनी आवाज़ें.
हम पहाड़ी बकरी के सींग नहीं टांगते दीवारों पर
और अपनी धूल को नहीं बनाते अपना साम्राज्य.
हमारे सपने दूसरों की अंगूर की बेलों पर निगाह नहीं डालते.
वे नियम नहीं तोड़ते.
मेरे नाम में कोई पंख नहीं थे, सो मैं नहीं उड़ सकता था दोपहर से आगे.
अप्रैल का ताप गुज़रते मुसाफ़िरों के बलालाइकों जैसा होता था
वह हमें फ़ाख़्तों की तरह उड़ा दिया करता था.
मेरा पहला भय: एक लड़की का आकर्षण जिसने
रिझाया मुझे अपने घुटनों पर से दूध सूंघने को, लेकिन मैं उस डंक से भाग आया!
हमारे पास भी अपना रहस्य होता है जब सूरज गिरता है सफ़ेद पॉपलरों पर.
हम एक उद्दाम इच्छा से भर जाया करते कि उस के लिए रोएं जो बिना वजह मर गया
और एक उत्सुकता से कि बेबीलोन देखने जाएं या दमिश्क की कोई मस्ज़िद.
दर्द की अमर महागाथा में हम किसी फ़ाख़्ते की कोमल आवाज़ में आंसू की बूंद हैं
हम सहृदय ग्रामीण हैं और हमें अपने शब्दों पर अफ़सोस नहीं होता.
दिनों की तरह हमारे नाम भी समान हैं.
हमारे नाम हमें प्रकट नहीं करते. हम अपने मेहमानों की बातों को जज़्ब कर लेते हैं.
हनारे पास उस अजनबी औरत को उस देश के बारे में बताने को बातें होती हैं
जिन्हें वह अपने स्कार्फ़ पर काढ़ रही होती है
लौट रही अपनी गौरैयों के पंखों की किनारियों से.
जब जहाज़ आए थे समुद्र से
इस जगह को सिर्फ़ पेड़ थामे हुए थे.
हम गायों को उनकी कोठरियों में भोजन दे रहे थे
और अपने हाथों बनाई आल्मारियों में अपने दिनों को तरतीबवार लगा रहे थे.
हम घोड़ों को तैयार कर रहे थे, और भटकते सितारे का स्वागत.
हम भी सवार हुए जहाज़ों पर, रात में हमारे जैतून में जगमग करते पन्ने
हमारा मनोरंजन करते थे,
से आने वाली महक का पता था,
और कुत्ते जो गिरजाघर की मीनार के ऊपर गतिमान चांद पर भौंक रहे थे
हम निडर थे तब भी.
क्योंकि हमारा बचपन नहीं चढ़ा था हमारे साथ.
हम एक गीत भर से सन्तुष्ट थे
जल्द ही हम अपने घर वापस चले जाएंगे
जब जहाज़ उतारेंगे अपना अतिरिक्त बोझा.
*बलालाइका: एक पारम्परिक रूसी वाद्य यन्त्र
(चित्र: वान गॉग की मशहूर कृति द पोटैटो ईटर्स)
Tuesday, September 28, 2010
महमूद दरवेश से डालिया कार्पेल की बातचीत - १
एक "विनम्र कवि" की वापसी
अपने हाइफ़ा भ्रमण को लेकर वे वाक़ई कितने उत्साहित हैं? इस रपट का उन पर क्या प्रभाव पड़ा कि माउन्ट कार्मेल के एक ऑडिटोरियम में इस रविवार को होने वाले उनके काव्यपाठ के लिए जारी किए गए कुल १४५० में १२०० टिकट एक ही दिन में बिक गए?
*क्या महमूद दरवेश को इस तरह हाथों हाथ लिया जाना, जो फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय कवि माने जाते हैं, और पिछले सालों से ज़्यादातर अम्मान में और कभी कभी रामल्ला में रहते आए हैं, विचलित करता है?
"पचास की उम्र पार कर लेने के बाद मैंने अपनी भावनाओं पर काबू पाना सीख लिया था." रामल्ला में हुए एक वार्तालाप के दौरान दरवेश कहते हैं. "मैं बिना किसी प्रत्याशा के हाइफ़ा जा रहा हूं. मेरे दिक पर एक बैरियर लगा हुआ है.हो सकता है जब मैं श्रोताओं के सम्मुख खड़ा होऊं तो मेरे दिल में कुछ आंसू टपकें. मुझे ऊष्माभरे स्वागत की उम्मीद है, लेकिन मुझे यह भय भी है कि कि श्रोतागण निराश हो सकते हैं क्योंकि मैं बहुत सारी पुरानी कविताओं का पाठ करने की मंशा नहीं रखता. मैं किसी देशभक्त या किसी नायक या प्रतीक की तरह नज़र नहीं आना चाहता. मैं एक विनम्र कवि की तरह सामने आऊंगा."
* फ़िलिस्तीन की राष्ट्रीय नैतिकता के प्रतिनिधि से एक विनम्र कवि होने का सफ़र आप कैसे तय करते हैं?
"ऐसे किसी प्रतीक का अस्तित्व न मेरी चेतना में है न कल्पना में. मैं कोशिश कर रहा हूं कि उस प्रतीक से रखी जाने वाली आशाओं को बिखेर सकूं और इस प्रतीकात्मक स्थिति से बाहर निकल आऊं. मैं चाहता हूं कि लोग मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखने की आदत डालें जो अपनी कविता और अपने पाठकों के आस्वाद को बेहतर बनाने की ख़्वाहिश रखता है हाइफ़ा में मैं वास्तविक होऊंगा. और मैं ऊच्च स्तर की कविताएं छांटूंगा."
* आपको अपनी पुरानी कविताओं से ऐसी हिकारत क्यों है?
"जब भी कोई लेखक कहता है कि उसकी पहली किताब उसकी सर्वश्रेष्ठ है तो यह बुरी बात है. मैं एक से दूसरी किताब में विकसित होता जाता हूं. मुझे अब भी यह तय करना बाक़ी है कि मैं श्रोताओं को क्या सुनाऊंगा. मैं मूर्ख नहीं हूं. मैं जानता हूं कि बहुत सारे लोग पुरानी चीज़ें सुनना चाहेंगे."
अम्मान से दरवेश इसी हफ़्ते सोमवार की सुबह रामल्ला पहुंचे थे. आने वाले दिनों में उनकी मुलाक़ातें तय थीं और उसके बाद उन्हें हाइफ़ा जाना था, वह शहर जहां १९५० के दशक में उन्होंने अपनी साहित्यिक राह शुरू की थी. वे अब भी नहीं जानते वे यह यात्रा कैसे करने वाले हैं - बहुत से स्वयंसेवक हैं जो उन्हें अपनी गाड़ियों में गैलिली के बाशिन्दों से हाइफ़ा में मुलाक़ात करवाने ले जाना चाहते हैं. शाम का आयोजन कवयित्री और साहित्यिक पत्रिका मशरेफ़ की सम्पादिका सिहाम दाऊद ने, अरबी-यहूदी राजनैतिक दल हदश के सहयोग से किया था. दरवेश एक वक्तव्य देंगे और क़रीब बीस कविताओं का पाठ करेंगे. समीर जुब्रान आउद पर उनकी संगत करेंगे जबकि गायक अमाल मुर्कुस कार्यक्रम का संचालन करेंगे. दरवेश उम्मीद कर रहे है कि आन्तरिक मामलों का मन्त्रालय उन्हें इज़राइल में एक हफ़्ते रहने की अनुमति दे देगा हालांकि उन्हें मिला हुआ एन्ट्री परमिट सिर्फ़ दो दिनों के लिए वैध है.
कवयित्री से वार्तालाप रामल्ला के ख़लील साकाकिनी सांस्कृतिक केन्द्र में शाम चार बजे शुरू होता है. इस शानदार और करीने से रखवाली की गई इमारत में एक कलादीर्घा है और फ़िल्मों और कन्सर्ट्स के लिए एक हॉल. इस में एक खूब बड़ा दफ़्तर भी है जहां से दरवेश कविता की पत्रिका अल- कारमेल का सम्पादन करते हैं.
जिस कमरे में हम हैं उसमें अरबी किताबों का शानदार संग्रह है अलबत्ता उनके बीच कुछ हिब्रू की किताबें भी हैं. हिब्रू साहित्यिक पत्रिका इटोन ७७ द्वारा प्रकाशित एक कविता संकलन है, नामा शेफ़ी का "द रिंग ऑफ़ मिथ्स: इज़राइलीज़, वागनर एन्ड द नात्सीज़" है, कवि यित्ज़ाक लाओर द्वारा सम्पादित साहित्यिक-राजनैतिक पत्रिका मित’आम की प्रतियां हैं और सामी शालोम चेरिट का एक कविता संग्रह भी.
पहले से कहीं दुबले दरवेश शालीन कपड़े पहने हैं और मित्रवत हैं. ऐसे व्यक्ति के हिसाब से लिसे आठ साल पहले चिकित्सकीय रूप से मृत घोषित कर दिया गया था और चमत्कारिक रूप से वापस जीवित किया गया, वे अपने छियासठ सालों के लिहाज़ से चुस्त और युवतर नज़र आ रहे हैं.
"क्या इस देश के लिए कोई उम्मीद है?" मैं पूछता हूं. घोर निराशावादी दरवेश इस बात तक की परवाह नहीं करते कि मेरा मतलब किस देश से है. "जब उम्मीद न भी हो, हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उसका आविष्कार और उसकी रचना करें. उम्मीद के बिना हम हार जाएंगे. उम्मीद ने सादगीभरी चीज़ों से उभरना चाहिये. प्रकृति की महिमा से, जीवन के सौन्दर्य से, उनकी नाज़ुकी से. केवल अपने मस्तिष्क को स्वस्थ रखने की ख़ातिर आप कभी कभी ज़रूरी चीज़ों को भूल ही सकते हैं. इस समय उम्मीद के बारे में बात करना मुश्किल है. यह ऐसा लगेगा जैसे हम इतिहास और वर्तमान की अनदेखी कर रहे हैं. जैसे कि हम भविष्य को फ़िलहाल हो रही घटनाओं से काट कर देख रहे हैं. लेकिन जीवित रहने के लिए हमें बलपूर्वक उम्मीद का आविष्कार करना होगा."
* आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?
"मैं उपमाओं का कर्मचारी हूं, प्रतीकों का नहीं. मैं कविता की ताक़त पर भरोसा करता हूं, जो मुझे भविष्य को देखने और रोशनी की झलक को पहचानने की वजहें देती है. कविता एक असल हरामज़ादी हो सकती है. वह विकृति पैदा करती है. इस के पास अवास्तविक को वास्तविक में और वास्तविक को काल्पनिक में बदल देने की ताक़त होती है. इसके पास एक ऐसा संसार खड़ा कर सकने की ताक़त होती है जो उस संसार के बरख़िलाफ़ होता है जिसमें हम जीवित रहते हैं. मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं. मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता. यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉज़िटिव भ्रम. मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िन्दगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं. यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुन्दरता प्रदान कर सकूं और एक सुन्दर संसार का चित्र खींचूं और उनकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं. मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था."
*आपने एक बार लिखा था: "यह धरती हम सब पर घेराबन्दी करती है." और हताशा और निराशा की भावना आज पहले से कहीं अधिक डरावनी लगती होगी.
"आज की स्थिति इस क़दर ख़राब है कि हमने कभी उसकी कल्पना भी नहीं की होगी. और फ़िलिस्तीनी आज संसार में अकेले नागरिक हैं जिन्हें निश्चित रूप से महसुस होता है कि आज का दिन उस से बेहतर है जो आने वाले कल में धरा हुआ है. आने वाला कल हमेशा एक अधिक बुरी स्थिति की तरफ़ संकेत करता है.यह फ़क़त अस्तित्ववाद का एक सवाल भर नहीं है. मैं इज़राइली पक्ष के बारे में नहीं कह सकता; उसमें मेरी विशेषज्ञता नहीं है. मैं केवल फ़िलिस्तीनी पक्ष की बाबत बोल सकता हूं. १९९३ ही में, ओस्लो समझौते की पिछली शाम को ही मैं जान गया था कि इस समझौते में ऐसा कोई आश्वासन नहीं कि हम फ़िलिस्तीन के लिए सच्ची शान्ति-आधारित स्वतन्त्रता और इज़राइली कब्ज़े के अन्त तक पहुंच पाएंगे. उसके बावजूद मुझे लगा था कि लोग उम्मीद का अनुभव कर रहे थे. उन्होंने सोचा था कि शायद एक बुरी शान्ति सफल युद्ध से बेहतर विकल्प है. वे धोख़ेबाज़ सपने थे. ओस्लो से पहले कोई जांच-चौकियां नहीं थीं, रिहाइशें इस कदर नहीं फैली थीं और फ़िलिस्तीनियों के लिए इज़राइल में रोज़गार था."
(जारी)
अपने हाइफ़ा भ्रमण को लेकर वे वाक़ई कितने उत्साहित हैं? इस रपट का उन पर क्या प्रभाव पड़ा कि माउन्ट कार्मेल के एक ऑडिटोरियम में इस रविवार को होने वाले उनके काव्यपाठ के लिए जारी किए गए कुल १४५० में १२०० टिकट एक ही दिन में बिक गए?
*क्या महमूद दरवेश को इस तरह हाथों हाथ लिया जाना, जो फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय कवि माने जाते हैं, और पिछले सालों से ज़्यादातर अम्मान में और कभी कभी रामल्ला में रहते आए हैं, विचलित करता है?
"पचास की उम्र पार कर लेने के बाद मैंने अपनी भावनाओं पर काबू पाना सीख लिया था." रामल्ला में हुए एक वार्तालाप के दौरान दरवेश कहते हैं. "मैं बिना किसी प्रत्याशा के हाइफ़ा जा रहा हूं. मेरे दिक पर एक बैरियर लगा हुआ है.हो सकता है जब मैं श्रोताओं के सम्मुख खड़ा होऊं तो मेरे दिल में कुछ आंसू टपकें. मुझे ऊष्माभरे स्वागत की उम्मीद है, लेकिन मुझे यह भय भी है कि कि श्रोतागण निराश हो सकते हैं क्योंकि मैं बहुत सारी पुरानी कविताओं का पाठ करने की मंशा नहीं रखता. मैं किसी देशभक्त या किसी नायक या प्रतीक की तरह नज़र नहीं आना चाहता. मैं एक विनम्र कवि की तरह सामने आऊंगा."
* फ़िलिस्तीन की राष्ट्रीय नैतिकता के प्रतिनिधि से एक विनम्र कवि होने का सफ़र आप कैसे तय करते हैं?
"ऐसे किसी प्रतीक का अस्तित्व न मेरी चेतना में है न कल्पना में. मैं कोशिश कर रहा हूं कि उस प्रतीक से रखी जाने वाली आशाओं को बिखेर सकूं और इस प्रतीकात्मक स्थिति से बाहर निकल आऊं. मैं चाहता हूं कि लोग मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखने की आदत डालें जो अपनी कविता और अपने पाठकों के आस्वाद को बेहतर बनाने की ख़्वाहिश रखता है हाइफ़ा में मैं वास्तविक होऊंगा. और मैं ऊच्च स्तर की कविताएं छांटूंगा."
* आपको अपनी पुरानी कविताओं से ऐसी हिकारत क्यों है?
"जब भी कोई लेखक कहता है कि उसकी पहली किताब उसकी सर्वश्रेष्ठ है तो यह बुरी बात है. मैं एक से दूसरी किताब में विकसित होता जाता हूं. मुझे अब भी यह तय करना बाक़ी है कि मैं श्रोताओं को क्या सुनाऊंगा. मैं मूर्ख नहीं हूं. मैं जानता हूं कि बहुत सारे लोग पुरानी चीज़ें सुनना चाहेंगे."
अम्मान से दरवेश इसी हफ़्ते सोमवार की सुबह रामल्ला पहुंचे थे. आने वाले दिनों में उनकी मुलाक़ातें तय थीं और उसके बाद उन्हें हाइफ़ा जाना था, वह शहर जहां १९५० के दशक में उन्होंने अपनी साहित्यिक राह शुरू की थी. वे अब भी नहीं जानते वे यह यात्रा कैसे करने वाले हैं - बहुत से स्वयंसेवक हैं जो उन्हें अपनी गाड़ियों में गैलिली के बाशिन्दों से हाइफ़ा में मुलाक़ात करवाने ले जाना चाहते हैं. शाम का आयोजन कवयित्री और साहित्यिक पत्रिका मशरेफ़ की सम्पादिका सिहाम दाऊद ने, अरबी-यहूदी राजनैतिक दल हदश के सहयोग से किया था. दरवेश एक वक्तव्य देंगे और क़रीब बीस कविताओं का पाठ करेंगे. समीर जुब्रान आउद पर उनकी संगत करेंगे जबकि गायक अमाल मुर्कुस कार्यक्रम का संचालन करेंगे. दरवेश उम्मीद कर रहे है कि आन्तरिक मामलों का मन्त्रालय उन्हें इज़राइल में एक हफ़्ते रहने की अनुमति दे देगा हालांकि उन्हें मिला हुआ एन्ट्री परमिट सिर्फ़ दो दिनों के लिए वैध है.
कवयित्री से वार्तालाप रामल्ला के ख़लील साकाकिनी सांस्कृतिक केन्द्र में शाम चार बजे शुरू होता है. इस शानदार और करीने से रखवाली की गई इमारत में एक कलादीर्घा है और फ़िल्मों और कन्सर्ट्स के लिए एक हॉल. इस में एक खूब बड़ा दफ़्तर भी है जहां से दरवेश कविता की पत्रिका अल- कारमेल का सम्पादन करते हैं.
जिस कमरे में हम हैं उसमें अरबी किताबों का शानदार संग्रह है अलबत्ता उनके बीच कुछ हिब्रू की किताबें भी हैं. हिब्रू साहित्यिक पत्रिका इटोन ७७ द्वारा प्रकाशित एक कविता संकलन है, नामा शेफ़ी का "द रिंग ऑफ़ मिथ्स: इज़राइलीज़, वागनर एन्ड द नात्सीज़" है, कवि यित्ज़ाक लाओर द्वारा सम्पादित साहित्यिक-राजनैतिक पत्रिका मित’आम की प्रतियां हैं और सामी शालोम चेरिट का एक कविता संग्रह भी.
पहले से कहीं दुबले दरवेश शालीन कपड़े पहने हैं और मित्रवत हैं. ऐसे व्यक्ति के हिसाब से लिसे आठ साल पहले चिकित्सकीय रूप से मृत घोषित कर दिया गया था और चमत्कारिक रूप से वापस जीवित किया गया, वे अपने छियासठ सालों के लिहाज़ से चुस्त और युवतर नज़र आ रहे हैं.
"क्या इस देश के लिए कोई उम्मीद है?" मैं पूछता हूं. घोर निराशावादी दरवेश इस बात तक की परवाह नहीं करते कि मेरा मतलब किस देश से है. "जब उम्मीद न भी हो, हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उसका आविष्कार और उसकी रचना करें. उम्मीद के बिना हम हार जाएंगे. उम्मीद ने सादगीभरी चीज़ों से उभरना चाहिये. प्रकृति की महिमा से, जीवन के सौन्दर्य से, उनकी नाज़ुकी से. केवल अपने मस्तिष्क को स्वस्थ रखने की ख़ातिर आप कभी कभी ज़रूरी चीज़ों को भूल ही सकते हैं. इस समय उम्मीद के बारे में बात करना मुश्किल है. यह ऐसा लगेगा जैसे हम इतिहास और वर्तमान की अनदेखी कर रहे हैं. जैसे कि हम भविष्य को फ़िलहाल हो रही घटनाओं से काट कर देख रहे हैं. लेकिन जीवित रहने के लिए हमें बलपूर्वक उम्मीद का आविष्कार करना होगा."
* आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?
"मैं उपमाओं का कर्मचारी हूं, प्रतीकों का नहीं. मैं कविता की ताक़त पर भरोसा करता हूं, जो मुझे भविष्य को देखने और रोशनी की झलक को पहचानने की वजहें देती है. कविता एक असल हरामज़ादी हो सकती है. वह विकृति पैदा करती है. इस के पास अवास्तविक को वास्तविक में और वास्तविक को काल्पनिक में बदल देने की ताक़त होती है. इसके पास एक ऐसा संसार खड़ा कर सकने की ताक़त होती है जो उस संसार के बरख़िलाफ़ होता है जिसमें हम जीवित रहते हैं. मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं. मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता. यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉज़िटिव भ्रम. मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िन्दगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं. यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुन्दरता प्रदान कर सकूं और एक सुन्दर संसार का चित्र खींचूं और उनकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं. मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था."
*आपने एक बार लिखा था: "यह धरती हम सब पर घेराबन्दी करती है." और हताशा और निराशा की भावना आज पहले से कहीं अधिक डरावनी लगती होगी.
"आज की स्थिति इस क़दर ख़राब है कि हमने कभी उसकी कल्पना भी नहीं की होगी. और फ़िलिस्तीनी आज संसार में अकेले नागरिक हैं जिन्हें निश्चित रूप से महसुस होता है कि आज का दिन उस से बेहतर है जो आने वाले कल में धरा हुआ है. आने वाला कल हमेशा एक अधिक बुरी स्थिति की तरफ़ संकेत करता है.यह फ़क़त अस्तित्ववाद का एक सवाल भर नहीं है. मैं इज़राइली पक्ष के बारे में नहीं कह सकता; उसमें मेरी विशेषज्ञता नहीं है. मैं केवल फ़िलिस्तीनी पक्ष की बाबत बोल सकता हूं. १९९३ ही में, ओस्लो समझौते की पिछली शाम को ही मैं जान गया था कि इस समझौते में ऐसा कोई आश्वासन नहीं कि हम फ़िलिस्तीन के लिए सच्ची शान्ति-आधारित स्वतन्त्रता और इज़राइली कब्ज़े के अन्त तक पहुंच पाएंगे. उसके बावजूद मुझे लगा था कि लोग उम्मीद का अनुभव कर रहे थे. उन्होंने सोचा था कि शायद एक बुरी शान्ति सफल युद्ध से बेहतर विकल्प है. वे धोख़ेबाज़ सपने थे. ओस्लो से पहले कोई जांच-चौकियां नहीं थीं, रिहाइशें इस कदर नहीं फैली थीं और फ़िलिस्तीनियों के लिए इज़राइल में रोज़गार था."
(जारी)
धन धन भाग हमारे सजनी बालम मोरे घर आए
जब वह निकल पड़ता है
महमूद दरवेश की कविताएं - ७
जब वह निकल पड़ता है
वह दुश्मन जो चाय पीता है हमारे बाड़े में
उसके पास एक घोड़ा है धुंए में, एक बेटी
घनी भवों वाली, भूरी उसकी आंखें और उसके कन्धों पर
गुंथी हुईं चोटियां जैसे गीतों की एक रात.
उसके पास अपनी बेटी की तस्वीर हमेशा हुआ करती है
जब वह हमारी चाय पीने आता है
लेकिन वह भूल जाता है हमें अपनी रात की गतिविधियों के बारे में बताना,
पहाड़ी की चोटी पर छोड़ दिए गए
पुरातन गीतों वाले एक घोड़े के बारे में.
हमारे झोपड़े में दुश्मन अपनी राइफ़ल को टिकाता है
मेरे दादाजी की कुर्सी से
और हमारी डबलरोटी खाता है किसी भी मेहमान की तरह
कुछ पल को झपकी लेता है आरामकुर्सी पर.
फिर जब वह बाहर जाता हुआ झुककर हमारी बिल्ली को सहलाने को झुकता है
वह कहता है: "जो शिकार हो गया उसे दोष मत दो"
"और कौन हो सकता है वह?" हम पूछते हैं
"ख़ून जो रात में नहीं सूखता."
उसके कोट के बटन चमकते हैं जब वह बाहर जा रहा होता है.
आप सब को शुभरात्रि! हमारे कुंएं को सलाम कहना!
गूलर के हमारे पेड़ों को सलाम कहना! जौ के खेतों में
हमारी छायाओं पर सम्हलकर चलना.
हमारे ऊंचे चीड़ों का अभिवादन करना. लेकिन कृपा करके
दरवाज़ा खुला रखना रात को
और भूलना मत कि घोड़ों को हवाई जहाज़ों से डर लगता है.
और वहां हमारा अभिवादन करना, अगर तुम्हारे पास समय हो तो.
दरवाज़े पर दर असल हम यह कहना चाहते हैं.
वह इसे साफ़ सुनता है
मगर खांसता हुआ उसे अनसुना कर देता है
परे हटाता हुआ.
तो वह हर शाम क्यों आता है शिकार के पास
हमारी कहावतों को कन्ठस्थ कर लेता है, जैसा हम करते हैं
हमारी विशिष्ट जगहों और पवित्र स्थानों के बारे
में हमारे गीत दोहराता है?
अगर यह सब एक बन्दूक के लिए न होता
तो हमारी बांसुरियों ने एक जुगलबन्दी बजाई होती.
जब तक हमारे भीतर धरती घूम रही है अपने गिर्द
युद्ध ख़त्म नहीं होगा
तो भला बने रहा जाए.
उसने हमसे कहा कि हम भले बने रहें जब तक यहां हैं
वह आइरिश हवाबाज़ के बारे में लिखी येट्स की कविता सुनाता है:
"वे जिनसे मैं लड़ता हूं, उनसे नफ़रत नहीं मुझे
वे जिनकी रखवाली मैं करता हूं, उनसे प्यार नहीं मुझे."
फिर वह हमारी जर्जर झोपड़ी से चला जाता है
और चलता जाता है अस्सी मीटर तक
मैदान के छोर पर पत्थर के हमारे पुराने घर तक.
हमारे घर का अभिवादन करना ओ अजनबी.
कॉफ़ी के प्याले वही हैं.
क्या तुम अब भी उन पर हमारी उंगलियां सूंघ सकते हो?
क्या तुम चोटियों और घनी भवों वाली
अपनी बेटी को बता सकते हो
कि उसका एक अनुपस्थित दोस्त है
जो उस से मिलना चाहता है, उसके आईने में प्रवेश कर
उसका रहस्य देखना चाहता है.
इस जगह पर किस तरह खोज सकी वह उसकी उम्र?
उससे नमस्ते कहना, अगर तुम्हारे पास समय हो तो.
वह भली तरह सुनता है
जो हम उसे बताना चाहते हैं
लेकिन वह मगर खांसता हुआ उसे अनसुना कर देता है
परे हटाता हुआ.
उसके कोट के बटन चमकते हैं
जब वह बाहर जा रहा होता है.
* विलियम बटलर येट्स: बीसवीं सदी के महान अंग्रेज़ी कवि.
जब वह निकल पड़ता है
वह दुश्मन जो चाय पीता है हमारे बाड़े में
उसके पास एक घोड़ा है धुंए में, एक बेटी
घनी भवों वाली, भूरी उसकी आंखें और उसके कन्धों पर
गुंथी हुईं चोटियां जैसे गीतों की एक रात.
उसके पास अपनी बेटी की तस्वीर हमेशा हुआ करती है
जब वह हमारी चाय पीने आता है
लेकिन वह भूल जाता है हमें अपनी रात की गतिविधियों के बारे में बताना,
पहाड़ी की चोटी पर छोड़ दिए गए
पुरातन गीतों वाले एक घोड़े के बारे में.
हमारे झोपड़े में दुश्मन अपनी राइफ़ल को टिकाता है
मेरे दादाजी की कुर्सी से
और हमारी डबलरोटी खाता है किसी भी मेहमान की तरह
कुछ पल को झपकी लेता है आरामकुर्सी पर.
फिर जब वह बाहर जाता हुआ झुककर हमारी बिल्ली को सहलाने को झुकता है
वह कहता है: "जो शिकार हो गया उसे दोष मत दो"
"और कौन हो सकता है वह?" हम पूछते हैं
"ख़ून जो रात में नहीं सूखता."
उसके कोट के बटन चमकते हैं जब वह बाहर जा रहा होता है.
आप सब को शुभरात्रि! हमारे कुंएं को सलाम कहना!
गूलर के हमारे पेड़ों को सलाम कहना! जौ के खेतों में
हमारी छायाओं पर सम्हलकर चलना.
हमारे ऊंचे चीड़ों का अभिवादन करना. लेकिन कृपा करके
दरवाज़ा खुला रखना रात को
और भूलना मत कि घोड़ों को हवाई जहाज़ों से डर लगता है.
और वहां हमारा अभिवादन करना, अगर तुम्हारे पास समय हो तो.
दरवाज़े पर दर असल हम यह कहना चाहते हैं.
वह इसे साफ़ सुनता है
मगर खांसता हुआ उसे अनसुना कर देता है
परे हटाता हुआ.
तो वह हर शाम क्यों आता है शिकार के पास
हमारी कहावतों को कन्ठस्थ कर लेता है, जैसा हम करते हैं
हमारी विशिष्ट जगहों और पवित्र स्थानों के बारे
में हमारे गीत दोहराता है?
अगर यह सब एक बन्दूक के लिए न होता
तो हमारी बांसुरियों ने एक जुगलबन्दी बजाई होती.
जब तक हमारे भीतर धरती घूम रही है अपने गिर्द
युद्ध ख़त्म नहीं होगा
तो भला बने रहा जाए.
उसने हमसे कहा कि हम भले बने रहें जब तक यहां हैं
वह आइरिश हवाबाज़ के बारे में लिखी येट्स की कविता सुनाता है:
"वे जिनसे मैं लड़ता हूं, उनसे नफ़रत नहीं मुझे
वे जिनकी रखवाली मैं करता हूं, उनसे प्यार नहीं मुझे."
फिर वह हमारी जर्जर झोपड़ी से चला जाता है
और चलता जाता है अस्सी मीटर तक
मैदान के छोर पर पत्थर के हमारे पुराने घर तक.
हमारे घर का अभिवादन करना ओ अजनबी.
कॉफ़ी के प्याले वही हैं.
क्या तुम अब भी उन पर हमारी उंगलियां सूंघ सकते हो?
क्या तुम चोटियों और घनी भवों वाली
अपनी बेटी को बता सकते हो
कि उसका एक अनुपस्थित दोस्त है
जो उस से मिलना चाहता है, उसके आईने में प्रवेश कर
उसका रहस्य देखना चाहता है.
इस जगह पर किस तरह खोज सकी वह उसकी उम्र?
उससे नमस्ते कहना, अगर तुम्हारे पास समय हो तो.
वह भली तरह सुनता है
जो हम उसे बताना चाहते हैं
लेकिन वह मगर खांसता हुआ उसे अनसुना कर देता है
परे हटाता हुआ.
उसके कोट के बटन चमकते हैं
जब वह बाहर जा रहा होता है.
* विलियम बटलर येट्स: बीसवीं सदी के महान अंग्रेज़ी कवि.
Monday, September 27, 2010
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
महमूद दरवेश की कविताएं - ६
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
विजेता आते हैं, विजेता जाते हैं ...
मुश्किल होता जा रहा है मेरे लिए आईनों में अपना चेहरा याद रखना
मेरे लिए स्मृति बन जाओ
ताकि मैं वह देख सकूं जिसे मैं खो चुका
बहिर्गमन के इतने सारे रास्तों के बाद अब कौन हूं मैं?
बर्बाद हो चुके एक दृश्य पर खड़ी एक ऊंची चट्टान पर
एक पत्थर है मेरा जिस पर मेरा नाम खुदा हुआ है.
सात सौ बरस मुझे अपने पहरे में ले जाते हैं शहर की दीवारों के पार.
समय फ़िज़ूल घूमता जाता है मेरा बीता हुआ कल बचाने के वास्ते
जो मुझ में और दूसरों में
मेरे निर्वासन के इतिहास को जन्म देता है.
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
विजेता आते हैं, विजेता जाते हैं ...
दक्षिण की तरफ़ जाते हुए जबकि
परिवर्तन की खाद पर सड़ा करते हैं मुल्क.
मैं जानता हूं कल मैं कौन था
लेकिन कोलम्बस के अटलान्टिक झण्डों के तले
कल कौन होऊंगा मैं?
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी, एक तार बन जाओ
मिश्र में नहीं है कोई मिश्र. फ़ेज़ में
फ़ेज़ नहीं, और सीरिया है बहुत दूर.
मेरे जनों के झण्डे पर कोई बाज़ नहीं
मंगोलों के तेज़ घोड़ों के रौंदे हुए
खजूर के पेड़ों के पूरब से नहीं बहती कोई नदी.
किस अन्दालूसिया में मेरि मुलाक़ात हुई अपने अन्त से?
यहां, इस जगह?
या वहां?
मैं जानता हूं मैं मर चुका, छोड़कर जा चुका इस जगह पर
जो सर्वोत्तम था मुझमें: मेरा अतीत
मेरे पास मेरे गिटार के अलावा कुछ नहीं बचा है.
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
विजेता आते हैं, विजेता जाते हैं ...
* फ़ेज़: एक पारम्परिक तुर्की टोपी
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
विजेता आते हैं, विजेता जाते हैं ...
मुश्किल होता जा रहा है मेरे लिए आईनों में अपना चेहरा याद रखना
मेरे लिए स्मृति बन जाओ
ताकि मैं वह देख सकूं जिसे मैं खो चुका
बहिर्गमन के इतने सारे रास्तों के बाद अब कौन हूं मैं?
बर्बाद हो चुके एक दृश्य पर खड़ी एक ऊंची चट्टान पर
एक पत्थर है मेरा जिस पर मेरा नाम खुदा हुआ है.
सात सौ बरस मुझे अपने पहरे में ले जाते हैं शहर की दीवारों के पार.
समय फ़िज़ूल घूमता जाता है मेरा बीता हुआ कल बचाने के वास्ते
जो मुझ में और दूसरों में
मेरे निर्वासन के इतिहास को जन्म देता है.
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
विजेता आते हैं, विजेता जाते हैं ...
दक्षिण की तरफ़ जाते हुए जबकि
परिवर्तन की खाद पर सड़ा करते हैं मुल्क.
मैं जानता हूं कल मैं कौन था
लेकिन कोलम्बस के अटलान्टिक झण्डों के तले
कल कौन होऊंगा मैं?
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी, एक तार बन जाओ
मिश्र में नहीं है कोई मिश्र. फ़ेज़ में
फ़ेज़ नहीं, और सीरिया है बहुत दूर.
मेरे जनों के झण्डे पर कोई बाज़ नहीं
मंगोलों के तेज़ घोड़ों के रौंदे हुए
खजूर के पेड़ों के पूरब से नहीं बहती कोई नदी.
किस अन्दालूसिया में मेरि मुलाक़ात हुई अपने अन्त से?
यहां, इस जगह?
या वहां?
मैं जानता हूं मैं मर चुका, छोड़कर जा चुका इस जगह पर
जो सर्वोत्तम था मुझमें: मेरा अतीत
मेरे पास मेरे गिटार के अलावा कुछ नहीं बचा है.
मेरे गिटार का तार बन जाओ, पानी
विजेता आते हैं, विजेता जाते हैं ...
* फ़ेज़: एक पारम्परिक तुर्की टोपी
Sunday, September 26, 2010
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 6
(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: यथार्थ और आदर्श के बीच सत्य और मिथ्या की भी एक लड़ाई है। मिथ्या इस संसार को बताया गया है (भारतीय दर्शन में) जो कि यथार्थतः मौजूद है और सत्य को पाने की बात की गयी है जो शाश्वत बताया गया है और लगता है कि वह सत्य पार्थिव नही हैं। कुछ कहना चाहेंगे?
लीलाधर जगूड़ी: जितनी बुद्धि और आत्मशक्ति झूठ को सत्य बनाने मे लगानी पडती है, उतनी ही प्रतिभा और हिम्मत सच को सच बनाने में भी लगानी पडती है। मै तो इतना जानता हूँ कि सच और झूठ दोनों के लिये परिश्रम करना पडता है और परिश्रम ही सौन्दर्य है। असल में मृत्यु को शाश्वत सत्य मान लेने से सारी गडबडियां शुरू हुयी हैं। इतने सुदंर संसार को मिथ्या मानना, मरणासन्न या मरे हुये या डरे हुये का बयान लगता है। भारतीय दर्शन में एक व्यक्ति की मृत्यु में सारी चीजें मर जाती है। लेकिन उसकी चेतना का संयत्र ‘आत्मा’ नहीं मरता (आत्मन् शब्द संस्कृत मे पुल्लिंग है)। उनका मानना है कि उस चेतना का किसी दूसरी योनि में पुर्नजन्म नहीं होता चेतना को प्रतीक रूप में इस तरह अनश्वर माना जा सकता है कि जो पैदा होगा वह अपने में अपनी चेतना लिये होगा और भूतपूर्व चेतनाओं द्वारा निर्मित ज्ञान को वह विरासत के रूप मे ग्रहण करेगा। लेकिन इससे नयी पैदा होने वाली चेतना का तिरस्कार तो होता ही है। उसके प्रति अविश्वास भी प्रकट होता है। ज्यादा न कहकर मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि सच-झूठ होते नहीं हैं बनाये जाते है। और सिद्ध या असिद्ध करने पडते हैं। इसीलिए हर युग और हर भूगोल का सत्य भी एक नहीं होता । जन्म और मृत्यु की तरह ‘सत्य’ सरल नहीं है क्यों कि इसे सिद्ध करो या न करो उसे होना ही है। असल में हमें भौतिक तरीके से सोचना नहीं आता जबकि प्राकृतिक अपनी भौतिक समझ की वजह से ही हमें भी और अपने को भी जीवित रखे हुए है। इसलिए सत्य को अकेले समझ पाना कठिन और विवादित दोनों ही है क्योंकि वह झूठ से भी खुराक प्राप्त करता है और डामाडोल विश्वास से भी इस तरह सत्य झूठ से भी ज्यादा विवादित हो जाता है। मेरा सत्य, मेरे साथ घटित हुआ मेरा जीवन मेरा समय और मेरा समाज है, दूसरे व्यक्ति का सत्य कुछ दूसरे निष्कर्ष लिए हुए है। वह भी उतना ही सत्य है। सत्य एक जैसा जड़ और स्थापित नहीं है और वह हर बार हर मनुष्य हर पदार्थ के साथ जीवन में कई बार कई रूपों में जन्म लेता है। यह जन्म लेने वाले पर और घटित घटना से प्रभावित परिस्थतियों वाले पर निर्भर करता है कि वह सत्य और झूठ को कैसे कैसे ग्रहण करता है। न सत्य शाश्वत है न झूठ। दोनों परिवर्तनशील हैं कभी-कभी हम अपने सोच संकल्प और इरादे को भी सत्य का दर्जा दे देते हैं किसी का सत्य अपने नजरिए में न्याय बन जाता है। जबकि दूसरे किसी की नजर में अन्याय भी हो सकता है। सत्य ढुल-मुल है। झूठ की शक्ल सत्य से बहुत मिलती जुलती है। इसी तरह न्याय की शक्ल भी अन्याय से मिले बिना नहीं रहती है।
कभी-कभी तो दोनों की अनुहार एक हो जाती है। न्याय पलकर खुद अपने ही अन्याय गिनाने लगता है। मानवीय संवेदनाओं में न्याय और अन्याय को समझने, समेटने और संवारने का द्वन्द्व और उलझाव सदियों से चला आ रहा है। विवेक ही अविवेक और अन्याय, शत्रु और मित्र की भूमिका निभाने लगता है। वह परिस्थितियों को देशकाल में बांट कर सच और झूठ, न्याय और अन्याय के स्थापित निष्कर्षों को बदल देता है। इसी लिए शाश्वत सत्य और युग सत्य में भी महाभारत चलता रहता है। यहां कुछ भी निर्णीत नहीं है। न सत्य न न्याय। यह झूठ और अन्याय पर निर्भर करता है कि वह किसको सत्य और किसको न्याय सिद्ध कर दें।
किसी भी जमाने का झूठ पकड़ो तो वह बता देगा कि उस जमाने का सच क्या है। सच पहचानने से पहले झूठ पहचानना सीखना चाहिए। सिद्ध कर पायें तो सच, वरना वह भी झूठ है। झूठ सच के इतने करीब है कि प्रक्रियागत अंतिम निष्पत्ति मे ही सच का पता लग पाता है। सचमुच, हर युग में, सत्य का मुँह स्वर्णपात्र से ढका है, हे पूषन (पुरूष) तुम उसे हटाओ।
ओम निश्चल: आपने ‘खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है,’ से कविता कला का जैसे शिखर छू लिया है। संग्रह की नामधारी कविता और फूलों की खेती और उदासी, प्राचीन भारतीय संस्कृति को अंतिम बुके सौ गलियों वाला बाजार, कर्ज के बाद नींद आदि कविताएं अलग अलग प्रविधियों की स्थापना करती दिखती हैं। बारह कविता संग्रह आपके आ चुके है। आपके हर संग्रह में प्रतीतयों का नयापन है। आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है कि कुछ लोग सब कुछ को काटकर छवियों का बुरादा बना देने वाले भाषा की एक जैसी किट प्लाई बना देना चाहते है। आप की कविता उसके विरोध में है। इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के बाद भी हिन्दी आलोचना आपको नेपथ्य में क्यो रखती आयी है।
लीलाधर जगूड़ी: शायद मैं कविता का अगला दृश्य होऊँ? मै पढ़ा जाता हूं पढ़ाया जाता हूं, बाजार की दृष्टि से देखें तो बिकता भी खूब हूं। मेरे कविता संग्रहो का पंचवा और छठा संस्करण बाजार में है। रचनाकारों के बीच मेरी कविताओं की चर्चा होती है। जैसे आलोचक मुक्तिबोध को मिले वैसे आलोचक मिलना मेरा सौभाग्य कहां? आलोचक मिलना भी किसी लेखक विशेष का सौभाग्य है। और मैं उन सौभाग्यशालियो में नही हूँ। मैं भी भवभूति की तरह यही कहूँगा कि मेरा कोई समान धर्मा अवश्य उत्पन्न होगा जो मेरे रचना संसार को समझेगा। क्योंकि काल निरवधि है और पृथ्वी विशाल है। मेरी कविताओं की भाषा उनके संदर्भ और उनकी अदायगी संभवतः आलोचना की चालू भाषा के अनुकूल नहीं है।
मैने कविता में ऐसे मुहावरे रचे हैं जो आलोचक को भी कल्पनाशील बनने पर मजबूर करेंगे। चालू कविताओं के संघर्ष से बनी आलोचक की चालू समझ के आधार पर मेरी कविताओं को दूर की कौड़ी कहकर अनदेखा ही किया जा सकता है। मैंने यह अनदेखी बहुत झेली है ओैर चुपचाप अपनी कविताओं पर काम करता रहा हूँ। कुछ नया और मौलिक कहने की होड़ से कविता बनती है।
इन कविताओ के लिए आलोचक को आजादी के बाद का एक अलग समाजशास्त्र और व्यकि चारित्र तथा प्रकृति, परिवार और राजनीति का ताना बाना बनाना पडे.गा। इतनी मेहनत कोई नया आलोचक ही कर सकता है और नये आलोचक की हर किसी का प्रतीक्षा है।
ओम निश्चल: हाल ही में डा नामवर सिहं ने अपनी आलोचना के आत्म संघर्ष को लक्षित करते हुए उसे अज्ञेय की सुपरिचित कविता ‘नाच’ के साथ आइडेंटीफ़ाई किया। क्या यह कविता कवि के आत्म संघर्ष को भी उतने ही प्रामाणिक ढंग से विवेचित नहीं करती?
लीलाधर जगूड़ी: नामवर जी ने भले ही सिल-सिलेवार किसी काव्यशास्त्र और काव्येतिहास का उत्पादन नहीं किया है लेकिन उनकी बात चीत में प्रायः ऐसे सूत्र आ जाते हैं जिन सूत्रों के सहारे एक पद्वति की रचना की जा सकती है। लेकिन यह कौन करे? क्यों कि नामवर जी के विवेचन में सूत्रबद्धता नही बल्कि कुछ लोगो से वचन-बद्धता झलकती है। उन्हे विमर्शक के साथ साथ अन्वेषक की भी भूमिका निभानी चाहिए थी। यह भी विचारणीय है कि नामवर जी ने खुद को मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से क्यों नहीं पहचाना? क्या आलोचक भी अभिशप्त नहीं है? नामवर जी स्वयं को ब्रहाराक्षस के सतत अभिशप्त और संघर्षशील व्यक्तित्व के करीब नहीं मानते तो यह उनका ईमानदार आत्म स्वीकर हो सकता है कि वे ‘नाच’ कविता के उस नट की तरह हैं जो एक से दूसरे खंबे के बीच, खतरनाक रस्सी पर संतुलन साधे हुए करतब दिखा रहा है। वह नट राहों का अन्वेषी नहीं है वह जन्म और मृत्यु के दो खंभो के बीच तनी हुई जीवन की रस्सी पर चलने वाला आध्यात्मिक नट ज्यादा लगता है। अज्ञेय ने उस नट की बाजीगरी, लाचारी संतुलन साधे रखने की कुशलता और भीड. जुटाये रखने की जादूगरी पर बडे सूक्ष्म और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष व्यंग्य किये हैं। रचनाकार को भी उस नाच में शमिल समझा जा सकता है। क्योंकि अपने बहाने वह आलोचक को भी एक रास्ता तभी दिखा पा रहा है। नामवर जी को होना तो कवि ही था लेकिन उन्हे बहा्रराक्षस वाला शाप लग गया। मैं उन्हें शाप स्मरण कराते हुए शाप मुक्ति का एक खतरनाक नट मार्ग बता देता हूँ कि अगर उन्होने इस बीच या तब से लेकर अब तक कहीं कुछ काव्य पंक्तियां रची हों तो उन्हे अब सकारण प्रकाशित करा दें। पापमोचन के लिए यह आवश्यक है। इधर नामवर जी ने कहानी पर ‘लमही’ में एक लेख लिखा है (विलंब से) जिसे पता नहीं कहानीकारों ने समझा है या नहीं । यदि समझा हो तो कहानी एक नयी सांस लेगी। नयी सांस लेने की पूरी प्ररेणा है उस लेख में।
‘नाच’ कविता में कवि की भी वैसी झलक है जैसी नृत्यरत शिव की डमरू जब नृत्य के अंत में ’सम’ पर आता है तो उसमें पाणिनि, व्याकरण के चैदह सूत्रों का निनाद सुनते हैं। इसी तरह नाच कविता से अज्ञेय की भी कविता का एक और प्रारंभ होता है। वे अपनी कविता का व्याकरण बदलते हैं।
ओम निश्चल: प्रेम कविताएं आपने भी लिखी हैं पर उनका संदर्भ किसी अवधारणा की स्पष्ठता चाहता है। वहां प्रेम की नयी अवधारणाएं बनती दिखती है।
लीलाधर जगूड़ी: प्रेम भी हमारे यहां बेहद वांछित उपजाऊ और काफ़ी भ्रामक तत्व बना हुआ है कुछ लोग इसे प्रथमिक स्तर पर स्त्री पुरूष सबंधो के लिये इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोग इसे इस अर्थ में भी इस्तेमाल करते हैं कि पुरूष कई स्त्रियों के साथ एक समय में एक ही जगह या अलग-अलग जगहों पर प्रेम करते रह सकते हैं। क्योंकि कुछ स्त्रियां भी ऐसा ही करना चाहती हैं। प्रेम विराट है लेकिन कुछ के लिए प्रेम क्षणे-क्षणे मैथुन है। कुछ लोग अपने द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न और अपने साथ किये जाने वाले प्रतिक्रिया स्वरूप अभद्र व्यवहार को भी प्रेम की मार की परिधि में रखते हैं। कुछ लोग प्रेम को शुद्धरूप से एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझते हैं और वे उसे कभी कहीं बांटते हुए, कभी कहीं बटोरते हुए दिखते हैं। जितने प्रकार के लोग होते है असल में उतने प्रकार के और कभी-कभी अनसे भी ज्यादा प्रकार के प्रेम होते हैं। कुछ के लिए प्रेम आजादी है तो कुछ के लिए पे्रम जन्म-जन्मांतरों का बंधन है। पारिवारिक प्रेम और देश प्रेम ये सब, कुछ के लिए तुच्छ श्रेणी के प्रेम हैं? ईश्वर जैसा अमूर्त प्रेम कुछ के लिए श्रेष्ठ और स्मरणीय हैं। कुछ लोग प्रेम-प्रेम कहते हुए बहुत सी कटुता फैलाते रहते हैं। और उन्हीं के बरक्स कुछ लोग प्रेम के नाम पर निष्क्रियता और नाकारापन फैलाते रहते है। प्रेम एक सार्वभौम तत्व तभी है जब उसकी पालिटिक्स स्पष्ट हो। यहां न व्यक्ति का प्रेम स्पष्ट है न मंतव्य तो पिर प्रेम केवल स्त्री-पुरूष के बीच का मामला अथवा कभी-कभी केवल सैक्स संबंध बनकर रह जाता है।
पिर भी प्रेम का एक रूप और है वह है व्यक्ति की निजी चाह। यह निजी चाह वाला प्रेम कुछ ‘हॉबी’ नुमा दिखायी देता है। कामनाओं वाला प्रेम जीवन में उत्कृष्ट और निकृष्ट किस्म की कामायनी खड़ी कर देता है। कभी ऐसा भी होता है कि आजाद प्रेम व्यक्ति को गुलाम बना देता है। कभी ऐसा भी होता है कि प्रेम का गुलाम सारी गुलामियों का अंत करते हुए अपने लिए एक निश्चित मालिक को चुन लेता है। इसलिए संस्कृत में प्रेम से भी बड़ा एक शब्द प्रतिष्ठित किया गया था ‘सौहार्द’। यह सहृदयता से बना था। एक जैसा वैचारिक अनुबंध। इसलिए जीवन और सहित्य में पाठकों से ज्यादा ‘सौहृदों’ अथवा सुहृदों की जरूरत थी। वे ‘सुहृद’ आज कहां हैं?
ओम निश्चल: आप के कविता संसार का एक हिस्सा प्रेम कविताओं का भी है, पर उनमें वैसी मासूमियत नहीं है जैसी प्रेम कविताओं के प्रचलित विन्यास और संवेदना में पायी जाती है। मुझे अनायास- वह शतरूपा, अमृत, प्रेमांतरण, आषाढ़, न ययौ तस्थौ जैसी कविताएं याद आ रही हैं। आपने शुरूआत में गीत भी लिखे हैं लेकिन अलग तरह के। आपके गीतों की अलग चर्चा होनी चाहिए। प्रणय की वांछित अनिंद्य मुद्राएं भी आपने उकेरी हैं। एक कविता में आपने कहा कि ‘प्यार में प्रत्येक प्रश्न अनिवार्य है’ कुछ उत्तर मिले है आपको?
लीलाधर जगूड़ी: प्रश्न मेरे नहीं है उस व्यक्ति के हैं जो प्यार की उस परिस्थिति में है कि स्वयं उसका प्यार ही इस पंक्ति को कहता है। आपके जो भी कम्पल्शन हों, प्यार के प्रश्नो कें उत्तर देना कम्पलसरी है। प्यार भी प्रश्नज्ञान है। यहां यह निष्ठा और समर्पण की चीज नहीं है बल्कि मामला व्याहारिक स्पष्टता का है। प्रेम अधिक जिम्मेदारी का काम है प्रेम एक मनोनयन के साथ सार्वजनिक अर्हता की भी मांग करता है। प्रेम सिर्प एकांत का विषय नहीं बल्कि वह सार्वभौम उपस्थिति की भी मांग करता है। प्रेम अकेले होने से इन्कार करता है। प्रेम इस संसार का सुखद विस्तार है। इसलिए उसके प्रश्नों में ‘ताप और शाप’ दोनों होते हैं।
इन प्रेम कविताओं में रूमानियत का घोर अभाव है लेकिन भावनाओं के आवेग में यथार्थ से जबर्दस्त मुठभेड़ है। असल में प्रेम भी अब का्फ़ी विवेकी हो गया है। प्रेम भी नहीं चाहता कि व मजबूरी के डंडे से हांक जाये।
ओम निश्चल: श्रीलाल शुक्ल और कुंवर नारायण जैसे साहित्यकारों के करीबियों में आप माने जाते हैं। इनकी किन खूबियों को आप आज भी याद करते है।
लीलाधर जगूड़ी: पता नहीं वे मुझे अपने करीबियों में कितना मानते है ... फिर भी उनसे कई चीजें सीखने को मिली हैं। जैसे किसी को यह अहसास मत होने दो कि वह बहुत करीबी है। श्रीलाल जी से सीखा कि अपने दुःखों और गरीबी की नुमाइश न लगाओं। कुंवर जी से सीखा कि घर के हो तो बिना बोले बैठे रहने में जो आनंद है उसे बोलकर भंग क्यों किया जाय। जो लिखा जाय उसे तुरंत न छपाया जाय। लिखे हुए को कुछ दिन अपने साथ रहने का मौका दिया जाय जैसे एक दूसरे को सुधार रहे हों।
ओम निश्चल: अगला जीवन मिला तो क्या कवि जीवन ही चुनेंगे?
लीलाधर जगूड़ी: चुनने का मौका तो न इस जीवन में मिला था न अगले में मिलेगा। लेकिन अगर किसी हाइपोथीसिस के तहत यह मान लिया जाय कि अगले जन्म में चुनाव का मौका मिलेगा तो मैं जरूर उस समय का एक अच्छा कवि होना चाहूंगा। साथ ही अगले जन्म में अपनी इस जन्म में लिखी अपनी कविताओं की आलोचना से परिचित होना चाहूंगा। हो सकता है अपनी बेवकूफ़ियों के बारें में कुछ और भी लिखूं.
(समाप्त)
कवि और साक्षात्कारकर्ता से नीचे लिखे पतों या टेलीफ़ोन नम्बरों पर सम्पर्क किया जा सकता है:
लीलाधर जगूड़ी, सीता कुटी, सरस्वती इन्क्लेव, बदरीपुर रोड, जोगीवाला, देहरादून- 248005
फ़ोन-09411733588
डॉ. ओम निश्चल, जी -1/506 ए उत्तम नगर, नई दिल्लीः110059
फ़ोन-09955774115,
ओम निश्चल: यथार्थ और आदर्श के बीच सत्य और मिथ्या की भी एक लड़ाई है। मिथ्या इस संसार को बताया गया है (भारतीय दर्शन में) जो कि यथार्थतः मौजूद है और सत्य को पाने की बात की गयी है जो शाश्वत बताया गया है और लगता है कि वह सत्य पार्थिव नही हैं। कुछ कहना चाहेंगे?
लीलाधर जगूड़ी: जितनी बुद्धि और आत्मशक्ति झूठ को सत्य बनाने मे लगानी पडती है, उतनी ही प्रतिभा और हिम्मत सच को सच बनाने में भी लगानी पडती है। मै तो इतना जानता हूँ कि सच और झूठ दोनों के लिये परिश्रम करना पडता है और परिश्रम ही सौन्दर्य है। असल में मृत्यु को शाश्वत सत्य मान लेने से सारी गडबडियां शुरू हुयी हैं। इतने सुदंर संसार को मिथ्या मानना, मरणासन्न या मरे हुये या डरे हुये का बयान लगता है। भारतीय दर्शन में एक व्यक्ति की मृत्यु में सारी चीजें मर जाती है। लेकिन उसकी चेतना का संयत्र ‘आत्मा’ नहीं मरता (आत्मन् शब्द संस्कृत मे पुल्लिंग है)। उनका मानना है कि उस चेतना का किसी दूसरी योनि में पुर्नजन्म नहीं होता चेतना को प्रतीक रूप में इस तरह अनश्वर माना जा सकता है कि जो पैदा होगा वह अपने में अपनी चेतना लिये होगा और भूतपूर्व चेतनाओं द्वारा निर्मित ज्ञान को वह विरासत के रूप मे ग्रहण करेगा। लेकिन इससे नयी पैदा होने वाली चेतना का तिरस्कार तो होता ही है। उसके प्रति अविश्वास भी प्रकट होता है। ज्यादा न कहकर मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि सच-झूठ होते नहीं हैं बनाये जाते है। और सिद्ध या असिद्ध करने पडते हैं। इसीलिए हर युग और हर भूगोल का सत्य भी एक नहीं होता । जन्म और मृत्यु की तरह ‘सत्य’ सरल नहीं है क्यों कि इसे सिद्ध करो या न करो उसे होना ही है। असल में हमें भौतिक तरीके से सोचना नहीं आता जबकि प्राकृतिक अपनी भौतिक समझ की वजह से ही हमें भी और अपने को भी जीवित रखे हुए है। इसलिए सत्य को अकेले समझ पाना कठिन और विवादित दोनों ही है क्योंकि वह झूठ से भी खुराक प्राप्त करता है और डामाडोल विश्वास से भी इस तरह सत्य झूठ से भी ज्यादा विवादित हो जाता है। मेरा सत्य, मेरे साथ घटित हुआ मेरा जीवन मेरा समय और मेरा समाज है, दूसरे व्यक्ति का सत्य कुछ दूसरे निष्कर्ष लिए हुए है। वह भी उतना ही सत्य है। सत्य एक जैसा जड़ और स्थापित नहीं है और वह हर बार हर मनुष्य हर पदार्थ के साथ जीवन में कई बार कई रूपों में जन्म लेता है। यह जन्म लेने वाले पर और घटित घटना से प्रभावित परिस्थतियों वाले पर निर्भर करता है कि वह सत्य और झूठ को कैसे कैसे ग्रहण करता है। न सत्य शाश्वत है न झूठ। दोनों परिवर्तनशील हैं कभी-कभी हम अपने सोच संकल्प और इरादे को भी सत्य का दर्जा दे देते हैं किसी का सत्य अपने नजरिए में न्याय बन जाता है। जबकि दूसरे किसी की नजर में अन्याय भी हो सकता है। सत्य ढुल-मुल है। झूठ की शक्ल सत्य से बहुत मिलती जुलती है। इसी तरह न्याय की शक्ल भी अन्याय से मिले बिना नहीं रहती है।
कभी-कभी तो दोनों की अनुहार एक हो जाती है। न्याय पलकर खुद अपने ही अन्याय गिनाने लगता है। मानवीय संवेदनाओं में न्याय और अन्याय को समझने, समेटने और संवारने का द्वन्द्व और उलझाव सदियों से चला आ रहा है। विवेक ही अविवेक और अन्याय, शत्रु और मित्र की भूमिका निभाने लगता है। वह परिस्थितियों को देशकाल में बांट कर सच और झूठ, न्याय और अन्याय के स्थापित निष्कर्षों को बदल देता है। इसी लिए शाश्वत सत्य और युग सत्य में भी महाभारत चलता रहता है। यहां कुछ भी निर्णीत नहीं है। न सत्य न न्याय। यह झूठ और अन्याय पर निर्भर करता है कि वह किसको सत्य और किसको न्याय सिद्ध कर दें।
किसी भी जमाने का झूठ पकड़ो तो वह बता देगा कि उस जमाने का सच क्या है। सच पहचानने से पहले झूठ पहचानना सीखना चाहिए। सिद्ध कर पायें तो सच, वरना वह भी झूठ है। झूठ सच के इतने करीब है कि प्रक्रियागत अंतिम निष्पत्ति मे ही सच का पता लग पाता है। सचमुच, हर युग में, सत्य का मुँह स्वर्णपात्र से ढका है, हे पूषन (पुरूष) तुम उसे हटाओ।
ओम निश्चल: आपने ‘खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है,’ से कविता कला का जैसे शिखर छू लिया है। संग्रह की नामधारी कविता और फूलों की खेती और उदासी, प्राचीन भारतीय संस्कृति को अंतिम बुके सौ गलियों वाला बाजार, कर्ज के बाद नींद आदि कविताएं अलग अलग प्रविधियों की स्थापना करती दिखती हैं। बारह कविता संग्रह आपके आ चुके है। आपके हर संग्रह में प्रतीतयों का नयापन है। आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है कि कुछ लोग सब कुछ को काटकर छवियों का बुरादा बना देने वाले भाषा की एक जैसी किट प्लाई बना देना चाहते है। आप की कविता उसके विरोध में है। इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के बाद भी हिन्दी आलोचना आपको नेपथ्य में क्यो रखती आयी है।
लीलाधर जगूड़ी: शायद मैं कविता का अगला दृश्य होऊँ? मै पढ़ा जाता हूं पढ़ाया जाता हूं, बाजार की दृष्टि से देखें तो बिकता भी खूब हूं। मेरे कविता संग्रहो का पंचवा और छठा संस्करण बाजार में है। रचनाकारों के बीच मेरी कविताओं की चर्चा होती है। जैसे आलोचक मुक्तिबोध को मिले वैसे आलोचक मिलना मेरा सौभाग्य कहां? आलोचक मिलना भी किसी लेखक विशेष का सौभाग्य है। और मैं उन सौभाग्यशालियो में नही हूँ। मैं भी भवभूति की तरह यही कहूँगा कि मेरा कोई समान धर्मा अवश्य उत्पन्न होगा जो मेरे रचना संसार को समझेगा। क्योंकि काल निरवधि है और पृथ्वी विशाल है। मेरी कविताओं की भाषा उनके संदर्भ और उनकी अदायगी संभवतः आलोचना की चालू भाषा के अनुकूल नहीं है।
मैने कविता में ऐसे मुहावरे रचे हैं जो आलोचक को भी कल्पनाशील बनने पर मजबूर करेंगे। चालू कविताओं के संघर्ष से बनी आलोचक की चालू समझ के आधार पर मेरी कविताओं को दूर की कौड़ी कहकर अनदेखा ही किया जा सकता है। मैंने यह अनदेखी बहुत झेली है ओैर चुपचाप अपनी कविताओं पर काम करता रहा हूँ। कुछ नया और मौलिक कहने की होड़ से कविता बनती है।
इन कविताओ के लिए आलोचक को आजादी के बाद का एक अलग समाजशास्त्र और व्यकि चारित्र तथा प्रकृति, परिवार और राजनीति का ताना बाना बनाना पडे.गा। इतनी मेहनत कोई नया आलोचक ही कर सकता है और नये आलोचक की हर किसी का प्रतीक्षा है।
ओम निश्चल: हाल ही में डा नामवर सिहं ने अपनी आलोचना के आत्म संघर्ष को लक्षित करते हुए उसे अज्ञेय की सुपरिचित कविता ‘नाच’ के साथ आइडेंटीफ़ाई किया। क्या यह कविता कवि के आत्म संघर्ष को भी उतने ही प्रामाणिक ढंग से विवेचित नहीं करती?
लीलाधर जगूड़ी: नामवर जी ने भले ही सिल-सिलेवार किसी काव्यशास्त्र और काव्येतिहास का उत्पादन नहीं किया है लेकिन उनकी बात चीत में प्रायः ऐसे सूत्र आ जाते हैं जिन सूत्रों के सहारे एक पद्वति की रचना की जा सकती है। लेकिन यह कौन करे? क्यों कि नामवर जी के विवेचन में सूत्रबद्धता नही बल्कि कुछ लोगो से वचन-बद्धता झलकती है। उन्हे विमर्शक के साथ साथ अन्वेषक की भी भूमिका निभानी चाहिए थी। यह भी विचारणीय है कि नामवर जी ने खुद को मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से क्यों नहीं पहचाना? क्या आलोचक भी अभिशप्त नहीं है? नामवर जी स्वयं को ब्रहाराक्षस के सतत अभिशप्त और संघर्षशील व्यक्तित्व के करीब नहीं मानते तो यह उनका ईमानदार आत्म स्वीकर हो सकता है कि वे ‘नाच’ कविता के उस नट की तरह हैं जो एक से दूसरे खंबे के बीच, खतरनाक रस्सी पर संतुलन साधे हुए करतब दिखा रहा है। वह नट राहों का अन्वेषी नहीं है वह जन्म और मृत्यु के दो खंभो के बीच तनी हुई जीवन की रस्सी पर चलने वाला आध्यात्मिक नट ज्यादा लगता है। अज्ञेय ने उस नट की बाजीगरी, लाचारी संतुलन साधे रखने की कुशलता और भीड. जुटाये रखने की जादूगरी पर बडे सूक्ष्म और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष व्यंग्य किये हैं। रचनाकार को भी उस नाच में शमिल समझा जा सकता है। क्योंकि अपने बहाने वह आलोचक को भी एक रास्ता तभी दिखा पा रहा है। नामवर जी को होना तो कवि ही था लेकिन उन्हे बहा्रराक्षस वाला शाप लग गया। मैं उन्हें शाप स्मरण कराते हुए शाप मुक्ति का एक खतरनाक नट मार्ग बता देता हूँ कि अगर उन्होने इस बीच या तब से लेकर अब तक कहीं कुछ काव्य पंक्तियां रची हों तो उन्हे अब सकारण प्रकाशित करा दें। पापमोचन के लिए यह आवश्यक है। इधर नामवर जी ने कहानी पर ‘लमही’ में एक लेख लिखा है (विलंब से) जिसे पता नहीं कहानीकारों ने समझा है या नहीं । यदि समझा हो तो कहानी एक नयी सांस लेगी। नयी सांस लेने की पूरी प्ररेणा है उस लेख में।
‘नाच’ कविता में कवि की भी वैसी झलक है जैसी नृत्यरत शिव की डमरू जब नृत्य के अंत में ’सम’ पर आता है तो उसमें पाणिनि, व्याकरण के चैदह सूत्रों का निनाद सुनते हैं। इसी तरह नाच कविता से अज्ञेय की भी कविता का एक और प्रारंभ होता है। वे अपनी कविता का व्याकरण बदलते हैं।
ओम निश्चल: प्रेम कविताएं आपने भी लिखी हैं पर उनका संदर्भ किसी अवधारणा की स्पष्ठता चाहता है। वहां प्रेम की नयी अवधारणाएं बनती दिखती है।
लीलाधर जगूड़ी: प्रेम भी हमारे यहां बेहद वांछित उपजाऊ और काफ़ी भ्रामक तत्व बना हुआ है कुछ लोग इसे प्रथमिक स्तर पर स्त्री पुरूष सबंधो के लिये इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोग इसे इस अर्थ में भी इस्तेमाल करते हैं कि पुरूष कई स्त्रियों के साथ एक समय में एक ही जगह या अलग-अलग जगहों पर प्रेम करते रह सकते हैं। क्योंकि कुछ स्त्रियां भी ऐसा ही करना चाहती हैं। प्रेम विराट है लेकिन कुछ के लिए प्रेम क्षणे-क्षणे मैथुन है। कुछ लोग अपने द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न और अपने साथ किये जाने वाले प्रतिक्रिया स्वरूप अभद्र व्यवहार को भी प्रेम की मार की परिधि में रखते हैं। कुछ लोग प्रेम को शुद्धरूप से एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझते हैं और वे उसे कभी कहीं बांटते हुए, कभी कहीं बटोरते हुए दिखते हैं। जितने प्रकार के लोग होते है असल में उतने प्रकार के और कभी-कभी अनसे भी ज्यादा प्रकार के प्रेम होते हैं। कुछ के लिए प्रेम आजादी है तो कुछ के लिए पे्रम जन्म-जन्मांतरों का बंधन है। पारिवारिक प्रेम और देश प्रेम ये सब, कुछ के लिए तुच्छ श्रेणी के प्रेम हैं? ईश्वर जैसा अमूर्त प्रेम कुछ के लिए श्रेष्ठ और स्मरणीय हैं। कुछ लोग प्रेम-प्रेम कहते हुए बहुत सी कटुता फैलाते रहते हैं। और उन्हीं के बरक्स कुछ लोग प्रेम के नाम पर निष्क्रियता और नाकारापन फैलाते रहते है। प्रेम एक सार्वभौम तत्व तभी है जब उसकी पालिटिक्स स्पष्ट हो। यहां न व्यक्ति का प्रेम स्पष्ट है न मंतव्य तो पिर प्रेम केवल स्त्री-पुरूष के बीच का मामला अथवा कभी-कभी केवल सैक्स संबंध बनकर रह जाता है।
पिर भी प्रेम का एक रूप और है वह है व्यक्ति की निजी चाह। यह निजी चाह वाला प्रेम कुछ ‘हॉबी’ नुमा दिखायी देता है। कामनाओं वाला प्रेम जीवन में उत्कृष्ट और निकृष्ट किस्म की कामायनी खड़ी कर देता है। कभी ऐसा भी होता है कि आजाद प्रेम व्यक्ति को गुलाम बना देता है। कभी ऐसा भी होता है कि प्रेम का गुलाम सारी गुलामियों का अंत करते हुए अपने लिए एक निश्चित मालिक को चुन लेता है। इसलिए संस्कृत में प्रेम से भी बड़ा एक शब्द प्रतिष्ठित किया गया था ‘सौहार्द’। यह सहृदयता से बना था। एक जैसा वैचारिक अनुबंध। इसलिए जीवन और सहित्य में पाठकों से ज्यादा ‘सौहृदों’ अथवा सुहृदों की जरूरत थी। वे ‘सुहृद’ आज कहां हैं?
ओम निश्चल: आप के कविता संसार का एक हिस्सा प्रेम कविताओं का भी है, पर उनमें वैसी मासूमियत नहीं है जैसी प्रेम कविताओं के प्रचलित विन्यास और संवेदना में पायी जाती है। मुझे अनायास- वह शतरूपा, अमृत, प्रेमांतरण, आषाढ़, न ययौ तस्थौ जैसी कविताएं याद आ रही हैं। आपने शुरूआत में गीत भी लिखे हैं लेकिन अलग तरह के। आपके गीतों की अलग चर्चा होनी चाहिए। प्रणय की वांछित अनिंद्य मुद्राएं भी आपने उकेरी हैं। एक कविता में आपने कहा कि ‘प्यार में प्रत्येक प्रश्न अनिवार्य है’ कुछ उत्तर मिले है आपको?
लीलाधर जगूड़ी: प्रश्न मेरे नहीं है उस व्यक्ति के हैं जो प्यार की उस परिस्थिति में है कि स्वयं उसका प्यार ही इस पंक्ति को कहता है। आपके जो भी कम्पल्शन हों, प्यार के प्रश्नो कें उत्तर देना कम्पलसरी है। प्यार भी प्रश्नज्ञान है। यहां यह निष्ठा और समर्पण की चीज नहीं है बल्कि मामला व्याहारिक स्पष्टता का है। प्रेम अधिक जिम्मेदारी का काम है प्रेम एक मनोनयन के साथ सार्वजनिक अर्हता की भी मांग करता है। प्रेम सिर्प एकांत का विषय नहीं बल्कि वह सार्वभौम उपस्थिति की भी मांग करता है। प्रेम अकेले होने से इन्कार करता है। प्रेम इस संसार का सुखद विस्तार है। इसलिए उसके प्रश्नों में ‘ताप और शाप’ दोनों होते हैं।
इन प्रेम कविताओं में रूमानियत का घोर अभाव है लेकिन भावनाओं के आवेग में यथार्थ से जबर्दस्त मुठभेड़ है। असल में प्रेम भी अब का्फ़ी विवेकी हो गया है। प्रेम भी नहीं चाहता कि व मजबूरी के डंडे से हांक जाये।
ओम निश्चल: श्रीलाल शुक्ल और कुंवर नारायण जैसे साहित्यकारों के करीबियों में आप माने जाते हैं। इनकी किन खूबियों को आप आज भी याद करते है।
लीलाधर जगूड़ी: पता नहीं वे मुझे अपने करीबियों में कितना मानते है ... फिर भी उनसे कई चीजें सीखने को मिली हैं। जैसे किसी को यह अहसास मत होने दो कि वह बहुत करीबी है। श्रीलाल जी से सीखा कि अपने दुःखों और गरीबी की नुमाइश न लगाओं। कुंवर जी से सीखा कि घर के हो तो बिना बोले बैठे रहने में जो आनंद है उसे बोलकर भंग क्यों किया जाय। जो लिखा जाय उसे तुरंत न छपाया जाय। लिखे हुए को कुछ दिन अपने साथ रहने का मौका दिया जाय जैसे एक दूसरे को सुधार रहे हों।
ओम निश्चल: अगला जीवन मिला तो क्या कवि जीवन ही चुनेंगे?
लीलाधर जगूड़ी: चुनने का मौका तो न इस जीवन में मिला था न अगले में मिलेगा। लेकिन अगर किसी हाइपोथीसिस के तहत यह मान लिया जाय कि अगले जन्म में चुनाव का मौका मिलेगा तो मैं जरूर उस समय का एक अच्छा कवि होना चाहूंगा। साथ ही अगले जन्म में अपनी इस जन्म में लिखी अपनी कविताओं की आलोचना से परिचित होना चाहूंगा। हो सकता है अपनी बेवकूफ़ियों के बारें में कुछ और भी लिखूं.
(समाप्त)
कवि और साक्षात्कारकर्ता से नीचे लिखे पतों या टेलीफ़ोन नम्बरों पर सम्पर्क किया जा सकता है:
लीलाधर जगूड़ी, सीता कुटी, सरस्वती इन्क्लेव, बदरीपुर रोड, जोगीवाला, देहरादून- 248005
फ़ोन-09411733588
डॉ. ओम निश्चल, जी -1/506 ए उत्तम नगर, नई दिल्लीः110059
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वे चाहेंगे मुझे मरा हुआ देखना
महमूद दरवेश की कविताएं - ५
वे चाहेंगे मुझे मरा हुआ देखना
वे चाहेंगे मुझे मरा हुआ देखना, कहने को : वह हमारा है, हमारा
बीस सालों तक मैंने उनके कदमों की चाप सुनी है रात की दीवारों पर
वे कोई दरवाज़ा नहीं खोलते, लेकिन फ़िलहाल वे यहां हैं. मुझे उनमें से तीन दिखाई पड़ते हैं:
एक कवि, एक हत्यारा और किताबों का एक पाठक.
क्या आप थोड़ी वाइन पिएंगे? मैंने पूछा.
हां, उन्होंने जवाब दिया.
आप मुझे गोली कब मारने की सोच रहे हैं? मैंने पूछा.
इत्मीनान रखो, उन्होंने उत्तर दिया.
उन्होंने अपने गिलासों को एक कतार में रखा और लोगों के लिए गाना शुरू किया.
मैंने पूछा: आप मेरी हत्या कब शुरू करेंगे?
वह तो हो चुकी, उन्होंने कहा ... तुमने अपनी आत्मा से पहले अपने जूते क्यों भेजे?
ताकि वह धरती की सतह पर टहल सके, मैंने कहा
धरती दुष्टता की हद तक काली है, तुम्हारी कविता इतनी सफ़ेद कैसे है?
क्योंकि मेरे हृदय में तीस समुद्र उफन रहे हैं, मैंने जवाब दिया.
उन्होंने पूछा : तुम फ़्रेंच वाइन को प्यार क्यों करते हो?
क्योंकि मुझे सुन्दरतम स्त्रियों से प्यार करना होता है, मैंने जवाब दिया.
उन्होंने पूछा: तुम किस तरह की मौत चाहोगे?
नीली, जिस तरह तारे उड़ेले जाते हैं एक खिड़की से - क्या आप और वाइन पसन्द करेंगे?
हां, हम पिएंगे, वे बोले.
कृपया इत्मीनान से अपना समय लीजिये. मैं चाहता हूं आप मुझे धीरे धीरे कत्ल करें ताकि मैं
अपनी प्यारी पत्नी के लिए अपनी आख़िरी कविता लिख सकूं. वे हंसे और उन्होंने छीन लिए मुझसे
फ़क़त वे शब्द जो समर्पित थे मेरी प्यारी पत्नी को.
वे चाहेंगे मुझे मरा हुआ देखना
वे चाहेंगे मुझे मरा हुआ देखना, कहने को : वह हमारा है, हमारा
बीस सालों तक मैंने उनके कदमों की चाप सुनी है रात की दीवारों पर
वे कोई दरवाज़ा नहीं खोलते, लेकिन फ़िलहाल वे यहां हैं. मुझे उनमें से तीन दिखाई पड़ते हैं:
एक कवि, एक हत्यारा और किताबों का एक पाठक.
क्या आप थोड़ी वाइन पिएंगे? मैंने पूछा.
हां, उन्होंने जवाब दिया.
आप मुझे गोली कब मारने की सोच रहे हैं? मैंने पूछा.
इत्मीनान रखो, उन्होंने उत्तर दिया.
उन्होंने अपने गिलासों को एक कतार में रखा और लोगों के लिए गाना शुरू किया.
मैंने पूछा: आप मेरी हत्या कब शुरू करेंगे?
वह तो हो चुकी, उन्होंने कहा ... तुमने अपनी आत्मा से पहले अपने जूते क्यों भेजे?
ताकि वह धरती की सतह पर टहल सके, मैंने कहा
धरती दुष्टता की हद तक काली है, तुम्हारी कविता इतनी सफ़ेद कैसे है?
क्योंकि मेरे हृदय में तीस समुद्र उफन रहे हैं, मैंने जवाब दिया.
उन्होंने पूछा : तुम फ़्रेंच वाइन को प्यार क्यों करते हो?
क्योंकि मुझे सुन्दरतम स्त्रियों से प्यार करना होता है, मैंने जवाब दिया.
उन्होंने पूछा: तुम किस तरह की मौत चाहोगे?
नीली, जिस तरह तारे उड़ेले जाते हैं एक खिड़की से - क्या आप और वाइन पसन्द करेंगे?
हां, हम पिएंगे, वे बोले.
कृपया इत्मीनान से अपना समय लीजिये. मैं चाहता हूं आप मुझे धीरे धीरे कत्ल करें ताकि मैं
अपनी प्यारी पत्नी के लिए अपनी आख़िरी कविता लिख सकूं. वे हंसे और उन्होंने छीन लिए मुझसे
फ़क़त वे शब्द जो समर्पित थे मेरी प्यारी पत्नी को.
Saturday, September 25, 2010
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 5
(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: जिन दिनों कविता मे आप उभर रहे थे काव्य मूल्यों में सपाट बयानी का बोलबाला था किस तरह इस प्रवृत्ति ने आपको लुभाया और पीछा किया क्या कभी इससे पिण्ड छुडाने की इच्छा नहीं हुई? अगर हुई तो किस रूप में?
लीलाधर जगूड़ी: लगता है आप मुझे रूपवादी बनाकर ही मानेंगे। जब कि भौतिकवादी होने के लिए रूपवादी होना जरूरी है। निर्गुण से सगुण की ओर आना भौतिकता है। कविता जिन जिन रूपों में उस समय स्थापित थी, उसमें जो तत्व सब में था वह थी कविता की सगुणता और लयात्मकता। कविता की गेयता या गीतात्मकता नहीं। हर अच्छी कविता की एक अपनी रिद्म थी और आज भी हर अच्छी कविता अपनी एक खास लय (चाल) के साथ आती है। छायावादियों ने भी लयों का अविष्कार किया था और प्रसाद जी की ‘प्रलय की छाया’ कविता उसका पहला बेहतर उदारण है। यह कविता न होती तो ‘निराला’ न होते। हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेकर नये गुल खिलाता है। सपाट बयानी से निराला बहुत खेल चुके थे और कुछ लोगों ने उसको एक सरल खेल समझकर कविता को बहुत बिगाड़ा और आज भी बिगाड़ रहे हैं। मुक्तिबोध, राजकमल चैधरी और घूमिल ने इस सपाट बयानी वाली लय को कापी गम्भीर आशयों से भर दिया। सपाट बयानी भी कबीर जैसी रहस्यमय गहराई की मांग करने लगी। उसी से आज की कविता का ढांचा खडा हुआ है। आज की सपाट बयानी मूर्त और अमूर्त का संगम है।
मैंने कविता के हर मुकाम और मोड़ के साथ शामिल होकर अपने को बदलने के बहुत से गुर सीखने की कोशिश की है। सपाट बयानी किसी को थोथा कवि भी बना सकती है और किसी को कुछ ज्यादा ही अर्थवान। इसके आदर्श उदाहरण अज्ञेय, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और श्रीकान्त वर्मा हैं। एक सपाट बयानी वह भी जिससे भवानी प्रसाद मिश्र अपने कविता तैयार करते है। अलग तरह का खिचांव लिए हुए एक सपाट बयानी विजयदेव नारायण शाही की है। चन्द्रकान्त देवताले, विष्णु खरे, भगवत रावत की सपाट बयानी एकदम अलग तरह की है, जो विष्णुचन्द्र शर्मा के विद्रोही स्वर के निकट जाती है। हिन्दी में सरलता का आग्रह और दुराग्रह हांकता रहता है। कवि भाव की सरलता नहीं भाषा की सरलता की ओर चल जाते हैं पर कुछ कवि सपाटबयानी की खराब हद तक चले जाते हैं। लेकिन उक्त कवियों ने सपाटबयानी को उस तरह शक्ति में बदला है जिस तरह आज कल कूडे़ से खाद और बिजली पैदा की जा रही है। ये गैर पारम्परिक ऊर्जा वाले अक्षय स्रोतों के कवि हैं।
ओम निश्चल: जगूड़ी जी, परम्परा, मौलिकता और आधुनिकता की अक्सर चर्चा होती है। आपका कहना है कि परम्परा को हर बार नये विचारों वाली देह चाहिए होती है। नये होने की यह परम्परा है। परम्परा और आधुनिकता दोनों कविता में मौलिकता का पोषण कैसे करते हैं? करते भी हैं या नहीं?
लीलाधर जगूड़ी: परम्पराओं का जन्म संस्कारित रूढियों से होता है पहली परम्परा अगर कोई है तो वह रस्मो रिवाज है। परम्परा में अनुकरण और परिर्वतन दोनों शामिल हैं। ‘संस्करोतीति संस्कारः’ भी मंजाव का नाम है केवल कर्मकांड का नहीं। जो संस्कारित करे वह संस्कार है। या जिसे हमने अपने में सुधार अथवा मंजाव लाने के लिए अंगीकृत किया हो वह अभ्यास, वह आभास और वह आदत संस्कार की कोटि में रखा जा सकता है। सारी प्रगति मनुष्य के पिछडे़पन का अगला कदम है। आधुनिकता में भी प्राचीनता छिपी रहती है। आधुनिकता किसी न किसी प्राचीनता का नया संस्करण है। पत्थर से आग पैदा करने का आधुनिक स्वरूप है माचिस और लाइटर से आग पैदा करना। प्रक्रिया और परिणाम पहले से मौजूद हैं, बस उपकरण बदल गये हैं। भूख पुरानी है, पीजा आधुनिक है। भूख को भी आधुनिकता की भूख है या कि आधुनिकता की भूख, पीजा से भी नहीं मिटेगी। जिन रूढियों को हम हानिकारक समझते हैं उनको हम परम्परा का हिस्सा नहीं बनने देते। परम्पराओं की अपेक्षा समाज में रूढियां ज्यादा उपजाऊ और टिकाऊ बनी रहती हैं। संस्कारित रूढियों के पारम्परिक स्वरूप को एक मानवीय सामाजिक मूल्य के तहत एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी तक पहुंचाना पड़ता है। यही सांस्कृतिक यात्रा का द्वन्द्व है। अलग अलग संस्कृतियों से उपयोगी परम्पराओं को छांटकर सर्वोपयोगी बनाने का आचरण ही सभ्यताओं का समन्वय और संघर्ष दोनों बन जाता है। आधुनिकता भी लीक से हटकर नहीं बल्कि उसी लीक को एक नयी लीक के रूप में प्रस्तुत करती है। आधुनिकता में समय का ‘आजपन’ बहुत जुडा रहता है। हर समय के अपने आज और अपनी आधुनिकता होती है। किसी पुराने का नया जन्म भी आधुनिकता है। आधुनिकता में सोच और प्रयोग के तत्व ज्यादा होते हैं। आधुनिकता की भी अपनी परम्परा है कि वह चेतना के विकास को तो परिलक्षित करती है लेकिन अपनी आवृत्ति को छिपाती है। साहित्य में परम्परा का वही संबंध है जो नदी का उद्गम से है। साहित्य, संस्कृति और परम्परा का विस्तार करता है।
मौलिकता, थोड़ा हटकर एक दूसरी तरह के पुनरूत्पादन और जिजीविषा के साथ-साथ नयी और उपरिचित उपलब्धियों के उच्च जमावड़े का नाम है। जो अस्तित्व में नही था कुछ लोग उसके अस्तित्व में आने को मौलिकता कहते हैं। जबकि मौलिकता की जड़े परम्परा में हैं। मौलिकता का अस्तित्व उन्हीं जड़ों से अपना पुनरूद्भव प्राप्त करने में है। उदाहरण के लिए कोई एकदम नया विचार भी किसी क्रिया अथवा प्रतिक्रया में अपनी जडे़ं रोपता हुआ पैदा होता है। वह क्षीण और कमजोर हो सकता है, उसे धीरे धीरे किसी बच्चे या पौधे की तरह पुष्ट करना पड़ता है। एक दिन वही पौधा पेड. बन जाता है। हर बार पुराने पत्तों को गँवाकर, पुराने अंगो पर नये अंग उगाते हुए वह नये पत्तों से भर जाता है। कुछ पेड़ कटाई छंटाई से नये होते है। कुछ पेड़ धूप, आंधी बरसात और वज्रपात जैसी परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी अपनी जड़ों से अपनी वापसी करने लगते हैं। ठीक इसी तरह (दांतो और बालो को छोडकर) मनुष्य अपने अंगो को गंवाता नही है बल्कि उन्ही को विकसित और सुदृढ करता हुआ रोज रोज कुछ नया करने की कूवत से गुजरता है। मनुष्य के कुछ नये अंग उनके कामों और विचारों के मार्पत भी दिखायी देते हैं। इसलिए विचारों का वसंत किसी भी ऋतु में आ सकता है। कटे-पिटे पेड़ जब पिर अपनी मौलि (अपने शीर्ष) उगा लेते है तब वे मौलिक कहलाते हैं। नये पर नये पत्ते स्वभाविक हैं; पुराने पर नये पत्ते मौलिक हैं। मौलिक में एक अस्वाभविकता और असंभवता शामिल रहती है। ठूंठ कैसे मौलिक होते हैं यह मनुष्य को पेड़ से सीखना होगा इस प्रकार मौलिकता किसी की भी अपनी सृजन परम्परा का हिस्सा है। वही किसी दृश्य विचार और स्थापत्य को आधुनिक बनाने वाला तत्व भी है। नये की अपेक्षा जितने आप पुराने हैं उतने ही अधिक अवसर हैं आपके सामने मौलिक होने के। मौलिकता का एक अर्थ उच्चाशय उदात्त दृष्टि भी है। इसी से शिखर और सिर की मौलि का भी कुछ इस प्रकार का सम्बंध है कि जो दूर तक देखे और दूर से ही दिख जाये। सृजन के क्षेत्र में मौलिक, कटे हुए या विच्छिन्न भाग का फिर से उग आना है। इसलिए मौलिक, का एक अर्थ पहले जैसा नया और वास्तविक भी है।
कविता में वाक्य को कहां से कहां पुनः रोपित किया जाता है और हम देखते हैं कि ग्रामर की दृष्टि से नहीं बल्कि अभिप्राय की दृष्टि से वहां कुछ अश्रुत, युक्तियुक्त और गतिशील बिम्ब उसी सरलतम भाषा से उत्पे्रक्षित होने लगते हैं। शब्दो की असंगति भी अर्थ की नयी संगति पैदा कर देती है ।
(जारी)
ओम निश्चल: जिन दिनों कविता मे आप उभर रहे थे काव्य मूल्यों में सपाट बयानी का बोलबाला था किस तरह इस प्रवृत्ति ने आपको लुभाया और पीछा किया क्या कभी इससे पिण्ड छुडाने की इच्छा नहीं हुई? अगर हुई तो किस रूप में?
लीलाधर जगूड़ी: लगता है आप मुझे रूपवादी बनाकर ही मानेंगे। जब कि भौतिकवादी होने के लिए रूपवादी होना जरूरी है। निर्गुण से सगुण की ओर आना भौतिकता है। कविता जिन जिन रूपों में उस समय स्थापित थी, उसमें जो तत्व सब में था वह थी कविता की सगुणता और लयात्मकता। कविता की गेयता या गीतात्मकता नहीं। हर अच्छी कविता की एक अपनी रिद्म थी और आज भी हर अच्छी कविता अपनी एक खास लय (चाल) के साथ आती है। छायावादियों ने भी लयों का अविष्कार किया था और प्रसाद जी की ‘प्रलय की छाया’ कविता उसका पहला बेहतर उदारण है। यह कविता न होती तो ‘निराला’ न होते। हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेकर नये गुल खिलाता है। सपाट बयानी से निराला बहुत खेल चुके थे और कुछ लोगों ने उसको एक सरल खेल समझकर कविता को बहुत बिगाड़ा और आज भी बिगाड़ रहे हैं। मुक्तिबोध, राजकमल चैधरी और घूमिल ने इस सपाट बयानी वाली लय को कापी गम्भीर आशयों से भर दिया। सपाट बयानी भी कबीर जैसी रहस्यमय गहराई की मांग करने लगी। उसी से आज की कविता का ढांचा खडा हुआ है। आज की सपाट बयानी मूर्त और अमूर्त का संगम है।
मैंने कविता के हर मुकाम और मोड़ के साथ शामिल होकर अपने को बदलने के बहुत से गुर सीखने की कोशिश की है। सपाट बयानी किसी को थोथा कवि भी बना सकती है और किसी को कुछ ज्यादा ही अर्थवान। इसके आदर्श उदाहरण अज्ञेय, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और श्रीकान्त वर्मा हैं। एक सपाट बयानी वह भी जिससे भवानी प्रसाद मिश्र अपने कविता तैयार करते है। अलग तरह का खिचांव लिए हुए एक सपाट बयानी विजयदेव नारायण शाही की है। चन्द्रकान्त देवताले, विष्णु खरे, भगवत रावत की सपाट बयानी एकदम अलग तरह की है, जो विष्णुचन्द्र शर्मा के विद्रोही स्वर के निकट जाती है। हिन्दी में सरलता का आग्रह और दुराग्रह हांकता रहता है। कवि भाव की सरलता नहीं भाषा की सरलता की ओर चल जाते हैं पर कुछ कवि सपाटबयानी की खराब हद तक चले जाते हैं। लेकिन उक्त कवियों ने सपाटबयानी को उस तरह शक्ति में बदला है जिस तरह आज कल कूडे़ से खाद और बिजली पैदा की जा रही है। ये गैर पारम्परिक ऊर्जा वाले अक्षय स्रोतों के कवि हैं।
ओम निश्चल: जगूड़ी जी, परम्परा, मौलिकता और आधुनिकता की अक्सर चर्चा होती है। आपका कहना है कि परम्परा को हर बार नये विचारों वाली देह चाहिए होती है। नये होने की यह परम्परा है। परम्परा और आधुनिकता दोनों कविता में मौलिकता का पोषण कैसे करते हैं? करते भी हैं या नहीं?
लीलाधर जगूड़ी: परम्पराओं का जन्म संस्कारित रूढियों से होता है पहली परम्परा अगर कोई है तो वह रस्मो रिवाज है। परम्परा में अनुकरण और परिर्वतन दोनों शामिल हैं। ‘संस्करोतीति संस्कारः’ भी मंजाव का नाम है केवल कर्मकांड का नहीं। जो संस्कारित करे वह संस्कार है। या जिसे हमने अपने में सुधार अथवा मंजाव लाने के लिए अंगीकृत किया हो वह अभ्यास, वह आभास और वह आदत संस्कार की कोटि में रखा जा सकता है। सारी प्रगति मनुष्य के पिछडे़पन का अगला कदम है। आधुनिकता में भी प्राचीनता छिपी रहती है। आधुनिकता किसी न किसी प्राचीनता का नया संस्करण है। पत्थर से आग पैदा करने का आधुनिक स्वरूप है माचिस और लाइटर से आग पैदा करना। प्रक्रिया और परिणाम पहले से मौजूद हैं, बस उपकरण बदल गये हैं। भूख पुरानी है, पीजा आधुनिक है। भूख को भी आधुनिकता की भूख है या कि आधुनिकता की भूख, पीजा से भी नहीं मिटेगी। जिन रूढियों को हम हानिकारक समझते हैं उनको हम परम्परा का हिस्सा नहीं बनने देते। परम्पराओं की अपेक्षा समाज में रूढियां ज्यादा उपजाऊ और टिकाऊ बनी रहती हैं। संस्कारित रूढियों के पारम्परिक स्वरूप को एक मानवीय सामाजिक मूल्य के तहत एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी तक पहुंचाना पड़ता है। यही सांस्कृतिक यात्रा का द्वन्द्व है। अलग अलग संस्कृतियों से उपयोगी परम्पराओं को छांटकर सर्वोपयोगी बनाने का आचरण ही सभ्यताओं का समन्वय और संघर्ष दोनों बन जाता है। आधुनिकता भी लीक से हटकर नहीं बल्कि उसी लीक को एक नयी लीक के रूप में प्रस्तुत करती है। आधुनिकता में समय का ‘आजपन’ बहुत जुडा रहता है। हर समय के अपने आज और अपनी आधुनिकता होती है। किसी पुराने का नया जन्म भी आधुनिकता है। आधुनिकता में सोच और प्रयोग के तत्व ज्यादा होते हैं। आधुनिकता की भी अपनी परम्परा है कि वह चेतना के विकास को तो परिलक्षित करती है लेकिन अपनी आवृत्ति को छिपाती है। साहित्य में परम्परा का वही संबंध है जो नदी का उद्गम से है। साहित्य, संस्कृति और परम्परा का विस्तार करता है।
मौलिकता, थोड़ा हटकर एक दूसरी तरह के पुनरूत्पादन और जिजीविषा के साथ-साथ नयी और उपरिचित उपलब्धियों के उच्च जमावड़े का नाम है। जो अस्तित्व में नही था कुछ लोग उसके अस्तित्व में आने को मौलिकता कहते हैं। जबकि मौलिकता की जड़े परम्परा में हैं। मौलिकता का अस्तित्व उन्हीं जड़ों से अपना पुनरूद्भव प्राप्त करने में है। उदाहरण के लिए कोई एकदम नया विचार भी किसी क्रिया अथवा प्रतिक्रया में अपनी जडे़ं रोपता हुआ पैदा होता है। वह क्षीण और कमजोर हो सकता है, उसे धीरे धीरे किसी बच्चे या पौधे की तरह पुष्ट करना पड़ता है। एक दिन वही पौधा पेड. बन जाता है। हर बार पुराने पत्तों को गँवाकर, पुराने अंगो पर नये अंग उगाते हुए वह नये पत्तों से भर जाता है। कुछ पेड़ कटाई छंटाई से नये होते है। कुछ पेड़ धूप, आंधी बरसात और वज्रपात जैसी परिस्थितियों से गुजरने के बाद भी अपनी जड़ों से अपनी वापसी करने लगते हैं। ठीक इसी तरह (दांतो और बालो को छोडकर) मनुष्य अपने अंगो को गंवाता नही है बल्कि उन्ही को विकसित और सुदृढ करता हुआ रोज रोज कुछ नया करने की कूवत से गुजरता है। मनुष्य के कुछ नये अंग उनके कामों और विचारों के मार्पत भी दिखायी देते हैं। इसलिए विचारों का वसंत किसी भी ऋतु में आ सकता है। कटे-पिटे पेड़ जब पिर अपनी मौलि (अपने शीर्ष) उगा लेते है तब वे मौलिक कहलाते हैं। नये पर नये पत्ते स्वभाविक हैं; पुराने पर नये पत्ते मौलिक हैं। मौलिक में एक अस्वाभविकता और असंभवता शामिल रहती है। ठूंठ कैसे मौलिक होते हैं यह मनुष्य को पेड़ से सीखना होगा इस प्रकार मौलिकता किसी की भी अपनी सृजन परम्परा का हिस्सा है। वही किसी दृश्य विचार और स्थापत्य को आधुनिक बनाने वाला तत्व भी है। नये की अपेक्षा जितने आप पुराने हैं उतने ही अधिक अवसर हैं आपके सामने मौलिक होने के। मौलिकता का एक अर्थ उच्चाशय उदात्त दृष्टि भी है। इसी से शिखर और सिर की मौलि का भी कुछ इस प्रकार का सम्बंध है कि जो दूर तक देखे और दूर से ही दिख जाये। सृजन के क्षेत्र में मौलिक, कटे हुए या विच्छिन्न भाग का फिर से उग आना है। इसलिए मौलिक, का एक अर्थ पहले जैसा नया और वास्तविक भी है।
कविता में वाक्य को कहां से कहां पुनः रोपित किया जाता है और हम देखते हैं कि ग्रामर की दृष्टि से नहीं बल्कि अभिप्राय की दृष्टि से वहां कुछ अश्रुत, युक्तियुक्त और गतिशील बिम्ब उसी सरलतम भाषा से उत्पे्रक्षित होने लगते हैं। शब्दो की असंगति भी अर्थ की नयी संगति पैदा कर देती है ।
(जारी)
मैं बहुत बोलता हूं
महमूद दरवेश की कविताएं - ४
मैं बहुत बोलता हूं
स्त्रियों और पेड़ों के मुतल्लिक छोटी से छॊटी बातों के बारे में बहुत बोलता हूं मैं
धरती के तिलिस्म की बाबत, एक मुल्क के बारे में जहां पासपोर्ट पर मोहर नहीं लगती
मैं पूछता हूं: क्या यह सच है भले स्त्री-पुरुषो, कि मनुष्य की धरती हर किसी के लिए है
जैसा आप कहते हैं? अगर ऐसा है तो मेरी छोटी कॉटेज कहां है, और मैं कहां हूं?
एकत्रित श्रोतागण अगले तीन मिनट तक मेरा उत्साह बढ़ाते हैं,
पहचान और आज़ादी के तीन मिनट.
श्रोतागण हमारी वापसी के अधिकार को सम्मति देते हैं
सभी मुर्ग़ियों और घोड़ों की तरह, पत्थरों से बने एक सपने को.
मैं उनसे हाथ मिलाता हूं, एक एक कर के. मैं उनके सम्मुख झुकता हूं. फिर निकल पड़ता हूं अपनी यात्रा पर
एक दूसरे देश के लिए और बातें करता हूं मरीचिका और बरसात के बीच के फ़र्क़ की.
मैं पूछता हूं : क्या यह सच है भले स्त्री-पुरुषो, कि मनुष्य की धरती हर किसी के लिए है?
मैं बहुत बोलता हूं
स्त्रियों और पेड़ों के मुतल्लिक छोटी से छॊटी बातों के बारे में बहुत बोलता हूं मैं
धरती के तिलिस्म की बाबत, एक मुल्क के बारे में जहां पासपोर्ट पर मोहर नहीं लगती
मैं पूछता हूं: क्या यह सच है भले स्त्री-पुरुषो, कि मनुष्य की धरती हर किसी के लिए है
जैसा आप कहते हैं? अगर ऐसा है तो मेरी छोटी कॉटेज कहां है, और मैं कहां हूं?
एकत्रित श्रोतागण अगले तीन मिनट तक मेरा उत्साह बढ़ाते हैं,
पहचान और आज़ादी के तीन मिनट.
श्रोतागण हमारी वापसी के अधिकार को सम्मति देते हैं
सभी मुर्ग़ियों और घोड़ों की तरह, पत्थरों से बने एक सपने को.
मैं उनसे हाथ मिलाता हूं, एक एक कर के. मैं उनके सम्मुख झुकता हूं. फिर निकल पड़ता हूं अपनी यात्रा पर
एक दूसरे देश के लिए और बातें करता हूं मरीचिका और बरसात के बीच के फ़र्क़ की.
मैं पूछता हूं : क्या यह सच है भले स्त्री-पुरुषो, कि मनुष्य की धरती हर किसी के लिए है?
Friday, September 24, 2010
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 4
(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: व्यवस्था, राजनीति और आम आदमी को लेकर जैसा मोहभंग और गुस्सा धूमिल में था वैसा अत्यंत सलीकेदार विस्फोट ‘नाटक जारी है’ के बाद आपमें दिखायी देता है। कदाचित धूमिल को और जीवन मिल सका होता तो उनके और भी रंग उभर कर सामने आते। पिर भी इन कविताओं को लेकर धूमिल का क्या मानना था। उनसे कैसी चर्चाएं होती थीं?
लीलाधर जगूड़ी: धूमिल अपने थोडे समय में ही अपनी विलक्षणताओं के लिए पहचान लिये गये थे। धूमिल मुझे अपना प्रतिद्वन्द्वी मानते थे। इससे उन्हें नहीं मझे बहुत नुकसान हुआ। मैने धूमिल की शैली में धूमिल से बेहतर होन की कोशिश की जो कि गलत था । इसलिए मैने ‘इस यात्रा में’ संग्रह से अपने अलग होने की घोषणा की। धूमिल को इस संग्रह में कोमलता अधिक दिखायी दी और कोमल होना उनकी नजर में कमजोर होना था । उन्होंने मूझे एक पत्र भी लिखा था जिसका एक अंश मैने इस यात्रा में के तीसरे नये संस्कारण की लंबी भूमिका में दिया है। इसमें संदेह नहीं कि अपनी काव्य भाषा मैं ‘इस यात्रा में’ पा सका और उसके बाद ‘बची हुई पृथ्वी’ में। उसके बाद ‘भय भी शक्ति देता है’ में और तदनंतर ‘ईश्वर की अध्यक्षता में’ पा सका। डा काशीनाथ सिहं पहाड़ियों से तो परिचित थे जैसे कि विद्यासागर नौटियाल और बटरोही से, लेकिन पहाड़ों से परिचित न थे। एक कविता में देवदार के पेड़ का जिक्र आया तो उन्हे वह नकली पेड़ लगा । डा काशीनाथ सिंह के हवाले से कल्पना में इस आशय का मुझे संबोधित एक पत्र भी छापा। लेकिन जब ‘बलदेव खटीक’ कविता ‘परिवेश‘ पत्रिका में पहले पहल छपी तब धूमिल शिरोवेदना से ग्रस्त हो चुके थे। ‘बलदेव खटिक’ के प्रति अपनी खुशी का इजहार करते हुए धूमिल ने मुझे अपनी कुछ पंक्तियां अस्पताल में सुनाईं। ‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो’ उस घोड़े से पूछो जिसके मुहं में लगाम है, ये पंक्तियां मेरे अलावा किसी ने नहीं सुनी थी। मैंने तत्काल एक पोस्ट कार्ड से ये पंक्तियां डाँ नामकर सिंह को, दिल्ली भेजीं। ये ही धूमिल की आखिरी पंक्तियां थीं। धूमिल होते तो उनमें अपने को बदलने की पर्याप्त क्षमता थी। न बदलते तो भी धूमिल का महत्व कम न होता। धूमिल कविता में परिवर्तन के प्रति उत्सुक और चितिंत दोनों थे। धूमिल बड़ी प्रतिभा थे।
ओम निश्चल: 1980 से सेवानिवृति काल सन 2000 तक आप अनवरत लखनऊ में रहे । सूचना विभाग उतर प्रदेश को आपकी सेवा से एक नया दृष्टिकोण मिला । भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद, और ईश्वर की अध्यक्षता में तीनों महत्वपूर्ण संग्रह इन्ही बीस वर्षां में पूरे हुए। अकादमी पुरस्कार भी लखनऊ में रहते हुए ही मिला । क्या यह मेघदूत के यक्ष का निर्वासन था या नौकरी बोध के तहत स्वैच्छिक वरण या कि पिर लखनऊ की रिहाइश किसी तदर्थवाद का परिणाम थी?
लीलाधर जगूड़ी: देखिए, उतराखण्ड बने तो अभी दस वर्ष होने को हैं सन 1949 से पहले भले ही हम टिहरी रियासत के रहने वाले थे लकिन टिहरी रियासत को क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन और उनके द्वारा स्थापित प्रजामंडल के संघर्षों और बलिदानों से 49 में आजादी मिली। रियासत का विलय संयुक्तप्रांत उतरप्रदेश में कर दिया गया। अंग्रेजी में यू॰ पी॰ यथावत बना रहा। इस तरह लखनऊ मेरा परदेश नहीं था बल्कि अपने राज्य की राजधानी के रूप में घरदेश ही था।
लखनऊ आने के बाद लंबी कविताएं लिखी जानी कम हो गयीं। एक कारण यह भी हो सकता है कि पहाड़ पर पैदल बहुत चलना पड़ता था इसलिए कविताएं अक्सर लंबी हो जाती थीं लखनऊ में पैदल चलने के अवसर कम हो गये थे। लखनऊ में लेखकों की संगत अच्छी मिल गयी। ‘भय भी शक्ति देता है’ तो ‘घबराये हुए शब्द’ के ठीक दस वर्ष बाद 1991 में आया . संग्रह वह बहुत पसंद किया गया। एक बार मैंने रघुवीर सहाय जी से कहा कि आपको अकादमी पुरस्कार ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ पर जब नही दिया गया तो मुझे अकादमी के तौर तरीकों पर बहुत गुस्सा आया। तब उन्होंने कहा कि आपको तो अकादमी पुरस्कार ‘बची हुई पृथ्वी पर’ मिल जाना चाहिए था। पुरस्कार प्राप्ति का बुरा तो किसी को नहीं लगता लेकिन वह किसी अच्छे रचनाकार का चरम उदेश्य कभी नही होता। रचनात्मकता में श्रेष्ठतर या नव्यतर होते जाना यह आकांक्षा या यह स्पर्धा बहुधा काम करती रहती है। श्रेष्ठतर का अभिप्राय यह है कि जो अच्छा है उसे और अच्छा करने के लिए निरंतर निपुणता और सुधार से गुजरना। उदाहरण के लिए तुलसीदास अगर आज होते में उनसे पूछता कि-बूंद अघात संहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सहं जैसे। बूंद की कोई बहुत बडी मार नहीं होती । अगर यहां वारि अघात या वृष्टि अघात होता तो अधिक सटीक होता।...
ओम निश्चल: आपको याद होगा कि भाषा के असहज तेवर के प्रयोग और चौंकाने वाले शब्दों को छोड़ने की सलाह कभी सर्वेश्वर ने दी थी पर यह आपकी कविता का स्थायी भाव ही बनता गया है। उतरोतर आपने इस शक्ति को नयी भाषा ईजाद करने की प्रयोगशाला भी माना है। इसके पीछे आपकी क्या रणनीति रही है नये शब्दों की ईजाद के लिए आप अपनी कविता को किस रूप में देखते है।
लीलाधर जगूड़ी: सर्वेश्वर जी ने असहज और चौंकाने वाले शब्द प्रयोग को ‘नाटक जारी है’ के संदर्भ में कहा था। मै यह मानता हूं कि ‘नाटक जारी है’ की भाषा उग्र, उखड़ी हुई और स्थापित कविता की काव्य भाषा से एकदम अलग ही नहीं बल्कि अपरिचित सी भी लगती है। उस में बिम्ब और यहां तक कि तुक भी उन सामाजिक स्थितियों से लिये गये हैं जिनका प्रवेश सरस्वती के मंदिर में सहजता से नहीं था। कुजात अस्पृश्य शब्दों से ग्रहण करने योग्य कोई बात कहना एक हठयोग तो था । भाषा का वही अटपटापन ‘इस यात्रा में’ भी है लेकिन उसकी उन्होने तारीफ़ की। क्योंकि कविताओें का सन्दर्भ यहां एकदम बदला हुआ है। ‘नाटक जारी है’ में समाजपरक भाषा है और ‘इस यात्रा में’ प्रकृति परक। प्रकृति प्रेम परिवार और समाज शायद चल जायेगा। लेकिन व्यवस्था विरोध और क्रान्ति, एक स्पष्ट सांस्कृतिक एकता से रहित देश में बघारना, शायद समय पूर्व की कार्यवाही बनकर रह गया। यह कविता की ही नहीं पूरे समाज की विपलता है । कविता ठीक हो लेकिन व्यवस्था और समाज जीवन जीने की सारी परिस्थितियां, तथा कथित आजादी के बावजूद इतनी खराब हों कि गालियों का भी कोई मतलब न रह जाय, ऐसे में ठीक ठाक कविता का क्या मतलब बैठता है ? ‘नाटक जारी है’ में उस समय के युवा होते एक व्यक्ति (जो कि कवि भी है,) के परिस्थितियों से दंशित दुर्वचन हैं। ‘नाटक जारी है’ में भले ही साधु वचन न हों लेकिन उस में ‘टेलीफ़ोन पर’ जैसी कविता भी है जो 60-70 के भारत के बीच विपत्ति में एक पुल बनाती है, जिस से संवादो को एक नया रूप मिला है, जो हिन्दी कविता का स्वभाव नहीं था। कविता में भी आदत पैदा करनी पडती है। जिस कविता के हम आदी हैं उसके खिलाफ़ एक और नयी काव्य आदत 1960 के बाद की कविता ने पूरे समाज में पैदा की और यह सब मंच पर बिना गाये बजाये हुआ। यह लघु पत्रिकाओं की देन थी। लधु पत्रिकाओं ने आधुनिक कविता के स्वर और संदर्भ को नयी शक्ति प्रदान की। कविता में शब्द और भाषा प्रयोग कवि का एकदम निजी मामला होते हुए भी एक सामाजिक अभिव्यक्ति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए प्रयोग के उपरांत ही उस पर विचार किया जा सकता है प्रयोग से पूर्व नहीं। प्रयोग से पूर्व निषेध एक भ्रूण हत्या जैसा है । तब युवा कवि का अर्थ 30 वर्ष तक था अब 45 और 55 वर्ष के युवा कवियों का जमाना है। इस समय की हिन्दी कविता प्रौढों की कविता है। इसमें युवा हस्तक्षेप कहीं दिख ही नहीं रहा। मुझे 2021में कुछ उम्मीद है। इक्कीसवीं सदीं के 20 वर्षीय लडके लडकियों से। नयी भाषा युवा पीढी पैदा करती है उस भाषा पर युवा लोगों की पकड़ भी अच्छी होती है भले ही इस्तेमाल में कुछ ढीलापन और अनुभव हीनता की भलक मिले। लेकिन नये साहस और सच्चे प्रयासों के दर्शन होते हैं। भारत में इंतजार भी ऊब नहीं तपस्या है।
शब्द गढ़ना और शब्दों का नया प्रयोग यह कवियों की विशेषता रही है। मेरी कविता में और कुछ अच्छी कहानियों में जितने नये शब्द आजादी के बाद आये हैं उनसे एक नया कोश तैयार किया जा सकता हैं। शब्द ही नहीं मुहावरे भी काफ़ी गढे़ गये हैं। इतालवी विदुषी मारियोला आफ़रीदी ने एक बार मुझे से पूछा था कि आपकी एक कविता में झांसा शब्द आया है, क्या यह झांसी का पुल्लिंग है? आजादी के बाद आये नये शब्दों की अलग से एक डिक्शनरी प्रकाशित होनी चाहिए।
शब्द कोश तो रणनीति के तहत बनाया जा सकता है, कविता नहीं बनायी जा सकती। नये शब्दों के लिए लगातर प्रतिष्ठित शब्दों का देहातीकरण करना अभिव्यंजना को एक बक्से से दूसरे संदूक में डाल देना है। न भूलें कि ‘यह खून को देखकर निशाने की तारीप का युग है। मृत्यु लोक में यह मर जाने का नही मारे जाने का युग हैं।’
(जारी)
ओम निश्चल: व्यवस्था, राजनीति और आम आदमी को लेकर जैसा मोहभंग और गुस्सा धूमिल में था वैसा अत्यंत सलीकेदार विस्फोट ‘नाटक जारी है’ के बाद आपमें दिखायी देता है। कदाचित धूमिल को और जीवन मिल सका होता तो उनके और भी रंग उभर कर सामने आते। पिर भी इन कविताओं को लेकर धूमिल का क्या मानना था। उनसे कैसी चर्चाएं होती थीं?
लीलाधर जगूड़ी: धूमिल अपने थोडे समय में ही अपनी विलक्षणताओं के लिए पहचान लिये गये थे। धूमिल मुझे अपना प्रतिद्वन्द्वी मानते थे। इससे उन्हें नहीं मझे बहुत नुकसान हुआ। मैने धूमिल की शैली में धूमिल से बेहतर होन की कोशिश की जो कि गलत था । इसलिए मैने ‘इस यात्रा में’ संग्रह से अपने अलग होने की घोषणा की। धूमिल को इस संग्रह में कोमलता अधिक दिखायी दी और कोमल होना उनकी नजर में कमजोर होना था । उन्होंने मूझे एक पत्र भी लिखा था जिसका एक अंश मैने इस यात्रा में के तीसरे नये संस्कारण की लंबी भूमिका में दिया है। इसमें संदेह नहीं कि अपनी काव्य भाषा मैं ‘इस यात्रा में’ पा सका और उसके बाद ‘बची हुई पृथ्वी’ में। उसके बाद ‘भय भी शक्ति देता है’ में और तदनंतर ‘ईश्वर की अध्यक्षता में’ पा सका। डा काशीनाथ सिहं पहाड़ियों से तो परिचित थे जैसे कि विद्यासागर नौटियाल और बटरोही से, लेकिन पहाड़ों से परिचित न थे। एक कविता में देवदार के पेड़ का जिक्र आया तो उन्हे वह नकली पेड़ लगा । डा काशीनाथ सिंह के हवाले से कल्पना में इस आशय का मुझे संबोधित एक पत्र भी छापा। लेकिन जब ‘बलदेव खटीक’ कविता ‘परिवेश‘ पत्रिका में पहले पहल छपी तब धूमिल शिरोवेदना से ग्रस्त हो चुके थे। ‘बलदेव खटिक’ के प्रति अपनी खुशी का इजहार करते हुए धूमिल ने मुझे अपनी कुछ पंक्तियां अस्पताल में सुनाईं। ‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो’ उस घोड़े से पूछो जिसके मुहं में लगाम है, ये पंक्तियां मेरे अलावा किसी ने नहीं सुनी थी। मैंने तत्काल एक पोस्ट कार्ड से ये पंक्तियां डाँ नामकर सिंह को, दिल्ली भेजीं। ये ही धूमिल की आखिरी पंक्तियां थीं। धूमिल होते तो उनमें अपने को बदलने की पर्याप्त क्षमता थी। न बदलते तो भी धूमिल का महत्व कम न होता। धूमिल कविता में परिवर्तन के प्रति उत्सुक और चितिंत दोनों थे। धूमिल बड़ी प्रतिभा थे।
ओम निश्चल: 1980 से सेवानिवृति काल सन 2000 तक आप अनवरत लखनऊ में रहे । सूचना विभाग उतर प्रदेश को आपकी सेवा से एक नया दृष्टिकोण मिला । भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद, और ईश्वर की अध्यक्षता में तीनों महत्वपूर्ण संग्रह इन्ही बीस वर्षां में पूरे हुए। अकादमी पुरस्कार भी लखनऊ में रहते हुए ही मिला । क्या यह मेघदूत के यक्ष का निर्वासन था या नौकरी बोध के तहत स्वैच्छिक वरण या कि पिर लखनऊ की रिहाइश किसी तदर्थवाद का परिणाम थी?
लीलाधर जगूड़ी: देखिए, उतराखण्ड बने तो अभी दस वर्ष होने को हैं सन 1949 से पहले भले ही हम टिहरी रियासत के रहने वाले थे लकिन टिहरी रियासत को क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन और उनके द्वारा स्थापित प्रजामंडल के संघर्षों और बलिदानों से 49 में आजादी मिली। रियासत का विलय संयुक्तप्रांत उतरप्रदेश में कर दिया गया। अंग्रेजी में यू॰ पी॰ यथावत बना रहा। इस तरह लखनऊ मेरा परदेश नहीं था बल्कि अपने राज्य की राजधानी के रूप में घरदेश ही था।
लखनऊ आने के बाद लंबी कविताएं लिखी जानी कम हो गयीं। एक कारण यह भी हो सकता है कि पहाड़ पर पैदल बहुत चलना पड़ता था इसलिए कविताएं अक्सर लंबी हो जाती थीं लखनऊ में पैदल चलने के अवसर कम हो गये थे। लखनऊ में लेखकों की संगत अच्छी मिल गयी। ‘भय भी शक्ति देता है’ तो ‘घबराये हुए शब्द’ के ठीक दस वर्ष बाद 1991 में आया . संग्रह वह बहुत पसंद किया गया। एक बार मैंने रघुवीर सहाय जी से कहा कि आपको अकादमी पुरस्कार ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ पर जब नही दिया गया तो मुझे अकादमी के तौर तरीकों पर बहुत गुस्सा आया। तब उन्होंने कहा कि आपको तो अकादमी पुरस्कार ‘बची हुई पृथ्वी पर’ मिल जाना चाहिए था। पुरस्कार प्राप्ति का बुरा तो किसी को नहीं लगता लेकिन वह किसी अच्छे रचनाकार का चरम उदेश्य कभी नही होता। रचनात्मकता में श्रेष्ठतर या नव्यतर होते जाना यह आकांक्षा या यह स्पर्धा बहुधा काम करती रहती है। श्रेष्ठतर का अभिप्राय यह है कि जो अच्छा है उसे और अच्छा करने के लिए निरंतर निपुणता और सुधार से गुजरना। उदाहरण के लिए तुलसीदास अगर आज होते में उनसे पूछता कि-बूंद अघात संहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सहं जैसे। बूंद की कोई बहुत बडी मार नहीं होती । अगर यहां वारि अघात या वृष्टि अघात होता तो अधिक सटीक होता।...
ओम निश्चल: आपको याद होगा कि भाषा के असहज तेवर के प्रयोग और चौंकाने वाले शब्दों को छोड़ने की सलाह कभी सर्वेश्वर ने दी थी पर यह आपकी कविता का स्थायी भाव ही बनता गया है। उतरोतर आपने इस शक्ति को नयी भाषा ईजाद करने की प्रयोगशाला भी माना है। इसके पीछे आपकी क्या रणनीति रही है नये शब्दों की ईजाद के लिए आप अपनी कविता को किस रूप में देखते है।
लीलाधर जगूड़ी: सर्वेश्वर जी ने असहज और चौंकाने वाले शब्द प्रयोग को ‘नाटक जारी है’ के संदर्भ में कहा था। मै यह मानता हूं कि ‘नाटक जारी है’ की भाषा उग्र, उखड़ी हुई और स्थापित कविता की काव्य भाषा से एकदम अलग ही नहीं बल्कि अपरिचित सी भी लगती है। उस में बिम्ब और यहां तक कि तुक भी उन सामाजिक स्थितियों से लिये गये हैं जिनका प्रवेश सरस्वती के मंदिर में सहजता से नहीं था। कुजात अस्पृश्य शब्दों से ग्रहण करने योग्य कोई बात कहना एक हठयोग तो था । भाषा का वही अटपटापन ‘इस यात्रा में’ भी है लेकिन उसकी उन्होने तारीफ़ की। क्योंकि कविताओें का सन्दर्भ यहां एकदम बदला हुआ है। ‘नाटक जारी है’ में समाजपरक भाषा है और ‘इस यात्रा में’ प्रकृति परक। प्रकृति प्रेम परिवार और समाज शायद चल जायेगा। लेकिन व्यवस्था विरोध और क्रान्ति, एक स्पष्ट सांस्कृतिक एकता से रहित देश में बघारना, शायद समय पूर्व की कार्यवाही बनकर रह गया। यह कविता की ही नहीं पूरे समाज की विपलता है । कविता ठीक हो लेकिन व्यवस्था और समाज जीवन जीने की सारी परिस्थितियां, तथा कथित आजादी के बावजूद इतनी खराब हों कि गालियों का भी कोई मतलब न रह जाय, ऐसे में ठीक ठाक कविता का क्या मतलब बैठता है ? ‘नाटक जारी है’ में उस समय के युवा होते एक व्यक्ति (जो कि कवि भी है,) के परिस्थितियों से दंशित दुर्वचन हैं। ‘नाटक जारी है’ में भले ही साधु वचन न हों लेकिन उस में ‘टेलीफ़ोन पर’ जैसी कविता भी है जो 60-70 के भारत के बीच विपत्ति में एक पुल बनाती है, जिस से संवादो को एक नया रूप मिला है, जो हिन्दी कविता का स्वभाव नहीं था। कविता में भी आदत पैदा करनी पडती है। जिस कविता के हम आदी हैं उसके खिलाफ़ एक और नयी काव्य आदत 1960 के बाद की कविता ने पूरे समाज में पैदा की और यह सब मंच पर बिना गाये बजाये हुआ। यह लघु पत्रिकाओं की देन थी। लधु पत्रिकाओं ने आधुनिक कविता के स्वर और संदर्भ को नयी शक्ति प्रदान की। कविता में शब्द और भाषा प्रयोग कवि का एकदम निजी मामला होते हुए भी एक सामाजिक अभिव्यक्ति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए प्रयोग के उपरांत ही उस पर विचार किया जा सकता है प्रयोग से पूर्व नहीं। प्रयोग से पूर्व निषेध एक भ्रूण हत्या जैसा है । तब युवा कवि का अर्थ 30 वर्ष तक था अब 45 और 55 वर्ष के युवा कवियों का जमाना है। इस समय की हिन्दी कविता प्रौढों की कविता है। इसमें युवा हस्तक्षेप कहीं दिख ही नहीं रहा। मुझे 2021में कुछ उम्मीद है। इक्कीसवीं सदीं के 20 वर्षीय लडके लडकियों से। नयी भाषा युवा पीढी पैदा करती है उस भाषा पर युवा लोगों की पकड़ भी अच्छी होती है भले ही इस्तेमाल में कुछ ढीलापन और अनुभव हीनता की भलक मिले। लेकिन नये साहस और सच्चे प्रयासों के दर्शन होते हैं। भारत में इंतजार भी ऊब नहीं तपस्या है।
शब्द गढ़ना और शब्दों का नया प्रयोग यह कवियों की विशेषता रही है। मेरी कविता में और कुछ अच्छी कहानियों में जितने नये शब्द आजादी के बाद आये हैं उनसे एक नया कोश तैयार किया जा सकता हैं। शब्द ही नहीं मुहावरे भी काफ़ी गढे़ गये हैं। इतालवी विदुषी मारियोला आफ़रीदी ने एक बार मुझे से पूछा था कि आपकी एक कविता में झांसा शब्द आया है, क्या यह झांसी का पुल्लिंग है? आजादी के बाद आये नये शब्दों की अलग से एक डिक्शनरी प्रकाशित होनी चाहिए।
शब्द कोश तो रणनीति के तहत बनाया जा सकता है, कविता नहीं बनायी जा सकती। नये शब्दों के लिए लगातर प्रतिष्ठित शब्दों का देहातीकरण करना अभिव्यंजना को एक बक्से से दूसरे संदूक में डाल देना है। न भूलें कि ‘यह खून को देखकर निशाने की तारीप का युग है। मृत्यु लोक में यह मर जाने का नही मारे जाने का युग हैं।’
(जारी)
एक फ़िलिस्तीनी घाव की डायरी
महमूद दरवेश की कविताएं - ३
एक फ़िलिस्तीनी घाव की डायरी
(फ़दवा तुक़ान के लिए)
हमें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं
कि माउन्ट कारमेल हमारे भीतर है
और गैलिली की घास हमारी पलकों पर.
ये मत कहना : अगर हम दौड़ पड़ते उस तक एक नदी की तरह.
मत कहना:
हम और हमारा देश एक ही मांस और अस्थियां हैं.
...
जून से पहले हम नौसिखिये फ़ाख़्ते न थे
सो हमारा प्रेम बन्धन के बावजूद बिखरा नहीं
बहना, इन बीस बरसों में
हमारा काम कविता लिखना नहीं
लड़ना था.
***
वह छाया जो उतरती है तुम्हारी आंखों में
-ईश्वर का एक दैत्य
जो जून के महीने में बाहर आया
हमारे सिरों को सूरज से लपेट देने को-
शहादत है उसका रंग
प्रार्थना का उसका स्वाद
किस ख़ूबी से हत्या करता है वह, किस ख़ूबी से करता है उद्धार.
***
रात जो शुरू हुई थी तुम्हारी आंखों से -
मेरी आत्मा के भीतर वह एक लम्बी रात का अन्त था:
अकाल के युग से ही
यहां और अब तक वापसी की राह में
रहे हैं साथ साथ
***
और हमने जाना किस से बनती है कोयल की आवाज़
आक्रान्ताओं के चेहरे पर लटकता एक चाकू
हमने जाना कब्रिस्तान की शान्ति किस से बनती है
एक त्यौहार से ... जीवन के बग़ीचे से
***
तुमने अपनी कविताएं गाईं, मैंने छज्जों को छोड़ते हुए देखा
अपनी दीवारों को
शहर का चौक आधे पहाड़ तक फैल गया था:
वह संगीत न था जो हमने सुना
वह शब्दों का रंग न था जो हमने देखा
कमरे के भीतर दस लाख नायक थे.
***
धरती सोख लेती है शहीदों की त्वचाओं को.
यह धरती गेहूं और सितारों का वादा करती है.
आराधना करो इसकी!
हम इसके नमक और पानी हैं.
हम इसके घाव हैं, लेकिन लड़ते रहने वाला घाव.
***
मेरी बहना, आंसू हैं मेरे गले में
और मेरी आंखों में आग:
मैं आज़ाद हूं
मैं सुल्तान के प्रवेशद्वार पर अब नहीं करूंगा विरोध.
वे जो सारे मर चुके, और वे जो मरेंगे दिवस के द्वार पर
उन सब ने ले लिया है मुझे आग़ोश में, और बदल दिया है मुझे एक हथियार में.
***
उफ़, यह मेरा अड़ियल घाव!
कोई सूटकेस नहीं है मेरा देश
मैं कोई यात्री नहीं हूं
मैं एक प्रेमी हूं और प्रेमिका के वतन से आया हूं.
***
भूगर्भवेत्ता व्यस्त है पत्थरों का विश्लेषण करने में
गाथाओं के मलबे में वह खुद अपनी आंखें तलाश रहा है
यह दिखाने को
कि मैं सड़क पर फिरता एक दृष्टिहीन आवारा हूं
जिसके पास सभ्यता का एक अक्षर तक नहीं.
जबकि अपने ख़ुद के समय में मैं अपने पेड़ रोपता हूं
मैं गाता हूं अपना प्रेम
***
समय आया है कि मैं मृतकों के बदले शब्द लूं
समय आया है कि मैं अपनी धरती और कोयल के वास्ते अपने प्रेम को साबित करूं
क्योंकि ऐसा यह समय है कि हथियार गिटार को लील जाता है
और आईने में मैं लगातार लगातार धुंधलाता जा रहा हूं
जब से मेरी पीठ पर उगना शुरू किया है एक पेड़ ने.
--------------------------------------------
*फ़दवा तुक़ान (1917 – 2003) एक महत्वपूर्ण फ़िलिस्तीनी कवयित्री. अपनी विशिष्ट विद्रोही शैली के लिए
समूचे अरब जगत में विख्यात.
**माउन्ट कारमेल उत्तरी इज़राइल में स्थित बहाई सम्प्रदाय का एक पवित्र पर्वत
***गैलिली उत्तरी इज़राइल का एक बड़ा इलाक़ा जो देश के उत्तरी प्रशासकीय सूबे में पड़ता है
एक फ़िलिस्तीनी घाव की डायरी
(फ़दवा तुक़ान के लिए)
हमें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं
कि माउन्ट कारमेल हमारे भीतर है
और गैलिली की घास हमारी पलकों पर.
ये मत कहना : अगर हम दौड़ पड़ते उस तक एक नदी की तरह.
मत कहना:
हम और हमारा देश एक ही मांस और अस्थियां हैं.
...
जून से पहले हम नौसिखिये फ़ाख़्ते न थे
सो हमारा प्रेम बन्धन के बावजूद बिखरा नहीं
बहना, इन बीस बरसों में
हमारा काम कविता लिखना नहीं
लड़ना था.
***
वह छाया जो उतरती है तुम्हारी आंखों में
-ईश्वर का एक दैत्य
जो जून के महीने में बाहर आया
हमारे सिरों को सूरज से लपेट देने को-
शहादत है उसका रंग
प्रार्थना का उसका स्वाद
किस ख़ूबी से हत्या करता है वह, किस ख़ूबी से करता है उद्धार.
***
रात जो शुरू हुई थी तुम्हारी आंखों से -
मेरी आत्मा के भीतर वह एक लम्बी रात का अन्त था:
अकाल के युग से ही
यहां और अब तक वापसी की राह में
रहे हैं साथ साथ
***
और हमने जाना किस से बनती है कोयल की आवाज़
आक्रान्ताओं के चेहरे पर लटकता एक चाकू
हमने जाना कब्रिस्तान की शान्ति किस से बनती है
एक त्यौहार से ... जीवन के बग़ीचे से
***
तुमने अपनी कविताएं गाईं, मैंने छज्जों को छोड़ते हुए देखा
अपनी दीवारों को
शहर का चौक आधे पहाड़ तक फैल गया था:
वह संगीत न था जो हमने सुना
वह शब्दों का रंग न था जो हमने देखा
कमरे के भीतर दस लाख नायक थे.
***
धरती सोख लेती है शहीदों की त्वचाओं को.
यह धरती गेहूं और सितारों का वादा करती है.
आराधना करो इसकी!
हम इसके नमक और पानी हैं.
हम इसके घाव हैं, लेकिन लड़ते रहने वाला घाव.
***
मेरी बहना, आंसू हैं मेरे गले में
और मेरी आंखों में आग:
मैं आज़ाद हूं
मैं सुल्तान के प्रवेशद्वार पर अब नहीं करूंगा विरोध.
वे जो सारे मर चुके, और वे जो मरेंगे दिवस के द्वार पर
उन सब ने ले लिया है मुझे आग़ोश में, और बदल दिया है मुझे एक हथियार में.
***
उफ़, यह मेरा अड़ियल घाव!
कोई सूटकेस नहीं है मेरा देश
मैं कोई यात्री नहीं हूं
मैं एक प्रेमी हूं और प्रेमिका के वतन से आया हूं.
***
भूगर्भवेत्ता व्यस्त है पत्थरों का विश्लेषण करने में
गाथाओं के मलबे में वह खुद अपनी आंखें तलाश रहा है
यह दिखाने को
कि मैं सड़क पर फिरता एक दृष्टिहीन आवारा हूं
जिसके पास सभ्यता का एक अक्षर तक नहीं.
जबकि अपने ख़ुद के समय में मैं अपने पेड़ रोपता हूं
मैं गाता हूं अपना प्रेम
***
समय आया है कि मैं मृतकों के बदले शब्द लूं
समय आया है कि मैं अपनी धरती और कोयल के वास्ते अपने प्रेम को साबित करूं
क्योंकि ऐसा यह समय है कि हथियार गिटार को लील जाता है
और आईने में मैं लगातार लगातार धुंधलाता जा रहा हूं
जब से मेरी पीठ पर उगना शुरू किया है एक पेड़ ने.
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*फ़दवा तुक़ान (1917 – 2003) एक महत्वपूर्ण फ़िलिस्तीनी कवयित्री. अपनी विशिष्ट विद्रोही शैली के लिए
समूचे अरब जगत में विख्यात.
**माउन्ट कारमेल उत्तरी इज़राइल में स्थित बहाई सम्प्रदाय का एक पवित्र पर्वत
***गैलिली उत्तरी इज़राइल का एक बड़ा इलाक़ा जो देश के उत्तरी प्रशासकीय सूबे में पड़ता है
Thursday, September 23, 2010
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 3
(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: आपकी कविताएं भाषा का अनुभव बनते जीवनानुभव की कविताएं कही जा रही हैं। कविता की अभियांत्रिकी में आपने जो परिवर्तन किये हैं वे आपको अपने आप में एक अकेले कवि की परम्परा में खड़ा करते हैं। मै यह जानना चाहता हूं कि कविता को लेकर जो कोमल, शान्त, स्वप्रिल और संवेदी कल्पनाशील छाया, प्रायः मन में बनती है- क्या कविता के मान्य और ज्ञात स्वभाव में तोड़-फोड़ कविता को यांत्रिक नहीं बनाती?
लीलाधर जगूडी: असल में आपने अभियांत्रिकी और यांत्रिक तोड़-फोड़ को कविता के स्वभाव में किसी उग्रवादी तत्व की तरह शामिल किया है। जबकि कविता को आत्मा की इंजीनियरिंग कहा गया है और कविता से पैदा होने वाले आनंद या जो प्राप्य वहां घटित हो रहा हो, को पाकर यांत्रिकता, ऊब और अवसाद में खलल पड़नी चाहिए जोकि पड़ती भी है। कोमल शांत स्वप्निल और संवेदी कल्पनाशील छाया के जो लक्षण आपने उभारे हैं वे प्राचीन रीतिबद्ध कविता ने हमें दिये और सिखाये। कविता में तोड़-फोड़ काव्य संस्कार में भी तोड़-फोड़ का संकेत करती है। स्थापित को अगर एक बार विस्थापन से गुजरना पडे तो संवेदना को भी अपने में नयी आंखे, नयी, हिम्मत, और नये पँख उगाने होंगे । स्थापित की विस्थापित छवि जाहिर है कि पूरे महौल को ही बदल देगी । यह सम्राट को वनवास दे देगी। यह ग्वाले को महाद्वीपीय युद्ध का नायक बना देगी। यह किसी वेश्या को सहृदय वसंतसेना बना देगा। दरिद्र चारूद को धीर ललित नायक बना देना उसी तोड़-पोड़ का नतीजा है । जिसे महज यांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बलदेव खटिक, मंदिरलेन और पलटवार कविताओं में अपराध, पुलिस, हत्या और पारिवारिक हालातों को दृष्टिगत रखते हुए एक ही तरह से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । कई बार सारे सामाजिक और असामाजिक तत्व एक ही परिवार से निकलते दिखायी देते हैं। कई बार पूरे विश्व का एक जैसा चेहरा दिखता है लेकिन हम उसको तोड़-पोड़ कर किसी धर्म जाति और संप्रदाय तक ले जाते हैं। उसके नतीजों से हम बेहतर परिचित हैं।
साहित्य में तोड़-फोड़ या ध्वँस और परिवर्तन का वही मतलब नही है जो राजनीति में तोड़-फोड़ का है। साहित्य में अराजकता भी राजनीतिक अराजकता से भिन्न है। राष्ट्रीय चरित्र में बदलाव और साहित्य में बदलाव की संगति कभी-कभी ही बैठ सकती है। कभी कभी ऊँचे आदर्श भी कला को अराजकता से और परम्परा विच्छिन्न होने से बचा नहीं सकते। हमने लोकतंत्र का परिवर्तन कारी और उपजाऊ रूप अभी ठीक से पहचाना ही नहीं है । हमारा लोकतंत्र अभी संगीत, कला, थिएटर, नाटक, कविता और दर्शन के नये रूपाकार को सृजित करने में सपल नहीं हो पाया है। समूची मानवता अभी विश्वास योग्य नहीं बनी है। पर हम एक व्यक्ति के रूप में किसी दूसरे व्यक्ति का भी भरोसा खोते जा रहे हैं। दूसरे को परखने से पहले अपनी विश्वसनीयता परखने का संस्कार हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं।
ओम निश्चल: आज हमारी कविता में अपार वैविध्य है अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ, अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन शमशेर, कुंवरनारायण, केदारनाथ सिंह, धूमिल, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों का परम्परा पोषित समृद्ध काव्य संसार है। इस वैविध्य का अवलोकन करते हुए आपको कविता का समकालीन परिदृश्य कैसा लगता है?
लीलाधर जगूडी: आपने परम्परा का नाम तो लिया लेकिन भारतेन्दु, प्रसाद, पंत, महादेवी, मैथिली शरण गुप्त, बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र, विजयदेव नारायण साही जैसे नामों को केवल परम्परा कहकर ही किनारे नहीं किया जा सकता । क्योंकि इन्होने बहुत से परम्परा भंजक कार्य अपनी रचनात्मकता में किये हैं।
समकाल भी दीर्घकाल का ही हिस्सा होता है और आगे चलकर उसे दीर्घकालीनता से होड़ भी लेनी होती है। इसलिए काल को प्रवृत्ति के अनुसार ही सुविधा पूर्वक विभाजित किया जा सकता है। कवियों की काव्य प्रवृति पर न समीक्षको ने अलग से ध्यान दिया न अलोचकों ने । वे केवल युग की प्रवृत्तियों के आस पास रहकर कवियों का और साहित्य का परीक्षण करने के आदी हैं। कुछ कभी ऐसा भी घटित होता है जो पारम्परिक और लिखित होते हुए भी अत्याधुनिक हो जाता है। जैसे कि धूमिल का ‘मोचीराम’ और रघुवीर सहाय का ‘रामदास’। दोनों कविताओं के रचनाकाल में बडा फ़र्क है लेकिन दोनों की होड़ उसी दीर्घकालीनता से है जिसे शमशेर की भाषा में कहें तो ‘काल तुमसे होड़ है मेरी। समसामयिक परिदृश्य में उल्लेखनीय कवि पचास तो होंगे ही और रचनारत एक सौ भी कहूं तो अधिक नही हैं। किसी-किसी की तो एक भी कविता स्मरणीय नहीं है पिर भी वह विख्यात बना दिया गया है ।
कविता के क्षेत्र में पूर्वकृत कविकर्म की बहुलता या विपुल कवि समुदाय की उपस्थिति अर्थपूर्ण नहीं होती। कविता के क्षेत्र में अपूर्व कृतित्व जिसका जितना है वही जीवित रहेगा। बाकी समकालीन कूड़े की तरह विस्मृति के गर्त में चला जायेगा। सहित्य का सारा कूड़ा, महाकाल का भोजन है। अच्छी रचनाओं को महाकाल भी कुतर नहीं पाता। सहित्य में और खासकर कविता के क्षेत्र में यह मान्यता रही है कि सहसा जिन कवियों के नाम आ जायें और उनकी गिनती से हाथ की सबसे छोटी उंगली अनामिका के चार घेरे पहले सार्थक हो जायें। हिन्दी की पिछली अर्धशती में श्रेष्ठ कहे जा सकने वाले कवियों में से चुने हुए कवियो का चुना हुआ कविता संसार यदि सामने लाया जाय तो एक अदभुत, अपूर्व लय विन्यास और जीवन कथा के साथ भाषिक वैभव की अलग अलग दुनिया सामने आ सकती है । कवियों को चाहिए कि वे दूसरे कवियो की अपनी पसंदीदा कविताओ का एक-एक चयन जरूर प्रस्तुत करें। वह खुद अपने चयन से कही बेहतर होगा। इससे निरर्थक गुटबाजी खत्म हो जायेगी और सहिष्णुता का वातावरण बनेगा।
इस समय वैविध्य की बात क्या की जाय क्योंकि वैविध्य के उन्मूलन के नाम पर भेद-भाव की सिंचाई चल रही है । जंगल और बाग में तो लोग वैविध्य चाहते हैं, ज्ञान के क्षेत्र में उसे पता नहीं क्यों कमाऊ विधाओं तक ही सीमित कर देना चाहते हैं। अकमाऊ को कमाऊ कैसे बनाया जाय इस ओर ध्यान होना चाहिए न कि अकमाऊ की कमाई पर। समकालीनता को कुछ लोग कलेण्डर में ढूंढने लगते हैं। जबकि समय, कलेण्डर और घड़ी दोनों से बाहर चल रहा है। जीव वैविध्य की तरह प्रतिभा वैविध्य भी समाप्ति की ओर जाता दिख रहा है। क्योंकि एकरसता के वितान में जाना सरल और सुगम है । जबकि हर नयी चीज अपने दीर्धकालीन समकालीनों के पुण्य से प्रज्वलित है।
ओम निश्चल: लगभग 1960 से आप लिख रहे है। बीस साल की उम्र में 1964 में लीलाधर शर्मा के नाम से आपका पहला संग्रह आया- ‘‘शंखमुखी शिखरों पर’’। पहाडों का यह बिम्ब पहली बार सामने आया। लगता है जैसे कोई शिखरों में पूंक भर कर उन्हें बजा डालेगा, शिखरों से समुद्र तक यह पृथ्वी ध्वनित हो उठेगी। उसके बाद आपने अपना नाम भी बदल दिया और तेवर भी। यह बनारस का प्रभाव था या धूमिल की मैत्री का? ‘नाटक जारी है’ के बाद ‘इस यात्रा में’ लगता ही नहीं कि यह उसी कवि का संग्रह है। संग्रहों में इतनी भिन्नता? इस चेतना की पलश्रुति कैसे हुई?
लीलाधर जगूडी: अब महसूस होता है कि किसी भी कवि को अपनी काव्य परम्पराओं के स्कूलों से होकर जरूर आना चहिए। तब यह बोध नही था। ‘शर्मा’ को इसलिए हटाया था कि लोग मुझे ब्राह्मण समझकर गलत न समझ लें। ‘जगूड़ी’ एक ग्रामवाची शब्द है जैसे अम्बेदकर। लेकिन ‘जोगथ’ गांव में केवल ब्राह्मण रहते है यह भी कालांतर में ढूंढ लिया गया। यह अच्छी बात थी कि प्राचीन नामों से जाति का बोध नहीं होता था। आज मैं जाति लाभार्थी नहीं हूँ। लाभ वंचित जातियां भी विपन्नता और विचारणीयता को प्राप्त होती जा रही है। खैर, धूमिल ने अपना नाम जाति छिपाने के लिए ही धूमिल रखा था लेकिन लोग सुदाम प्रसाद पांडे को ढूंढ लाये। बनारस खुद पक्कड़ और फ़कीर प्रवृति को पोषण देने वाला ऐतिहासिक शहर है। 1947 में भारत का आजाद होना सन् 60 के बाद मेरा बनारस पहुंच जाना जैसे दो आजादियों का संगम हुआ। मेरे जैसे घर से भागे हुए सर्वहारा को बनारस ने क्षेत्रभोजी बनाकर जीवित रखा। संस्कृत विद्यालयों की कतार की कतार देखी। शिक्षा और अक्षर प्राप्ति में बनारस की कृपा से गरीबी बाधक नहीं बनी। इससे पहले लगभग ग्यारह वर्ष मैं राजस्थान के कांसली, पिलानी, बगड़, पुष्कर आदि स्थानों पर रहा।
‘शंखमुखी शिखरों पर’ की काव्य भाषा से ‘नाटक जारी है’, की काव्य भाषा में छलांग दो वजहों से घटित हुई। आजादी के बाद के युवा जीवन का माहौल जिस तरह की शब्दावली से भरता जा रहा था वह भविष्य की अनिश्चितता को ज्यादा बढा दे रहा था । ऊपर से अज्ञेय की कविता पुस्तक ‘हरी घास पर क्षण भर’, 1963-64 में और कल्पना में मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में ’का प्रकाशन और धूमिल की मैत्री, राजकमल और गिन्सवर्ग का बनारस । अकविता की भाषा का बढ़ता अतिरेक। आजादी के बाद के मनुष्यों के भविष्य की तरह हिन्दी कविता का चेहरा भी चकनाचूर हो गया था।
इस में कोई संदेह नहीं कि उस समय मैं प्रभाव ग्रहण क्षेत्र में था। जिस तरह छोटी नदी बड़ी नदी की ओर जाती है और बडी नदी समुद्र की और, उसर तरह मैं निरंतर बडे़ कवियों की कविताओं की ओर जा रहा था और उनके प्रभाव में अपने को विलुप्त होने से बचाने की जद्दो जेहद में लग हुआ था। बडे़ के प्रभाव में उसका सोच और प्रवाह आपको हांकता है। इससे बचने के लिए अपनी नाव और अपने चप्पू होने जरूरी हैं। यह भी जरूरी है कि साइकिल की तरह आपको नाव चलानी भी आती हो। बनारस में उस समय चवन्नी में एक धंटे के लिए साइकिल और एक घंटे के लिए नाव चलाने को मिल जाती थी। माझी सीनियर कवि की तरह आपके साथ बैठा हो और आप लहरों से टकराते हुए अपना रास्ता बना रहे हों यह बनारस में ही संभव है। जहां विष्णुचंद्र शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री और धूमिल तीन ध्रुवों की तरह एक साथ मौजूद हों। गीतकारों में समय की शिला पर चित्र उकरने वाले डॉ. शंभुनाथ सिहं मौजूद थे। नजीर बनारसी, बेढब बनारसी और बेधड़क बनारसी जैसे श्रृंगार और व्यंग्य से ओत प्रोत कवियों का गली गली में जमावड़ा था। भारतेन्दु बाबू आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रसाद और प्रेमचंद की कहानी कही जाती थी। नामवर जी ने तब ताजा ताज बनारस छोड़ा था । बनारस के लिए वे तब आज जैसे परदेसी नहीं थे । डा शिव प्रसाद सिंह, डा॰ बच्चन सिंह और डा॰ विद्यानिवास मिश्र तब स्थापित थे और डा काशीनाथ सिंह ने विलंब से लिखना शुरू किया था (जैसे कोई देरी से शादी करे) इसलिए नवोदित थे । नौकरी पाने के संघर्ष से गुजर रहे थे और बाल बच्चेदार थे।
बनारस खुद एक इतिहास की तरह वर्तमान में जीता हुआ दिखता है । प्रसाद जी के शब्दो में कहें तो वह झंझा झकोर और गर्जन का शहर है। जुलाहों और जोगियों की नगरी बनारस के कई रंग हैं। गंगा तट के विस्तार से ज्यादा बनारस तंग गलियों में धड़कता है। ‘निराला निवेश’ में जो गोष्ठियां होती थीं उन में डा बच्चन सिंह कुछ हिदायतनामे नये रचनाकारो के लिए जारी करते थे। एक दिन, जिसे मै भूलता नही हूं उन्होने कहा धूमिल तुम जगूड़ी के प्रभाव से बचो । उस दिन नागानंद मुक्तिकंठ ने मद्रस कैफ़े में उधार मसाला डोसा और कॉफ़ी की दावत ली थी। मैं, धूमिल और नागानंद। तीनो जोगी उस दिन बहुत रम्यमाण हुए। अर्थात हम लोगों ने ओल्ड मौंक भी पी थी।
(जारी)
ओम निश्चल: आपकी कविताएं भाषा का अनुभव बनते जीवनानुभव की कविताएं कही जा रही हैं। कविता की अभियांत्रिकी में आपने जो परिवर्तन किये हैं वे आपको अपने आप में एक अकेले कवि की परम्परा में खड़ा करते हैं। मै यह जानना चाहता हूं कि कविता को लेकर जो कोमल, शान्त, स्वप्रिल और संवेदी कल्पनाशील छाया, प्रायः मन में बनती है- क्या कविता के मान्य और ज्ञात स्वभाव में तोड़-फोड़ कविता को यांत्रिक नहीं बनाती?
लीलाधर जगूडी: असल में आपने अभियांत्रिकी और यांत्रिक तोड़-फोड़ को कविता के स्वभाव में किसी उग्रवादी तत्व की तरह शामिल किया है। जबकि कविता को आत्मा की इंजीनियरिंग कहा गया है और कविता से पैदा होने वाले आनंद या जो प्राप्य वहां घटित हो रहा हो, को पाकर यांत्रिकता, ऊब और अवसाद में खलल पड़नी चाहिए जोकि पड़ती भी है। कोमल शांत स्वप्निल और संवेदी कल्पनाशील छाया के जो लक्षण आपने उभारे हैं वे प्राचीन रीतिबद्ध कविता ने हमें दिये और सिखाये। कविता में तोड़-फोड़ काव्य संस्कार में भी तोड़-फोड़ का संकेत करती है। स्थापित को अगर एक बार विस्थापन से गुजरना पडे तो संवेदना को भी अपने में नयी आंखे, नयी, हिम्मत, और नये पँख उगाने होंगे । स्थापित की विस्थापित छवि जाहिर है कि पूरे महौल को ही बदल देगी । यह सम्राट को वनवास दे देगी। यह ग्वाले को महाद्वीपीय युद्ध का नायक बना देगी। यह किसी वेश्या को सहृदय वसंतसेना बना देगा। दरिद्र चारूद को धीर ललित नायक बना देना उसी तोड़-पोड़ का नतीजा है । जिसे महज यांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बलदेव खटिक, मंदिरलेन और पलटवार कविताओं में अपराध, पुलिस, हत्या और पारिवारिक हालातों को दृष्टिगत रखते हुए एक ही तरह से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । कई बार सारे सामाजिक और असामाजिक तत्व एक ही परिवार से निकलते दिखायी देते हैं। कई बार पूरे विश्व का एक जैसा चेहरा दिखता है लेकिन हम उसको तोड़-पोड़ कर किसी धर्म जाति और संप्रदाय तक ले जाते हैं। उसके नतीजों से हम बेहतर परिचित हैं।
साहित्य में तोड़-फोड़ या ध्वँस और परिवर्तन का वही मतलब नही है जो राजनीति में तोड़-फोड़ का है। साहित्य में अराजकता भी राजनीतिक अराजकता से भिन्न है। राष्ट्रीय चरित्र में बदलाव और साहित्य में बदलाव की संगति कभी-कभी ही बैठ सकती है। कभी कभी ऊँचे आदर्श भी कला को अराजकता से और परम्परा विच्छिन्न होने से बचा नहीं सकते। हमने लोकतंत्र का परिवर्तन कारी और उपजाऊ रूप अभी ठीक से पहचाना ही नहीं है । हमारा लोकतंत्र अभी संगीत, कला, थिएटर, नाटक, कविता और दर्शन के नये रूपाकार को सृजित करने में सपल नहीं हो पाया है। समूची मानवता अभी विश्वास योग्य नहीं बनी है। पर हम एक व्यक्ति के रूप में किसी दूसरे व्यक्ति का भी भरोसा खोते जा रहे हैं। दूसरे को परखने से पहले अपनी विश्वसनीयता परखने का संस्कार हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं।
ओम निश्चल: आज हमारी कविता में अपार वैविध्य है अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ, अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन शमशेर, कुंवरनारायण, केदारनाथ सिंह, धूमिल, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों का परम्परा पोषित समृद्ध काव्य संसार है। इस वैविध्य का अवलोकन करते हुए आपको कविता का समकालीन परिदृश्य कैसा लगता है?
लीलाधर जगूडी: आपने परम्परा का नाम तो लिया लेकिन भारतेन्दु, प्रसाद, पंत, महादेवी, मैथिली शरण गुप्त, बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र, विजयदेव नारायण साही जैसे नामों को केवल परम्परा कहकर ही किनारे नहीं किया जा सकता । क्योंकि इन्होने बहुत से परम्परा भंजक कार्य अपनी रचनात्मकता में किये हैं।
समकाल भी दीर्घकाल का ही हिस्सा होता है और आगे चलकर उसे दीर्घकालीनता से होड़ भी लेनी होती है। इसलिए काल को प्रवृत्ति के अनुसार ही सुविधा पूर्वक विभाजित किया जा सकता है। कवियों की काव्य प्रवृति पर न समीक्षको ने अलग से ध्यान दिया न अलोचकों ने । वे केवल युग की प्रवृत्तियों के आस पास रहकर कवियों का और साहित्य का परीक्षण करने के आदी हैं। कुछ कभी ऐसा भी घटित होता है जो पारम्परिक और लिखित होते हुए भी अत्याधुनिक हो जाता है। जैसे कि धूमिल का ‘मोचीराम’ और रघुवीर सहाय का ‘रामदास’। दोनों कविताओं के रचनाकाल में बडा फ़र्क है लेकिन दोनों की होड़ उसी दीर्घकालीनता से है जिसे शमशेर की भाषा में कहें तो ‘काल तुमसे होड़ है मेरी। समसामयिक परिदृश्य में उल्लेखनीय कवि पचास तो होंगे ही और रचनारत एक सौ भी कहूं तो अधिक नही हैं। किसी-किसी की तो एक भी कविता स्मरणीय नहीं है पिर भी वह विख्यात बना दिया गया है ।
कविता के क्षेत्र में पूर्वकृत कविकर्म की बहुलता या विपुल कवि समुदाय की उपस्थिति अर्थपूर्ण नहीं होती। कविता के क्षेत्र में अपूर्व कृतित्व जिसका जितना है वही जीवित रहेगा। बाकी समकालीन कूड़े की तरह विस्मृति के गर्त में चला जायेगा। सहित्य का सारा कूड़ा, महाकाल का भोजन है। अच्छी रचनाओं को महाकाल भी कुतर नहीं पाता। सहित्य में और खासकर कविता के क्षेत्र में यह मान्यता रही है कि सहसा जिन कवियों के नाम आ जायें और उनकी गिनती से हाथ की सबसे छोटी उंगली अनामिका के चार घेरे पहले सार्थक हो जायें। हिन्दी की पिछली अर्धशती में श्रेष्ठ कहे जा सकने वाले कवियों में से चुने हुए कवियो का चुना हुआ कविता संसार यदि सामने लाया जाय तो एक अदभुत, अपूर्व लय विन्यास और जीवन कथा के साथ भाषिक वैभव की अलग अलग दुनिया सामने आ सकती है । कवियों को चाहिए कि वे दूसरे कवियो की अपनी पसंदीदा कविताओ का एक-एक चयन जरूर प्रस्तुत करें। वह खुद अपने चयन से कही बेहतर होगा। इससे निरर्थक गुटबाजी खत्म हो जायेगी और सहिष्णुता का वातावरण बनेगा।
इस समय वैविध्य की बात क्या की जाय क्योंकि वैविध्य के उन्मूलन के नाम पर भेद-भाव की सिंचाई चल रही है । जंगल और बाग में तो लोग वैविध्य चाहते हैं, ज्ञान के क्षेत्र में उसे पता नहीं क्यों कमाऊ विधाओं तक ही सीमित कर देना चाहते हैं। अकमाऊ को कमाऊ कैसे बनाया जाय इस ओर ध्यान होना चाहिए न कि अकमाऊ की कमाई पर। समकालीनता को कुछ लोग कलेण्डर में ढूंढने लगते हैं। जबकि समय, कलेण्डर और घड़ी दोनों से बाहर चल रहा है। जीव वैविध्य की तरह प्रतिभा वैविध्य भी समाप्ति की ओर जाता दिख रहा है। क्योंकि एकरसता के वितान में जाना सरल और सुगम है । जबकि हर नयी चीज अपने दीर्धकालीन समकालीनों के पुण्य से प्रज्वलित है।
ओम निश्चल: लगभग 1960 से आप लिख रहे है। बीस साल की उम्र में 1964 में लीलाधर शर्मा के नाम से आपका पहला संग्रह आया- ‘‘शंखमुखी शिखरों पर’’। पहाडों का यह बिम्ब पहली बार सामने आया। लगता है जैसे कोई शिखरों में पूंक भर कर उन्हें बजा डालेगा, शिखरों से समुद्र तक यह पृथ्वी ध्वनित हो उठेगी। उसके बाद आपने अपना नाम भी बदल दिया और तेवर भी। यह बनारस का प्रभाव था या धूमिल की मैत्री का? ‘नाटक जारी है’ के बाद ‘इस यात्रा में’ लगता ही नहीं कि यह उसी कवि का संग्रह है। संग्रहों में इतनी भिन्नता? इस चेतना की पलश्रुति कैसे हुई?
लीलाधर जगूडी: अब महसूस होता है कि किसी भी कवि को अपनी काव्य परम्पराओं के स्कूलों से होकर जरूर आना चहिए। तब यह बोध नही था। ‘शर्मा’ को इसलिए हटाया था कि लोग मुझे ब्राह्मण समझकर गलत न समझ लें। ‘जगूड़ी’ एक ग्रामवाची शब्द है जैसे अम्बेदकर। लेकिन ‘जोगथ’ गांव में केवल ब्राह्मण रहते है यह भी कालांतर में ढूंढ लिया गया। यह अच्छी बात थी कि प्राचीन नामों से जाति का बोध नहीं होता था। आज मैं जाति लाभार्थी नहीं हूँ। लाभ वंचित जातियां भी विपन्नता और विचारणीयता को प्राप्त होती जा रही है। खैर, धूमिल ने अपना नाम जाति छिपाने के लिए ही धूमिल रखा था लेकिन लोग सुदाम प्रसाद पांडे को ढूंढ लाये। बनारस खुद पक्कड़ और फ़कीर प्रवृति को पोषण देने वाला ऐतिहासिक शहर है। 1947 में भारत का आजाद होना सन् 60 के बाद मेरा बनारस पहुंच जाना जैसे दो आजादियों का संगम हुआ। मेरे जैसे घर से भागे हुए सर्वहारा को बनारस ने क्षेत्रभोजी बनाकर जीवित रखा। संस्कृत विद्यालयों की कतार की कतार देखी। शिक्षा और अक्षर प्राप्ति में बनारस की कृपा से गरीबी बाधक नहीं बनी। इससे पहले लगभग ग्यारह वर्ष मैं राजस्थान के कांसली, पिलानी, बगड़, पुष्कर आदि स्थानों पर रहा।
‘शंखमुखी शिखरों पर’ की काव्य भाषा से ‘नाटक जारी है’, की काव्य भाषा में छलांग दो वजहों से घटित हुई। आजादी के बाद के युवा जीवन का माहौल जिस तरह की शब्दावली से भरता जा रहा था वह भविष्य की अनिश्चितता को ज्यादा बढा दे रहा था । ऊपर से अज्ञेय की कविता पुस्तक ‘हरी घास पर क्षण भर’, 1963-64 में और कल्पना में मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में ’का प्रकाशन और धूमिल की मैत्री, राजकमल और गिन्सवर्ग का बनारस । अकविता की भाषा का बढ़ता अतिरेक। आजादी के बाद के मनुष्यों के भविष्य की तरह हिन्दी कविता का चेहरा भी चकनाचूर हो गया था।
इस में कोई संदेह नहीं कि उस समय मैं प्रभाव ग्रहण क्षेत्र में था। जिस तरह छोटी नदी बड़ी नदी की ओर जाती है और बडी नदी समुद्र की और, उसर तरह मैं निरंतर बडे़ कवियों की कविताओं की ओर जा रहा था और उनके प्रभाव में अपने को विलुप्त होने से बचाने की जद्दो जेहद में लग हुआ था। बडे़ के प्रभाव में उसका सोच और प्रवाह आपको हांकता है। इससे बचने के लिए अपनी नाव और अपने चप्पू होने जरूरी हैं। यह भी जरूरी है कि साइकिल की तरह आपको नाव चलानी भी आती हो। बनारस में उस समय चवन्नी में एक धंटे के लिए साइकिल और एक घंटे के लिए नाव चलाने को मिल जाती थी। माझी सीनियर कवि की तरह आपके साथ बैठा हो और आप लहरों से टकराते हुए अपना रास्ता बना रहे हों यह बनारस में ही संभव है। जहां विष्णुचंद्र शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री और धूमिल तीन ध्रुवों की तरह एक साथ मौजूद हों। गीतकारों में समय की शिला पर चित्र उकरने वाले डॉ. शंभुनाथ सिहं मौजूद थे। नजीर बनारसी, बेढब बनारसी और बेधड़क बनारसी जैसे श्रृंगार और व्यंग्य से ओत प्रोत कवियों का गली गली में जमावड़ा था। भारतेन्दु बाबू आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रसाद और प्रेमचंद की कहानी कही जाती थी। नामवर जी ने तब ताजा ताज बनारस छोड़ा था । बनारस के लिए वे तब आज जैसे परदेसी नहीं थे । डा शिव प्रसाद सिंह, डा॰ बच्चन सिंह और डा॰ विद्यानिवास मिश्र तब स्थापित थे और डा काशीनाथ सिंह ने विलंब से लिखना शुरू किया था (जैसे कोई देरी से शादी करे) इसलिए नवोदित थे । नौकरी पाने के संघर्ष से गुजर रहे थे और बाल बच्चेदार थे।
बनारस खुद एक इतिहास की तरह वर्तमान में जीता हुआ दिखता है । प्रसाद जी के शब्दो में कहें तो वह झंझा झकोर और गर्जन का शहर है। जुलाहों और जोगियों की नगरी बनारस के कई रंग हैं। गंगा तट के विस्तार से ज्यादा बनारस तंग गलियों में धड़कता है। ‘निराला निवेश’ में जो गोष्ठियां होती थीं उन में डा बच्चन सिंह कुछ हिदायतनामे नये रचनाकारो के लिए जारी करते थे। एक दिन, जिसे मै भूलता नही हूं उन्होने कहा धूमिल तुम जगूड़ी के प्रभाव से बचो । उस दिन नागानंद मुक्तिकंठ ने मद्रस कैफ़े में उधार मसाला डोसा और कॉफ़ी की दावत ली थी। मैं, धूमिल और नागानंद। तीनो जोगी उस दिन बहुत रम्यमाण हुए। अर्थात हम लोगों ने ओल्ड मौंक भी पी थी।
(जारी)
रीटा और राइफ़ल
महमूद दरवेश की कविताएं - २
रीटा और राइफ़ल
एक राइफ़ल होती है
रीटा और मेरे दरम्यान
और जो भी जानता है रीटा को
झुकता है उसके सम्मुख और शहद की रंगत वाले उसके केशों
की दिव्यता से खेलता है
और मैंने रीटा को चूमा
जब वह युवा थी
और मुझे याद है किस तरह वह नज़दीक आई थी
और कैसे मेरी बांहें ढंके थीं उन प्यारी लटों को
और मैं याद करता हूं रीटा को
जिस तरह एक गौरैय्या याद करती है अपनी धारा को
उफ़ रीटा
हम दोनों के दरम्यान लाखों गौरैयें और छवियां हैं
और बहुत सारी मुलाक़ातें
जिन्हें राइफ़ल से दाग़ा गया है
रीटा का नाम मेरे मुंह ले लिए एक भोज था
रीटा की देह मेरे रक्त का विवाह था
और मैं दो बरस खोया रहा रीटा में
और दो साल तक सोया की वह मेरी बांहों में
और हमने वायदे किए
सुन्दरतम प्यालों के दौरान
और हम अपने होठों की शराब में दहके
और हमने दोबारा जन्म लिया
उफ़ रीटा!
इस राइफ़ल के सामने कौन सी चीज़ मेरी आंखों को तुमसे दूर हटा सकती थी
सिवा एक छोटी सी नींद या शहद के रंग के बादलों के?
एक दफ़ा
उफ़, गोधूलि की ख़ामोशी
सुबह मेरा चन्द्रमा किसी सुदूर जगह जा बसा
उन शहद रंग की आंखों की तरफ़
और शहर ने बुहार दिया सारे गायकों को
और रीटा को
रीटा और मेरी आंखों के दरम्यान -
एक राइफ़ल.
रीटा और राइफ़ल
एक राइफ़ल होती है
रीटा और मेरे दरम्यान
और जो भी जानता है रीटा को
झुकता है उसके सम्मुख और शहद की रंगत वाले उसके केशों
की दिव्यता से खेलता है
और मैंने रीटा को चूमा
जब वह युवा थी
और मुझे याद है किस तरह वह नज़दीक आई थी
और कैसे मेरी बांहें ढंके थीं उन प्यारी लटों को
और मैं याद करता हूं रीटा को
जिस तरह एक गौरैय्या याद करती है अपनी धारा को
उफ़ रीटा
हम दोनों के दरम्यान लाखों गौरैयें और छवियां हैं
और बहुत सारी मुलाक़ातें
जिन्हें राइफ़ल से दाग़ा गया है
रीटा का नाम मेरे मुंह ले लिए एक भोज था
रीटा की देह मेरे रक्त का विवाह था
और मैं दो बरस खोया रहा रीटा में
और दो साल तक सोया की वह मेरी बांहों में
और हमने वायदे किए
सुन्दरतम प्यालों के दौरान
और हम अपने होठों की शराब में दहके
और हमने दोबारा जन्म लिया
उफ़ रीटा!
इस राइफ़ल के सामने कौन सी चीज़ मेरी आंखों को तुमसे दूर हटा सकती थी
सिवा एक छोटी सी नींद या शहद के रंग के बादलों के?
एक दफ़ा
उफ़, गोधूलि की ख़ामोशी
सुबह मेरा चन्द्रमा किसी सुदूर जगह जा बसा
उन शहद रंग की आंखों की तरफ़
और शहर ने बुहार दिया सारे गायकों को
और रीटा को
रीटा और मेरी आंखों के दरम्यान -
एक राइफ़ल.
Wednesday, September 22, 2010
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 2
(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: ‘इस यात्रा में’ की भूमिका ‘पुराने प्रसंग के प्राण’ में आपने लिखा शायद माँ का अभाव मेरी कविता का उद्भव है । उसी को ढूँढने और पाने के लिए मैने अपनी कविताओं में स्त्रियों को तरह-तरह से रचा है । एक कविता में आपने कहा है कि स्त्रियाँ न होती तो आधी भाषा न होती और पूरा जीवन न होता । इससे आपका क्या आशय है ?
लीलाधर जगूड़ी: मेरा बचपन मेरी वृद्ध दादी जो अपने युवा काल में ही विधवा हो गयी थी, की गोद में बीता, पांच वर्ष का होते ही माँ से वंचित हो गया था। इस तरह मैं एक ‘गडवालू’ (छोटे बच्चों की गोद खिलाने वाला) बच्चा बन गया। जब गांव में शाम को बच्चे खेतों से लौटी हुई अपनी माँ से लिपट जाते थे, तो हम तीनों भाई अपनी रतौंधी ग्रस्त दादी से लिपट जाते थे।
मुझे बचपन में सिर्फ़ इतना पता था कि मरने के बाद सब भूत बन जाते हैं। इसलिए अंधेरे में श्मशान में और भीड़ में मुझे कभी डर नहीं लगा क्यों कि मै किशोर उम्र तक यह मानकर चलता रहा कि भूतों को मेरी माँ कह देगी कि वह मेरा बच्चा है। जो भी वजह रही हो, मुझे भूत कभी दिखायी नहीं दिये। मैं दस वर्ष का हुआ ही था कि 1951 की बसन्त पंचमी को मेरा विवाह एक ऐसी लड़की से कर दिया गया जो तब सात वर्ष की हो चुकी थी, वह हमारे घर में किसी डरे सकुचे मेहमान बच्चे की तरह लेकिन दिन भर घर के छोटे-छोटे कामों में जुटी रहती थी। उसी वर्ष मैं घर छोडकर भाग गया। ऋषिकेश से राजस्थान तक संस्कृत विद्यालयों में मुफ़्त का भोजन और मुफ़्त की शिक्षा प्राप्त कर लगभग ग्यारह-बारह वर्ष बाद जब मैं धर लौटकर आया तो उस लड़की को अपने घर में मौजूद पाया। मैं अपनी माँ के अभाव को दूसरी तरह से देखता था और वह लड़की बाल्यकाल से ही, माँ बाप के जीवित होते हुए भी, उनके अभाव को एकदम दूसरे रूप में देखती थी। उसने एक बार मुझ से विमाता के अन्यायों से तंग आकर कहा कि यह अच्छा है कि आपकी अपनी माँ नहीं है। मेरी तो अपनी माँ है लेकिन उसने मुझे सात वर्ष की अवस्था में ही घर से विदा कर दिया था। ऐसे वक्त महाभारत का का वह वाक्य याद आता है जो उसने नल और दमयंती उपाख्यान में लिखा है-
--स्त्री के समान दूसरी कौन सी दुःख की महौषधि है? भार्या के समान दुखी मनुष्य का और कोई मित्र नहीं। वह आर्त की परम औषध है। पुरूष से बढकर स्त्री का कोई रहस्य ज्ञाता नहीं। यदि कोई पुरूष स्त्री को आकाश में भरी हुई रात्रि की तरह देखे तो भी वह उसे एक दीप्त नक्षत्र की तरह देखती है।
जिस लड़की से मेरा विवाह हुआ उसकी वजह से कालांतर में मैं अपनी माँ को कुछ भुला पाया। लेकिन तभी गांव में एक भयावह घटना हो गयी। किसी स्त्री पर भूत लग गया और उस भूत ने अपना नाम वह बताया जो कि मेरी माँ का नाम था। इतने वर्षो बाद मेरी माँ अभी भी भूत है, यह बात मुझे बहुत पीड़ादायक लगी। जिसे मैंने इतने वर्षों के अंधेरे में बहुत तलाशा और वह तब भी मुझे नहीं मिली तो यह सिर्फ़ पाखंड है और कुछ नहीं। पता नहीं मुझे उस समय क्या हुआ कि वहां पर पड़ा एक जूता उठाकर मैंने उस स्त्री को जूते से खूब पीटा, वह स्त्री बाल फैलाये हुए थी। और अपने को भूत द्वारा ग्रसित बता रही थी भूत भाग गया और वह स्त्री सामान्य हो गयी। लेकिन उसके पति ने कहा कि तुमने मेरी पत्नी को जूते से क्यों पीटा? मेरे जवाब ने उन्हे निरूत्तर कर दिया। मैंने कहा, आपकी पत्नी को नहीं मैंने अपनी माँ को पीटा है, ताकि वह आइंदा भूत बनकर किसी को न सताये । मेरी दादी ने बताया कि उस परिवार से पिछले दो साल से हमारे झगडे़ चल रहे हैं इसलिए यह भूत कांड भी बदले की एक कार्रवाई थी।
ओम जी, इन बातों को अगर छोड़ दिया जाय तो भी जीवन स्त्री या कि स्त्रियों के बिना अधूरा है। जन्म से लेकर पुनर्जन्म तक स्त्रियों ने अपने कर्म सौन्दर्य से ऐसे-ऐसे शब्दों और संज्ञाओ का निर्माण किया है कि पुल्लिंग की यात्रा स्त्रीलिंग के बिना जीवन में और व्याकरण में, दोनों जगह अधूरी है। मनुष्य चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, सभी के कर्मों ने और प्रकृति के परिवर्तनशील स्वभाव ने हर युग में भाषा की स्थिति (पैटर्न) को बदला है। नयी जीवन शैली और नये उत्पादन भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए नयी-नयी प्रतीतियों के साथ नये शब्द ले आते हैं और यह भी स्त्री पुरूष का एक संयुक्त उद्यम है। अद्वितीय सहकार है। बिना स्त्री के पौराणिक देवताओं की उत्पति बहुत बडी फ़ैंटेसी लगती है। विष्णु से ब्रह्मा सीधे पैदा दिखाये गये हैं। शिव भी स्वयंभू हैं। बीच में कोई स्त्री (जननी) नहीं है। लेकिन इन आयोनिज देवताओं का, भी जीवन में स्त्री के बिना काम नहीं चला। मैंने मनुष्य समाज के संदर्भ में स्त्रियों की बात कही है। स्त्री, पुरूष का आधा सौभाग्य है।
ओम निश्चल: आपने अपनी कविता के तीन उद्गम माने हैं। लोक जीवन, सामाजिक जीवन और कर्म से विस्तृत वैश्विक ब्रह्माण्डीय दृष्टि। आपने माना कि अब तक के सभी बारह संग्रह इन्ही प्रवृत्तियों का विस्तार है? इनके अलावा आपकी कविता को समकालीन कविता की प्रचालित प्रवृत्तियों की विशिष्टताओं से किस तरह अलग से देखा जाना चाहिए?
लीलाधर जगूड़ी: खुद को प्रवृत्तियों की दृष्टि से देखना बहुत बडे जासूसी अवलोकन की अपेक्षा रखता है। मेरी कविता में नाटकीय सूक्तियां अधिक हैं। निरंतर एक संवादात्मकता है जो किसी बातचीत का अंत नही होने देती। मैने छोटी-छोटी टेढी-मेढी पंक्तियां की उपेक्षा लंबी पंक्तियों या कहें कि लंबे वाक्य ज्यादा लिखे हैं। लंबे वाक्यो का संकट एक यह भी है कि उनमें आख्यानपरकता और व्याख्यात्मकता ज्यादा होती है। मै हर पात्र और वस्तु से उसके अस्तित्व का एकल अभिनय करवाना चाहता हूँ।
इधर मेरी कविताएं आकार में छोटी हुई हैं। भवसागर में छोटी-छोटी डोंगियों की तरह प्रवाहित और प्रकाशित छोटे-छोटे दीयों की तरह।
मैं प्रकृति को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से देखता हूं। जैसे परिवार की एक राजनीति होती है वैसे प्रकृति की भी होती है। प्रकृति में जहां-जहां मैनें मनुष्य की उपस्थिति देखी है वहां-वहां उस मानवीय उपस्थिति ने प्रकृति को बदल डाला है।
विचारधाराओं की तरह कहीं-कहीं बची है
चोटियों पर बर्फ़
विचारधारा के बिना भी ठंड की तानाशाही कायम है।
आज कविता को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि उसने कितने नये शब्द, मुहावरे और बिम्ब गढ़ने के अलावा वाक्यों के कथन ओर गठन में क्या-क्या अंतर पैदा किये हैं, उससे कैसे कविता के जैविक संगठन मे सहायता मिली। न कहने को आखिर किस तरह कहकर भी नहीं कहा या क्या से क्या कहकर कहा? और किसने कविता को एक समाजशास्त्रीय लेख बनाकर बिम्बहीन बना दिया?
ओम निश्चल: ‘इस यात्रा में’ की कविता ‘आत्मविलाप’ में आपने कविताओं को कविता नहीं एक इच्छा माना है। एक ऐसी इच्छा जिसमें पानी हर तरफ़ से किनारे पर तो ला देता है पर छोडता नहीं। इतनी सुदीर्घ काव्य यात्रा में जहां भाषा अनुभव और कथ्य मे हर बार आपके भीतर कुछ नया खोजने रचने का उद्वेग सक्रिय रहा है। इच्छा-जल में संतरण ही आपको अभीष्ट है? या इस जल को भी आप कहीं पहुंचाना चाहते हैं ?
लीलाधर जगूड़ी: ‘इस यात्रा में’ नामक संग्रह में 1970 -73 की कविताएँ संकलित हैं। इसके तीसरे संस्करण के लिए प्रकाशक ने मुझ से कहा कि मैं इसकी अब एक भूमिका लिख दूँ। अपने ही संग्रह की लगभग 40 वर्ष बाद भूमिका लिखना चुनौती भी थी और यह इस बात का भी प्रमाण है कि यह संग्रह अब भी पढ़ा जा रहा है।
इच्छा जल एक तरह से अपने अतःकरण को सदानीरा अथवा अजस्र बनाये रखने की आकांक्षा भी है। उद्गम सूखना नहीं चाहिए । आत्म विलाप एक पश्चाताप लिये हुए है कि यहां हम कुछ बचा न सके। जो भी हमने प्राप्त किया वह नष्ट होने के लिए एक उपलाब्धि थी। विकास के लिए रोज रोज हमने जो कुछ किया उसने तो हमने बदला हो लेकिन अभीष्ट बदलाव में जो कुछ हमने प्राप्त किया उसने भी हमें नहीं छोड़ा। उसमें का परिवर्तन कहीं न कहीं हममें का परिवर्तन धटित होने लगा ।
‘मैने जो धुआं देखा जिन्दगी के हवन से, उसमें सूर्य की किरण झाड़ू की सींक से बेहतर नहीं थी। यहां न हम अपना विनाश बचा पाते हैं न अपना निर्माण। यहां तक कि अपने बाल और नाखून भी नहीं बचा पाये । संभवतः अपने अस्तित्व के लिए ही दुनिया का अस्तित्व है । वरना दुनिया की भी क्या जरूरत? इच्छा जल की मृत्यु मनुष्य की मृत्यु है। इसी इच्छा पाश से बंधा हुआ मनुष्य यहां तक पहुंचा है कि आज सब कुछ ‘इच्छा बटन’ (स्विच) के नीचे आगया है । यह दुनिया इसलिए सुंदर है क्यों कि यहां संलाप करने वाला ही नही बार बार आत्म विलाप करने वाला भी एक मनुष्य मौजूद रहता है जो इस इच्छा जल को अपने अनुसार या अपने को इस इच्छा जल के अनुसार चलाता रहता है। ‘भव सागर’ जो मुहावरा है वह इसी ‘इच्छा जल’ से भरा है।
(जारी)
ओम निश्चल: ‘इस यात्रा में’ की भूमिका ‘पुराने प्रसंग के प्राण’ में आपने लिखा शायद माँ का अभाव मेरी कविता का उद्भव है । उसी को ढूँढने और पाने के लिए मैने अपनी कविताओं में स्त्रियों को तरह-तरह से रचा है । एक कविता में आपने कहा है कि स्त्रियाँ न होती तो आधी भाषा न होती और पूरा जीवन न होता । इससे आपका क्या आशय है ?
लीलाधर जगूड़ी: मेरा बचपन मेरी वृद्ध दादी जो अपने युवा काल में ही विधवा हो गयी थी, की गोद में बीता, पांच वर्ष का होते ही माँ से वंचित हो गया था। इस तरह मैं एक ‘गडवालू’ (छोटे बच्चों की गोद खिलाने वाला) बच्चा बन गया। जब गांव में शाम को बच्चे खेतों से लौटी हुई अपनी माँ से लिपट जाते थे, तो हम तीनों भाई अपनी रतौंधी ग्रस्त दादी से लिपट जाते थे।
मुझे बचपन में सिर्फ़ इतना पता था कि मरने के बाद सब भूत बन जाते हैं। इसलिए अंधेरे में श्मशान में और भीड़ में मुझे कभी डर नहीं लगा क्यों कि मै किशोर उम्र तक यह मानकर चलता रहा कि भूतों को मेरी माँ कह देगी कि वह मेरा बच्चा है। जो भी वजह रही हो, मुझे भूत कभी दिखायी नहीं दिये। मैं दस वर्ष का हुआ ही था कि 1951 की बसन्त पंचमी को मेरा विवाह एक ऐसी लड़की से कर दिया गया जो तब सात वर्ष की हो चुकी थी, वह हमारे घर में किसी डरे सकुचे मेहमान बच्चे की तरह लेकिन दिन भर घर के छोटे-छोटे कामों में जुटी रहती थी। उसी वर्ष मैं घर छोडकर भाग गया। ऋषिकेश से राजस्थान तक संस्कृत विद्यालयों में मुफ़्त का भोजन और मुफ़्त की शिक्षा प्राप्त कर लगभग ग्यारह-बारह वर्ष बाद जब मैं धर लौटकर आया तो उस लड़की को अपने घर में मौजूद पाया। मैं अपनी माँ के अभाव को दूसरी तरह से देखता था और वह लड़की बाल्यकाल से ही, माँ बाप के जीवित होते हुए भी, उनके अभाव को एकदम दूसरे रूप में देखती थी। उसने एक बार मुझ से विमाता के अन्यायों से तंग आकर कहा कि यह अच्छा है कि आपकी अपनी माँ नहीं है। मेरी तो अपनी माँ है लेकिन उसने मुझे सात वर्ष की अवस्था में ही घर से विदा कर दिया था। ऐसे वक्त महाभारत का का वह वाक्य याद आता है जो उसने नल और दमयंती उपाख्यान में लिखा है-
--स्त्री के समान दूसरी कौन सी दुःख की महौषधि है? भार्या के समान दुखी मनुष्य का और कोई मित्र नहीं। वह आर्त की परम औषध है। पुरूष से बढकर स्त्री का कोई रहस्य ज्ञाता नहीं। यदि कोई पुरूष स्त्री को आकाश में भरी हुई रात्रि की तरह देखे तो भी वह उसे एक दीप्त नक्षत्र की तरह देखती है।
जिस लड़की से मेरा विवाह हुआ उसकी वजह से कालांतर में मैं अपनी माँ को कुछ भुला पाया। लेकिन तभी गांव में एक भयावह घटना हो गयी। किसी स्त्री पर भूत लग गया और उस भूत ने अपना नाम वह बताया जो कि मेरी माँ का नाम था। इतने वर्षो बाद मेरी माँ अभी भी भूत है, यह बात मुझे बहुत पीड़ादायक लगी। जिसे मैंने इतने वर्षों के अंधेरे में बहुत तलाशा और वह तब भी मुझे नहीं मिली तो यह सिर्फ़ पाखंड है और कुछ नहीं। पता नहीं मुझे उस समय क्या हुआ कि वहां पर पड़ा एक जूता उठाकर मैंने उस स्त्री को जूते से खूब पीटा, वह स्त्री बाल फैलाये हुए थी। और अपने को भूत द्वारा ग्रसित बता रही थी भूत भाग गया और वह स्त्री सामान्य हो गयी। लेकिन उसके पति ने कहा कि तुमने मेरी पत्नी को जूते से क्यों पीटा? मेरे जवाब ने उन्हे निरूत्तर कर दिया। मैंने कहा, आपकी पत्नी को नहीं मैंने अपनी माँ को पीटा है, ताकि वह आइंदा भूत बनकर किसी को न सताये । मेरी दादी ने बताया कि उस परिवार से पिछले दो साल से हमारे झगडे़ चल रहे हैं इसलिए यह भूत कांड भी बदले की एक कार्रवाई थी।
ओम जी, इन बातों को अगर छोड़ दिया जाय तो भी जीवन स्त्री या कि स्त्रियों के बिना अधूरा है। जन्म से लेकर पुनर्जन्म तक स्त्रियों ने अपने कर्म सौन्दर्य से ऐसे-ऐसे शब्दों और संज्ञाओ का निर्माण किया है कि पुल्लिंग की यात्रा स्त्रीलिंग के बिना जीवन में और व्याकरण में, दोनों जगह अधूरी है। मनुष्य चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, सभी के कर्मों ने और प्रकृति के परिवर्तनशील स्वभाव ने हर युग में भाषा की स्थिति (पैटर्न) को बदला है। नयी जीवन शैली और नये उत्पादन भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए नयी-नयी प्रतीतियों के साथ नये शब्द ले आते हैं और यह भी स्त्री पुरूष का एक संयुक्त उद्यम है। अद्वितीय सहकार है। बिना स्त्री के पौराणिक देवताओं की उत्पति बहुत बडी फ़ैंटेसी लगती है। विष्णु से ब्रह्मा सीधे पैदा दिखाये गये हैं। शिव भी स्वयंभू हैं। बीच में कोई स्त्री (जननी) नहीं है। लेकिन इन आयोनिज देवताओं का, भी जीवन में स्त्री के बिना काम नहीं चला। मैंने मनुष्य समाज के संदर्भ में स्त्रियों की बात कही है। स्त्री, पुरूष का आधा सौभाग्य है।
ओम निश्चल: आपने अपनी कविता के तीन उद्गम माने हैं। लोक जीवन, सामाजिक जीवन और कर्म से विस्तृत वैश्विक ब्रह्माण्डीय दृष्टि। आपने माना कि अब तक के सभी बारह संग्रह इन्ही प्रवृत्तियों का विस्तार है? इनके अलावा आपकी कविता को समकालीन कविता की प्रचालित प्रवृत्तियों की विशिष्टताओं से किस तरह अलग से देखा जाना चाहिए?
लीलाधर जगूड़ी: खुद को प्रवृत्तियों की दृष्टि से देखना बहुत बडे जासूसी अवलोकन की अपेक्षा रखता है। मेरी कविता में नाटकीय सूक्तियां अधिक हैं। निरंतर एक संवादात्मकता है जो किसी बातचीत का अंत नही होने देती। मैने छोटी-छोटी टेढी-मेढी पंक्तियां की उपेक्षा लंबी पंक्तियों या कहें कि लंबे वाक्य ज्यादा लिखे हैं। लंबे वाक्यो का संकट एक यह भी है कि उनमें आख्यानपरकता और व्याख्यात्मकता ज्यादा होती है। मै हर पात्र और वस्तु से उसके अस्तित्व का एकल अभिनय करवाना चाहता हूँ।
इधर मेरी कविताएं आकार में छोटी हुई हैं। भवसागर में छोटी-छोटी डोंगियों की तरह प्रवाहित और प्रकाशित छोटे-छोटे दीयों की तरह।
मैं प्रकृति को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से देखता हूं। जैसे परिवार की एक राजनीति होती है वैसे प्रकृति की भी होती है। प्रकृति में जहां-जहां मैनें मनुष्य की उपस्थिति देखी है वहां-वहां उस मानवीय उपस्थिति ने प्रकृति को बदल डाला है।
विचारधाराओं की तरह कहीं-कहीं बची है
चोटियों पर बर्फ़
विचारधारा के बिना भी ठंड की तानाशाही कायम है।
आज कविता को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि उसने कितने नये शब्द, मुहावरे और बिम्ब गढ़ने के अलावा वाक्यों के कथन ओर गठन में क्या-क्या अंतर पैदा किये हैं, उससे कैसे कविता के जैविक संगठन मे सहायता मिली। न कहने को आखिर किस तरह कहकर भी नहीं कहा या क्या से क्या कहकर कहा? और किसने कविता को एक समाजशास्त्रीय लेख बनाकर बिम्बहीन बना दिया?
ओम निश्चल: ‘इस यात्रा में’ की कविता ‘आत्मविलाप’ में आपने कविताओं को कविता नहीं एक इच्छा माना है। एक ऐसी इच्छा जिसमें पानी हर तरफ़ से किनारे पर तो ला देता है पर छोडता नहीं। इतनी सुदीर्घ काव्य यात्रा में जहां भाषा अनुभव और कथ्य मे हर बार आपके भीतर कुछ नया खोजने रचने का उद्वेग सक्रिय रहा है। इच्छा-जल में संतरण ही आपको अभीष्ट है? या इस जल को भी आप कहीं पहुंचाना चाहते हैं ?
लीलाधर जगूड़ी: ‘इस यात्रा में’ नामक संग्रह में 1970 -73 की कविताएँ संकलित हैं। इसके तीसरे संस्करण के लिए प्रकाशक ने मुझ से कहा कि मैं इसकी अब एक भूमिका लिख दूँ। अपने ही संग्रह की लगभग 40 वर्ष बाद भूमिका लिखना चुनौती भी थी और यह इस बात का भी प्रमाण है कि यह संग्रह अब भी पढ़ा जा रहा है।
इच्छा जल एक तरह से अपने अतःकरण को सदानीरा अथवा अजस्र बनाये रखने की आकांक्षा भी है। उद्गम सूखना नहीं चाहिए । आत्म विलाप एक पश्चाताप लिये हुए है कि यहां हम कुछ बचा न सके। जो भी हमने प्राप्त किया वह नष्ट होने के लिए एक उपलाब्धि थी। विकास के लिए रोज रोज हमने जो कुछ किया उसने तो हमने बदला हो लेकिन अभीष्ट बदलाव में जो कुछ हमने प्राप्त किया उसने भी हमें नहीं छोड़ा। उसमें का परिवर्तन कहीं न कहीं हममें का परिवर्तन धटित होने लगा ।
‘मैने जो धुआं देखा जिन्दगी के हवन से, उसमें सूर्य की किरण झाड़ू की सींक से बेहतर नहीं थी। यहां न हम अपना विनाश बचा पाते हैं न अपना निर्माण। यहां तक कि अपने बाल और नाखून भी नहीं बचा पाये । संभवतः अपने अस्तित्व के लिए ही दुनिया का अस्तित्व है । वरना दुनिया की भी क्या जरूरत? इच्छा जल की मृत्यु मनुष्य की मृत्यु है। इसी इच्छा पाश से बंधा हुआ मनुष्य यहां तक पहुंचा है कि आज सब कुछ ‘इच्छा बटन’ (स्विच) के नीचे आगया है । यह दुनिया इसलिए सुंदर है क्यों कि यहां संलाप करने वाला ही नही बार बार आत्म विलाप करने वाला भी एक मनुष्य मौजूद रहता है जो इस इच्छा जल को अपने अनुसार या अपने को इस इच्छा जल के अनुसार चलाता रहता है। ‘भव सागर’ जो मुहावरा है वह इसी ‘इच्छा जल’ से भरा है।
(जारी)
सखियां वा घर सबसे न्यारा
एक युवा कवि से
महमूद दरवेश की कविताएं - १
एक युवा कवि से
हमारी आकृतियों पर ध्यान न देना
और शुरू करना हमेशा अपने ही शब्दों से
जैसे कि तुम पहले ही हो कविता लिखने वाले
और अन्तिम कवि
अगर तुम हमारी रचनाएं पढ़ो, यूं करना कि वे हमारी हवाओं का विस्तार न हों
बल्कि यातना की पुस्तक में
हमारे सुनने की काबिलियत को बेहतर बनाएं
किसी से मत पूछना: मैं कौन हूं?
तुम जानते हो तुम्हारी माता कौन है
जहां तक तुम्हारे पिता की बात है, वह तुम बन जाना.
सत्य होता है सफ़ेद, उस पर लिखो
एक कौवे की स्याही से
सत्य काला होता है, उस पर लिखो
किसी मरीचिका की रोशनी से.
अगर तुम किसी उक़ाब से लड़ना चाहते हो
तो उक़ाब के साथ उड़ो
अगर तुम किसी स्त्री से प्रेम करने लगो
उसे नहीं बल्कि तुम्हें
बनना चाहिये उस इच्छा का अन्त करने वाला
जीवन उससे कम जीवन्त है जितना हम सोचते हैं लेकिन हम बहुत कम सोचते हैं
उस बारे में कि कहीं हम अपनी भावनाओं को बीमार न बना लें
अगर तुम एक ग़ुलाब के बारे में देर तक सोचोगे
तुम किसी तूफ़ान में ज़रा भी हिल नहीं सकोगे
तुम मेरी तरह हो, लेकिन मेरा पाताल स्पष्ट है
और तुम्हारे पास सड़कें हैं जिनके रहस्य कभी ख़त्म नहीं होते
वे उतरती हैं और चढ़ती हैं, उतरती हैं चढ़ती हैं
तुम युवावस्था को कह सकते हो
प्रतिभा की परिपक्वता
या बुद्धिमानी. निस्संदेह यह बुद्धिमत्ता है,
ठण्डी पद्यहीनता की बुद्धिमत्ता
हाथ में धरी हज़ार चिड़ियों
उस चिड़िया की बराबरी नहीं कर सकती जो एक पेड़ पहने होती है
मुश्किल समय में कविता
किसी कब्रिस्तान में सुन्दर फूलों जैसी होती है
आसान नहीं होता मिसालें ढूंढना
तो अनुगूंज की सरहद के पीछे
हो जाओ जो तुम हो
और जो नहीं भी हो
भावनाओं की ऊष्मा की मियाद की एक तारीख़ होती है
सो अपने दिल के वास्ते उसे भर लो भावनाओं से
उसका पीछा करो जब तक कि तुम अपने रास्ते न पहुंच जाओ
अपने प्रेमी से यह न कहो कि तुम वह हो
और वह तुम, उसके
उलट बोलो : कि हम एक
बड़े शरणार्थी बादल के मेहमान हैं.
दूसरा रास्ता चुनो, अपनी पूरी ताकत के साथ, दूर जाओ नियम से
एक वाक्य में कभी जगह न दो दो सितारों को
कम ज़रूरी चीज़ को रखो बेहद ज़रूरी चीज़ के साथ
ताकि सम्पूर्ण बना सको उमड़ते हुए उल्लास को
हमारी हिदायतों की विशुद्धता पर कभी यक़ीन न करो
बस विश्वास रखो गुज़र गए कारवां के निशान पर
नैतिकता कवि के हृदय में होती है गोली सरीखी
एक घातक बुद्धिमत्ता.
जब गुस्सा करो तो किसी सांड़ की तरह
कमज़ोर होओ
तो बादाम की कोंपल जैसे
जब प्यार करो तो कुछ नहीं, कुछ भी नहीं
प्यार का गीत गाओ तो बन्द कमरे में
रास्ता लम्बा है किसी पुरातन कवि की रात जैसा
मैदान और पहाड़ियां, नदियां और घाटियां.
अपने सपने के हिसाब से चलो: तुम्हारा पीछा
या तो एक फूल करेगा या फांसी का फ़न्दा.
मुझे तुम्हारे उद्यमों को लेकर कोई चिन्ता नहीं
मुझे तुम्हारी चिन्ता उन लोगों को लेकर होती है जो
अपने बच्चों की कब्रों पर नाचते हैं
और गायकों की नाभियों में लगे
छिपे कैमरों से
जब तुम ख़ुद को मुझसे और दूसरों से अलग कर लेते हो
तुम मुझे निराश नहीं करते.
तुम्हारे भीतर जो भी मुझ सा नहीं वह अधिक सुन्दर होता है.
आज के बाद से तुम्हारा इकलौता अभिभावक है उपेक्षित भविष्य
जब तुम दुःख में गल रहे हो मोममबत्ती के आंसुओं की मानिन्द
सोचो मत
या जब पीछा कर रहे हो अपनी अन्तर्चेतना की रोशनी का
ख़ुद के लिए सोचो: क्या यही सारा मैं हूं?
कविता हमेशा अधूरी होती है, तितलियां पूरा करती हैं उसे
प्रेम में कोई सलाह नहीं. यह अनुभव की बात है
कविता में कोई सलाह नहीं, यह प्रतिभा की बात है
और हां आख़िर में सब से ज़रूरी. सलाम!
एक युवा कवि से
हमारी आकृतियों पर ध्यान न देना
और शुरू करना हमेशा अपने ही शब्दों से
जैसे कि तुम पहले ही हो कविता लिखने वाले
और अन्तिम कवि
अगर तुम हमारी रचनाएं पढ़ो, यूं करना कि वे हमारी हवाओं का विस्तार न हों
बल्कि यातना की पुस्तक में
हमारे सुनने की काबिलियत को बेहतर बनाएं
किसी से मत पूछना: मैं कौन हूं?
तुम जानते हो तुम्हारी माता कौन है
जहां तक तुम्हारे पिता की बात है, वह तुम बन जाना.
सत्य होता है सफ़ेद, उस पर लिखो
एक कौवे की स्याही से
सत्य काला होता है, उस पर लिखो
किसी मरीचिका की रोशनी से.
अगर तुम किसी उक़ाब से लड़ना चाहते हो
तो उक़ाब के साथ उड़ो
अगर तुम किसी स्त्री से प्रेम करने लगो
उसे नहीं बल्कि तुम्हें
बनना चाहिये उस इच्छा का अन्त करने वाला
जीवन उससे कम जीवन्त है जितना हम सोचते हैं लेकिन हम बहुत कम सोचते हैं
उस बारे में कि कहीं हम अपनी भावनाओं को बीमार न बना लें
अगर तुम एक ग़ुलाब के बारे में देर तक सोचोगे
तुम किसी तूफ़ान में ज़रा भी हिल नहीं सकोगे
तुम मेरी तरह हो, लेकिन मेरा पाताल स्पष्ट है
और तुम्हारे पास सड़कें हैं जिनके रहस्य कभी ख़त्म नहीं होते
वे उतरती हैं और चढ़ती हैं, उतरती हैं चढ़ती हैं
तुम युवावस्था को कह सकते हो
प्रतिभा की परिपक्वता
या बुद्धिमानी. निस्संदेह यह बुद्धिमत्ता है,
ठण्डी पद्यहीनता की बुद्धिमत्ता
हाथ में धरी हज़ार चिड़ियों
उस चिड़िया की बराबरी नहीं कर सकती जो एक पेड़ पहने होती है
मुश्किल समय में कविता
किसी कब्रिस्तान में सुन्दर फूलों जैसी होती है
आसान नहीं होता मिसालें ढूंढना
तो अनुगूंज की सरहद के पीछे
हो जाओ जो तुम हो
और जो नहीं भी हो
भावनाओं की ऊष्मा की मियाद की एक तारीख़ होती है
सो अपने दिल के वास्ते उसे भर लो भावनाओं से
उसका पीछा करो जब तक कि तुम अपने रास्ते न पहुंच जाओ
अपने प्रेमी से यह न कहो कि तुम वह हो
और वह तुम, उसके
उलट बोलो : कि हम एक
बड़े शरणार्थी बादल के मेहमान हैं.
दूसरा रास्ता चुनो, अपनी पूरी ताकत के साथ, दूर जाओ नियम से
एक वाक्य में कभी जगह न दो दो सितारों को
कम ज़रूरी चीज़ को रखो बेहद ज़रूरी चीज़ के साथ
ताकि सम्पूर्ण बना सको उमड़ते हुए उल्लास को
हमारी हिदायतों की विशुद्धता पर कभी यक़ीन न करो
बस विश्वास रखो गुज़र गए कारवां के निशान पर
नैतिकता कवि के हृदय में होती है गोली सरीखी
एक घातक बुद्धिमत्ता.
जब गुस्सा करो तो किसी सांड़ की तरह
कमज़ोर होओ
तो बादाम की कोंपल जैसे
जब प्यार करो तो कुछ नहीं, कुछ भी नहीं
प्यार का गीत गाओ तो बन्द कमरे में
रास्ता लम्बा है किसी पुरातन कवि की रात जैसा
मैदान और पहाड़ियां, नदियां और घाटियां.
अपने सपने के हिसाब से चलो: तुम्हारा पीछा
या तो एक फूल करेगा या फांसी का फ़न्दा.
मुझे तुम्हारे उद्यमों को लेकर कोई चिन्ता नहीं
मुझे तुम्हारी चिन्ता उन लोगों को लेकर होती है जो
अपने बच्चों की कब्रों पर नाचते हैं
और गायकों की नाभियों में लगे
छिपे कैमरों से
जब तुम ख़ुद को मुझसे और दूसरों से अलग कर लेते हो
तुम मुझे निराश नहीं करते.
तुम्हारे भीतर जो भी मुझ सा नहीं वह अधिक सुन्दर होता है.
आज के बाद से तुम्हारा इकलौता अभिभावक है उपेक्षित भविष्य
जब तुम दुःख में गल रहे हो मोममबत्ती के आंसुओं की मानिन्द
सोचो मत
या जब पीछा कर रहे हो अपनी अन्तर्चेतना की रोशनी का
ख़ुद के लिए सोचो: क्या यही सारा मैं हूं?
कविता हमेशा अधूरी होती है, तितलियां पूरा करती हैं उसे
प्रेम में कोई सलाह नहीं. यह अनुभव की बात है
कविता में कोई सलाह नहीं, यह प्रतिभा की बात है
और हां आख़िर में सब से ज़रूरी. सलाम!
Tuesday, September 21, 2010
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 1
यह बातचीत
जगूड़ी से बरसों का संग-साथ रहा है। लखनऊ के सूचना विभाग से संबद्ध रहते हुए अक़्सर हम रू-ब रू होते, गोष्ठियाँ जमतीं और उनकी नई कविताओं का स्वाद भी चखते। उनकी कविताएँ तब भी अपने समय की निर्ममता से व्याख्या करती थीं और आज भी वे सबसे पहले एक क्रिटीक की भूमिका में ही दिखती हैं। कविता को वे आत्मा की इंजीनियारिंग मानते हैं। उनकी कविता कितनी भी गद्यात्मक और नैरेटिव क्यों न हो, उसमें कविता की आत्मा बोलती है। वे कहते भी तो हैं कि कविता भी आत्मा का कार्बन है। हिंदी आलोचना भले ही उन्हें नेपथ्य में रखती आई है पिर भी वे आज की आलोचना को चुनौती और सीख देने वाले कवियों में हैं। वे अपनी कविता से पाठकों को कविता-विरक्त नहीं करना चाहते जैसा आज के कुछ कवि कर रहे हैं। बाल्कि वे हर पाठक को नया कुछ देना चाहते हैं। उनकी कविता में समाजशास्त्रीय बहसें हैं, उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। जगूड़ी ने अपने संग्रह का नाम रखा था, अनुभव के आकाश में चाँद। अनुभव के निरभ्र आकाश में केवल चाँद ही नहीं, उनकी कविता भी उड़ान भरती है---उन्मुक्त और निर्भार। यह बातचीत भी उनके साथ निरन्तर संसर्ग के सत्साहस से संभव हुई है।
-ओम निश्चल
हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेता है
(हिंदी कविता के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी गत 1 जुलाई को सत्तर वर्ष के हो गए। अपने लेखन की शुरुआत उन्होंने सन् साठ से की थी। अनियमित शिक्षा क्रम से गुजरते हुए वे वर्षों तक तालीम के लिए कई जगहों पर भटके। पौज में भी रहे पर जल्दी ही उससे छुटकारा लेकर कविता में रमे तो आज तक उसी जुनून में रहते आ रहे हैं। कुछ वर्षों शिक्षण एवं सूचना विभाग,लखनऊ से सम्बद्ध रहे लीलाधर जगूड़ी जैसा कवि हिंदी में कोई दूसरा नही है, जिसने भाषा और अनुभव के रसायन से कविता की इतनी विरल निर्मितियाँ संभव की हैं।
इस मौके पर लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत के संपादित अंश:)
ओम निश्चल: सहित्य के सभी क्षेत्रों में अब यह माना जा रहा है कि आपकी हर कविता का संदर्भ और भाषिक संसार एकदम अलग किस्म का है। कवि होने के लिए कोई कम से कम योग्यता आप निर्धारित करना चाहेंगे? आजकल कवियों की बाढ़ के बावजूद कहा जा रहा है कि कविता खत्म हो गयी है या हो रही है।
लीलाधर जगूड़ीः सृष्टि के कारक तत्व की तरह कवि को भी ‘स्वयंभू’ कहा गया है अर्थात अपने आप अपनी प्रतिभा, अपने विवेक, अपने अनुभव से निजि दृष्टि के अभिव्यक्ति कौशल में स्वयं जन्म लेना। ‘कविर्मनीषी’ तक तो समझ में आता है, ‘परिभू’ भी चलेगा लेकिन ‘स्वयंभू’- यह बहुत कठिन है। क्यों कि भाषा समाज देता है और कवि उसका बेहतर इस्तेमाल करता है। सार्वजनिक भाषा में से स्वोपार्जित भाषा प्राप्त करना फिर उस भाषा में एक नये कथ्य का सृजन करना दूसरे स्वरचित शरीर की तरह है। अपने शरीर का स्वयं सृजन अत्यन्त कठिन प्रक्रिया है। कवि को कविता के अवयव बनाते समय यह याद रखना चाहिए कि वह ऐसा कुछ बनाने जा रहा है जो सिर्फ़ वही बना सकता है, इसलिए वही उसे बना रहा। दूसरा कोई उस अनुभूति की सहभागिता तो कर सकता है लेकिन उस कविता का प्रथम रचियता उस कवि के अलावा कोई दूसरा नहीं है। क्या आज के कवि को संवेदना का इतना अकेला, अद्भुत और स्वनिर्मित दृष्टिपूर्ण, आत्मचेतन संयंत्र समझा जा सकता है? आज की अधिकांश कविताओं में भाषा का पुनर्प्रयोग हो रहा है पुनरूत्पादन नहीं। नवसृजन तो दूर की बात है।
आज कवि का जन्म भूतपूर्व कवियों और भूवपूर्व कविता से होता है। कोई भी लोकशैली और संदर्भ कवि और कविता के जन्म का कारण बन सकते हैं। कविता असल में प्राथमिक या प्रथम कवि के लिए भी अभिव्यक्ति के उपाय के रूप में हठात् उपलब्ध नहीं हुई होगी। लयात्मक श्वास-क्रम या एक सांस को छोड़ते समय लम्बे और छोटे, झटकेदार भाषिक प्रयोगों के परिणामों से वह पहला कवि (व्यक्ति) न केवल परिचित रहा होगा बल्कि उसके छांदिक प्रभाव से प्रभावित भी रहा होगा। हो सकता है इस कौशल से पहले कोई स्मरणीय भाषिक अथवा शाब्दिक अभिव्यक्ति ऐसी न बन पायी हो जो नितान्त कलात्मक और अविस्मरणीय हो जाय। जो स्मृति के लिए एक फ़ैंटेसी हो जाय। प्रथम कवि के प्रथम भाषिक उच्छ्वास का वह क्षण अन्तःकरण को सदियों लंबी पीड़ा से भर गया। इसलिए सारे अध्ययनों और अनुभवों के बाद भी कवि की बुनियादी योग्यता है दूसरों के दुःख की अनुभूति में विरल संवेदनशील अन्तःकरण का वैचारिक उद्रेक और तुरन्त न्याय के सौन्दर्य की ऐच्छिक स्थापना । वह शाप भी दे रहा है तो असह्य क्रोध और अपार करूणा के साथ, दैहिकता को नश्वर न बताते हुए दे रहा है यही कारण है कि नश्वर दैहिकता नहीं बल्कि व हत्याकांड (क्रौंचवध) मानव जाति की स्मृति में आज भी गूंज रहा है। यह कवि दृष्टि से बनी हुई विचार शक्ति की अनुगूंज है जिसे हम अपने करूणापूर्ण क्षणों को न्यायपूर्ण बनाने के लिए बार-बार पाना चाहते है। अमानवीयताओं से भरी व्यवस्थाओं का विरोध भी किसी को शापित करने जैसी ही प्रक्रिया है। बुराइयों को कवियों ने बहुत शाप दिये हैं, यहीं से मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा और ह्रास का पता चलता है।
कवि की योग्यता में पहली योग्यता संवेदनशील अंतःकरण, दूसरी योग्यता स्वाध्याय से बाहर जाने की कल्पनाशक्ति, तीसरी योग्यता अपनी भाषा के कर्म कौशल का अथाह ज्ञान और अपनी भाषा की काव्ययुक्ति और नयी काव्ययुक्ति के प्रति सजगता। आदि-आदि।
श्वास-प्रश्वास की जो मैंने अभी बात कि उसके बारे में यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि श्वास जब भीतर से लौटकर आती है तो उसी का उपयोग शब्दों के उच्चारण में हो पाता है। अन्यथा भीतर जाती सांस के साथ आप एक भी शब्द नहीं बोल सकते। यानी कि भाषा भी कार्बन से पैदा हुई है। कविता भी आत्मा का कार्बन है।
अंदर सांस लेते हुए एक भी शब्द नहीं बोला जा सकता। भाषा तो छोडी जाती हुई सांस का कमाल है । इसलिए कविता में अधिक बोलने का त्याग संभवतः शामिल है। गद्य का अर्थ ही बोलना है इसलिए गद्य में मितभाषी होने का उतना प्रतिबंध नही है। कविता में मितभाषी होना भी कवि की एक योग्यता आप ठहरा सकते हैं। एक और भी योग्यता मैं कवि के लिए निर्धारित करना चाहूंगा कि वह जानता हो कि उसकी कविता में कहां और कितनी कविता बनी। बनी भी या नहीं? सामान्य गद्य से तभी कविता का गद्य अलग हो पायेगा। अन्यथा कविता भी निरागद्य बनकर रह जायेगी। उपमाएं और बिम्ब आज भी कविता के प्राण है बशर्ते कि वे इतने नये, अप्रयुक्त और अश्रुत हों कि आश्चर्य का भी एक और बिम्ब बना डालें। अतियथार्थ ही हमें यथार्थ की निकटता अथवा भयावहता का अनुभव करा सकता है । अपने समय के यथार्थ की तरह अपने समय की उपमाएं और बिम्ब भी सृजित करना कवियों का ही काम है। हर युग की कविता अपने समय की भाषा से अपनी आत्मा का निर्माण करती है ।
कविता यदि सचमुच खत्म हो रही है तो यह चिंता की बात है, खुशी की नहीं। लेकिन मेरा सोचना है कि कविता इतनी जल्दी अभी खत्म नहीं होगी। बल्कि अत्यधिक गद्यात्यकता और भाषिक विस्तार के प्रति अभी अस्वीकृति का माहौल पैदा होगा। भाषा का बीजीकरण ही ज्यादा ग्राहय होगा। बिना भाषिक बीज के कविता के नाम पर जो टेढी-मेढी पंक्तियों वाला अनुभवहीन, अगंभीर गद्य लिखा जा रहा है वह ज्यादा दिन प्रशंसा नहीं बटोर पायेगा। कविता जब जब लोकप्रिय कम हुई है तब तब उस पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये हैं।
थी खबर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गये थे पै तमाशा न हुआ
कुल मिला कर सुबोध और जिज्ञासु होने के अलावा कवि होने के लिए उन बहुत सी योग्यताओं की जरूरत होती है जो किसी संस्थाबद्ध शिाक्षण संस्था के अलावा अर्जित करनी होती हैं। जैसे बहुश्रुत और बहुज्ञ होना। कवि होने की योग्यता को किसी पाठ्य क्रम की तरह स्पष्टतः लक्षित नहीं किया जा सकता समस्त अवधारणाओं को तर्क पूर्वक अपने जेहन का हिस्सा बनाने की आकुलता से उसे लबरेज होना चाहिए। उसकी जानकारियां को उसकी बातचीत में अलग से झलकना चाहिए। केवल मौन रहने से काम नही चलेगा। मौन से एक दो कवि ही काम चला सकते थे और उन्होने बीसवीं सदी तक चला लिया । अब तो कवि को बोल बोलकर दुनिया में फंसना पडेगा। एक खास तरह की खानाबदोशी भी कवि में होनी चाहिए । जैसे किसी दूसरी दुनिया का होते हुए भी किसी तीसरी दुनियां में खुशी खुशी रह रहे हों। ज्ञात अज्ञात के प्रति प्रश्नशीलता कवि में हो जो संगियों तक को हमेशा परेशान करती हो। वह व्यंग्य के साथ आत्मव्यंग्य में भी सहज हो। ज्ञान की कोई शाखा ऐसी न हो जिसके आधारभूत तत्वों की सही जानकारी उसको न हो। उसे लय और श्रुति की अच्छी समझ आवश्यक है। वह चित्रकार या मूर्ति शिल्पी चाहे न हो लेकिन उसे मूर्त, अमूर्त और रंग-अरंग की भाषा आती हो। उसकी स्मरण शक्ति एक परीक्षा देने जाने वाले अच्छे विधार्थी जैसे तेज होने चाहिए। आर्थिक रूप से भले ही गरीब हो लेकिन सोच का अमीर हो। कल्पना और सोच का गरीब व्यक्ति कवि नही हो सकता। वह दुनिया का सबसे बेचैन और संवेदनशील इन्सान हो उसे अपना काम वैज्ञानिक की तरह करना आना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि आवश्यक है। अपनी भाषा की, अपने देश की भाषाओं की, दुनियां के साहित्य की, कमोवेश उसे जानकारी होनी चाहिए। उसे परस्पराओं और सामाजिक क्रान्तियों की सकारण जानकारी हो, उसे धार्मिक पाखंड पैलाने वालो से नफ़रत हो। वह सामाजिक राजनीतिक रूप मे भी अत्यंत सजग व्यक्ति हो फिर भी वह एक बच्चे जैसा मासूम और दार्शनिक जैसा दूरदर्शी हो। व्यक्ति कवि से न सही, कम से कम उसकी कविता से ये अहसास मिलने जरूरी हैं। इन सारी अवधारणाओ से बाहर भी कोई व्यक्ति अगर अच्छा कवि हो सकता हो तो मनाही नही हैं।
(जारी)
जगूड़ी से बरसों का संग-साथ रहा है। लखनऊ के सूचना विभाग से संबद्ध रहते हुए अक़्सर हम रू-ब रू होते, गोष्ठियाँ जमतीं और उनकी नई कविताओं का स्वाद भी चखते। उनकी कविताएँ तब भी अपने समय की निर्ममता से व्याख्या करती थीं और आज भी वे सबसे पहले एक क्रिटीक की भूमिका में ही दिखती हैं। कविता को वे आत्मा की इंजीनियारिंग मानते हैं। उनकी कविता कितनी भी गद्यात्मक और नैरेटिव क्यों न हो, उसमें कविता की आत्मा बोलती है। वे कहते भी तो हैं कि कविता भी आत्मा का कार्बन है। हिंदी आलोचना भले ही उन्हें नेपथ्य में रखती आई है पिर भी वे आज की आलोचना को चुनौती और सीख देने वाले कवियों में हैं। वे अपनी कविता से पाठकों को कविता-विरक्त नहीं करना चाहते जैसा आज के कुछ कवि कर रहे हैं। बाल्कि वे हर पाठक को नया कुछ देना चाहते हैं। उनकी कविता में समाजशास्त्रीय बहसें हैं, उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। जगूड़ी ने अपने संग्रह का नाम रखा था, अनुभव के आकाश में चाँद। अनुभव के निरभ्र आकाश में केवल चाँद ही नहीं, उनकी कविता भी उड़ान भरती है---उन्मुक्त और निर्भार। यह बातचीत भी उनके साथ निरन्तर संसर्ग के सत्साहस से संभव हुई है।
-ओम निश्चल
हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेता है
(हिंदी कविता के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी गत 1 जुलाई को सत्तर वर्ष के हो गए। अपने लेखन की शुरुआत उन्होंने सन् साठ से की थी। अनियमित शिक्षा क्रम से गुजरते हुए वे वर्षों तक तालीम के लिए कई जगहों पर भटके। पौज में भी रहे पर जल्दी ही उससे छुटकारा लेकर कविता में रमे तो आज तक उसी जुनून में रहते आ रहे हैं। कुछ वर्षों शिक्षण एवं सूचना विभाग,लखनऊ से सम्बद्ध रहे लीलाधर जगूड़ी जैसा कवि हिंदी में कोई दूसरा नही है, जिसने भाषा और अनुभव के रसायन से कविता की इतनी विरल निर्मितियाँ संभव की हैं।
इस मौके पर लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत के संपादित अंश:)
ओम निश्चल: सहित्य के सभी क्षेत्रों में अब यह माना जा रहा है कि आपकी हर कविता का संदर्भ और भाषिक संसार एकदम अलग किस्म का है। कवि होने के लिए कोई कम से कम योग्यता आप निर्धारित करना चाहेंगे? आजकल कवियों की बाढ़ के बावजूद कहा जा रहा है कि कविता खत्म हो गयी है या हो रही है।
लीलाधर जगूड़ीः सृष्टि के कारक तत्व की तरह कवि को भी ‘स्वयंभू’ कहा गया है अर्थात अपने आप अपनी प्रतिभा, अपने विवेक, अपने अनुभव से निजि दृष्टि के अभिव्यक्ति कौशल में स्वयं जन्म लेना। ‘कविर्मनीषी’ तक तो समझ में आता है, ‘परिभू’ भी चलेगा लेकिन ‘स्वयंभू’- यह बहुत कठिन है। क्यों कि भाषा समाज देता है और कवि उसका बेहतर इस्तेमाल करता है। सार्वजनिक भाषा में से स्वोपार्जित भाषा प्राप्त करना फिर उस भाषा में एक नये कथ्य का सृजन करना दूसरे स्वरचित शरीर की तरह है। अपने शरीर का स्वयं सृजन अत्यन्त कठिन प्रक्रिया है। कवि को कविता के अवयव बनाते समय यह याद रखना चाहिए कि वह ऐसा कुछ बनाने जा रहा है जो सिर्फ़ वही बना सकता है, इसलिए वही उसे बना रहा। दूसरा कोई उस अनुभूति की सहभागिता तो कर सकता है लेकिन उस कविता का प्रथम रचियता उस कवि के अलावा कोई दूसरा नहीं है। क्या आज के कवि को संवेदना का इतना अकेला, अद्भुत और स्वनिर्मित दृष्टिपूर्ण, आत्मचेतन संयंत्र समझा जा सकता है? आज की अधिकांश कविताओं में भाषा का पुनर्प्रयोग हो रहा है पुनरूत्पादन नहीं। नवसृजन तो दूर की बात है।
आज कवि का जन्म भूतपूर्व कवियों और भूवपूर्व कविता से होता है। कोई भी लोकशैली और संदर्भ कवि और कविता के जन्म का कारण बन सकते हैं। कविता असल में प्राथमिक या प्रथम कवि के लिए भी अभिव्यक्ति के उपाय के रूप में हठात् उपलब्ध नहीं हुई होगी। लयात्मक श्वास-क्रम या एक सांस को छोड़ते समय लम्बे और छोटे, झटकेदार भाषिक प्रयोगों के परिणामों से वह पहला कवि (व्यक्ति) न केवल परिचित रहा होगा बल्कि उसके छांदिक प्रभाव से प्रभावित भी रहा होगा। हो सकता है इस कौशल से पहले कोई स्मरणीय भाषिक अथवा शाब्दिक अभिव्यक्ति ऐसी न बन पायी हो जो नितान्त कलात्मक और अविस्मरणीय हो जाय। जो स्मृति के लिए एक फ़ैंटेसी हो जाय। प्रथम कवि के प्रथम भाषिक उच्छ्वास का वह क्षण अन्तःकरण को सदियों लंबी पीड़ा से भर गया। इसलिए सारे अध्ययनों और अनुभवों के बाद भी कवि की बुनियादी योग्यता है दूसरों के दुःख की अनुभूति में विरल संवेदनशील अन्तःकरण का वैचारिक उद्रेक और तुरन्त न्याय के सौन्दर्य की ऐच्छिक स्थापना । वह शाप भी दे रहा है तो असह्य क्रोध और अपार करूणा के साथ, दैहिकता को नश्वर न बताते हुए दे रहा है यही कारण है कि नश्वर दैहिकता नहीं बल्कि व हत्याकांड (क्रौंचवध) मानव जाति की स्मृति में आज भी गूंज रहा है। यह कवि दृष्टि से बनी हुई विचार शक्ति की अनुगूंज है जिसे हम अपने करूणापूर्ण क्षणों को न्यायपूर्ण बनाने के लिए बार-बार पाना चाहते है। अमानवीयताओं से भरी व्यवस्थाओं का विरोध भी किसी को शापित करने जैसी ही प्रक्रिया है। बुराइयों को कवियों ने बहुत शाप दिये हैं, यहीं से मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा और ह्रास का पता चलता है।
कवि की योग्यता में पहली योग्यता संवेदनशील अंतःकरण, दूसरी योग्यता स्वाध्याय से बाहर जाने की कल्पनाशक्ति, तीसरी योग्यता अपनी भाषा के कर्म कौशल का अथाह ज्ञान और अपनी भाषा की काव्ययुक्ति और नयी काव्ययुक्ति के प्रति सजगता। आदि-आदि।
श्वास-प्रश्वास की जो मैंने अभी बात कि उसके बारे में यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि श्वास जब भीतर से लौटकर आती है तो उसी का उपयोग शब्दों के उच्चारण में हो पाता है। अन्यथा भीतर जाती सांस के साथ आप एक भी शब्द नहीं बोल सकते। यानी कि भाषा भी कार्बन से पैदा हुई है। कविता भी आत्मा का कार्बन है।
अंदर सांस लेते हुए एक भी शब्द नहीं बोला जा सकता। भाषा तो छोडी जाती हुई सांस का कमाल है । इसलिए कविता में अधिक बोलने का त्याग संभवतः शामिल है। गद्य का अर्थ ही बोलना है इसलिए गद्य में मितभाषी होने का उतना प्रतिबंध नही है। कविता में मितभाषी होना भी कवि की एक योग्यता आप ठहरा सकते हैं। एक और भी योग्यता मैं कवि के लिए निर्धारित करना चाहूंगा कि वह जानता हो कि उसकी कविता में कहां और कितनी कविता बनी। बनी भी या नहीं? सामान्य गद्य से तभी कविता का गद्य अलग हो पायेगा। अन्यथा कविता भी निरागद्य बनकर रह जायेगी। उपमाएं और बिम्ब आज भी कविता के प्राण है बशर्ते कि वे इतने नये, अप्रयुक्त और अश्रुत हों कि आश्चर्य का भी एक और बिम्ब बना डालें। अतियथार्थ ही हमें यथार्थ की निकटता अथवा भयावहता का अनुभव करा सकता है । अपने समय के यथार्थ की तरह अपने समय की उपमाएं और बिम्ब भी सृजित करना कवियों का ही काम है। हर युग की कविता अपने समय की भाषा से अपनी आत्मा का निर्माण करती है ।
कविता यदि सचमुच खत्म हो रही है तो यह चिंता की बात है, खुशी की नहीं। लेकिन मेरा सोचना है कि कविता इतनी जल्दी अभी खत्म नहीं होगी। बल्कि अत्यधिक गद्यात्यकता और भाषिक विस्तार के प्रति अभी अस्वीकृति का माहौल पैदा होगा। भाषा का बीजीकरण ही ज्यादा ग्राहय होगा। बिना भाषिक बीज के कविता के नाम पर जो टेढी-मेढी पंक्तियों वाला अनुभवहीन, अगंभीर गद्य लिखा जा रहा है वह ज्यादा दिन प्रशंसा नहीं बटोर पायेगा। कविता जब जब लोकप्रिय कम हुई है तब तब उस पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये हैं।
थी खबर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गये थे पै तमाशा न हुआ
कुल मिला कर सुबोध और जिज्ञासु होने के अलावा कवि होने के लिए उन बहुत सी योग्यताओं की जरूरत होती है जो किसी संस्थाबद्ध शिाक्षण संस्था के अलावा अर्जित करनी होती हैं। जैसे बहुश्रुत और बहुज्ञ होना। कवि होने की योग्यता को किसी पाठ्य क्रम की तरह स्पष्टतः लक्षित नहीं किया जा सकता समस्त अवधारणाओं को तर्क पूर्वक अपने जेहन का हिस्सा बनाने की आकुलता से उसे लबरेज होना चाहिए। उसकी जानकारियां को उसकी बातचीत में अलग से झलकना चाहिए। केवल मौन रहने से काम नही चलेगा। मौन से एक दो कवि ही काम चला सकते थे और उन्होने बीसवीं सदी तक चला लिया । अब तो कवि को बोल बोलकर दुनिया में फंसना पडेगा। एक खास तरह की खानाबदोशी भी कवि में होनी चाहिए । जैसे किसी दूसरी दुनिया का होते हुए भी किसी तीसरी दुनियां में खुशी खुशी रह रहे हों। ज्ञात अज्ञात के प्रति प्रश्नशीलता कवि में हो जो संगियों तक को हमेशा परेशान करती हो। वह व्यंग्य के साथ आत्मव्यंग्य में भी सहज हो। ज्ञान की कोई शाखा ऐसी न हो जिसके आधारभूत तत्वों की सही जानकारी उसको न हो। उसे लय और श्रुति की अच्छी समझ आवश्यक है। वह चित्रकार या मूर्ति शिल्पी चाहे न हो लेकिन उसे मूर्त, अमूर्त और रंग-अरंग की भाषा आती हो। उसकी स्मरण शक्ति एक परीक्षा देने जाने वाले अच्छे विधार्थी जैसे तेज होने चाहिए। आर्थिक रूप से भले ही गरीब हो लेकिन सोच का अमीर हो। कल्पना और सोच का गरीब व्यक्ति कवि नही हो सकता। वह दुनिया का सबसे बेचैन और संवेदनशील इन्सान हो उसे अपना काम वैज्ञानिक की तरह करना आना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि आवश्यक है। अपनी भाषा की, अपने देश की भाषाओं की, दुनियां के साहित्य की, कमोवेश उसे जानकारी होनी चाहिए। उसे परस्पराओं और सामाजिक क्रान्तियों की सकारण जानकारी हो, उसे धार्मिक पाखंड पैलाने वालो से नफ़रत हो। वह सामाजिक राजनीतिक रूप मे भी अत्यंत सजग व्यक्ति हो फिर भी वह एक बच्चे जैसा मासूम और दार्शनिक जैसा दूरदर्शी हो। व्यक्ति कवि से न सही, कम से कम उसकी कविता से ये अहसास मिलने जरूरी हैं। इन सारी अवधारणाओ से बाहर भी कोई व्यक्ति अगर अच्छा कवि हो सकता हो तो मनाही नही हैं।
(जारी)
राम निरंजन न्यारा रे
कबीरदास जी का एक और भजन पुनः पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वर में
"राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...
अंजन उत्पति ॐकार
अंजन मांगे सब विस्तार
अंजन ब्रहमा शंकर इन्द्र
अंजन गोपिसंगी गोविन्द रे
अंजन वाणी अंजन वेद
अंजन किया ना ना भेद
अंजन विद्या पाठ पुराण
अंजन हो कत कत ही ज्ञान रे
अंजन पाती अंजन देव
अंजन की करे अंजन सेव
अंजन नाचे अंजन गावे
अंजन भेष अनंत दिखावे रे
अंजन कहाँ कहाँ लग केता
दान पुनी तप तीरथ जेता
कहे कबीर कोई बिरला जागे
अंजन छाडी अनंत ही दागे रे
राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...
ताकि किसी को कोई गलतफहमी न हो
अजेर्न्टीनी कवि रोबेर्तो हुआर्रोज़ (1925 1995) बीसवीं सदी की लातीन अमरीकी कविता के प्रमुख स्तम्भों में गिने जाते हैं। उन्होंने कुल चौदह कविता संग्रह प्रकाशित करवाए जिन्हें एक से चौदह तक का क्रमांक देकर ’पोएसिया वेर्तीकाल’ यानी ‘वर्टिकल पोइट्री’ का नाम दिया गया. पहला संग्रह १९५८ में आया था जबकि दूसरा मृत्योपरान्त १९९७ में. हुआर्रोज़ की कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद सबसे पहले डब्लू. एस. मरविन ने किया था. ऑक्तावियो पाज़ ने उनकी कविता भाषा की तुलना "रोशनी के मनकों से बनी माला" से की थी. पेश है ’पोएसिया वेर्तीकाल’ से एक टुकड़ा कविता:
एक दिन आयेगा
एक दिन आयेगा
जब हमें खिड़की के शीशों को गिराने के लिये उन्हें धकेलने की
जरूरत नहीं होगी
न कीलों को ठोकने की उन्हें थामे रखने को
न पत्थरों पर चलने की उन्हें खामोश रखने को
न स्त्रियों के चेहरों को पीने की उन्हें मुस्कराने देने को
यह एक महान मिलन की शुरूआत होगी
यहां तब कि ईश्वर भी बोलना सीख जायेगा
और शरमीले अनन्तों की उसकी गुफा में
हवा और रोशनी प्रवेश करेगी
तब तुम्हारी आंखों और तुम्हारे पेट के बीच कोई फर्क नहीं रहेगा
न मेरे शब्दों और मेरे मुंह के बीच
पत्थर तुम्हारी छातियों जैसे होंगे
और मैं अपनी कविता का निर्माण अपने हाथों से करूंगा
ताकि किसी को कोई गलतफहमी न हो
एक दिन आयेगा
एक दिन आयेगा
जब हमें खिड़की के शीशों को गिराने के लिये उन्हें धकेलने की
जरूरत नहीं होगी
न कीलों को ठोकने की उन्हें थामे रखने को
न पत्थरों पर चलने की उन्हें खामोश रखने को
न स्त्रियों के चेहरों को पीने की उन्हें मुस्कराने देने को
यह एक महान मिलन की शुरूआत होगी
यहां तब कि ईश्वर भी बोलना सीख जायेगा
और शरमीले अनन्तों की उसकी गुफा में
हवा और रोशनी प्रवेश करेगी
तब तुम्हारी आंखों और तुम्हारे पेट के बीच कोई फर्क नहीं रहेगा
न मेरे शब्दों और मेरे मुंह के बीच
पत्थर तुम्हारी छातियों जैसे होंगे
और मैं अपनी कविता का निर्माण अपने हाथों से करूंगा
ताकि किसी को कोई गलतफहमी न हो
Monday, September 20, 2010
अनुभव के आकाश में कविता - 4
(पिछली किस्त से जारी)
जगूड़ी को पढ़ने समझने के लिए चिर सजगता चाहिए। इसके लिए कान खुले रखने पड़ते हैं। इंद्रियों की लगाम थामे रहनी होती है। एक भी पंक्ति की चूक आस्वाद भंग कर सकती है। वे कविता में जो कहते हैं उसका समसामयिकता से ज्यादा लेना देना नहीं होता। वे इतने पते की बात कहते हैं कि हमारी अक़्ल के बंद दरवाजे भी खुल उठते हैं। रोज एक कम कविता में रोज एक न एक के चले जाने की बात करते हुए वे जब कहते हैं, ताज्जुब है कभी भी उस एक का खाना नहीं बचता/ कभी भी उस एक के सोने की जगह सूनी नहीं रहती---तो पूरी कविता हमें विचलित कर देती है और बताती है कि इस दुनिया में कोई भी अपरिहार्य नहीं है। हत्यारा और तानाशाह को लेकर हिंदी में तमाम कविताएँ होंगी। पर जगूड़ी की कविता हत्यारा बिल्कुल अलग है। हमारे समय में ऐसे तत्वों को जो नायकत्व हासिल हुआ है, उसे पूरी सांकेतिकता से जगूड़ी हमारे सामने रखते हैं। इस तरह कि हम उन हत्यारों को लोकेट कर सकते हैं। उनकी लड़ाई कविता अपने दौर की चर्चित कविताओं में है जिसमें उन्होंने लिखा है---दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई आज भी एक बच्चा लड़ता है/ पेट के बल, कोहनियों के बल और घुटनों के बल। और इस कविता की इन पंक्तियों के लिए आज भी उन्हें याद किया जाता है---
मेरी कविता हर उस इंसान का बयान है
जो बंदूकों के गोदाम से अनाज की ख्वाहिश रखता है
मेरी कविता हर उस आँसू की दरख्वास्त है
जिसमें आँसू हैं
इसी कविता में उनका यह भी कहना है कि दुनिया का मैदान लड़ाई का मंच न बने क्योंकि यह बच्चे के खेल का मैदान है। कवि की यह शुभाशा उसके स्वच्छ, निर्मल मन की गवाही देता है। पेड़ की आजादी के माध्यम से उन्होंने एक नागरिक की स्वतंत्रता की अभिलाषा से जुड़े कुछ सवाल उठाए हैं जिससे यह पता चलता है कि आजादी सिर्फ़ उत्सवता की एक संज्ञा भर है, सचमुच की आजादी से उसका लेना देना नहीं। मुझे अफ़्रीकी कवि डान मातेरा की एक कविता याद आती है, जिसमें शासक गुलाम व्यक्ति को यह अहसास दिलाते हुए कि वे कुछ माँगे, वह खेत माँगता है, रोटी और कपड़े माँगता है और यह सब उसे मिलता भी है। फिर धीरे धीरे शासक की उदारता पर भरोसा करते हुए एक दिन आजादी की ख्वाहिश कर बैठता है। यही बात शासक को स्वीकार्य नहीं है। वह खेत वापस ले लेता है और उसे जंजीरों में जकड़ देता है। आजादी इतनी आसान होती तो अप्रीका में अफ़्रीकी नेशनल काँग्रेस को एक लंबा संघर्ष न छेड़ना पड़ता। अंग्रेजों से ही आजादी पाने में हमें कितने बरस लगे। इसलिए पेड़ की आजादी कविता पढ़ते हुए स्वतंत्रता और शोषण के व्यापक भावबोध से गुजरना पड़ता है। गुमशुदा की तलाश भी एक ऐसी ही कविता है । शहरों में रोज ब रोज दाखिल होते ऐसे बेशुमार चेहरों की भीड़ देख सकते हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं है और पा सकना भी एक दुस्वप्न है। कवि को वह घबराए हुए शब्द की तरह लगता है। क़्या हमें ऐसे चेहरे अक़्सर नहीं दिखाई देते जो होते हुए भी गुमशुदा जैसे हैं। आजादी के इतने सालो बाद भी हम इन्हें वह सम्मानजनक पहचान और रिहाइश नहीं दे पाए हैं जिनके ये हकदार है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, भगवान अब भी बच्चों को धरती पर भेज रहा है। इसका अर्थ यह है कि वह मानव जाति से अभी निराश नहीं हुआ है। जगूड़ी लिखते हैं, बच्चा पैदा होने का मतलब है फिर एक आदमी खतरे में पड़ा। वे भविष्य के कवि हैं। उन्हें भविष्य में रोटी, कपड़े मकान, पानी ,अन्याय और विषमता के तमाम संकट अभी से दीख रहे हैं। जीवन की आगामी मुश्किलों का उन्हें अंदाजा है।
जगूड़ी की कविता में भाषा अलग से चमकती है। पर वह भाषा का उत्सव नही है। वह दुर्निवार अभिव्यक्ति के लिए भाषा का कारगर इस्तेमाल है। आत्मविलाप कविता में जैसा जगूड़ी लिखते हैं यह उस कौल करार का एक निर्वचन भी है जिसके जरिए वे शब्दों को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। यह एक जीवंत कवि का कर्तव्य भी है कि वह शब्दों का परिष्कार करे और देखे कि भाषा में फूटते नए कल्ले शब्द की कोशिकाओं को पूरी आक्सीजन दे रहे हैं--
अपनी छोटी और अंतिम कविता के लिए
मुझमें जो थोड़ा सा रक्त शेष है
मैं कोशिश करूँगा वह दौड़ कर
शब्द के उस अंग को जीवित कर दे
जो भाषा की हवा से मर गया है
ऐसा नही कि जगूड़ी की कविता किसी तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने वाली कविता है किन्तु वह दूध का दूध और पानी का पानी करने की क्षमता से अवश्य लैस है जहाँ रूढि़बद्ध, पवित्र, और नैतिकता के ताप से समुज्ज्वल परंपरागत आशय भरभरा कर गिर पड़ते हैं और साप दिखाई देता है कि गिरावट, अवसरवादिता, मूल्यहीनता और क्रूरता किस हद तक हमारी
जीवन शैली में घुस गयी है।
(समाप्त)
जगूड़ी को पढ़ने समझने के लिए चिर सजगता चाहिए। इसके लिए कान खुले रखने पड़ते हैं। इंद्रियों की लगाम थामे रहनी होती है। एक भी पंक्ति की चूक आस्वाद भंग कर सकती है। वे कविता में जो कहते हैं उसका समसामयिकता से ज्यादा लेना देना नहीं होता। वे इतने पते की बात कहते हैं कि हमारी अक़्ल के बंद दरवाजे भी खुल उठते हैं। रोज एक कम कविता में रोज एक न एक के चले जाने की बात करते हुए वे जब कहते हैं, ताज्जुब है कभी भी उस एक का खाना नहीं बचता/ कभी भी उस एक के सोने की जगह सूनी नहीं रहती---तो पूरी कविता हमें विचलित कर देती है और बताती है कि इस दुनिया में कोई भी अपरिहार्य नहीं है। हत्यारा और तानाशाह को लेकर हिंदी में तमाम कविताएँ होंगी। पर जगूड़ी की कविता हत्यारा बिल्कुल अलग है। हमारे समय में ऐसे तत्वों को जो नायकत्व हासिल हुआ है, उसे पूरी सांकेतिकता से जगूड़ी हमारे सामने रखते हैं। इस तरह कि हम उन हत्यारों को लोकेट कर सकते हैं। उनकी लड़ाई कविता अपने दौर की चर्चित कविताओं में है जिसमें उन्होंने लिखा है---दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई आज भी एक बच्चा लड़ता है/ पेट के बल, कोहनियों के बल और घुटनों के बल। और इस कविता की इन पंक्तियों के लिए आज भी उन्हें याद किया जाता है---
मेरी कविता हर उस इंसान का बयान है
जो बंदूकों के गोदाम से अनाज की ख्वाहिश रखता है
मेरी कविता हर उस आँसू की दरख्वास्त है
जिसमें आँसू हैं
इसी कविता में उनका यह भी कहना है कि दुनिया का मैदान लड़ाई का मंच न बने क्योंकि यह बच्चे के खेल का मैदान है। कवि की यह शुभाशा उसके स्वच्छ, निर्मल मन की गवाही देता है। पेड़ की आजादी के माध्यम से उन्होंने एक नागरिक की स्वतंत्रता की अभिलाषा से जुड़े कुछ सवाल उठाए हैं जिससे यह पता चलता है कि आजादी सिर्फ़ उत्सवता की एक संज्ञा भर है, सचमुच की आजादी से उसका लेना देना नहीं। मुझे अफ़्रीकी कवि डान मातेरा की एक कविता याद आती है, जिसमें शासक गुलाम व्यक्ति को यह अहसास दिलाते हुए कि वे कुछ माँगे, वह खेत माँगता है, रोटी और कपड़े माँगता है और यह सब उसे मिलता भी है। फिर धीरे धीरे शासक की उदारता पर भरोसा करते हुए एक दिन आजादी की ख्वाहिश कर बैठता है। यही बात शासक को स्वीकार्य नहीं है। वह खेत वापस ले लेता है और उसे जंजीरों में जकड़ देता है। आजादी इतनी आसान होती तो अप्रीका में अफ़्रीकी नेशनल काँग्रेस को एक लंबा संघर्ष न छेड़ना पड़ता। अंग्रेजों से ही आजादी पाने में हमें कितने बरस लगे। इसलिए पेड़ की आजादी कविता पढ़ते हुए स्वतंत्रता और शोषण के व्यापक भावबोध से गुजरना पड़ता है। गुमशुदा की तलाश भी एक ऐसी ही कविता है । शहरों में रोज ब रोज दाखिल होते ऐसे बेशुमार चेहरों की भीड़ देख सकते हैं जिनके पास खोने को कुछ नहीं है और पा सकना भी एक दुस्वप्न है। कवि को वह घबराए हुए शब्द की तरह लगता है। क़्या हमें ऐसे चेहरे अक़्सर नहीं दिखाई देते जो होते हुए भी गुमशुदा जैसे हैं। आजादी के इतने सालो बाद भी हम इन्हें वह सम्मानजनक पहचान और रिहाइश नहीं दे पाए हैं जिनके ये हकदार है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था, भगवान अब भी बच्चों को धरती पर भेज रहा है। इसका अर्थ यह है कि वह मानव जाति से अभी निराश नहीं हुआ है। जगूड़ी लिखते हैं, बच्चा पैदा होने का मतलब है फिर एक आदमी खतरे में पड़ा। वे भविष्य के कवि हैं। उन्हें भविष्य में रोटी, कपड़े मकान, पानी ,अन्याय और विषमता के तमाम संकट अभी से दीख रहे हैं। जीवन की आगामी मुश्किलों का उन्हें अंदाजा है।
जगूड़ी की कविता में भाषा अलग से चमकती है। पर वह भाषा का उत्सव नही है। वह दुर्निवार अभिव्यक्ति के लिए भाषा का कारगर इस्तेमाल है। आत्मविलाप कविता में जैसा जगूड़ी लिखते हैं यह उस कौल करार का एक निर्वचन भी है जिसके जरिए वे शब्दों को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। यह एक जीवंत कवि का कर्तव्य भी है कि वह शब्दों का परिष्कार करे और देखे कि भाषा में फूटते नए कल्ले शब्द की कोशिकाओं को पूरी आक्सीजन दे रहे हैं--
अपनी छोटी और अंतिम कविता के लिए
मुझमें जो थोड़ा सा रक्त शेष है
मैं कोशिश करूँगा वह दौड़ कर
शब्द के उस अंग को जीवित कर दे
जो भाषा की हवा से मर गया है
ऐसा नही कि जगूड़ी की कविता किसी तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने वाली कविता है किन्तु वह दूध का दूध और पानी का पानी करने की क्षमता से अवश्य लैस है जहाँ रूढि़बद्ध, पवित्र, और नैतिकता के ताप से समुज्ज्वल परंपरागत आशय भरभरा कर गिर पड़ते हैं और साप दिखाई देता है कि गिरावट, अवसरवादिता, मूल्यहीनता और क्रूरता किस हद तक हमारी
जीवन शैली में घुस गयी है।
(समाप्त)
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