Sunday, October 26, 2008

और रेहड़ घाटी में उतर चुके हैं

हेरमान हेस्से की कविताएँ जबसे हाथ लगीं हैं तबसे छुटपुट अंतराल में उन्ही में उलझा हुआ हूँ और गोते लगाने की प्रक्रिया से बाहर निकलना मुझे फ़िलहाल संभव नहीं दीख रहा। हेस्से की तीन कविताएँ पहले अनुवाद की थीं और कल दो कविताएँ और अनुवाद कर डालीं। 1914-15 में लिखीं ये दो कविताएँ युद्ध से बाहर निकलने की छटपटाहट को ज़ाहिर करती हैं:


पतझड़

सीमांत चुप हो जाता है कुछ देर के लिये
पहाड़ नीले हो उठते हैं
और चमकने लगते हैं नवंबर की सीली हवा में
सफ़ेद गहनों की तरह
नंगी चोटियाँ खड़ी रहती हैं
वैसे ही जैसे मैं उन्हें
हर्ष से देखता था अच्छे दिनों में
और उनके नीचे अभी ताजी बर्फ़ पड़ी ही थी
दूर तक कोई आदमी नहीं
और रेहड़ घाटी में उतर चुके हैं
खाली पड़े चारागाह जकड़े हैं अनाभूषित सर्दी में

शांत दृष्टि से सुस्ताते हुए ठंड में
मैं आंकता हूँ दूरी और देखता हूँ शाम का नीलापन
पहाड़ के पीछे निकले पहले तारे को भांपता हूँ
और सूँघता हूँ नज़दीक आते हुए पाले और ओस को
शाम की कंपकंपी के बीच लौट आती है याद
और पीड़ा और क्रोध और विलाप
आह! मेरा भ्रमण सुख

और फिर मेरा ध्यान डगमगाते हुए
जा पहुँचता है दूर चल रहे संघर्ष तक
निगलते हुए गैंग्रीन, युद्ध की दुर्गंध
कांपते हुए हज़ारों ज़ख़्मियों, मरने वालों और बीमारों के पास
और मैं ढूँढता हूँ अनिश्चित भावनाओं के बीच
प्यारे भाईयों को युद्ध के धमाकों और मारकाट में
और माँओं के हाथों में झूलते बच्चों की तरह
अपनी पितृभूमि के लिये दर्द से भरा हुआ और कृतज्ञ


बच्चों से

तुम्हें समय के बारे में कुछ पता नहीं
तुम जानते हो सिर्फ़ इतना कि दूर कहीं
एक युद्ध लड़ा जा रहा है
तुम ढालते हो लकड़ी को तलवारों में, ढालों और बरछियों में
और मस्ती में खेलते हो बगीचे में अपना खेल
तानते हो तंबू
सफेद पट्टियों पर लाल क्रास लगाते हो
अगर मेरी प्रार्थना में कोई शक्ति है
तो युद्ध तुम्हारे लिये
सिर्फ़ धुंधली गाथा ही रहेगा
और कभी नहीं मरोगे
और आग में झुलसते-ढहते घरों से नहीं भागना पड़ेगा तुम्हें बदहवास

तो भी एक दिन तुम योद्धा बनोगे
और एक दिन जानोगे
कि इस जीवन की मीठी सांस
कि धड़कते दिल का अमूल्य अधिकार
सिर्फ़ एक ॠण है और
तुम्हारे खून में बह रहा है
अतीत और विरासत जिसके लिये तुमने इंतज़ार किया
और दूर खड़ा भविष्य
और तुम्हारे जिस्म के एक-एक बाल के लिये
एक संघर्ष, एक पीड़ा, एक मृत्यु झेली गई

और तुम्हें जानना चाहिये कि भले आदमी की आत्मा भी
एक योद्धा होती है
जबकि उसने कभी उठाए नहीं होते हथियार
कि हर दिन दुश्मन
कि हर दिन संघर्ष और किस्मत करते हैं इंतज़ार
यह मत भूलना
तुम्हारा भविष्य जिसपर बन रहा है
उस खून, उस लड़ाई, विनाश के बारे में सोचना
और कैसे मृत्यु और बलिदान पर
छोटा सा सुख अपने को और भी परिष्कृत करता है

तब धधकेगा जीवन तुम्हारे भीतर
और तुम मृत्यु को भी अपनी बाहों में ले लोगे एक दिन।

9 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

एक बार फिर शानदार काम महेन !

Ek ziddi dhun said...

`और तुम्हें जानना चाहिये कि भले आदमी की आत्मा भी
एक योद्धा होती है
जबकि उसने कभी उठाए नहीं होते हथियार...`

अमिताभ मीत said...

बहुत बढ़िया महेन भाई. कमाल कर रहे हैं आप .... जारी रखें ....

एस. बी. सिंह said...

और तुम्हारे जिस्म के एक-एक बाल के लिये
एक संघर्ष, एक पीड़ा, एक मृत्यु झेली गई।

बहुत शानदार। बधाई

Unknown said...

यही जीवन है। यही है, यही है इसका रंग रूप। दिल से किया आवेशमय अनुवाद।

vipin dev tyagi said...

मार्मिक..श्वेत..दर्द पीड़ा..टीस...सब कुछ
बहुत अच्छा

कुन्नू सिंह said...

दिपावली की शूभकामनाऎं!!


शूभ दिपावली!!


- कुन्नू सिंह

ravindra vyas said...

यह सिर्फ अच्छा अनुवाद ही नहीं बल्कि कविताअों के इस चयन में वह निगाह भी सक्रिय है जो जीवन से अगाध प्रेम करना जानती है।

दीपक said...

अत्यंत सुंदर कविता !!आनन्ददायक !!