Thursday, May 15, 2008

बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं

अकबर इलाहाबादी साहब अपनी तुर्शज़बानी और हाज़िरजवाबी के लिये ज़्यादा जाने जाते हैं. इधर के वर्षों में उनकी शोहरत के लगातर बढ़ते जाने के बावजूद उनकी गम्भीर रचनाएं लगातार हाशिये में ही नज़र आती हैं. उनकी एक ग़ज़ल मुझे अति प्रिय है. कुन्दनलाल सहगल साहब की आवाज़ में सुनिये अकबर इलाहाबादी की वही रचना:

दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं

ज़िन्दा हूं मगर जीस्त की लज़्ज़त नहीं बाकी़
हरचन्द कि हूं होश में हुशियार नहीं हूं

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूं फ़क़त नक्श-ब-दीवार नहीं हूं

वो गुल हूं ख़िज़ा ने जिसे बरबाद किया है
उलझूं किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूं


1 comment:

Manjit Thakur said...

साधुवाद..