Sunday, July 27, 2008

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

(कोई छह साल पहले लखनऊ के अख़बार अमृत प्रभात के साप्ताहिक संस्करण में अदम गोंडवी उर्फ़ रामनाथ सिंह की एक बहुत लम्बी कविता छपी थी : ``मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको´´। उस कविता की पहली पंक्ति भी यही थी। एक सच्ची घटना पर आधारित यह कविता जमींदारी उत्पीड़न और आतंक की एक भीषण तस्वीर बनाती थी और उसमें बलात्कार की शिकार हरिजन युवती को `नई मोनालिसा´ कहा गया था। एक रचनात्मक गुस्से और आवेग से भरी इस कविता को पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहे हों। कहानी में पद्य या कविता अकसर मिलती है - और अकसर वही कहानियां प्रभावशाली कही जाती रही हैं जिनमें कविता की सी सघनता हो - लेकिन कविता में एक सीधी-सच्ची गैरआधुनिकतावादी ढंग की कहानी शायद पहली बार इस तरह प्रकट हुई थी। यह अदम की पहली प्रकाशित कविता थी। अदम के कस्बे गोंडा में जबरदस्त खलबली हुई और जमींदार और स्थानीय हुक्मरान बौखलाकर अदम को सबक सिखाने की तजवीव करने लगे - मंगलेश डबराल, १९८८- "धरती की सतह पर " की भूमिका से )



आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेिड़या है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहे्रगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हां मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं ´´
यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े ``इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा ``साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें´´
बोला थानेदार ``मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है´´

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल ´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में
गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

15 comments:

Satish Saxena said...

कहते हैं हमारे देश की आत्मा गाँवों में बसती है, हमारे गांव ही हमारी संस्कृति का प्रतीक हैं ! मगर अशिक्षा के कारण आज भी हमारे अधिकतर गाँवों की हालत ऐसी ही है, और भावनाओं की तो कीमत ही नही है ! पैसा और ताकत के दंभ में, मासूम भावनाओं को निर्दयता के साथ कुचल देने की प्रवृति, उनके परिवार में सिर्फ़ राक्षसी भावनाओं को ही जन्म दे रही है ! ये तथाकथित शक्तियां इस कृत्य को करते समय यह नही सोचतीं कि उनके परिवार में ठीक उसी तरह मासूम व् निर्मल मन के छोटे बच्चे हैं, वह इस समाज में अपने पूर्वजों की कौन सी गाथा सुनायेंगे ! मेरा यह मानना है कि ये बच्चे अपने पूर्वजों से सिर्फ़ नफरत करेंगे और शायद उनका नाम लेना तक पसंद न करें !
आप अच्छा कार्य कर रहे हैं, बधाई ! वह दिन अवश्य आएगा, आवश्यकता है सिर्फ़ हम सबके प्रयत्न करने की !

कामोद Kaamod said...

बहुत बड़िया.
मंगलेश जी को पढाने के लिए धन्यवाद

वर्षा said...

कड़वा सच

Ashok Pande said...

अदम गोंडवी की यह लम्बी कविता यहां लगाने का बहुत बहुत आभार शिरीष. कविता का यह बेबाक तेवर और कथ्य में ऐसा साहस - बहुत दुर्लभ.

क़रीब पन्द्रह साल पहले गोंडवी साहब से नैनीताल में मुलाकात की यादें ताज़ा करा दीं भाई. बाबरी मस्जिद तोड़ी जा चुकी थी और शैले हॉल में प्लेन्स से आया, टखनों तक उठी धोती पहने, छरहरी काया का स्वामी यह कवि माइक पर कह रहा था:

ग़लतियां बाबर ने कीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले ...

बढ़िया संग्रहणीय पोस्ट.

महेन said...

शिरिष जी, यह अदम जी से साक्षात्कार का दूसरा मौका है। इस तरह की कविताएँ भी लिखी जा रही हैं इसका कोई अंदेशा नहीं था मुझे। इसको पढ़कर सहज ही "रामदास उदास था" कविता की भी याद आ गई। शुक्रिया गोंडवी साहब को पढ़वाने के लिये।
शुभम।

siddheshwar singh said...

क्या कहूं शिरीष
बीस से आगे जो होता हो वही समझ लें -
इक्कीस,बाईस...
बहुत ही बढ़िया !!!!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

आज कृष्ना जिस्म बेच रही है तो कविता लिखी और पढ़ी जा रही है। फूलन ने बंदूक उठा लिया तो नया इतिहास लिख दिया। फिल्म बन गयी। सवाल है कि वह जहरीली मानसिकता कैसे नष्ट हो जहाँ ऐसे अपराध अंकुरित होते हैं।

नीरज गोस्वामी said...

ऐसी तल्ख़ लेकिन सच बयानी के लिए अदम साहेब को बारम्बार सलाम.....
नीरज

sanjay patel said...

शिरीष भाई,
कहाँ कुछ बदला है इस देश में अब भी.
दमन,शोषण,अत्याचार के चित्र वहीं के
वहीं हैं... प्रेमचंद और अदम साहब जैसे
नेक इंसान लोगों ने जिस तरह से अपना
फ़र्ज़ निभाया है वैसा क्या कोई निभा सकेगा क्या.नेता,राजनेता, सरकारें,पंचायते,स्वयंसेवी संगठन....सब एक ढकोसला सा रचते नज़र आते हैं.....आँखें भीगा देने वाली रचना है.अदम साहब के क़लम को सलाम.

वीरेन डंगवाल said...

zakhm purane yaad aaye.

वीरेन डंगवाल said...

zakhm purane yaad aaye.

स्वप्नदर्शी said...

kavitaa post karane ke liye dhanyvaad, bahut kam kavitaaye is quvvat kee hai, ki dil-dimaag jhanjhanaa jaataa hai. Ye bhee nahee kahaa jaataa ki kavitaa achchi hai.....

Sajeev said...

उफ़ कितना कड़वा सत्य, ऐसी कवितायें अधिक से अधिक जन तक पहुंचनी चाहिए....आपका आभार इस यहाँ प्रस्तुत करने के लिए.....

Satyendra PS said...

bahut behtareen kavita parhwai aapne.

Unknown said...

jumman ja ghar phir kyun jale-----is per yugmanch walon ne kores banaya tha sayad..