मेरे दोस्त
अभिनव कुमार आई.पी. एस. अधिकारी हैं. फिलहाल देहरादून में डी.आई.जी. के पद पर
तैनात हैं. ऑक्सफोर्ड से पढ़े हैं. ज़िम्मेदार और यारबाश आदमी हैं. कबाड़खाने पर
उनके कई बेबाक लेख पहले भी छपते रहे हैं. भारतीय पुलिस व्यवस्था को परत दर परत
उघाड़ता उनका यह लेख कुछ समय पहले छपा था. आज उनके इसी लेख का हिन्दी अनुवाद पेश
है.
मैं ढोबले हूँ
-अभिनव कुमार
भारतीय गणतंत्र
के तमाम महानगरों पर एक प्रेतछाया पसर रही है. यह एक ऐसी धमक है जो सिद्धांततः
दुष्ट और फलतः त्रासद है. सहिष्णुता, अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता, एकान्तता का अधिकार, प्रसन्नता
का अधिकार, स्वयं को जीवित अनुभव करने का आधारभूत मानवीय
आवेग और ऐसा करने में सद्गुणों और अवगुणों के अनुभव और उनके साथ किये जाने वाले
हमारे प्रयोग जो हमें मनुष्य बनाते हैं – इन तमाम चीज़ों पर
हमले होना शुरू हो चुके हैं. इस पूर्वाग्रह के लिए मुझे माफ़ किया जा ही सकता है
कि भारत की सरकार अपने महानगरों में रह रहे श्रेष्ठतम और सबसे दीप्तिमान लोगों के
साथ युद्ध की स्थिति में है. और इस युद्ध को कार्यान्वित करने के लिए जिस उपकरण का
चयन हुआ हुआ है वह पुलिस है. अगर “मैं अन्ना हूँ” २०११ में भारत के विवेकवान और चिंतित नागरिकों के लिए प्रधानतम मुद्दा था
तो “मैं ढोबले हूँ” भारत सरकार का
प्रत्युत्तर नज़र आता है.
हमारे महानगरों
की पुलिस व्यवस्था की वास्तविकता यही लगती है. रात घिरती है और खाकी वर्दियां धारण
किए पुरुष और महिलाएं नई नैतिक व्यवस्था के झटका दल बन कर अपने पवित्र मिशन पर
निकल पड़ते हैं. इस व्यवस्था में राजनैतिक और प्रशासकीय क्षेत्र में फैले
भ्रष्टाचार और लम्पटपन की नियमित अनदेखी की जाती है, करनी भी होती है क्योंकि यही उस सिस्टम को बचाता और पोसता है जिस के भीतर
से हमारे बूटधारी अपने सामूहिक क़दमों के लिए खुराक पाते हैं. और किसी भी जगह
आतंकवाद, नक्सलवाद, जातीय और
साम्प्रदायिक हिंसा और स्त्रियों तथा निर्बलों पर किए जाने वाले अपराध पुलिस के
सामने पर्याप्त चुनौतियों के तौर पर देखे जा सकते थे. लेकिन हमारे यहाँ ऐसा नहीं,
हम आई. पी. एस. के पास एक जीवनदर्शन है जिसे ‘ताकत
ही अधिकार है’ के तहत परिभाषित किया जाता है. यह एक ऐसा
वैश्विक दर्शन है जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सेक्सुअलिटी,
पोशाक, संगीत और कला-संस्कृति के मामलों में
चुनाव कर सकने के प्रयोग, वैध और अवैध नशों का प्रयोग भारत
की एकता और अखंडता के लिए सबसे बड़े खतरे माने जाते हैं. आम पुलिस का सिपाही जिसे
अक्सर ग्रामीण श्रमिक वर्ग से चुना जाता है, जो बमुश्किल
पढ़ा-लिखा होता है, जिसका प्रशिक्षण ठीक से नहीं किया गया
होता और जिसे अमानवीय स्थितियों में काम करने और रहने को ठूंस दिया जाता है,
जिसके भीतर जातीय, साम्प्रदायिक और लैंगिक
पक्षपात भीतर तक व्यापे हुए होते हैं और जिन्हें ठीक करने को हम कुछ नहीं करते –
ऐसा सिपाही शिक्षित, संपन्न और वैश्विक
चेतनायुक्त नागरिक समूह के संपर्क में आ रहा है. इसका परिणाम ईर्ष्या, असुरक्षा और अज्ञान के कारण उपजे सांस्कृतिक सदमे, अकारण
हिंसा और सत्ता के दुरूपयोग के रूप में सामने आ रहा है.
ए. सी. पी. वसंत
ढोबले न कोई मौलिक व्यक्ति हैं न पथ प्रदर्शक. वे भारतीय पुलिस की आनुवांशिक बनावट
के सबसे प्रबल और ध्वंसकारी तंतुओं की सबसे आम घटित होने वाली अभिव्यक्ति भर हैं.
भारतीय पुलिस में सेवारत हम सब के लिए यह देखना दुखद है कि पुरानी व्यवस्था किस
जानिब बदल रही है. पिछले बीस सालों में एक संपन्न, सुस्पष्ट, सचेत और अंतर्राष्ट्रीय संपर्क से लैस एक
ऐसी पीढ़ी उभरी है जो अजीबोगरीब चीज़ों की मांग करने लगी है जैसे कि क़ानून का राज,
समता और एक ऐसा कानून जो मानवीय अधिकारों और गरिमा के उच्चतर
सार्वभौमिक स्तरों पर प्रतिष्ठित हो. वे असल में चाहते हैं कि पुलिस जनता के प्रति
पूरी तरह ज़िम्मेदार रह कर क़ानून के सेवकों की तरह काम करें. आई. पी. एस. में
सेवारत हमारे जैसों और हमारे दफ्तरशाह और राजनैतिक हाकिमों के लिए यह भीषण रूप से
पेचीदा और भरमाने वाली बात है. इस बाबत हमें किसी ने नहीं बताया था.
मुम्बई और कई
अन्य जगहों पर पुलिस नेतृत्व यह सफाई देता है कि वह उस कानून का पालन कर रहा है
जैसा कि वह है. यह पाखण्ड है. भ्रष्टाचार, जातीय
हिंसा, जनजीवन अस्तव्यस्त करने और सरकारी और व्यक्तिगत
संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के खिलाफ बनाए गए कानूनों की घनघोर बहुतायत है. मेरा
मन करता है कि हम ऊपर बताए गए कानूनों के एक अंश पर भी उसी रफ़्तार और सक्षमता के
साथ ध्यान देते जिसके साथ हमने पिछले दिनों मुम्बई के डांस बारों को बंद किया या
जिस मुस्तैदी के साथ हम इन दिनों अपने महानगरों में शराबखानों, रेस्तराओं और नाईटक्लबों को बंद कर रहे हैं. इस देश के पुलिस नेतृत्व को,
जिसमें मैं भी शामिल हूँ, अपनी अनेक असफलताओं
के लिए राजनेताओं, अफसरशाहों और मीडिया पर आरोप लगाना बड़ा
अच्छा लगता है. लेकिन ढोबले जैसों को मूलतः क़ानून का पालन करने वाले नागरिकों पर
छुट्टा छोड़ देना, और उस के बाद क़ानून की लंगोटी के पीछे
छिप जाना, जब कि पुलिस व्यवस्था की वास्तव में बेहद ज़रूरी
और महत्वपूर्ण चुनौतियां त्रासद सीमा तक अदेखी छोड़ दी गयी हैं, आई. पी. एस. द्वारा अपनी ज़िम्मेदारी के आपराधिक त्याग का प्रतिनिधित्व
करता है और इस से किसी को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता.
हमारे महानगरों
में किसी भी नैतिक दिशा से हीन नैतिक पुलिस का यह बलवा प्रथमदृष्ट्या जितना हैरान
करता है उतना ही घृणित भी है. लेकिन ठहर कर सोचा जाय तो यह बिलकुल जायज़ लगता है.
हमारे नागरिक यकीन करते हैं कि इस तरह की कार्रवाईयाँ पुलिस नेतृत्व द्वारा उगाही
के नए ठिकाने की संख्या बढ़ाने और ज्यादा गंभीर पेशेवराना असफलताओं से ध्यान हटाने
के प्रयास भर होती हैं. हमने सत्ता और जबरिया आज्ञाकारिता के ज़रिये जितना कुछ
पाया है, उस से कई गुना विश्वास और वैधता के मोर्चे पर खोया
है. संभवतः हमारे नीति निर्माता आई. पी. एस. के पी. को डी. (डी. फॉर ढोबले) में
बदल देने पर विचार करेंगे. मैं ढोबले हूँ. वाकई.
2 comments:
अभिनव जैसे पुलिसिए तो अपवाद स्वरूप हैं. बाकी तो सब के सब ढोबले ही हैं - और जैसा कि अभिनव ने स्वयं कहा है -
वे भारतीय पुलिस की आनुवांशिक बनावट के सबसे प्रबल और ध्वंसकारी तंतुओं की सबसे आम घटित होने वाली अभिव्यक्ति भर हैं!
क्यों नहीं हमारे यहाँ कोबान या स्कॉटलैंड यार्ड हो सकते । सुना था अंग्रेज़ों के ज़माने में औरत रात को गहनों से लदी जाती थी तो भी महफ़ूज़ रहती थी लेकिन अब रोज़ आँखों से देखता हूँ कि अगर वो नाम मात्र अथवा निमित्त मात्र वस्त्र धारण करके भी विश्व के विशालतम महानगर की अंधेरी गली से निकले तो किसी की मजाल नहीं जो कुछ कर ले क्योंकि छिताई किसे पसन्द होगी भला ?
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