Saturday, February 5, 2011

चाइल्डलाइक इनोसेंस

छटी क्लास में नये दोस्त बने थे कुछ , तो उनमें से एक था सुनील | सुनील अव्वल दर्जे का चोर था | वो घर से पैसे चुराकर लाता था, और हमें कुछ कुछ खिलाकर स्टाइल मारता था | मुझे भी उसकी संगति में मजा आने लगा था | हालांकि वो मुझे ज्यादा भाव नहीं देता था, लेकिन फिर भी अहसान सा करके मुझे भी अपने गिरोह में रहने की इजाजत दे देता था | घर में पैसों की बचत पर बहुत ध्यान दिया जाता था, इसलिए सुनील के साथ चोकोबार आइसक्रीम पहली बार खाई , वीडिओगेम पार्लर में खेला, और विद्या मन्दिर जैसे स्कूल से बंक मारा | एक दिन घर लाने वाली गाड़ी छूट गयी, पैदल घर पहुँचा तो बहुत देर हो गयी थी | माँ ने खाना खिलाया, और सिर्फ इतना पूछा कि इतनी देर क्यूँ हो गयी | मैं रो पड़ा, रोते रोते मैंने सब बताया कि सुनील घर से पैसे चुराकर लाता है, सबको खिलाता है और मैं भी उसके साथ खाता हूँ | माँ ने कुछ नहीं कहा, मैं रोता रहा और गुस्सा होता रहा | उसके बाद मैं कभी सुनील के साथ नहीं गया, जिसको लेकर अगले तीन सालों तक शाम को घर आते समय वे लोग हमेशा मुझसे लड़ते थे | मैं जितना लड़ सकता था, लड़ता रहा | सच की लड़ाई लड़ने की ऐसी कोई महान प्रेरणा मेरे अन्दर नहीं जागी थी, या थोपी नहीं गयी थी | न माँ ने मुझे मारा था, न सजा दी थी | न ही माँ ने फिर कभी मुझसे पूछा कि तू अब भी सुनील के साथ जाता है क्या? ये मेरे अन्दर ही कोई चीज़ थी , जिसने मुझे ये अहसास करा दिया था कि ये गलत है | इसी को मैं चाइल्डलाइक इनोसेंस कहता हूँ | सजा कभी कोई भी चीज़ सही नहीं कर सकती , सजा सिर्फ तुम्हारे मन में उस चीज को लेकर डर पैदा कर सकती है, लेकिन सही गलत का फर्क नहीं समझा सकती | चाइल्डलाइक इनोसेंस हम सबके अन्दर होती है , कहीं न कहीं हमारे अन्दर दस्तक देती भी होगी | अरबों खरबों को बेहद छोटी संख्या बना देने वाले नेताओं को भी रात को अचानक उठकर गला सूखता सा महसूस होता होगा | इटालियन मार्बल के फर्श पर चलते हुए शायद उनके अवचेतन मस्तिष्क में कहीं न कहीं ये बात आती होगी कि खैरु या मंगरू या उनका कोई बच्चा या कोई भी बच गया होता अगर ... | या कि बिहार का पूरा का पूरा गाँव शिक्षित होता अगर ये करोड़ों की कारें हमने अपनी मेहनत से कमाई होती | या कि भूस्खलन और दैवीय आपदाएं शायद उतनी विनाशक नहीं होती, जितनी हमने बना दीं हैं | जिस विश्वास और भरोसे के साथ हमने देश को चलाने के लिए एक किताब छापी थी , जिसका एक एक पन्ना हमसे गीता-कुरआन की तरह पवित्र मानने की उम्मीद की गयी थी, काश हमने माना होता | गढ़वाल में राजा को बोलंदा बदरी (बोलने वाले बद्रीविशाल, भगवान) कहा जाता था | वैसा ही कुछ विश्वास हमें मिलोर्ड पर भी होता है , आज भी है, न्याय की गद्दी पर बैठने वाला कभी गलत नहीं कर सकता | ये चाइल्डलाइक इनोसेंस हर एक को उनकी नींद से जगाये, उनका गला सुखाये , उन्हें शर्म आये, यही उम्मीद है ... 



4 comments:

Ashish said...

Uttam vichaaar ,bahut hee saral shabdon mein....bahut hee seedhee...baat kahi hai...neeraj.

Aapko aage bhi likhne ki prerna milti rahe..aur logon ko aapke lekhon se.

प्रवीण पाण्डेय said...

कभी कभी माँ की आँखें ही बहुत कुछ कह डालती हैं।

सोमेश सक्सेना said...

बचपन की एक साधारण घटना को आधार बनाकर बहुत अच्छा निष्कर्ष निकाला है आपने।
आपका सार्थक चिंतन भी ऐसे ही जारी रहे।

Unknown said...

हम तो खुद ही बचपन में हाथ की सफाई दिखाने वाले ठहरे। क्यों खामखां में कोई नैतिक बात करें।