Sunday, May 17, 2009

हमने अपने आप को अक्लमन्द, छोटा और हास्यास्पद पाया



नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित पोलिश कवयित्री शिम्बोर्स्का की कविता 'घटनाओं का एक संस्करण' का एक अंश

...कोई नहीं चाहता था
अपनी या किसी दूसरे की भ्रान्तियों का शिकार बनना.
भीड़ के दृश्यों, जुलूस वगैरह के लिए
स्वयंसेवक कोई नहीं बना
न ही मरती हुई जनजातियों के बारे में
बयानात जारी करने के लिए -
हालांकि इस सब के बग़ैर
इतिहास अपने तयशुदा रास्ते पर नहीं चल सकता था
आने वाली शताब्दियों में.

इस दौरान काफ़ी तादाद में
पहले से रोशन सितारे
मर गए और ठन्डे पड़े.
निर्णय लेने की घड़ी सिर पर थी.
अलबत्ता तमाम आपत्तियों को ज़ौबान देते
प्रकट हुए कई उम्मीदवार
तमाम तरह की भूमिकाओं के वास्ते -
चारागर और खोजी
गूढ़ दार्शनिक
एक या दो, बग़ैर नामों वाले माली.
कलाकार और ख़लीफ़ा -
तो भी बाकी तरह की मशक्कत के अभाव में
ये सारे जीवन भी पूरे नहीं हो सके.
समय आ चुका था
कि पूरी बात पर नए सिरे से
सोचा जाए.

हमें एक यात्रा में चलने का प्रस्ताव दिया गया था
जिससे हम जल्दी लौट आते,

लौट आते न?

शायद वह अवसर फिर कभी नहीं आएगा.

सन्देह अटे पड़े थे हमारे भीतर.

क्या हर चीज़ पहले से जान लेने का मतलब यह हुआ
कि हमें सारा ज्ञान हो गया है?

क्या पहले से ले लिया गया फ़ैसला
किसी क़िस्म का चुनाव हो सकता है?

क्या बेहतर नहीं होगा
इस विषय को छोड़ दिया जाए
और एक बार वहां पहुंचने के बाद ही
लिया जाए कोई फ़ैसला!

हमने धरती को देखा.

कुछ दुस्साहसी लोग वहां पहले से रह रहे थे.
चट्टान से लगी
एक कृशकाय झाड़ी
-जिसे पक्का यकीन था
कि हवा उसे नहीं उखाड़ सकती.

अपना बिल खोदकर
बाहर निकला एक नन्हा प्राणी -
भरा हुआ ताकत और उम्मीद से -
उसे देखकर हमें हैरत हुई.

हमने अपने आप को अक्लमन्द,
छोटा और हास्यास्पद पाया.

जो भी हो हमारा कद घटने लगा.
वे अदृश्य हो गए जो सबसे ज़्यादा अधीर थे हममें.

इतना तो साफ़ था
कि वे आग के सामने अपना पहला इम्तहान देने आए थे
ख़ास तौर पर उस असल आग की लपट के सामने
जिसे उन्होंने एक असल नदी के
ढलवां किनारों पर जलाना शुरू किया था
उनमें से कुछ तो पलटे भी थे
मगर हमारी दिशा में नहीं.

और उनके पास कुछ था जिसे देख कर लगता था
उसे उन्होंने अपने हाथों फ़तह किया था.

3 comments:

Pratibha Katiyar said...

इतना तो साफ था कि वे आग के सामने अपना पहला इम्तहान देने आए थे. खास तौर पर उस असल आग की लपट के सामने जिसे उन्होंने असल नदी के ढलवां किनारों पर जलाना शुरू किया था....
शिम्र्बोस्का की कविताओं की यही आग है जो पढऩे वालों के सीने में सुलगने लगती है. इतनी सशक्त कविताएं उन्हीं की जानिब से पढऩे को मिल सकती हैं. यही है शिम्र्बोस्का का जादू...शुक्रिया यह कविता पढ़वाने के लिए.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

'क्या हर चीज़ पहले से जान लेने का मतलब यह हुआ कि हमें सारा ज्ञान हो गया है?'
what a line sirji!

अजित वडनेरकर said...

क्या हर चीज़ पहले से जान लेने का मतलब यह हुआ
कि हमें सारा ज्ञान हो गया है?

क्या पहले से ले लिया गया फ़ैसला
किसी क़िस्म का चुनाव हो सकता है?

क्या बात है? बेहतरीन कविता। सुंदर अनुवाद। कबाड़खाना पर आकर मेरी कविता की समझ बढ़ी है।