Sunday, March 22, 2009

कितने पाकिस्तान!

जिनके पास सामान्य ज्ञान बढ़ाने का एकमात्र जरिया समाचार चैनल रह गए हैं, उनका हैरान होना लाजिमी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि ये कैसा पाकिस्तान है। सड़कों पर लाखों की भीड़! हवा में जम्हूरियत और आजादी के तराने! स्वात में शरिया लागू होने की गरमा-गरम खबरों की बीच अचानक आजाद न्यायप्रणाली के पक्ष में ये तूफान कैसे उठ गया! बिना खड्ग-बिना ढाल, बस जुल्फें लहराकर काले कोट वालों ने ये कैसा कमाल कर दिया। सेना खामोश रही। पुलिस भी कभी-कभार ही चिंहुकी...और इफ्तेखार चौधरी चीफ जस्टिस के पद पर बहाल हो गए!
पाकिस्तान के इतिहास को देखते हुए ये वाकई चमत्कार से कम नहीं। आम भारतीयों को इस आंदोलन की कामयाबी की जरा भी उम्मीद नहीं थी। सबको लग रहा था कि लॉंग मार्च बीच में ही दम तोड़ देगा। जरदारी जब चाहेंगे आंदोलनकारियों को जेल में ठूंस देंगे। 16 मार्च को इस्लामाबाद पहुंचना नामुमकिन होगा। ये भी बताया जा रहा था कि लांग मार्च में तालिबानी घुस आए हैं। कभी भी धमाका हो सकता है। लॉंग मार्च में मानव बम वाली खबर भी अरसे तक चीखती रही। लेकिन गिद्दों की उम्मीद पूरी नहीं हुई। पाक सरकार के गुरूर ने जरूर दम तोड़ दिया। प्रधानमंत्री गिलानी को टी.वी. पर अवतरित होकर मांगे मानने का एलान करना पड़ा। साथ में सफाई भी कि पहले मांगें क्यों नहीं मानी गईं।
इस तस्वीर ने साफ कर दिया कि पड़ोसी पाकिस्तान के बारे में हमारी जानकारी कितनी अधूरी है। सरकारों और समाचार माध्यमों को जरा भी रुचि नहीं कि वे पाकिस्तान की पूरी तस्वीर जनता के सामने रखें। उनके लिए तो स्वात पूरे पाकिस्तान की हकीकत है। जहां हर आदमी कंधे पर क्लाशनिकोव उठाए निजाम-ए-मुस्तफा लागू करने के लिए जिहाद में जुटा है। जहां औरतें हमेशा बुरके में रहती हैं। गाना-बजाना बंद हो चुका है। बच्चों को आधुनिक स्कूलों में भेजना मजहब के खिलाफ मान लिया गया है और साइंस और मडर्निटी की बात करना भी गुनाह है। बताया तो ये भी जा रहा था कि तालिबान लाहौर के इतने करीब हैं कि भारतीय सीमा पर भी खतरा बढ़ गया है। वे जब चाहेंगे कराची पर कब्जा कर लेंगे और इस्लामाबाद को रौंद डालेंगे। पाकिस्तान की यही तस्वीर बेच-बेचकर गल्ले को वोट और नोट से भरा जा रहा था।
लेकिन पूरे पाकिस्तान से इस्लामाबाद की ओर बढ़ने वाले कदम तालिबान के नहीं, उस सिविल सोसायटी के थे जो पाकिस्तान की तस्वीर बदलने के लिए अरसे से तड़प रही है। इनमें मर्द, औरत, बूढ़े, जवान, यहां तक कि बच्चे भी थे। न इन्हें बंदूकों का खौफ था न ही भीड़ के बीज फिदायीन के घुसने की आशंका। काले कोट पहने नौजवान वकला की भारी भीड़ हर तरफ से उमड़ी आ रही थी। इनमें बड़ी तादाद में महिला वकील भी थीं। पुरजोश और इंकलाबी अंदाज से भरी हुई। सब झूम-झूमकर नारे लगा रहे थे और भंगड़ा डाल रहे थे। अखबार और न्यूज चैनल के पत्रकारों का जोश देखकर लग रहा था गोया कोई जंग जीतने निकले हों। ये अहिंसक आंदोलन आजादी के पहले के उस दौर की याद दिला रहा था जब लाहौर और कराची में 'करो या मरो' और 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' जैसे नारे गूंजते थे। न लाठियों का खौफ था और न गोलियों का। आज जिसे तालिबान का गढ़ कहा जाता है, उस सीमांत इलाके के पठान लाल कुर्ती पहनकर महात्मा गांधी की जय बोल रहे थे। जिन्हें हिंसक कबायली कहकर प्रचारित किया गया था उनके इस अहिंसक रूप को देखकर दुनिया दंग थी। तब वे खुदाई खिदमतगार कहलाते थे।
भारत में देश की व्यवस्था बदल देने का ऐसा जोश दशकों से देखने को नहीं मिला। 34 साल पहले इमरजेंसी के खिलाफ जनता ने अपने जौहर दिखाए थे। थोड़ी बहुत सुगबुगाहट वी.पी.सिंह ने भी पैदा की थी। लेकिन संपूर्ण क्रांति का नारा भ्रांति साबित हुआ और वी.पी.सिंह के सामाजिक न्याय का रथ जातिवादी कीच में धंसकर अपनी तेजस्विता खो बैठा। इसके बाद तो मनमोहनी अर्थशास्त्र ने ऐसा जादू चलाया कि राजनीति के हर रंग ने समर्पण कर दिया। उधर, इस जादू पर मुग्ध मध्यवर्ग देखते-देखते गले तक कर्ज में डूब गया। उसकी जिंदगी में किसी सपने के लिए जगह ही नहीं बची। इस खुमार के टूटने की शुरूआत अब हुई है जब मंदी का जिन्न दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
ऐसे में, पाकिस्तान में जनउभार देखना वाकई सुखद था। इसने फिर साबित किया कि जनज्वार के सामने बड़ी से बड़ी सत्ता बेमानी हो जाती है। टी.वी.पर इन दृश्यों को देखकर न जाने कितनी बार मुट्ठियां भिचीं और नारे लगाने का मन हुआ। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि ये अपनी ही लड़ाई है। ये वो पाकिस्तान कतई नहीं है जिसके खिलाफ बचपन से जवानी तक घुट्टी पिलाई गई है। ये लोग जिस व्यवस्था के हक में खड़े हैं उसमें लड़कियों को पढ़ने की पूरी आजादी है, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार की सुरक्षा का वादा है, क्रिकेट और संगीत के लिए पूरी जगह है। फैज हैं, फराज हैं, मंटो हैं, नूरजहां हैं गुलाम अली हैं, मेहंदी हसन हैं। साइंस के इदारे है और मोहब्बत का जज्बा भी। हां गुस्सा भी है, अपने कठपुतली हाकिमों और उस अमेरिका के खिलाफ जिसने इस देश की संप्रभुता को तार-तार कर दिया है। (बची किसकी है?)
साफ है कि पाकिस्तान के हालात काफी जटिल हैं। इकहरी निगाह से हालात की हकीकत समझना नामुमकिन है। एक तरफ वहां बार-बार सत्ता पलट करने वाली सेना है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार से देश को खोखला करने वाले राजनेता। मजहबी राज बनाने का सपना देख रहे कठमुल्लाओं की जमात है तो पाकिस्तान को आधुनिक स्वरूप देने की जद्दोजहद में जुटी सिविल सोसायटी भी। इस सबके बीच जम्हूरियत का जज्बा लगातार मजबूत हो रहा है। ये संयोग नहीं कि जनरल कियानी ने तख्ता पलट की जुर्रत न करके गिलानी और जरदारी को जनदबाव के आगे सिर झुकाने की सलाह दी। पाकिस्तान में हो रही इस नई सुबह को समझने की जरूरत है।
इसमें क्या शक कि भारत विरोधी भाव पाकिस्तान की वैसी ही सच्चाई है जैसे भारत में अंध पाकिस्तान विरोध। मुंबई में आकर मौत बरसाने वाले आतंकी पाकिस्तान की जमीन से ही आए थे। पर सवाल ये है कि पाकिस्तान में ऐसे आतंकी रक्तबीज की तरह क्यों बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान में इनकी तादाद न बढ़े इसकी गारंटी सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान की सिविल सोसायटी कर सकती है। और मार्च 2009 में उसने जो तेवर दिखाया, उससे भरोसा जगता है कि उसके पास ऐसा करने का भरपूर माद्दा है। पाकिस्तानी न्यूज चैनलों ने जिस तरह पहले मुंबई हमले को लेकर कसाब की असलियत खोली और फिर लाहौर में श्रीलंका टीम पर हुए हमलावरों को बेनकाब किया, उसने एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज बनाने की तड़प को बार-बार साबित किया है। इसलिए जरूरत इस जज्बे को सराहने की है, सलाम करने की है। दोस्ताना हाथ बढ़ाने की है। जम्हूरियत की मजबूती ही उपमहाद्वीप को आतंकवाद से मुक्त कर सकता है।

4 comments:

ab inconvenienti said...

यह सभ्यता चाहने वाली सिविल जमात पाकिस्तान का सिविलाइज्ड हिस्सा है. शैतानी दिमागों के मंसूबे तभी रंग लाते हैं जब सभ्य और पढ़े-लिखे लोग हार मान कर घर बैठ जाते हैं, अगर यह वर्ग सच में जाग गया है तो आगे तालिबान की राह कठिन है, पर यह वर्ग अब तक क्यों सो रहा था?

स्वप्नदर्शी said...

ye varg abhi abhi nahee jagaa hai, ye kabhee soyaa hee nahee thaa. aaj se 3-5 saal puraane fiaz kee nazmo par aadhaarit political compaign ke jo video hai, unhe dekhkar bhee inke zazbe kaa anumaan lagaayaa ja saktaa hai. aur bahut se pakistaanee dost bhee vanhaa ke halaato ke baare bataate hai.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

न हिंदुस्तान का आम आदमी पाकिस्तान विरोधी है और न पाकिस्तान का आम आदमी हिंदुस्तान का। यह तो नेताओं का जुगाड है। चाहो तो वागा बार्डर खोल दो चाहो तो बसें, ट्रेने चला दो या फिर चाहो तो इन्हें रोक दो। इससे तो दोनों ओर की आम जनता को तकलीफ होती है।

मुनीश ( munish ) said...

मरहूम बीबी बेनज़ीर भुट्टो इसी तबके की अगुआ थीं । जब वो मरीं तो हमारे यहाँ के अखबार उनके लिए पाकिस्तानी मीडिया से ज़ियादा रोये । 'पूरब की बेटी ' नाम से उनकी किताब का तर्जुमा तो एक अखबार ने पूरे का पूरा बहुत पहले ही छापा था । लेकिन यहाँ ये भी याद आता है के जिलावतनी से पहले जलसों में वो बड़ी बुलंद आवाज़ में कहती रहीं "गोली चलाओ , गोली चलाओ कश्मीर लाओ '' । मैंने उनकी ये विडियो- इमज़ेस पी टी वी पे कई दफा देखीं ! एक यहूदी लडकी से ब्याह करके अपनी सियासी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठे इमरान खान भी जम्हूरियत के हामी रहे हैं मगर खुल्लमखुल्ला कश्मीर में खून बहाने वालों को 'आज़ादी के सिपाही' करार देते रहे हैं । बावजूद इसके वो जब भी यहाँ आए पेज ३ पर ग्लैमर-स्टार की ही तरेह छपे । सो , छमा-दान तो हमारे पुरखों की पुरानी अदा है और वहां जम्हूरियत की ये जीत उनके वंश- धरों को सुकून देने को काफ़ी है ।