मख़दूम
मोहिउद्दीन की एक नज़्म पढ़िए
लख्ते
जिगर
मोहब्बत
को तुम लाख फेंक आओ गहरे कुँए में
मगर
एक आवाज़ पीछा करेगी
कभी
चांदनी रात का गीत बन कर
कभी
घुप अँधेरे की पगली हँसी बन के
पीछा
करेगी
वो
आवाज़ नाख्वास्ता तिफ़्लके-बेदर
एक
दिन
सूलियों
के सहारे
बनी-नौअ-इंसान
का हादी बनी
फिर
ख़ुदा बन गयी
कोई
माँ
कई
साल पहले
ज़माने
के डर से
सर-ए-रहगुज़र
अपना
लख्ते जिगर छोड़ आई
वो
नाख्वास्ता तिफ़्लके-बेदर
एक
दिन सूलियों के सहारे
बनी-नौअ-इंसान
का हादी बना
फिर
ख़ुदा बन गया
(नाख्वास्ता
– अनिच्छित, तिफ़्लके-बेदर – बिना बाप का बच्चा, बनी-नौअ-इंसान –
मानव जाति, हादी – रास्ता दिखाने वाला)
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