Tuesday, September 7, 2010

किसे कहते हैं निर्वासन




* आप पहले भी इस ठिकाने पर निज़ार सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी ( 21 मार्च 1923 - 30 अप्रेल1998 )  की कविताओं के बहुत से अनुवाद पढ़ चुके हैं जिनमें से कुछ इस ब्लाग के मुखिया अशोक पांडे ने किए है और कुछ के इस अदने से कबाड़ी सदस्य  ने।  मेरे लिए निज़ार की कविताओं को पढ़ना प्रेम में होना होता है। अगर अपनी हिन्दी की बात करें तो  अनायास घनानंद को याद करना हो जाता है। याद है न वे   क्या कहते हैं- 'अति सूधो सनेह को मारग है यहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं'। एकदम सीधा और सरल - सा है यह रास्ता। यहाँ, इस ठौर हुशियारी   और सयानेपन की कोई जगह नहीं। निज़ार के यहाँ  प्रेम दिखाई देता है , उनके यहाँ प्रेम में सयानेपन का कोई घालमेल नहीं , सब शुद्ध और खाँटी, निखालिस। यही कारण है कि बार - बार यह कवि  अपनी ओर खींचता है और बार - बार इसकी प्रेम कवितायें आपसे रू - ब - रू कराने की इच्छा होती है। मन करता कि जो खुद को अच्छा - सा लगा है / लगता है उसे विश्व कविता के सहृदय पाठकों और प्रेमियों के साथ साझा करने में न तो संकोच करना चाहिए और न ही अनावश्यक देरी। तो आइए, आज एक बार फिर निज़ार क़ब्बानी की कविताओं के जरिए प्रेम के सहज संसार की एक छोटी - सी यात्रा करते हैं :

निज़ार क़ब्बानी की दो प्रेम कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- समय

दो बरस..
जबसे हुए हो तुम मेरे महबूब
प्रेम के समकालीन इतिहास के
सबसे महत्वपूर्ण पृष्ठ हैं ये।

इससे आगे
और इससे पीछे के सारे पृष्ठ
कोरे है - एकदम सादे।

भूमध्यरेखाओं की निशानदेही हैं ये पृष्ठ
जो गुजरती हैं
मेरे और तुम्हारे अधरों के मध्य से।

इन्हीं से मापन होता है समय का
और इन्हीं से तय होता है
दुनिया की सारी घड़ियों का समय निर्धारण।

०२- खुशबू

जब भी तुम
होती हो यात्राओं पर
तुम्हारी खुशबू प्रश्न करती है
तुम्हारे बारे में।
एक शिशु की तरह वह जोहती है
माँ के लौटने की बाट।

तनिक सोचो
यहाँ तक कि खुशबू को पता है
कि किसे कहते हैं निर्वासन
और कैसा होता है वनवास।

5 comments:

प्रज्ञा पांडेय said...

यह तो प्रेम कि अमर कवितायेँ हैं ..

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

बहुत सुन्दर कविताये ..प्रेम की खुशबू भरी..पढने को मिली .. आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी कवितायें।

राजेश उत्‍साही said...

सचमुच सरल और सुंदर कविताएं।

मनोज कुमार said...

बहुत सुन्दर कविताये !
हरीश गुप्त की लघुकथा इज़्ज़त, “मनोज” पर, ... पढिए...ना!