Tuesday, October 21, 2008

अधपके भारतीय की आत्मकथा: 'द व्हाइट टाइगर' का एक अंश

हमारे कबाड़ी भाई अनिल यादव ने कल रात 'द व्हाइट टाइगर' नाम की इस किताब के एक हिस्से का अनुवाद भेजा है. यह अनुवाद उन्हें हमारी एक कबाड़िन दीपा पाठक ने एक पत्रिका हेतु प्रेषित किया था. यानी अनुवाद दीपा का है. दीगर है कि अरविन्द अडिगा (किंवा अदिगा) को इस किताब के लिए इस साल का बुकर दिया गया है.



एक दिन जब मैं अपने पूर्व मालिक मिस्टर अशोक और पिंकी मैडम को उनकी होंडा सिटी में घुमा रहा था तो मिस्टर अशोक ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, जरा गाड़ी को किनारे पर रोक लो। यह कहते हुए वह आगे झुकते हुए मेरे इतने नजदीक आ गए कि मैं उनके आफ्टरशेव की खुशबू सूंघ सकता था- वह फलों की जैसी बहुत अच्छी खुशबू थी। उन्होंने हमेशा की तरह ही मुझसे प्यार से कहा, बलराम, मैं तुमसे कुछ सवाल करना चाहता हूं, ठीक है?

जी, सर, मैंने कहा।

बलराम, मिस्टर अशोक ने पूछा, आसमान में कितने ग्रह हैं?

इसका जितना अच्छा से अच्छा जवाब मैं दे सकता था मैंने दिया।

बलराम, भारत का पहला प्रधानमंत्री कौन था?

और फिर, बलराम, हिंदु और मुसलमान में क्या अंतर है?

उसके बाद, हमारे महाद्वीप का नाम क्या है?

मिस्टर अशोक पीछे की ओर झुके और पिंकी मैडम से पूछा, तुमने सुने इसके जवाब?

क्या वह मजाक कर रहा था, उन्होंने पूछा और मेरी धङकने बढ गई जो कि हमेशा बढ जाती थीं जब भी वह कुछ बोलती।
नहीं, उसने वही कहा जो उसे लगता है कि सही जवाब हैं।

यह सुन कर पिंकी मैडम हंसने लगी, लेकिन मैंने रियरव्यू में देखा कि मिस्टर अशोक का चेहरा बिल्कुल संजीदा था।
दरअसल बात यह है कि यह शायद.. दो या तीन साल ही स्कूल गया होगा। यह पढ और लिख सकता है लेकिन वह जो पढता है उसे समझता नहीं। यह आधा पका हुआ है। मैं कह सकता हूं कि यह देश इस तरह के अधपके लोगों से भरा हुआ है. और हमने अपने गौरवशाली संसदीय लोकतंत्र को, उन्होंने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा, ऐसे लोगों के भरोसे छोङा हुआ है। हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है। उन्होंने ठंडी आह भरी।

ठीक है बलराम, गाड़ी स्टार्ट करो।

उस रात, मैं मच्छरदानी के अंदर घुस कर अपने बिस्तर पर लेटा उनकी कही बात के बारे में सोच रहा था। उन्होंने ठीक कहा, सर। हालांकि उन्होंने मेरे बारे में जिस तरह से बोला वो मुझे अच्छा नहीं लगा लेकिन उनकी बात सही थी। "एक अधपके भारतीय की आत्मकथा", मुझे अपनी जिंदगी की कहानी को यही नाम देना चाहिए। मैं, और देश में मेरे जैसे हजारों और लोग अधपके इंसान हैं, क्योंकि हमें हमारी स्कूल की पढाई पूरी नहीं करने दी गई। हमारी खोपड़ी को खोल कर पेनलाइट जला कर देखा जाए तो तुम्हें वहां विचारों का एक अजीबोगरीब अजायबघर मिलेगा। इतिहास से जुङे कुछ वाक्य, स्कूल की पाठ्य पुस्तक से याद की हुई गणित (यह बात मैं दावे से कह सकता हूं कि स्कूल को उस बच्चे से ज्यादा अच्छी तरह से कोई याद नहीं रख सकता, जिसे पढाई पूरी होने से पहले ही स्कूल छो्ड़ना पङा हो), किसी के आफिस आने के इंतजार के दौरान अखबार में राजनीति के बारे में पढे हुए कुछ वाक्य, रेखागणित की पुरानी पाठ्य पुस्तक के फटे पन्नों पर, जिन्हें देश भर की चाय की दुकानों में नाश्ते का सामान लपेटने में इस्तेमाल होता है, देखे त्रिकोण और पिरेमिड, आल इंडिया रेडियो के समाचारों का कुछ हिस्सा, चीजें जो छत से टपकी छिपकली की तरह सोने से आधे घंटे पहले दिमाग में गिरती है-- ये सब, आधी बनी हुई, आधीसमझी हुई आधी सही बातें दिमाग के ऐसे ही दूसरे आधे-अधूरे विचारों के साथ मिलती हैं। और मुझे लगता है कि ये आधे बने हुए विचार एक-दूसरे से जुङ कर और अधपके विचारों को पैदा करते हैं और यही तुम्हारे विचार बनते हैं जिन पर तुम अमल करते हो, जिनके साथ तुम जीते हो। मेरे बड़े होने की कहानी बताती है कि एक अधपका आदमी कैसे तैयार होता है।

लेकिन माननीय, मेरी बात पर गौर कीजिएगा! एक पूरी तरह से बना हुआ आदमी १२ साल की स्कूली पढाई और तीन साल विश्वविद्यालय में बिताने के बाद बढिया सूट पहनता है, कंपनियों में नौकरी करता है और अपनी बाकी की पूरी जिंदगी
दूसरों से आदेश लेते हुए बिताता है।

उद्यमी आधी पकी हुई मिट्टी से बनते हैं।

(*कुछ ग़लतफ़हमी के कारण अब तक यह पोस्ट ठीक नहीं थी. अब दुरुस्त कर दी गई है. अनिल और दीपा से माफ़ी!)

19 comments:

दीपक said...

क्या सही बात कही आपने !!मै भी कंपनी मे नौकरी करता हुँ और कुछ के आदेश लेता हुँ और ्कुछ को आदेश देता हुँ !!

Unknown said...

ध्यानदें.............................

गलतफहमी।...गलतफहमी।।.....गलतफहमी।।।

यह अनुवाद कबाड़खाने की महत्वपूर्ण सदस्य दीपा पाठक ने किया है। मैने सिर्फ महामहिम अशोक को मेल के जरिए भेजा था और यह गलतफहमी के कारण मेरे नाम से चेंपायमान हो गया। परिश्रम और विजन दीपा का, क्रेडिट खामखां मुझे मिला जा रहा है। मैने तो यह किताब तक नहीं देखी है अब तक।

जब तक इसे ठीक नहीं किया जा रहा है, इसे दीपा पाठक के अनुवाद के रूप में ही पढ़ें।

Ashok Pande said...

ठीक कर दिया भाई! सॉरी!

अजित वडनेरकर said...

कोई मुझे बताए कि अरविंद अडिगा को एक लेखक के रूप में आप लोग एक पका हुआ भारतीय मानते हैं या नहीं ....

شہروز said...

kya andaaz hai janab!

maare gaye gulfaam!

एस. बी. सिंह said...

इब्ने इंशा ने अपनी 'उर्दू की आखिरी किताब' में अकबर पर एक पाठ दिया है जो कुछ एसा ही है -
'अकबर अनपढ़ था और उसके नवरत्न पढ़े लिखे थे। तभी से यह रवायत चली आ रही है की जो अनपढ़ होते हैं वो राजा होते हैं और पढ़े लिखे उनके नौकर । खैर यह तो व्यंग था। आप में से किसी ने अगर 'द ह्वाईट टाइगर' पढ़ी हो तो किताब के बारे में अपनी राय दीजिएगा। इधर हाल की बुकर पुरस्कार वाली किताबों ने तो कुछ हद तक निराश ही किया है।

Unknown said...

श्रीलाल शुक्ल की "राग दरबारी" पढ़ लेने के बाद अडिगा का उपन्यास अंश ही "अधपका" लगता है॰ अडिगा अधपकेपन को तौलने के लिये, पढ़ाई लिखाई के उन्हीं बट्टों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन्हें वह सड़ियल बताते हैं॰

स्वप्नदर्शी said...
This comment has been removed by the author.
स्वप्नदर्शी said...

In my opinion, this an excellent book. These are the comments posted by one of the reader about this book, my opinion is more or less same about this book, except that the story is in many layers and demands serious readership. To capture a single moment in ourlife time is actually capuring a collage of many things/many lives yet we can interchange the characters without much difficulty.


Here is the comment, which does just to this book.




"Aravind Adiga takes on some hefty issues: the unhappy division of haves and have-nots, the cultural imperialism of the First World, the powder-kegged anger that seethes among the world's dispossessed, and entrapment. But his skills as an author protect the novel from becoming one of those horrible didactic stories in which characters and plot are little more than mouthpieces and vehicle for delivering Great Truths. The White Tiger entertains and gives pause for thought. This is a good combination.

The plot centers around Balram Halwai, a laborer born and raised in a small village utterly controlled by crooked and feudally powerful landlords. The village is located in 'the Darkness,' a particularly backward region of India. Balram is eventually taken to Delhi as a driver for one of the landlord's westernized sons, Ashok. It's in Delhi that Balram comes to the realization that there's a new caste system at work in both India and the world, and it has only two groups: those who are eaten, and those who eat, prey and predators. Balram decides he wants to be an eater, someone with a big belly, and the novel tracks the way in which this ambition plays out.

A key metaphor in the novel is the rooster coop. Balram recognizes that those who are eaten are trapped inside a small and closed cage--the rooster coop--that limits their opportunities. Even worse, they begin to internalize the limitations and indignities of the coop, so that after awhile they're unable to imagine they deserve any other world than the cramped one in which they exist. Balram's dream is to break free of his coop, to shed his feathers and become what for him is a symbol of individualism, power, and freedom: a white tiger. But as he discovers, white tigers have their own cages, too.

Of course, it's not simply the Balram's of the world caught in the rooster coop. Adiga's point seems to be that even the world's most privileged suffer from a cultural and class myopia that limits perspective and distorts self-understanding. The White Tiger is a good tonic with which to clear one's vision and spread one's wings".

siddheshwar singh said...

कुछ भी हो अब तो यह किताब खोजकर पढ़्नी ही होगी.
अनुवाद के लिए दीपा पाठक को बधाई!

RDS said...

बहुत बहुत शुक्रिया !! अरविंद अदिगा ने किताब अंग्रेजी में जिस बढिया अंदाज़ में लिखी कमोबेश उसी अंदाज़ को हिन्दुस्तानी पाठक इस अनुवाद में महसूस कर सकेंगे !! दीपा जी को साधुवाद और धन्यवाद तो आपका भी कि हमें इस अनुवाद का इतनी जल्दी पता लग गया कि उम्मीद भी नहीं थी | मैंने आपकी मेहनत के एक अंश को वेब दुनिया क्वेस्ट पर इस्तेमाल कर लिया है ! कोई ऐतराज़ तो नहीं ?

दीपा पाठक said...

अरविंद अदिगा की किताब पर अब तक अधिकांश टिप्पणिया नकारात्मक दिखाई दे रही हैं जो थोङा सा आश्चर्य की बात है। मुझे लगता है कि जहां किसी किताब को कोई पुरस्कार वगैरह मिला नहीं कि भाई लोग लाव-लश्कर ले कर चढाई बोल देते हैं लेखक पर। ज्यादातर को कोफ्त इस बात की है कि बुकर अमिताव घोष को उनकी किताब सी आफ पोपीज के लिए क्यों नहीं दिया गया। मैंने घोष की यह किताब भी बुकर के लिए नामित होने से पहले ही पढी थी व्हाइट टाइगर की तरह, और व्यक्तिगत रूप से मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि अदिगा की किताब घोष के मुकाबले १९ नहीं बल्कि १६-१७ के आसपास कहीं बैठती है। लेकिन एक बहुत अच्छी चीज के मुकाबले दूसरी अच्छी चीज को खारिज करना न्याय की बात नहीं है बंधुओ। मेरी राय है कि आप लोग पहले किताब पढिए उसके बाद उसकी बखिया उधेङेंगे तो आनंद ज्यादा आएगा। स्वप्नदर्शी ने बिल्कुल ठीक कहा कि किताब गंभीरता से पढे जाने की दरकार करती है।

Bhavesh Pandey said...

baat to balraam ki bhi sahi hai...
maine kitaab nahi padhi hai par deepa ji ka shukriya is post ke liye jiske dwara mujhe ye ansh padne ko mila...
koshish karunga ki company ke aadesho se kuch fursat mile to jaldi se jaldi is kitaab ko padh saku...

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

Mere pyare Geet ne ye kitaab 1 maah ya 2 maah pahale padh lee thee. ussae baat karo!

स्वप्नदर्शी said...

Did you guys took permission from write or the publisher to do translation in hindi????

ye fir sabkaa maal apanaa!!!!

Ashok Pande said...

No we didn't and we don't even intend to!

Dear Swapndarshi, kindly notice the snub in the tone of your comment. Whatever you wish to prove is beyond my comprehension.

I utterly dislike and disapprove of the acidity and language of your tone.

Thanks though!

स्वप्नदर्शी said...

Dear Ashok,

I have been talking to a publisher recently, and teaching some aspect of copyright as well. I think the dilemma is about how do we honor intellectual property?

And to some extent tranlations without permission will infringe on the right of writers and publishers. I know its not an immediate issue in india in terms of legal inforcement but its a moral question.

I did not mean to be acidic, I am sorry if you got some ideas about my tone. But If possible think on wider plane.

Ashok Pande said...

As a working fulltime translator and yet-to-make-a-million writer, I understand everything that you say Dear Swapndarshi!

I am only adverising this book here and getting no commercial profit out of it! This is allowed in the Indian Copyright act. That's how I got the strength to publish so much of music here.

Adiga would get his money from each copy that this blog's readers buy.

I am not concerned if I get jailed.

And thanks for reminding me about wider planes, where I fear to tread!

Thanks for replying!

vipin dev tyagi said...

great,...Ashok sir, i respect and like your conviction,stand and to clear on what to do and how to do..looking forward to read white tiger from your bookshelf,if possible..
vipin