Monday, June 1, 2009

मेरे खिलाफ एक खामोश साजिश है


पिछले दिनों उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद इंदौर में थे। मेरे लिए हिंदी में उनकी उपस्थिति बहुत हसीन और मारू है। मुझे उनका गद्य पसंद आता है। वह एक साथ मारक और मोहक है। इतना अलहदा है कि उसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती है। अप्रतिम। अतुलनीय। वे इतने मौलिक है कि उनकी नकल संभव नहीं। यह आकस्मिक नहीं है कि हिंदी में न तो वे किसी गद्य परंपरा में आते हैं और न ही कोई उनकी परंपरा में आता है। उनका रास्ता दूसरों से अलग है, भिन्न है। वे अपने रास्ते पर अकेले हैं। उनका गद्य अकेले और अलग हो जाने का गद्य है। मेरे मन में हिंदी के जिन चार साहित्यकारों से मिलने की बहुत गहरी इच्छा थी उनमें वे एक थे। मैं निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, कृष्ण बलदेव वैद और विनोदकुमार शुक्ल से मिलना चाहता था। बात करना चाहता था। अब तक मैं सिर्फ वैद साहब से ही नहीं मिल पाया था। इसलिए जब पता चला कि वैद साहब मेरे शहर में है तो मैंने चित्रकार अखिलेश से उनका नंबर लिया। अखिलेश ने उनकी पत्नी चम्पा वैद के चित्रों की एकल नुमाइश इंदौर में आयोजित की थी। वैद साहब अपनी पत्नी के साथ ही इंदौर आए थे। यहां प्रस्तुत है एक लंबी बातचीत का छोटा सा अंश।


जाने-माने उपन्यासकार और कहानीकार कृष्ण बलदेव वैद का कहना है कि हिंदी साहि्त्य में उनके खिलाफ एक खामोश साजिश है। कुछ आलोचकों ने बिना पढ़े उनके बारे में यह हवा उड़ाई गई कि वे अपठनीय हैं और उन्हें पढ़ना वक्त जाया करना है। उन्होंने कहा कि मेरे लेखन की भिन्नता या विलक्षणता (जैसा कि आपने कहा ) के कारण एक सोची-समझी साइलेंसी रही है।
यह मेरा दुर्भाग्य है कि हिंदी में यह हुआ लेकिन बावजूद इसके मेरी जुदा उपस्थिति है तो इसकी वजहें साफ है। और वे ये हैं कि मैंने इन तथाकथित आरोपों का जवाब नहीं दिया। न लिखकर और न ही किसी साक्षात्कार में। मैं तो इसका जवाब सिर्फ रचनात्मक स्तर पर निरंतर रचते हुए दे सकता था जो मैंने किया। मेरे खिलाफ हिंदी में जो खामोश साजिश है उसने मुझे ताकत ही दी है। और मैंने जिद में साहित्य की मुख्यधारा में जाने से इनकार किया। मैं भिन्न हूं, यथार्थ को देखने की मेरी निगाह अलहदा है। मैंने अपने लेखन में सहज और सायास यह कोशिश की कि ऐसा लिखूं जो मुझे पसंद आए। सामाजिक यथार्थवाद मुझे उबाता है। अधिकांशतः एक बने -बनाए ढांचे में इस यथार्थ को अभिव्यक्त किया गया है। इसमें गरीबी से लेकर भूख का खराब चित्रण है। लेकिन मेरी निगाह दूसरी है। मैंने निर्भीकता से रचा। यदि आप समाज का कोई कोढ़ देख रहे हैं तो उसे आंखें खोल कर देखा जाना चाहिए। मैंने किसी भी तरह के औचित्य का अंकुश स्वीकार नहीं किया और अपनी तरह से लिखा।
उल्लेखनीय है कि उसका बचपन, बिमम उर्फ जाएं तो जाएं कहां, काला कोलाज, गुजरा हुआ जमाना, मायालोक उनके ऐसे उपन्यास हैं जो यथार्थ को किसी भी रूढ़ ढांचे में अभिव्यक्त नहीं करते बल्कि नवाचार के जरिये उपन्यास-परिदृश्य में हस्तक्षेप करते हैं।
वे कहते हैं- हिंदी साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी भीगी तान और भिंची भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिंदी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएं तो जाएं कहां उपन्यास को अश्लील कह कर खारिज किया गया। मुझे पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पढ़ा। अब मैं 82 का हो गया हूं और बतौर लेखक मैं मानता हूं कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। मैंने अपनी अवहेलना का नजरअंदाज किया और जैसा लिखना चाहा, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।

43 comments:

Pratibha Katiyar said...

रवीन्द्र जी यह तो अन्याय है. ऐसा लगा अभी पढऩा शुरू किया था और बात खत्म. सचमुच वैद जी को पढऩा अद्भाुत है. उनकी क्रिएटिविटी लोगों के लिए मिसाल होनी चाहिए, उन लोगों के लिए खासकर जो सिर्फ साजिशों के खेल में मसरूफ हैं. कहीं किसी को जबर्दस्त तरह से इग्नोर करके, और कहीं किसी को बेवजह प्रमोट करके. लेकिन शब्दों की सत्ता अलग ही होती है, इन सारी खामोशियों और कोलाहलों से दूर. वैद जी कीतरह और भी कई बड़े नाम और चेहरे याद आ रहे हैं जो इग्नोरेंस का शिकार हैं. उनका किसी को जवाब न देना ही इस साजिश का सबसे बड़ा जवाब है. सचमुच. उनके पाठकों के दिल में उनके लिए जो स्नेह है, जो श्रृद्धा है उसे साहित्यिक साजिशें मिटा नहीं सकतीं. बहरहाल, आपका शुक्रिया जो आपने वैद जी से मिलवा दिया, ब्लॉग पर ही सही.

मुनीश ( munish ) said...

"हिंदी साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी भीगी तान और भिंची भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है।"
Even though i am not in favour of generalising or typecasting Hindi writers like this,but yes to a great extent this observation is sadly true. If i tell u the clinical reason of this trait u may find it hard to believe so i think i better shut up!

pallav said...

baid sahab sachmuch bade kathakar hain, unse aapki puri batcheet chape to aur aanand aaye.

siddheshwar singh said...

"जैसा लिखना चाहा, वैसा लिखा। "
इसीलिए तो आप , आप हैं!
बहुत महत्वपूर्ण साक्षात्कार

मुनीश ( munish ) said...

I remember vaguely one of his stories published in Sarika many moons ago . It was 'Andheri Surang', if im not wrong.It was an impressive story indeed . The man has refined taste anyway as evident from his nice double-pocketed shirt. I may not have deep pockets ,but i like wearing double pockets!

शरद कोकास said...

वैद जी के साथ यह साज़िश तो रही.उनके उपन्यास विमल उर्फ जाये तो जाये कहाँ को अश्लील करार दिया गया बकायदा सुनियोजित ढंग से कई स्थानो पर इसके पन्नो की फोटोकॉपी कर वितरण किया गया और उस पर आरोप लगाकर चर्चा की गई.वैद जी का यह आत्मविश्वास कि अब मै 82 का हूँ और कोई मेरा नुकसान नही कर सका रेखांकित करने योग्य है लेकिन "सामाजिक यथार्थवाद मुझे उबाता है" इस् स्वीकारोक्ती मे ही हर प्रश्न का उत्तर है बहर हाल वैद जी से इतना ही कहलवा लेने के लिये बधाई

अजित वडनेरकर said...

साजिशें चलती रहती हैं, लिखनेवाला उसकी परवाह क्यों करे? अब तो ब्लाग एक बड़ा मंच है। जिसे सामने आना है, आए।
यूं कृष्णजी को छुटपन से पढ़ता रहा हूं। अतिनवाचार से उनका लिखा भी कई जगह ऊब पैदा करता है। वे खूब छपे हैं और खूब सराहे भी गए हैं। साजिशों की बात कुछ हज्म नहीं होती। साफ़गोई के लिए माफी चाहूंगा।
"मैंने अपने लेखन में सहज और सायास यह कोशिश की कि ऐसा लिखूं जो मुझे पसंद आए।"
ये बात कहनेवाले लेखक को तो किसी साजिश का आरोप लगाना ही नहीं चाहिए...
अब सब कुछ पाठकों पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि आपका फार्म उन्हें पसंद आया अथवा नहीं। बैदजी को प्रकाशक भी अच्छे मिलते रहे हैं। क्या हिन्दी वाले सिर्फ झीकते ही रहेंगे सब कुछ पाकर भी?

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बैद साहब से बातचीत पढने के बाद कुढ ही रहा था कि अजित जी की टिप्पणी पढी, और लग अकि उन्होंने वो सब कह दिया जो मैं कहना चाहता था.
कृष्ण बलदेव बैद किस बात की शिकायत कर रहे हैं? उन्हें अच्छे प्रकाशक मिले, और पर्याप्त पाठक भी मिले. सराहना भी कम नहीं मिली. वे अपने ढंग के अनूठे रचनाकार हैं, यह बात वे भी कहते हैं जिन्हें उनका लिखा कम या नहीं पसंद है. मेरी जिज्ञासा तो यह जानने में है, और अगर मैंने उनसे बात की होती तो पूछता भी कि क्या हुआ होता तो उन्हें लगता कि हिन्दी में उनके खिलाफ कोई साजिश नहीं थी?

अजित वडनेरकर said...

सही कहा दुर्गाप्रसाद जी, ये साहब बरसों से सब कुछ अपनी पसंद का कर रहे हैं, फिर भी शिकायत कर रहे हैं:)

डॉ .अनुराग said...

इतनी तल्खिया क्यों ?उनका एक अपना मकाम है ... ...उनको पढ़ा ओर सराहा भी गया .ओर यकीनन इस देश की कम से कम चार बड़ी जगहों की लाइब्रेरी में उनकी किताबे मैंने भी देखी है ....

ravindra vyas said...

प्रतिभाजी और पल्लव जी , मैं कोशिश करूंगा कि वह बातचीत जल्द ही आपको पूरी पढ़ने को मिले। मुनीश जी आप वैद साहब की कहानी भुट्टे की गंध भी पढ़ें। और उनका उपन्यास उसका बचपन। बिमल बिल्लौरी (बिमल उर्फ जाएं तो जाएं कहां) की कथा भी बहुत अनूठी है। उनकी एक किताब बदचलन बीवियों का द्वीप भी पठनीय है। गुजरा हुआ जमाना उसका बचपन के आगे की कहानी है। मलयज ने उसका बचपन पर लिखते हुए कहा था कि उसका बचपन को सफल मनोवैज्ञानिक चित्रण के रूप में महत्वपूर्ण मानने में मुझे सदा ऐतराज रहा है, यह गौण पक्ष है। मुख्य चीज है लेखक की अद्भुत तटस्थता और निवैयक्तिकता । उसमें यथार्थ लेखक के हाथ में ऐसा नश्तर बन गया है जिससे बिना उफ किए वह पाठक के मर्म को छेदता चला जाता है । कहीं यह गुमान नहीं होने देना चाहता कि वह यथार्थ को व्यक्त करने का यश लूटना चाहता है।
मलयज की यह टिप्पणी पर गौर किया जानाि चाहिए। आज जब यथार्थ को प्रकट करने के लिए वरिष्ठ और युवा लेखक तमाम तरह की प्रविधियां इस्तेमाल कर रहे हैं तो यह देखा जाना चाहिए कि वे इसे कितनी तटस्थता के साथ वापर रहे हैं। वैद साहब न आपको भावुक करते हैं और न ही उत्तेजित बल्कि एक ठंडेपन, मारक ठंडेपन के साथ यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं। शरद कोकास ठीक ही कहते हैं। बिमल को लेकर उनके खिलाफ इरादतन कुप्रचार किया गया। अजित जी और अग्रवाल जी की बातों से एक हद तक सहमत हूं लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि जो ऊब पैदा की जा रही है उसके पीछे भी कोई प्रविधि, या सरोकार या कोई रचनात्मक बेचैनी तो नहीं है?
मुझे खुशी है कि पाठकों ने खुलकर अपनी राय दी। इससे हिम्मत ही मिली कि वैद साहब से यह बातचीत पूरी दूं।
सभी के प्रति आभार के साथ।

ravindra vyas said...

shukriya dr. anurag!

Rangnath Singh said...

हिन्दी के कई लेखकों में आत्म-पीड़क भाव बढ़ता जा रहा है। गजब यह है कि ये ऐसे लेखक हैं जो बड़े बड़े प्रकाशकों से छपते रहे हैं। जिन्हें अच्छी संख्या में पाठक मिलते रहें हैं। जिन्हें पाप्युलर मीडिया में सेलिब्रेशन मिलता रहा है। जो हिन्दी के समकालीन बड़े लेखकों में गिने जाते हैं। खुद के खिलाफ की गई साजिश और उसे अभिमन्यु की तरह भेद कर निकलने का ये लेखक जिस तरह वर्णन करते हैं उससे चंद्रकांता संतति पढ़ने का रस मिलता है। उदय प्रकाश के ब्लाॅग पर सबसे अधिक लिखा गया शब्द ‘साजिश‘( या इसके समानार्थी शब्द हाशिया इत्यादि ) है। उनके लिखे को सत्य मानें तो उनकी छवि जेम्स बाॅण्ड की सी बनती है। जो सभी दुश्मनों को मात देकर अपने लक्ष्य को पा लेता है। वही स्वर वैद जी का है। अमूर्तन में बात करके असल बात को गोल कर जाना घिसी पिटी विधा है। इन लोगों को उन लोगों को बेनकाब करना चाहिए जो नहीं चाहते थे कि ये लोग लेखक बन पाए। नई पीढ़ी भी तो जाने कि साहित्य के अण्डर वल्र्ड के अंदर क्या-क्या होता है ? आखिर क्या वजह है कि अपराधी चेहरों की शिनाख्त करने से ये लोग घबड़ाते हैं ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ खास आलोचकों द्वारा खुद को महान न घोषत किए जाने से उपजी असुरक्षा ग्रंथी इन लेखकों को इस तरह की मिथ्या चेतना उत्पन्न करवा रही है। आखिर ये लेखक उन्हीं आलोचको द्वारा महान घोषित किए जाने का मुहताज क्यों बने हुए हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जीते जी तोल्सतोय, दोस्तोवोस्की,बाल्जाक, शेक्सपीअर न घोषित किए जाने के कारण इनके मन में गहरी नाराजगी है। हमने तो यही जाना है कि शेक्सपीअर,गालिब,कबीर को भी उनके समकालीन लोगों ने वह महत्व नहीं दिया था जिसके वो हकदार थे। फिर भी इन लेखकों में इतनी अकुलाहट क्यों है ? हिन्दी साहित्य में भुवनेश्वर, वेणुगोपाल, जैसे उदाहरण के होते इन लेखकों द्वारा ‘खामोश साजिश‘ शब्द का प्रयोग अश्लील ही लगता है। इनकी स्थिति तो निराला,मुक्तिबोध,राजकमल चैधरी सी भी नहीं हैै। फिर इन लेखकों में इतनी छद्म आत्म-दया क्यों है ?
वैद जी ने जिस सरलता और भोलेपन से यह कहा कि ”सामाजिक यर्थाथवाद मुझे उबाता है” ठीक उसी तरह तमाम लोगों को तमाम दूसरी चीजें उबाती हैं। उन्हीं ऊबे हुए लोगों मेें से कुछ लोग वैद जी की आलोचना करते हैं तो फिर वो बुरा क्यों मानते हैं ? एक समकालीन बड़े लेखक (मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ) जिनकी पहली किताब ने धूम मचा दी उनका कहना है कि उनकी बाकी किताबों के खिलाफ साजिश की गई। वरना उन्होने एक से एक पीस (आप चाहें तो मास्टर जोड़ लें !) लिखा लेकिन....!! उन साजिश कर्ताओं में उस (बडे़)प्रकाशक का नाम भी है जो अब तलक उनकी हर किताब(पहली समेत) छाप रहा है। उनका मासूम तर्क कि प्रकाशक नहीं चाहता कि उनकी बाकि किताबें को पहली किताब जितना महत्व मिले !! कई बार ऐसा होता है कि लेखक अपनी किसी अन्य रचना को सर्वश्रेष्ठ मानता है जबकि विज्ञ लोग उसकी किसी और रचना को। इस द्वैत का कोई इलाज नहीं है। सभी लेखकों को इसे स्वीकार करना चाहिए।

वैद जी को याद दिलाना चाहँुगा कि,

गालिब बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे।
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।।

मुनीश ( munish ) said...

मेरा ख्याल है ऐ नेक मोहतरिम कि रंगनाथ बाबू के उपरोक्त कमेन्ट के साथ अब ये बहस उस उरूज पे आया ही चाहेती है कि जिसके हसीं मंज़र की तलब में कदम गोया खुद बा-खुद कबाड़खाने की जानिब उट्ठे चले आते हैं .

ravindra vyas said...

वैद साहब से मेरे इंटरव्यू पर अजितजी ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि - अतिनवाचार से उनका लिखा भी कई जगह ऊब पैदा करता है। यहां दो चीजें ज्यादा साफ होना चाहिए। रंगनाथ बाबू जी ने भी ऊब को लेकर प्रतिक्रिया दी है। एक तो यह है कि इन दोनों में जो ऊब पैदा हो रही है वह वैद साहब के अतिनवाचार से हो रही है। (अजितजी ने तो वैद साहब को पढ़ा है लेकिन रंगनाथ जी ने पढ़ा है, इसमें मुझे संदेह है।) यानी अजितजी की ऊब के मूल में वह अतिनवाचार है जिसके लिए वैद साहब जाने जाते हैं। लेकिन मैं यहां यह साफ कर देना चाहता हूं कि वैद साहब के कई उपन्यासों में ऊब है और वे उसकी बनावट और बुनावट पर कई कई तरह से रोशनी डालते उसके रेशों से हमें परिचित कराते हैं। इसलिए ऊब पैदा करने या ऊबाई होने और ऊब को अभिव्यक्त करने के मायने अलग अलग हैं। वैद साहब के साहित्य को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि वह ऊबाऊ है। जाहिर है अजितजी एक पाठकीय ऊब के बारे में बात कर रहे हैं, समाज में हर कहीं गहरे पैठी ऊब के बारे में नहीं? इसके अलावा क्या इसे हिंदी पाठक के मन में नवाचार या अतिनवाचार को लेकर एक सामान्य नजरिया माना जा सकता है? यानी हिंदी में प्रयोगधर्मिता को लेकर क्या अभी भी कोई ग्रंथि है या इसे सिर्फ कलावाद कहकर एक एक कला-गुट में धकेल दिया जाता है या यह कहकर सिरे से खारिज करने की कोशिश की जाती है कि यह तो ऊबाऊ है।
वैद साहब के उपन्यासों में ऊब है। कई जगहों पर और कई तरह से। उन्होंने तो एक इंटरव्यू में कहा भी है कि ऊब मेरे अनुभव और स्वभाव का एक कष्टकर अंग है, उन पर हावी रहता है। मार्मिक भाषा में कहूं तो तो ऊब मेरी नियति है। मेरे चरित्रों की भी। शायद मानव जातिकी भी। दूसरे जानवरों को भी मैं समझता हूं ऊब का अनुभव अवश्य होता है। चिडि़याघर में चिड़ियाओं के सिवाय सभी जानवार अक्सर ऊबे हुए दिखाई देते हैं। मेरे इस आब्सेशन की जड़ें, दूसरी बीमारियों की जड़ों की तरह मेरे बचपन में भी होंगी। सो मैं इस आब्सेशन को मानकर इसका इस्तेमाल अपने काम में करता हूं-इसे अपने अनुभव संसार का मर्म पा जाने के लिए एक माध्यम के तौर पर इसे अपनी आयरानिक दृष्टि का कारण और परिणाम मानकर , इसका नाता विरक्ति और वैराग्य से जोड़कर, इसका मजाक उड़ाकर, और इसी प्रकार की और कई पीड़ाओं के तौर पर।
इसके बारे में मजाकिया लहजे में जो बात कर रहा हूं वह इसलिए कि ऊब मेरे लिए दहशतनाक हकीकत है। मेरे उपन्यासों में इसकी उपस्थिति एक मनोवैज्ञानिक ग्रंथि की सी न होकर एक आध्यात्मिक मनःस्थिति की सी है। मेरे पात्र इससे आक्रांत हैं, यह मैं मानता हूं। इससे छुटकारा पाने की उनकी छटपटाहट अक्सर अधूरी और असफल रहती है। सो वे इसका विश्लेषण और मंथन करने बैठ जाते हैं। मैं बतौर लेखक अपने पात्रों में होते हुए भी उनसे बाहर और ऊपर रहने की कोशिश करता हूं। ताकि उनके ऊब-मंथन -विश्लेषण कर सकूं। सो ऊब को नकारने के बजाय मैं उसे अर्थ को खोज , आस्था और अनास्था की रस्साकशी, संशय और ईश्वर के संबंध आदि का अंकन करने के लिए एक माध्यम और साधन के तौर पर अपने काम में इस्तेमाल कर सकूं। (पूर्वग्रह-69 से साभार)
जहां तक रंगनाथ बाबू जी की प्रतिक्रिया का सवाल है, मुझे लगता है उनका वैद साहब के साहित्य से कोई लेना देना है नहीं। उन्होंने वैद साहब को पढ़ा नहीं है। उनकी आपत्तियां दूसरी हैं। मैं यहां यह भी साफ कर देना चाहता हूं कि वैद साहब पापुलर मीडिया से एकदम बाहर हैं। वहां उनका कोई सेलिब्रेशन भी नहीं है।
मुनीश जी की बात बिलकुल ठीक है कि अब इस पर खासी बहस होना ही चाहिए। आशा है इसमें
और लोग भी जुड़ेंगे।

कुमार अम्‍बुज said...

प्रिय रवि,
कलावाद और जनवादी साहित्‍य को लेकर पर्याप्‍त विमर्श उपलब्‍ध है। मार्क्‍सवादी सौंदर्यशास्‍त्र पर दुनिया भर में साहित्‍य प्रकाशित है। हिन्‍दी में प्रेमचंद ने, मुक्तिबोध ने किंचित विस्‍तार से इस बारे में कहा है। अमत राय ने तो एक पुस्‍तक ही लिखी है- 'साहित्‍य और जीवन'। इसी तरह में कला और कलावाद को लेकर भी प्रचुर संख्‍या में निबंधादि लिखे गए हैं। फिर भी कुछ बातें।

एक लेखक कौन सा रास्‍ता चुनता है, यह उसकी रूचि और विवेक पर निर्भर है। इसमें किसी को कोई एतराज नहीं है। आप भाषा में खेल करते हुए सर्जना के रास्‍ते चलना चाहते हैं अथवा जीवन से मुठभेड् करते हुए उसे कलात्‍मकता के साथ रचना में दर्ज करना चाहते हैं। आप साहित्‍य में एक्टिविस्‍ट होना चाहते हैं या साहित्‍य पढ़कर, उसीमें से साहित्‍य रचने का सामर्थ्‍य पाना चाहते हैं। आप कलाबाजी दिखाते हुए नट की तरह करतब करना चाहते हैं या जीवन की सख्‍त, बेरौनक पगडंडियों से गुजरना चाहते हैं, ये सब रास्‍ते सबके लिए खुले हैं। इन सभी रास्‍तों के अपने सौंदर्य, खतरे, स्‍वीकार और अस्‍वीकार हैं। मुश्किलें और आसानियां हैं। चुनाव आपका है।

कभी किसी प्रगतिशील-जनवादी लेखक ने कलावादियों से मान्‍यता पाने की अपेक्षा नहीं की है और न ही उन पर उपेक्षा अथवा साजिश का आरोप लगाया है। लेकिन यह बार-बार होता है कि कला और शिल्‍प को अत्‍यंत तरजीह देनेवाले लेखक अक्‍सर ही प्रगतिशील-जनवादी लेखकों पर, मार्क्‍सवादी आलोचकों पर आरोप लगाते हैं। जैसे उन्‍हें अपने रास्‍ते के चुनाव पर ही कोई क्षोभ है, जो जब-तब सिर उठाता है।

आत्‍महत्‍या, कुंठा, उदासी, अवसाद, निराशा के साथ आशा, संघर्ष, अभाव, संत्रास, उत्‍साह, जिजीविषा भी इसी जीवन के अवयव हैं। आपका पक्ष, आपकी प्रतिबद्धता आपके लेखन में परिलक्षित होगी। इससे लेखक को प्रसन्‍न और संतुष्‍ट होना चाहिए। इसमें किसी तरह की नाराजी का, शिकायत का अंश अंतत: रचनाविरोधी प्रत्‍यय है। खुद पर अविश्‍वास भी है।

एक पाठक के तौर पर हिन्‍दी में, प्रतिनिधि उदाहरणस्‍वरूप कहूं कि मैं प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रेणु, भीष्‍म साहनी, अमरकांत, ज्ञानरंजन के गद्य को बेहद कलात्‍मक पाता हूं, जिसमें जीवन की अनंत छबियां हैं। उनकी कला कला के लिए नहीं है, इस जीवन के अनंत आयामों में विन्‍यस्‍त है, वहीं से प्रगट और अभिव्‍यक्‍त है। ये सब लेखक हमारे गौरव हैं, पापुलर नहीं हैं, श्रेष्‍ठ हैं। किसी को अच्‍छा कहने के लिए उसके लेखन में से सामग्री और औचित्‍य खोजना चाहिए, आरोप-प्रत्‍यारोप लगाकर और खिन्‍न होकर कोई बात कहना गैरसर्जनात्मकता का लक्षण है। तमाम कलावादी लेखकों की रचनाओं में मुझे यह गुण नहीं मिलता है। और इसी से वह उब पैदा होती है जो भाषिक सुंदरता और कलाबाजी को ढांप लेती है। जिन्‍हें उनमें सुख मिलता है, उन्‍हें जरूर लेना चाहिए।

हर तरह के साहित्‍य के पाठक उपलब्‍ध हैं। पाठकों का भी अपना एक चुनाव है। इसलिए एक लेखक को शालीनता से अपने पाठकों पर यकीन करते चले जाना चाहिए। लेकिन शालीनता से, मैं दोहराना चाहता हूं।

अजित वडनेरकर said...

निश्चित ही रवीन्द्र भाई मैं पाठकीय ऊब की बात ही कर रहा हूं। दरअसल साहित्य को बावले गांव का ऊंट बनाने की कोशिशें लगातार होती रही हैं। इस नवाचार को ही मैं दोषी मानता हूं। लेखन अगर कला है तो कला के पहले धर्म यानी लोकरंजन का पालन करे। यहां मुझे पुरातनवादी होना सुहाता है। अगर मेरा मनोरंजन नहीं हो रहा है तो कोई साहित्य, कोई कला विधा मुझे प्रभावित नहीं कर सकती। आप स्वांतः सुखाय चाहे जो करें, यह कह कर पब्लिक डोमेन पर न आएं कि लोगों ने या समाज ने हमें सराहा नहीं। भाई, आपने ही उनका कौन सा ख्याल रखा?

फार्म तय करते समय ध्यान रखें कि उसमें रोचकता है या नहीं। कथ्य सिर से ऊपर तो नहीं जा रहा? प्रेमचंद, नागर जी, भगवतीचरण वर्मा का लिखा इसलिए आज भी रिप्रिंट होता है क्योंकि वह कथा-साहित्य की शर्त पूरी करता है। माना कि यह लेखक की मर्जी है कि वह किस रूप में खुद को अभिव्यक्ति करता है। पर उसकी अभिव्यक्ति लोगों को पसंद नहीं आती है तब क्या वह नया फार्म तलाशेगा या खुद की मर्जी सब पर थोपना चाहेगा। जाहिर है, पाठक ही रचना चुनते हैं मगर अंतिम सत्य यह है कि रचना अपना पाठक स्वयं तलाश लेती है। वैदजी के चर्चित होने की वजह से ही मैं उनकी रचनाओं तक पहुंचा, यह सत्य है। मगर उनकी रचना मुझे बांध नहीं पाई। इतना ही कह रहा हूं। उनकी रचनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं।

अपने समय में जो भी कला रची जा रही है उसे लोगों तक पहुंचना ही चाहिए। दुख की बात यह है कि हिन्दी के साहित्यकार खासतौर पर गद्यशिल्पी प्रयोगवाद, नवाचार के भंवर में फंस गए। गुट विशेष में चर्चित होने की महत्वाकांक्षा को पालते हुए उनके मन में कभी प्रेमचंद-साहित्य के विशाल पाठकवर्ग का ख्याल तो आता होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता।

अजित वडनेरकर said...

अभी अभी कुमारजी की टिप्पणी भी देखी।
बहुत सुलझे हुए, प्यारे तरीके से उन्होंने वह सब कहा जो मैं कहना चाहता था पर वैसे साहित्यिक संस्कार न होने से खुद को शायद अभिव्यक्ति नहीं कर पाया।

कुमारजी से शत प्रतिशत सहमत। धन्यवाद कुमारजी।

मुनीश ( munish ) said...

ब्लॉग -जगत के मेरे अब तक के अनुभव में ये पहला मौक़ा है दोस्तो जब इतनी वज़नदार और शालीन बहस देखने को मिल रही है . मैं वैद जी के साहित्य को लेकर अपनी अज्ञता पहले ही जता चुका हूँ और निस्संदेह अब उसे पढने की प्रेरणा इस विमर्श से प्राप्त हो रही है . साधुवाद अशोक पांडे को जिन्होनें ऐसा अनूठा मंच उपलब्ध कराया है जो तमाम वादों -प्रतिवादों से ऊपर उठ कर यहाँ दिल्ली में सन् ५० के इलाहाबाद के कॉफी हाउस का मज़ा दे रहा है जहाँ मतभेद भले हो कोई खेद कतई नहीं है .

संजय पटेल said...

सारी बहस में रवीन्द्र भाई मेरा यह कहना है कि सच्चे पाठक को लेखक जानता ही नहीं और न ही उसकी किसी फ़ेहरिस्त में स्थान पाता है. जैसे संगीत की महफ़िल में कुछ जाने पहचाने चेहरे बार बार दिखाई देते हैं और कुछ बिलकुछ अनजान. वैसे ही सिर्फ़ रपटकार,पत्रकार,कलाकर्मी,लेखक,कवि या संस्कृतिकर्मी ही किसी लेखक के प्रशंसक या फ़ैन नहीं होते और न उसका फ़ीड बैक लेखक तक पहुँच पाता है. जैसे ईमानदार लेखक अपने काम में मुतमईन होता है वैसे पाठक भी . मैं अपने शहर में ऐसे कई सामान्य लोगों को जानता हूँ जिनकी कोई सार्वजनिक पहचान नहीं हैं,ने ही वे अदीबों की सूची में शामिल हैं लेकिन लाजवाब पढ़ते हैं और ताज़ातरीन .दोहरा दूँ कि इन जुनूनी पाठकों की दुनिया नामचीन लोगों की दुनिया से बहुत दूर होती है .लेखक को ऐसे ही खरे और सच्चे पाठक की परवाह करनी चाहिये.

कुमार अम्‍बुज said...

क्षमा याचना के साथ कि फिर से उपस्थित हूं। लेकिन मेरी डायरी का एक हिस्‍सा यहां देना प्रासंगिक लग रहा है, जो वागर्थ में 2004 में प्रकाशित हो चुका है:
10 08 2002

शिल्प पर मोहित होना जारी है।
शिल्प इस तरह अर्जित किया जा रहा है जैसे आदमी मकान बनवाकर सोचता है कि हो गया इंतजाम। अब हमारा एक स्थायी पता है, हम यहीं मिलेंगे। हमारी उपस्थिति अन्य जगह और किसी दूसरी तरह से यदि हो तो हम झूठे, बेईमान या असफल ठहरा दिए जाएँ। कोई उज्र नहीं। यह शिल्प ही हमारी साधना थी। कला का चरम सत्य हमारे इस शिल्प में आ गया। जैसे वह यथार्थ और कथ्य का विकल्प हो गया।

शिल्प की सवारी की शेर की सवारी है। यह उपलब्धि है कि आपने शेर की सवारी की। लेकिन अब आप शिल्प के आसन से उतर नहीं सकते। शेर आपको खाने के लिए तैयार है। आप शेर पर बैठे, यह तसवीर आपकी पहचान है लेकिन अब आप हमेशा ही शेर पर सवार रहने के लिए विवश हैं। आप उसके शिकार हो चुके हैं। आप भूल गए कि जैसे शिल्प को पाना एक महत्वपूर्ण पक्ष है उसी तरह शिल्प को पार करना भी। शिल्प के चक्रव्यूह में प्रवेश करने वाले अभिमन्युओं को चक्रव्यूह से बाहर आने की कला भी आनी चाहिए।

शिल्प साधन होता है, साध्य नहीं। शिल्प, यथार्थ से बड़ा नहीं होता। यथार्थ रोज बदलता है इसलिए शिल्प स्थिर नहीं रह सकता। वह किसी आदमी की युवा या अधेड़ अवस्था में खींची गई तसवीर की तरह नहीं हो सकता। वह जड़ित फोटो नहीं है। जो शिल्प को गुलाम बनाना चाहते हंैं, ज़रा ध्यान दें कि किसने किसको गुलाम बना लिया है। शिल्प औज़ार है, नेम-प्लेट नहीं। `कैसे कहा गया है´ तब ही विचारणीय हो सकता है जब `क्या कहा गया है´ भी महत्वपूर्ण हो। जितनी महान कविताएँ हैं अंतत: वे अपने कथ्य के कारण ही हमारा ध्यान खींचती हैं। फिर जो कविताएँ अनूदित होकर हमारे सामने आती हैं या अन्यत्र जाती हैं, वहाँ शिल्प उस तरह से साथ नहीं आता-जाता, जैसा कि वह मूल में रहा आया है। रचना अपने कथ्य के कारण ही देश-काल का संक्रमण करती है।

यथार्थ की चेतना प्रत्येक कवि से माँग करती है कि शिल्प की दासता से बाहर आया जाए। रचनाकार के लिए यह एक चुनौती है और उसे इसके प्रति स्वीकार भाव रखना चाहिए। शिल्प एक महत्वपूर्ण पक्ष है लेकिन यह याद रखना होगा कि शिल्प एक कैदखाना भी होता है।

शिल्प के उम्रकैदियों को देखना दुखद है। जैसे उन्हें शाप दिया गया हो कि जाओ, अब तुम इस `शिल्प-लोक´ में जाकर रहो !
000000

अजित वडनेरकर said...

'शिल्प के उम्रकैदियों को देखना दुखद है। जैसे उन्हें शाप दिया गया हो कि जाओ, अब तुम इस `शिल्प-लोक´ में जाकर रहो !'

...और इस तरह अपने रचे कारावास या अनजाने-अनचाहे साहित्यिक निर्वासन को साजिश समझना तो और भी दुखद है।
बहुत बढ़िया कुमारजी। शुक्रिया....

मुनीश ( munish ) said...

Well,out of curiosity i've hurriedly browsed through the pages of 'Bimal urf....' as this is allegedly an obscene novel. I must say , the normal daily hindi news paper these days is far more vulgar than the depiction in this novel. When read in proper context even that depiction may not be obscene at all in the novel.At least this novel is not carrying the half page colour ad of EDIBLE CONDOMS available in four different fruit flavours ,showing a scantily clad lady lustfully licking her lips. If anyone wants he can see Dainik Hindustan dated June 3,2009, Delhi edition. So let us be considerate while levelling the charges of obscenity against any writer.Writers are noble souls!

गिरिराज किराडू/Giriraj Kiradoo said...

बाकी बहस के बीच यह जानना बहुत निराशाजनक है कि कुमार अम्बुज जैसे लेखक के लिए 'कलावाद' वर्सेज़ प्रगतिशील-जनवाद का ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक हो रहा द्वंद्व अभी भी इतना महत्त्वपूर्ण है - इसी तरह का एक गैर-ज़रूरी और ठस विभाजन शिल्प और कथ्य को लेकर है और इसे भी अम्बुज उसी शीतयुद्धीय छाया में स्वीकार कर रहे हैं. मुझे लगता है हिंदी में कला करने को लेकर एक तरह का अपराधबोध है खासकर उन लेखकों में जो विचारधारात्मक उत्प्रेरणाओं को अनिवार्य मानते हैं. अम्बुज की टिप्पणी मानो लगे हाथ ही वैद को 'कलाबाजी दिखाते हुए नट की तरह' चित्रित करने की कोशिश करती है जो उनके लिखे से संगत नहीं है. 'उसका बचपन' में एक निम्न मध्यवर्गीय बच्चे का बचपन वैद की जिस मारक निर्ममता से १९५७ में आया था - उसे हिंदी उपन्यास में यथार्थ के में बर्ताव के लिहाज से भी एक उपलब्धि माना जाना चाहिए. और यह कोई एक उदहारण नहीं है बदनाम बिमल से प्रशंसित नौकरानी की डायरी तक में भारतीय मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय यथार्थ बिलकुल नयी दृष्टि से अभिव्यक्त है. हिंदी में यह भुला दिया जाता है कि साहित्य में यथार्थवाद यथार्थ को देखने, लिखने की 'एक' विधि है जो उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में विकसित हुई, 'एकमात्र' विधि नहीं - हम यथार्थवादी ढंग के वर्णन को ही यथार्थ मानने लगे हैं. वैद ने कई बार इसी पारिभाषिक 'यथार्थवाद' से असहमति जताई है. इस तरह के यथार्थवाद के नुक्ता-ए-नज़र से तो मार्क्वेज़, इको, रश्दी, मनोहर श्याम जोशी, पामुक सब 'कलाबाजी दिखाते हुए नट' हैं क्योंकि सब को यथार्थ को देखने के 'सामाजिक यथार्थवादी' नजरिये से ऊब रही है. हिंदी के पुरानी पीढी के बहुत से लेखक अब भी अपनी ही लड़ाईयों की छाया में जीते हैं. प्रगतिशील-जनवादी नजरिये में लोकतंत्र को हमेशा ही संदेह से देखा गया है इसलिए यह अपेक्षा करना बेमानी होगा कि वे साहित्य में अपने विरोधी, या अपने से भिन्न मार्ग चलने वालों को मान्यता देंगे लेकिन तथाकथित कलावादियों के आयोजनों में, उनकी महत्वपूर्णताओं की सूचियों में सदैव कई मार्क्सवादी रहे हैं - यह कहना कि हमने कभी 'उनसे' मान्यता नहीं मांगी, वे ही 'हमसे' मांगते रहते हैं - यह भी कई तरह का अंहकार है जो दुर्भाग्य से भारतीय मार्क्सवादियों की भी एक पहचान रहा है. अब जबकि पूरे संसार में वाम विचार की एक नयी सार्थकता बन रही है - न सिर्फ वह स्तालिनवादी कठमुल्लेपन से बाहर आया है उसने नयी विश्व व्यवस्था में अपने लिए अधिक विस्तृत और समावेशी आधार भी बनाया है तब हिंदी की ये पुरानी हवाएं उदास करती हैं.

गिरिराज किराडू/Giriraj Kiradoo said...

बाकी बहस के बीच यह जानना बहुत निराशाजनक है कि कुमार अम्बुज जैसे लेखक के लिए 'कलावाद' वर्सेज़ प्रगतिशील-जनवाद का ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक हो रहा द्वंद्व अभी भी इतना महत्त्वपूर्ण है - इसी तरह का एक गैर-ज़रूरी और ठस विभाजन शिल्प और कथ्य को लेकर है और इसे भी अम्बुज उसी शीतयुद्धीय छाया में स्वीकार कर रहे हैं. मुझे लगता है हिंदी में कला करने को लेकर एक तरह का अपराधबोध है खासकर उन लेखकों में जो विचारधारात्मक उत्प्रेरणाओं को अनिवार्य मानते हैं. अम्बुज की टिप्पणी मानो लगे हाथ ही वैद को 'कलाबाजी दिखाते हुए नट की तरह' चित्रित करने की कोशिश करती है जो उनके लिखे से संगत नहीं है. 'उसका बचपन' में एक निम्न मध्यवर्गीय बच्चे का बचपन वैद की जिस मारक निर्ममता से १९५७ में आया था - उसे हिंदी उपन्यास में यथार्थ के में बर्ताव के लिहाज से भी एक उपलब्धि माना जाना चाहिए. और यह कोई एक उदहारण नहीं है बदनाम बिमल से प्रशंसित नौकरानी की डायरी तक में भारतीय मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय यथार्थ बिलकुल नयी दृष्टि से अभिव्यक्त है. हिंदी में यह भुला दिया जाता है कि साहित्य में यथार्थवाद यथार्थ को देखने, लिखने की 'एक' विधि है जो उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में विकसित हुई, 'एकमात्र' विधि नहीं - हम यथार्थवादी ढंग के वर्णन को ही यथार्थ मानने लगे हैं. वैद ने कई बार इसी पारिभाषिक 'यथार्थवाद' से असहमति जताई है. इस तरह के यथार्थवाद के नुक्ता-ए-नज़र से तो मार्क्वेज़, इको, रश्दी, मनोहर श्याम जोशी, पामुक सब 'कलाबाजी दिखाते हुए नट' हैं क्योंकि सब को यथार्थ को देखने के 'सामाजिक यथार्थवादी' नजरिये से ऊब रही है. हिंदी के पुरानी पीढी के बहुत से लेखक अब भी अपनी ही लड़ाईयों की छाया में जीते हैं. प्रगतिशील-जनवादी नजरिये में लोकतंत्र को हमेशा ही संदेह से देखा गया है इसलिए यह अपेक्षा करना बेमानी होगा कि वे साहित्य में अपने विरोधी, या अपने से भिन्न मार्ग चलने वालों को मान्यता देंगे लेकिन तथाकथित कलावादियों के आयोजनों में, उनकी महत्वपूर्णताओं की सूचियों में सदैव कई मार्क्सवादी रहे हैं - यह कहना कि हमने कभी 'उनसे' मान्यता नहीं मांगी, वे ही 'हमसे' मांगते रहते हैं - यह भी कई तरह का अंहकार है जो दुर्भाग्य से भारतीय मार्क्सवादियों की भी एक पहचान रहा है. अब जबकि पूरे संसार में वाम विचार की एक नयी सार्थकता बन रही है - न सिर्फ वह स्तालिनवादी कठमुल्लेपन से बाहर आया है उसने नयी विश्व व्यवस्था में अपने लिए अधिक विस्तृत और समावेशी आधार भी बनाया है तब हिंदी की ये पुरानी हवाएं उदास करती हैं.

ravindra vyas said...

हो सकता है इस बहस को आगे बढ़ाने में वैद साहब का यह जवाब कुछ मदद कर सके। अपने एक इंटरव्यू में जवाब देते हुए वैद साहब कहते हैं कि-
ह्यूमर और आयर्नी के अभाव से हमारे उपन्यासों का विचारपक्ष न सिर्फ बोझिल हो जाता है बल्कि शिथिल भी। उनकी दृष्टि न सिर्फ इकहरी हो जाती है बल्कि कोरी भी, उनकी शैली शालीन तो रहती है लेकिन शोख नहीं हो पाती। शोखी को हम अकारण शक की निगाह से देखते हैं। ह्यूमर और आयर्नी को भी।
शास्त्रीय संगीत में ह्यूमर और आयर्नी का अभाव नहीं। स्वरों और तानों के टकराव, उतार-चढ़ाव औरर दुहराव में अगर गंभीरता है तो उसको और भी प्रखर करती हुई शोखी भी है. मजाक भी है. आयर्नी भी है। यहां यह कह दूं कि कविता के संगीत की तरह उपन्यास का संगीत भी हो सकता है, किसी किसी उपन्यास में होता भी है। संगीत में, खासतौर पर कविता के संगीत में, शुद्ध माधुर्य ही नहीं होता, कठोरता भी होती है। इन दोनों के कलात्मक सम्मिश्रण से जो ध्वनि पैदा होती है अद्भुत होती है। तो हिंदी कथा साहित्य में गुरु-गंभीरता के साथ साथ अति माधुर्य का भी बाहुल्य है। एक तरफ तो मार्मिकता के मोह में हमारा मुंह अनायास जमा रहता है, दूसरी तरफ माधुर्य के मोह में वह अनायास पिघलता रहता है।
मैं कहना चाहता हूं कि कामिक दृष्टि, व्यंग्य से परे की दृष्टि है, और हास्य विनोद से ऊपर की। उसमें ऐसी आयर्नी की संभावना रहती है जिसके रहते आप किसी व्यक्ति या व्यथा या विचार को न तो पूरी तरह से स्वीकार कर रहे हैं न अस्वीकार। न तो उसका उपहास उड़ा रहे होते हैं और न ही उसकी उपासना कर रहे होते हैं, न उस से सहमत हो रहे हैं न असहमत। यह विरोधाभासी रुख ऐसी आयर्नी में रहता है। बार बार इस शब्द आयर्नी का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि इसके लिए पर्याप्त शब्द या पर्याय मेरे पास नहीं है। खैर। तो हिंदी में इस तरह की आयर्नी अप्रिय है, उपेक्षित है। क्यों है, मैं नहीं जानता। जानना चाहता हूं। मेरा अनुमान है कि इसका कारण भी हमारा यथार्थवादी आग्रह ही है। मैं इस प्रश्न को फिर नहीं उठाना चाहता, लेकिन इतना जरूर दुहरा देना चाहता हूं कि आयर्नी और ह्यूमर के अभाव में हमारा यथार्थवादी कथा साहित्य (सामाजिक और रूमानी) भी अधूरा ही रह जाता है। खैर, वह तो अब भी अधूरा ही है क्योंकि बहुत कम यथार्थवादी उपन्यास और कहानियां ऐसी हैं जिनमें हमारी गरीबी, गलाजत, बीमारी और बेईमानी का अकुंठित कलात्मक चित्रण हुआ हो। इसका कारण शायद औचित्य के प्रति हमारा मोह हो जो कि नहीं होना चाहिए। औचित्य की कोई नई परिभाषा होना चाहिए जो कि आधुनिक यथार्थ के करीब हो. उसके साथ न्याय कर सके।
यह भी है कि हम संस्कार से संकोची और संस्कारी जीव हैं। हमारे खाने के दांत और हैं, दिखाने के और।
(पूर्वग्रह-69 से साभार)

कुमार अम्‍बुज said...

कला स्‍तुत्‍य है। कलावाद सदैव ही संदेह के घेरे में है।
प्रयोगवादी होने और कलावादी होने में भी अंतर है।

मार्क्‍वेज, पामुक, मनोहर श्‍याम जोशी, उदय प्रकाश सहित सैंकडो चर्चित लेखक कलावादी नहीं हैं। एक या दो रचनाओं से नहीं, उनके पूरे लेखन से ही कुछ निष्‍कर्ष निकलते हैं। वैद जी की रचनाओं के बारे में तो अभी मैंने कुछ कहा ही नहीं है। मैं कलावादी रूझान की बात कर रहा हूं।

यथार्थ को सामाजिक नजरिए, गहरे मानवीय सरोकारों से देखनेवाले लेखकों ने कलात्‍मकता के उत्‍क़ष्‍ट उदाहरण बार-बार पेश किए हैं। टॉलस्‍टाय से लेकर गोर्की, चेखव, हॉवर्ड फास्‍ट से लेकर अरूंधति राय तक। एक असमाप्‍त सूची है। बहरहाल, नजरिया कैसा भी हो, यदि शिल्‍प और कलावाद की भूलभुलैया में गुम हो जाता है तो वह निरर्थक है। या कम से कम किसी तरह की संपन्‍नता नहीं दे सकता। वह कलावादी भाषा और पेंचोखम किसी काम का नहीं जो न तो रंजन करे और न ही उसमें कोई अर्थगर्भिता और व्‍यंजना हो अथवा वह समाज और मनुष्‍य की बेहतरी के स्‍वप्‍न से वंचित हो। स्‍थापत्‍य ठीक है, उदासी और ऊब के लंबे गलियारे भी ठीक हैं मगर कुछ जगह रहने की, गुजर करने की, मौसमों से बचाव के लिए भी जरूरी होती है। जाहिर है, यहां भी प्रवत्ति के बारे में संकेत है।

यहां मैं किसी लेखक विशेष की समीक्षा या आलोचना नहीं कर रहा हूं। किसी एक किताब या कहानी विशेष को लेकर कोई आग्रह-दुराग्रह भी नहीं है। यहां उसका स्‍थान और अवकाश भी नहीं। लेकिन ये रूझान यदि आप किसी लेखक से जोड़ पाते हैं तो फिर समस्‍या उस लेखक में और उसके लेखन में ही देखी जानी चाहिए।

किसी को कोसने से कुछ नहीं हो सकता, आप अपना रास्‍ता चुनिए और उस पर आगे जाइए। हर रास्‍ते पर चलने के तर्क हैं।
आपकी प्रतिबद्धताएं कहीं तो होंगी। आपका काम बताएगा। यदि वह सिर्फ भाषा का ही खेल है या कौशल दिखाने का उपक्रम है तो बतौर पाठक मैं उसका प्रशंसक नहीं हो सकता है। मैं बाद में, ऐसे लेखन और लेखक के प्रति आकर्षित भी नहीं रहूंगा। इतना विपुल साहित्‍य है कि हमें हमेशा अपने अभिरूचि से कुछ चयन करना होगा। इसमें किसी के लिए भी आशा-निराशा या उदासी की क्‍या बात है।

यहां मुख्‍य मसला इस बात का है कि शिकायत कैसी। आरोप क्‍यों। आप अपनी राह चले, खुश रहिए। जो आगे चलना चाहते हैं, उन्‍हें भी संतुष्‍ट होना चाहिए। कभी अफसोस हो तो वे पुनिर्विचार करें।

हिंदी साहित्‍य के संसार में प्रतिभाओं को, बेहतर लेखन को हमेशा ही चर्चा और प्रतिष्‍ठा मिलती रही है।
बल्कि अधिकांश को कुछ ज्‍यादा ही। वैद साहब भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनके प्रति सम्‍मान ही है। और इसमें कोई साजिश भी नहीं है।

और हां, प्रश्‍न और शंकाएं अनंत हो सकती हैं। समाधान भी खुद खोजना होंगे।

अजित वडनेरकर said...

कलावाद के पक्ष में कैसी भारी-भरकम शब्दावली!!! सहज लेखन के जरिये साहित्यिक अभिव्यक्तियों की इच्छा रखनेवाला पाठक दब कर मर न जाए तो कम से कम अपाहिच तो ज़रूर ही हो जाए।

कितना दुर्लम और महंगा हो गया है खांचों के बाहर लेखक को ढूंढना!!प्रेमचंद, नागर, अश्क, भगवती चरण वर्मा, रेणु से लेकर भीष्म साहनी और शानी तक का लेखन गवाह हैं कि सच्चा पाठक किसे मिला है और किसे मिले हैं मुट्ठीभर कलावादी समीक्षक-प्रिय मक्खनी-मखमली आलोचक जिनकी बिरादरी ही पाठक भी हैं।

किसी ज़माने में सीधे-सरल लेखन के खिलाफ एक खास जमात ने साजिश की....हां साजिश, प्रकाशकों से लेकर मीडियाघरानों तक यह खूब पनपी। हम जैसे पाठकों के भी खिलाफ थी यह साजिश, जो अपने जेब खर्च से पुस्तकें खरीद कर पढने का संस्कार पैदा किया। कला के नाम पर ऊबाऊ साहित्य पढ़ने की जगह खुद कोई अन्य शिल्प सीखा होता तो ज्यादा मनोरंजक होता वह समय व्यतीत करना जितना प्रयोग की जिद पर उतारू, कला के नीरस प्रदर्शन पर आमादा एक लेखक के गहन, कुंठित अनुभवों से गुज़रते हुए कुछ पाने या उपलब्धि की अनुभूति होना।

आज के कथा लेखकों से यही निवेदन है कि वे किसके लिए लिख रहे हैं ?

Rangnath Singh said...

रविन्द्र व्यास जी मेरे प्रश्नों का जवाब देने के बजाय मेरा जवाब देने की कोशिश की है। उनके लिखे तो ऐसा लगता है कि मैं शोशेबाजी के लिए यहाँ टिप्पणी कर रहा हूँ। खैर, अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता के सदके मैं उनकी टिप्पणी को स्वीकार करता हूँ। अभी तक दुनिया के किसी भी कोने में ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकी है कि पाठकों को ऐसा कोई प्रमाणपत्र उपलब्ध करवाया जाए कि महोदय ‘क‘ ने फलां फलां किताबें पढ़ी है। अगर ऐसा होता तो मैं अपने अध्ययन सूची का प्रमाणपत्र रविन्द्र व्यास की पास विचारार्थ भिजवा देता। अतः बिना किसी प्रमाणपत्र के भी मैं इस बहस में आगे भागीदारी कर रहा हूँ।
रविन्द्र जी ने मेरे उठाए मुद्दे को रिड्यूज करने की कोशिश की है। निश्चय ही कुमार अंबुज ने मेरी बात के एक हिस्से को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है जिस तरह मैं न कर सका। उन्होंने अपेक्षित विस्तार और गहराई से बात रखी है। मैने जिस तरफ इशारा किया है उन्होने उसे सगुण रूप से प्रस्तुत किया है। उस वक्त मुझे कत्तई उम्मीद नहीं थी कि इस ब्लाग पर मुनिश, कुमार अंबुज, अजीत जी जैसे साहसिक टिप्पणीकर्ता कमेंट करेंगे वरना मैं विस्तार और धीरता से कमंेट करता। मैं तो बस एक त्वरित हस्तक्षेप किया था। जब मैंने ऊब का जिक्र किया तब मेरा आशय उन लोगों के नजरिए की तरफ था जिन्हें वैद का लेखन उबाता है। मैंने सिर्फ अजीत जी की साफगोई को ध्यान में रखकर वह बात नहीं कही। मेरा आशय उन तमाम आलोचकों की तरफ था जो वैद जी के लेखन को खारिज करने की कोशिश करते हैं। मैने गालिब, शेक्सपीअर वगैरह का उदाहरण देते हुए अपनी बात रखी है। वैद जी को यही कहा कि उन्हे कुछ लोगों की निजी पसंद को जरूरत से ज्यादा तरजीह देने की कोई जरूरत नहीं। मैंने कहीं भी वैद जी के लेखन पर कोई वैल्यु जजमेंट नहीं दिया है। मेरी पूरी टिप्पणी में वैद जी की पक्षधारिता है। सिवाय एक मुद्दे के, वो है “छद्म आत्म-दया“ का मुद्दा।
आप ने कहा है कि वैद जी पाप्यूलर मीडिया में नहीं हैं। आप ने यहाँ भी अति-सरलीकरण से काम लिया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप वैद जी की तुलना सचिन या शाहरूख खान से करना चाहते हैं। अगर आप इस पैमाने पर देखें तो समूचा हिन्दी साहित्य ही पाप्यूलर मीडिया में नहीं है। मेरा जो संदर्भ था उसे स्पष्ट करने के लिए मैं आपके लिए वैद-सोबती संवाद के प्रकाशन के समय की पेपर कटिंग खोज कर भेज दूँगा। आप देख लीजिएगा कि उन्हें क्या जगह मिली है। आप यह भी देख लीजिएगा कि तमाम समीक्षकों ने उन्हें किन किन विशेषणों से नवाजा है। जरा बात को आगे बढानी हो तो आप देश के बड़े विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग के छात्रों से रायशुमारी कर लीजिएगा। वैद जी को बड़े लेखक के रूप में मान्यता मिली है या नहीं। उन छात्रों से बस यह न पूछिएगा कि उन्होंने वैद को पढ़ा है या नहीं ! क्योंकि तब आप को थोड़ी निराशा का सामना करना पढ़ सकता है। वैसे पढ़ा जाना बढ़े लेखक होने का पैमाना है या नहीं यह एक अलग प्रश्न है। आपकी पीढ़ी का पता नहीं लेकिन मेरी पीढ़ी कालिदास को बहुत बड़ा लेखक मानती है, पढ़ा कितनों ने है मुझे नहीं पता !!
वैद जी को समकालीन बड़े और महत्वपूर्ण लेखक के रूप में जो मान्यता मिली है उसी को ध्यान में रख कर मैंने लिखा था कि भुवनेश्वर, वेणुगोपाल जैसे उदाहरण रहते हुए वैद जी जैसे प्रसिद्ध लेखक का ‘खामोश साजिश‘ शब्द का प्रयोग अश्लील लगता है।

Rangnath Singh said...

रविन्द्र जी ने पाठकीय ऊब और सामाजिक ऊब के जुमले को उछाला है। हालाँकि उन्होंने इन शब्दों को उछाला भर है। विजय और मुनीश ने पाठकीय छूट लेते हुए वैद जी पर कुछ टिप्पणियां की हैं। मैं ऐसा नहीं करूँगा। रविन्द्र जी जानते होंगे आलोचना में रूचि रखने वालों को उबाऊ जैसा शब्द अपने शब्दकोश से निकाल देना पडता है। किसी पुष्ट अवधारणात्मक निर्णय पर पहँुचने से पहले किसी लेखक की व्यक्तिगत मेरिट पर टिप्पणी करना ठीक नहीं है। लेकिन, वैद जी के हवाले से रविन्द्र जी ने जिस तरह ऊब के दार्शनिकीकरण की कोशिश की है उस पर टिप्पणी जरूरी है। जीवन में पसरी ऊब का साहित्यिक रूपांतरण अनिवार्य रूप से उबाऊ गद्य के रूप नहीं होता। अगर ऐसा होता निर्मल वर्मा, काफ्का, कामू, सात्र को इतने पाठक न मिले होते। संत्रास, असुरक्षा, आत्म-अवमूल्यन, अध्यात्मिक संशय जैसे तमाम आस्तित्ववादी शब्दों से एक पठनीय गद्य का निर्माण कैसे होता है इसका उदाहरण देखने के लिए इन लेखकों का लेखन काफी है। अस्तित्ववाद के पितामह सोरेन किर्केगार्द के गद्य की अदभूत पठनीयता के बारे मेे रवीन्द्र जी या किसी और को बताने की जरूरत नहीं हैं। जो कत्तई साहित्य नहीं पढते वो भी एक बार शुरू करने पर इन लेखकों की आखिरी पंक्ति पढे बिना नहीं रहते। जिन फिनामइॅनन की ओड़ में खड़े होकर रविन्द्र जी ने वैद जी का बचाव किया है उनकी हकीकत जाहिर है।
रवीन्द्र जी के लिखी एक और बात पर दो बात। उनका लिखे से ऐसा लगता है जैसे नवाचार/प्रयोगधर्मिता और कलावाद दोनों समानार्थी शब्द हैं। जिस नवाचार/प्रयोगधर्मिता पर कलावादी दिन रात उछलते रहते हैं उसमें उनका क्या ऐतिहासिक योगदान रहा है ? गोर्की ने फार्म के स्तर पर जो प्रयोग किए वो किसी आस्कर वाइल्ड से कम मौलिक नहीं है। हिन्दी के संदर्भ में बात करें तो “शिल्प और कथ्य“ दोनों स्तरों पर उन लोगोे ने ज्यादा योगदान दिया है जो तथाकथित कलावादी नहीं है। समकालीन कथाकारों में कितने कलावादी कहानीकार हैं जो उदय प्रकाश की (सफल) प्रयोगधर्मिता के सामने टिक सकेंगे ? हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक कलावादी कविता में पाए जाते है। हिन्दी कविता को “शिल्प और कथ्य“ दोनों स्तरों पर मुक्तिबोध, धूमिल,नागार्जुन, त्रिलोचन, आलोक धन्वा, रघुवीर सहाय ने जो दिया है उसके तुलना में कलावादी कवियों के तथाकथित नवाचार कहीं नहीं ठहरते। जो कलावादी नहीं थे उन्होने ही कविता की नई भाषा और नया मुहावरा गढ़ा है। जिनका नए पन पर ही जोर रहता है उनके साहित्य में नया खोजने के लिए खुर्दबीन की जरूरत पड़ने लगती है। यह पूरा विषय एक निबंध के लिए भी कम है इसलिए बात को क्षिप्र संकेतो में ही छोड़ रहा हूँ।
कला और कलावाद का कोई सीधा संबंध नहीं है इस बात को ध्यान में रख कर ही बहस आगे बढे़ तो बेहतर।
रविन्द्र जी ने अब तक जो लिखा है उससे लगता है कि उनका समूचा साहित्य सिद्धांत कृष्ण बलदेव वैद के निजी विचारों से निर्मित हुआ है। रविन्द्र जी माॅडरेटर के बजाय वैद जी के वकील के रूप में नजर आ रहें हैं। मुुझे उम्मीद है रविन्द्र जी इस बात पर गौर करेंगे।
रविन्द्र जी ने जिस तरह से मेरे लिए “बाबू जी“ विशेषण का प्रयोग किया है उस पर भी ध्यान दिलाना चाहुँगा। मजाक कोई किसी का उड़ा सकता है। शुद्ध साहित्यिक भाषा में भी। हम बनारस निवासी हैं जहाँ पर तमाम तरह के भाषा संस्कार सहज रूप में मिलते हैं। तुलसी, प्रसाद और प्रेमचंद ही नहीं कबीर, भारतेंदु और धूमिल की भाषा भी शामिल है।

अजित वडनेरकर said...

रंगनाथ भाई,
आपकी टिप्पणियां अच्छी लगीं। आपका साहित्यप्रेम और अध्ययनशीलता की तारीफ करता हूं। 'बाबूजी' पर मत जाइए। रवीन्द्र भाई हमारे प्यारे मित्र हैं और ये आप भी जानते हैं कि इस किस्म की बहसों में हल्के फुल्के इस किस्म के संबोधन होते रहते हैं। हमारे कहने से इसे निकाल दें दिल से। हम सब एक बिरादरी के हैं, किसी साहित्यिक मठ के सदस्य नहीं, सो यहां तो कबाड़खानेवाली चर्चा ही समझें अलबत्ता लिखते समय थोड़ी सी जल्दबाजी-जोश-उत्तेजना अगर न रहे तो लिखित बहस का मज़ा जाता रहता है। गलतियां भी होती हैं। मेरी ही वर्तनी की कितनी ही गलतियां इन टिप्पणियों में नजर आएगी क्योंकि वे जोश और जल्दबाजी में लिखी गईं। अलबत्ता उन से मुकरने या फिरने की स्थिति नहीं है क्योंकि विवेक के साथ लिखी हैं।
शुभकामनाएं

Rangnath Singh said...

अजीत जी
किसी की बेवजह अवमानना करने की मेरी प्रवृत्ति नहीं है। हो सकता है कि रविन्द्र जी को न जानने के कारण मुझे उनके विनोद में कटुता का बोध हुआ। क्यांेकि उनकी शैली से मैं सर्वथा अपरीचित हूँ।
हिन्दी साहित्य से मेरा रोजी-रोटी का नाता नहीं है। मेरे जीवन में उसके स्रोत दूसरे हैं। मुझे कभी किसी हिन्दी विभाग में नौकरी के लिए साक्षत्कार देने नहीं जाना है इसलिए मेरे लिखे में रिवायती मुरूव्वत का थोड़ा अभाव मिलेगा। हिन्दी ब्लागिंग में मैंने अपनी जो भूमिका चुनी है आपको उसका थोड़ा परिचय हमारे ब्लाॅग से मिल गया होगा। व्यर्थ की कमेंटबाजी से अच्छा है कि मुक्तिबोध का गद्य टाइप किया जाय और पोस्ट किया जाय। कबाड़खाना तक पहुँचने की वजह भी मुक्तिबोध पर अशोक जी की टिप्पणी बनी। उनके प्रोफाइल से होते हुए मैं बलदेव वैद जी वाली पोस्ट दिखी। रूचिकर लगी तो मैने प्रतिक्रिया दी। अपनी प्रतिक्रिया में मैने अपने प्रिय कहानीकार उदय प्रकाश का भी नाम लिया है। उनका बहुत बड़ा प्रशंसक होने के बावजूद मैं उनकी बलिदानी छवि के लबादे का विरोध करता हूँ। बौद्धिक ईमानदारी से बड़ा तो कोई लेखक नहीं होता। इसी तकाजे मैंने यहाँ टिप्पणी की। रविन्द्र जी की टिप्पणी से मैं आहत हुआ इसलिए मेरी प्रतिक्रिया में भी कड़वाहट आयी होगी।
आप को शायद हास्यास्पद लगे कि मेरी निजी मानना/अवमानना नीति भारत के परमाणु नीति की कच्ची नकल है। यानि हम कभी भी परमाणु हथियारों का पहले प्रयोग नहीं करेंगे। जब भी करेंगे आत्म-रक्षार्थ करेंगे।
बड़ो की मार खाकर हम लोग गदहे से आदमी बनते है, ऐसा मेरा बाबा कहा करते थे। इसलिए किसी भी वरिष्ठ लेखक की डांट-डपट सर आँखो पर। लेकिन बड़े हमारा मजाक उड़ाए यह तो उचित नहीं।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि, कोई कैसे भूल जाए,
”विचारों की दुनिया असहमति की दुनिया है”

Rangnath Singh said...

प्रिय रवीन्द्र जी

बड़े होकर भी आप ने जितनी विन्रमता दिखाई है उसकी आधी भी मैं दिखाता तो ये बात आगे नहीं बढ़ती। सच मानिए तो अजित जी के टिप्पणी के बाद ही मैंने दूसरी संभावनाओं की तरफ ध्यान दिया। इसे तकनीकी विकास के दौर में मानविकी के अध्येताओं में पलती असुरक्षा ग्रंथि की उपज मानिए या संघर्षमय जीवन के दौरान आत्म-सुरक्षा के लिए विकसित हुए छद्म-अहंकार से भरे मन की गैर जरूरी अक्रामकता, मैंने आपके लिखे का नकारात्मक अर्थ ही निकाला। यह किसी भी तरह से शोभनीय कर्म नहीं था।
आप मेरे प्रति सहृदय हैं तो इस मामले के जरा भी आगे न बढ़ाएं। आप मुझे शर्मिंदगी से बचाना चाहें तो कबाड़खाना पर किसी तरह की कोई टिप्पणी न दें। आप का पक्ष जानने के बाद मैं इस मामले में खुद को ज्यादा दोषी देख रहा हूँ।
खैर, थोड़े अटपटे तरीके से ही सही मेरा इस सुंदर ब्लाॅग से परिचय तो हुआ।
rangnathsingh@gmail.com
09999891854

ravindra vyas said...

मुझे आने में देरी हुई। कल हबीब तनवीर साहब की तबियत फिर बिगड़ गई थी। उन पर एक लंबा लेख लिखने में व्यस्त हो गया और फिर दूसरे अखबारी कामकाज में । आज बारह बजे बाद टिप्पणी करने कबाड़खाना पर आया तो प्रिय रंगनाथ की टिप्पणी देखी।
प्रिय रंगनाथ, मैं मामले को आगे नहीं बढाऊंगा। यह आपकी संवेदनशीलता है। यह मेरे मन को छू गई है। मैं अजितजी के प्रति भी आभारी हूं कि उन्होंने मुझे समझने की कोशिश की।
बस इच्छा यही थी कि इस बहस के बहाने वैद साहब पर कोई बातचीत हो सके।
कबाड़खाना पर यह एक बहुत अच्छी बहस थी और प्रिय रंगनाथ सचमुच आपमें कड़वाहट नहीं थी। लोग तो इतने खराब तरीके से तरीके से ट्पिपणी करते हैं कि पूछिए मत। आपकी टिप्पणियां बताती हैं कि आप कितने अध्ययनशील हैं।
सचमुच यह एक सुंदर ब्लॉग है। यह बहस उसकी एक छोटी सी गवाह है।
शुभकामनाएं।

गिरिराज किराडू/Giriraj Kiradoo said...

रंगनाथ ने और रवीन्द्रजी ने जिस प्रेरक ढंग से बहस का समापन (?) किया है वह बहुत विरल हो चला है. यह भी कम विरल नहीं है कि बहस हुई.

Rangnath Singh said...

रविन्द्र जी
आप चाहते हैं कि वैद जी के साहित्य पर बहस हो। आप का ऐसा चाहना हिन्दी जगत के हित में ही है। अगर ऐसी बहस होती है तो इसका सवार्धिक लाभ हम जैसे नवयुवकों को ही मिलेगा। व्यक्तिगत तौर पर मेरी बात करें तो मैंने वैद जी के साहित्य पर कोई वैल्यु-जजमेंट इसलिए नहीं दिया क्योकि मैनं उनकी सिर्फ दो किताबें पढ़ी हैं। बिमल उर्फ .... ओर एक नौकरानी ......, वैद-सोबती संवाद का कुछ हिस्सा पढ़ा है। किसी को मुक्कम्मल पढ़ कर ही टिप्पणी देने के आग्रह मेरे अंदर नहीं है। लेकिन किसी लेखक की मेरिट पर कुछ कहने से पहले उसका प्रतिनिधी लेखन या पर्याप्त बडा हिस्सा पढ़ना तो अनिवार््य है। दूसरी बात यह कि किसी किताब को पाठक की तरह पढ़ना और आलोचक की तरह पढ़ने में भी फर्क है। यह फर्क गुनते-बुनते हुए पढ़ने में और मनोरंजन-ज्ञानरंजन के लिए साहित्य बाँचने के बीच का फर्क है। मैंने इन किताबों को इसलिए पढ गया था क्योकि ये मझे मिल गई थीं। इन किताबों के गुण-दोष की विवेचना को ध्यान में रख के किए गए पाठ के बाद ही मेरे लिए कुछ भी कहना संभव हो पाएगा। इसीलिए अपनी पहली टिप्पणी में मैने भरसक प्रयास किया था कि किसी भी तरह वैद के लेखन पर टिप्पणी करने से बचुँ। इस बात को आप ने भी रेखाकिंत किया था।
मुझे वैद के लेखन को लेकर कोई वैचारिक टिप्पणी करनी ही हो तो मैं वैद, निर्मल जैसे उन तमाम लेखकों की उस असितत्ववादी प्रवृत्ति की बात करना चाहुँगा जिसके दबाव में इन लेखकों ने हिन्दी को अभिव्यक्ति को माध्यम चुना। भाषा और अस्तित्व के बीच के गुणात्मक संबधों और इन लेखकों के विकास में इस द्वैत के तनाव के प्रभाव का विश्लेषण करना चाहुँगा।
आप लोग किसी भी साहित्यिक महत्व की बहस को चलाएं तो हम जैसे नए लोग उस बहस में हुँकारी भरने, जिज्ञासा रखने और प्रश्न पूछने की भूमिका का निर्वाह करते हुए उस बहस की आँच बनाए रखने की पूरी कोशिश करेंगे।
शुभकामनाओं सहित

Rangnath Singh said...
This comment has been removed by the author.
Rangnath Singh said...
This comment has been removed by the author.
अजित वडनेरकर said...

मधुरैण समापयेत :)

मुनीश ( munish ) said...

Not at all Ajit ji , i think this is the starting point of many more enlightening literary discussions waiting to happen here in future.

अजित वडनेरकर said...

मुनीश भाई,
इस मीठेपन का प्रमाणपत्र तो सिर्फ इस पोस्ट और रंगनाथ भाई के शंका-समाधान के लिए था। बहसें जारी रहेंगी...हम तो जमे हुए हैं। कमबख्त फुर्सत नहीं मिल रही वर्ना फिदा हुसैन साहब के बेहतरीन संस्मरण कीइन हुए पड़े हैं, बस पोस्टिंग बाकी है। अब शब्दों का सफर भी तो जारी रखना होता है। वो सिर्फ हमारी जिम्मेदारी है...:)

ravindra vyas said...

ये कमेंट युवा कवि-अनुवादक सुशोभित ने भेजा है। मैं इसे यहां दे रहा हूं क्योंकि सुशोभित के पास कमेंट करने की सुविधा नहीं है।


अंबुजजी के परोक्ष ऐतराज़ पर एक छोटी-सी प्रतिक्रिया:

सबसे पहले तो लेखकों के बीच कलावाद और प्रगतिशीलता का विभाजन ही मुझे ख़ासा अजीब लगता है. मेरे लेखे कोई भी राइटर न पूरी तरह कलावादी हो सकता है, न वो रचना में पूरी तरह शिल्‍प और कलापक्ष की उपेक्षा ही कर सकता है. लिटररी लैंग्‍वेज आमफ़हम ज़बानों से अलग हुए करती है- स्‍टायलिस्टिकों और रूसी रूपवादियों ने जब ये कहा था, उसे भी अब अरसा हो चुका है. जिन लेखकों पर कलावादी होने के आरोप लगाए जाते रहे हैं, वे तुलनात्‍मक रूप से अधिक शिल्‍प-सजग कहे जा सकते हैं, लेकिन शिल्‍प-एकाग्र तो उनमें से कोई नहीं है. नॉवल में केवल शिल्‍प ही शिल्‍प हो, ऐसा प्रयोग हिंदी में तो इधर अभी तक देखने में नहीं आया है. अंबुजजी ने उल्‍लेखनीय लेखकों की अपनी सूची में निर्मल वर्मा का नाम गोल कर दिया है, उस पर भी कोई ऐतराज़ नहीं. निर्मल वर्मा में केवल शिल्‍प है, या शैथिल्‍य है, ये निहायत एकांगी आरोप कहे जाएंगे. उनमें मानवीय संबंधों की गहरी पड़ताल भी है, इंसान के आस्तित्विक संकट की तीक्ष्‍ण संचेतना और उसके अध्‍यात्‍म (इस लफ़्ज़ के रूढ़ अर्थों में नहीं) से जुड़े गहरे प्रश्‍न हैं, तो प्रत्‍यक्ष ऐंद्रिक बोध के स्‍तर पर यथार्थ का एक आभ्‍यांतरिक स्‍तर पर अधिग्रहण भी. दिलचस्‍प ये है कि फणीश्‍वरनाथ रेणु का नाम अंबुजजी ने अपनी सूची में शामिल किया है. क्‍या अंबुजजी को ये अंदाज़ा है कि रेणु को प्रगतिशीलों ने जीवनदर्शनहीन, अपदार्थवान और सौंदर्यवादी-रागवादी कहकर कितना लांछित किया है? रेणु वर्सेस प्रेमचंद और रेणु वर्सेस नागार्जुन के पॉलिमिकल प्रसंग भी क्‍या उन्‍हें वाक़ई याद नहीं? रेणु जैसी आंचलिक संवेदना और उनके जैसा शिल्‍प सौष्‍ठव हिंदी में कितना दुर्लभ है, और हमारे लिए वो कितना मूल्‍यवान है, इसका हिसाब क्‍या हमें लाकर देगा? क्‍या कोई भी अदबी नक्‍़क़ाद किसी रचना के बीचोबीच एक आभासी रेखा खेंचकर ये बता सकता है कि वो किस सीमा तक सौष्‍ठववादी थी और किस सीमा के बाद उसमें रेडिकल या इंक़लाबी चीज़ें आना शुरू हो गई हैं, जिससे ख़ून में हरकत या गतिशीलता के शगूफ़े छोड़ें जा सकें, और आग्रहों का अहाता खेंचा जा सके?

मुनीश ( munish ) said...

Feeling nostalgic about this discussion . Can we resume it once more perhaps........!