Saturday, October 4, 2008

'सुनहरे वरक़' का एक वरक़ : 'टुक पांव की झांझर से ...'

आज से काफी साल पहले जब हमारे घरों में टीवी का एक ही चैनल हुआ करता था जिसे हम लोग प्यार से 'जनता चैनल' या डीडी - वन ( दूरदर्शन ) कहा करते थे तब ऐसे कई कार्यक्रम आया करते थे जिनको देखना रोजमर्रा का एक जरूरी काम हुआ करता था. तब धारावाहिक लगभग नए - नए ही शुरू हुए थे और अपनी उनमें कोई खास रुचि भी नहीं थी. 'साप्ताहिकी' , 'चित्रहार' , 'वर्ल्ड दिस वीक' आदि के अलावा एक ऐसा कार्यक्रम जिसे बिला नागा देखने की आदत पड़ गई थी , वह था - 'सुनहरे वरक़' - यह हिन्दी - उर्दू के कवियों - शायरों के जीवन प्रसंगों व रचनाकर्म पर आधारित एक ऐसा कार्यक्रम था जो साहित्य -संगीत - कला की प्यास को शमित भी करता था और जाग्रत भी. इसका शीर्षक गीत - ' ये शायरों के नग्मे कवियों की कल्पनायें' निदा फाजली साहब ने लिखा था और पंकज उधास ने गाया था. आजकल जब कि मैं अपने संगीत के संग्रह को एक बार फिर सहेजने में लगा हूं तब 'सुनहरे वरक़' का पहला खंड मिला है. इसी में संकलित है 'बाबा- ए -उर्दू शायरी' कहे जाने वाले दक्षिण देशीय उर्दू / रेख्ता काव्य के जगमगाते सितारे वली दकनी ( १६६८ - १७४४ )जिन्हें वली 'गुजराती' भी कहा जाता है, का कलाम जिसको राजकुमार रिजवी ने स्वर दिया है और संगीत से संवारा है खय्याम साहब ने. तो अब देर नही करते हैं और सुनते हैं उर्दू कविता के आरंभिक मुहाविरे का मुजाहिरा करती यह गजल -

मत गुस्से के शोले से टुक दिल को जलाती जा .
टुक मेह्र के पानी से तू आग बुझाती जा.

इस रात अंधेरी में मत भूल पड़ूं तुझ सूं ,
टुक पांव की झांझर से झनकार सुनाती जा .

तुझ चाल की कीमत से दिल नईं है मेरा वाकिफ़,
ऐ मांग भरी चंचल टुक भाव दिखाती जा.

तुझ बुत की परस्तिश में गई उम्र मेरी सारी ,
ऐ बुत की पुजनहारी इस बुत को पुजाती जा .

तुझ घर की तरफ़ सुंदर आता है 'वली' दायम ,
मुश्ताक दरस का है टुक दरस दिखाती जा .




( वली दकनी का लगभग पूरा जीवन सफर में ही बीत गया। सूफीवाद का यह मुरीद ता - जिन्दगी भटकता रहा - औरंगाबाद में जनम लिया और अहमदाबाद में आखिरी सांस ली. इस अजीम शायर ने मरने के बाद भी चैन न पाया. आपको याद तो होगा? मुआफ करें , यदि याददाश्त के आईने पर वक्त की गर्द बिछ-सी गई है तो तनिक यहां झांक लेवें )

5 comments:

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया!!आभार.

अमिताभ मीत said...

बहुत ख़ूब भाई.

एस. बी. सिंह said...

इस रात अंधेरी में मत भूल पड़ूं तुझ सूं ,
टुक पांव की झांझर से झनकार सुनाती जा .


मज़ा आ गया सिद्धेश्वर भाई ।

Ashok Pande said...

उस्ताद सिद्धेश्वर सिंह को सलाम! क्या तो ख़ज़ाना बटोर के ला के रख दीजा ह्यां पै कू.

आनन्द आया बाबा!

संजय पटेल said...

वली का क़लाम तो नायाब है ही , राजकुमार रिज़वी का अंदाज़े-गायकी भी ख़ूब है.
क्यों हम राजकुमार रिज़वी जैसे गुलूकारों के साथ बेरहम हुए....सोचने की बात है....ये गायक अपने समकालीन गायकों से बहुत आगे है सिध्देश्वर दा....किसी ज़माने में राजकुमार जी ने दिल्ली में कथक के कलाकारों के साथ भी गाया है...