Friday, July 31, 2009

हम और हमारे आसपास प्रेमचंद की मौजूदगी

हम लोग उत्सव - धर्मी लोग हैं हर अवसर को उत्सव और समारोह में बदल देने के अभ्यस्त।

आज प्रेमचन्द जयंती है। आप सुविधा के लिए चाहें तो मुंशी प्रेमचंद ,उपन्यास सम्राट प्रेमचंद या कहानी सम्राट प्रेमचंद भी कह सकते हैं और अपने उत्सव- धर्मी मन को बहलाने के लिए आज के दिन कोई गोष्ठी, कोई मीटिंग , कोई रचना पाठ आदि - इत्यादि का आयोजन कर सकते हैं और जैसी की परंपरा है 'उनके बताए रास्ते पर चलने का संकल्प' लेने की बात कर सकते हैं. जयन्तियों पर शायद / अक्सर ऐसा ही होता है. रास्ते बताए जाते हैं और उन पर चलने के संकल्प लिए जाते हैं. चलना तो अगला कदम है क्या हमें सचमुच पता होता है कि 'उनका ' बताया रास्ता क्या है ? कौन - सा है??

प्रेमचंद का बताया रास्ता क्या है ? कौन - सा है??

आज प्रेमचन्द जयंती है। कल शाम को ऐसा लगा कि कुछ लिखना चाहिए और लिखने के वास्ते जरूरी है कि कुछ पढ़ना चाहिए या पुराने पढ़े को गुनना - बुनना चाहिए. बहुत देर तक अपने निजी कबाड़खाने में किताबें ,पत्रिकायें, फाइलें पलटता रहा. 'कबाड़खाना' पर पिछले साल 'इसी अवसर पर लगाई अपनी पोस्ट का अवलोकन भी किया किया और समझ न सका कि ' प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर' क्या लिखा जाय! पहले तो सोचा कि किसी किताब का कोई अंश ब्लाग पर लगा ( चेप !) दिया जाय या ' कहानी / उपन्यास कला के तत्वों के आधार पर' उनकी किसी कहानी / उपन्यास का जिक्र कर दिया जाय. अपन भी तो कुछ लिखते -पढ़ते हैं सो 'इस अवसर पर' अपना ही पहले का लिखा और हिन्दी की 'एक महत्वपूर्ण पत्रिका में प्रकाशित' आलेख / निंबंध / शोधालेख / समीक्षा / टिप्पणी को पुन:प्रकाशित कर दिया जाय ताकि सहृदय पाठकों के लाभ हेतु प्रेमचंद के 'व्यक्तित्व और कृतित्व ' पर कुछ प्रकाश पड़ सके ! 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सदगति' कहानियों पर सत्यजित राय द्वारा बनाई गई दो फिल्मों को याद किया और उनके बारे में लिखने की सोची परन्तु सोचता ही रह गया और खाया - पिया , टीवी देखा और सो गया . अपने तईं प्रेमचंद जयन्ती की पूर्वसंध्या पर अपना निजी समारोह ऐसे ही हो गया !

किताबें कुछ कहना चाहती हैं ।क्या हम सुनने को तैयार हैं ? क्या अवकाश है हमारे पास ??

हिन्दी में प्रेमचन्द के ऊपर / बारे में ( उनके द्वारा लिखे गए साहित्य को छोड़ दें तो ) इतना - इतना लिखा गया है कि क्या बतायें कितना लिखा गया है ! इसमें से ढेर सारा सामान तो विश्वविद्यालयों की एम। फिल , पी-एच. डी. आदि उपाधियों के लिए रचित शोध प्रबंध है , विद्यार्थियोपयोगी कुंजियाँ हैं, विद्वान प्राध्यापकों द्वारा समय - समय पर लिखे गए निबन्धों के संग्रह हैं और कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. कुल मिलाकर हमारे पास प्रेमचंद इफरात में हैं और जब से उनकी रचनायें 'फ्री' हुई हैं तब से हिन्दी का लगभग हर प्रकाशक प्रेमचंद साहित्य को छाप - बेच - वितरित कर रहा है फिर भी आइए 'इस अवसर पर' तलाश / पड़ताल करें कि हमारे पास प्रेमचंद की उपस्थिति कितनी और कैसी है?

हमारे आसपास प्रेमचंद की मौजूदगी की मात्रा और परिमाण का प्रमाण क्या है ? कैसा है ?

स्कूल -कालेज के पाठ्यक्रमों में प्रेमचंद मौजूद हैं यह दीगर बात है उन्हें निकालने - हटाने - बदलने की भी कहानियाँ बनती - बिगड़ती रही हैं और इस मुद्दे पर भी खूब विमर्श , बहस , बतकही और झाँय - झाँय हुई है लेकिन क्या ऐसा नही लगता कि पाठ्यक्रमों में प्रेमचंद की मौजूदगी के कारण ( ही !) नई पीढ़ी में प्रेमचंद की मौजूदगी दिखाई दे रही है? हो सकता है यह बात गलत हो और इस 'मौजूदगी' का बायस केवल पाठ्यक्रम मात्र न हो और उन्हें खूब पढ़ा जा रहा हो क्योंकि जब वे खूब छप रहे हैं तो खूब पढ़े भी जा रहे होंगे !!

अभी कुछ देर पहले अखबार आया है जिसमें अवसरानुकूल प्रेमचंद पर कुछ सामग्री है जिसे पढ़ना फिलहाल मुल्तवी कर यह सब ( शायद प्रलाप / एकालाप / बकवास ) लिखने बैठ गया हूँ। बरसों पहले हमारी हिन्दी की किताब में एक निबंध था 'क्या लिखूँ ?' कल शाम से और आज अभी काम पर जाने से पहले अपनी भी हालत यही है कि 'क्या लिखूँ ?' अखबारों में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर जो कुछ छपा है उसे पढ़ना है , नहाना - धोना है , काम पर जाना है और लौटती बेर बाजार से कुछ सामान वगैरह भी लाना है और हाँ, शाम को अगर फुरसत मिली तो दो - चार लिखने- पढ़ने वालों को इकठ्ठा कर गोष्ठी आदि करके प्रेमचंद जयंती भी समारोहपूर्वक मनाना है !

बुकशेल्फ में धरीं प्रेमचंद की / प्रेमचंद पर लिखी किताबें काँच की दीवार को चीरकर कुछ कहना चाहती हैं पर अपन को अभी फुरसत नहीं है। हम लोग उत्सव - धर्मी लोग हैं हर अवसर को उत्सव और समारोह में बदल देने के अभ्यस्त !
किन्तु ? परन्तु ?? लेकिन ??? ...........

13 comments:

मुनीश ( munish ) said...

U've chosen a rare sketch of Premchand....u know the thick moustache and all ! Here, he looks every inch a Mexican. I love Premchand, infact we all do . We could have a theme party where all fans appear in moustache similar to him and a book reading followed by a bit of customary booze . They do it like this in west while celebarting Hemingway or Arthur Conan Doyle so why can't we ? India has really come up in a big way and we need to show our literary-muscle buddy! Is Ashok bhai listening?

मुनीश ( munish ) said...

I know many literary honchos from hindi-heartland are going to be disturbed by this ,but u got to C the truth man..u gotta face it! These days nobody takes anybody seriously unless u throw a party . If we really want to spread his fan-base we got to throw a party man where all the big-wigs from page3 set-up are invited and served sizzling chilly mashroom with Jagadhari Number One. Right?

Ek ziddi dhun said...

आपने ये `लेकिन` सही ही लिख दिया आखिर में.

दीपा पाठक said...

क्या लिखूं की ऊहापोह में आपने बहुत कुछ लिख दिया सिद्धेश्वर जी। सचमुच हम लोग उत्सवधर्मी लोग हैं, लेकिन अगर हम अपने लेखक, कलाकारों को इन अवसरों पर भी याद न कर पाएं वो भी तो ग़लत होगा न? अब देखिए आपने याद दिलाया तो हमें याद आया कि.....आज प्रेमचंद जयंती है।

Science Bloggers Association said...

Is saamyik charchaa ke liye aabhaar.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Batangad said...

प्रेमचंद का लिखा अगर थोड़ा सा भी खींचे रहे तो, समझिए हमारी उत्सवधर्मिता सार्थक हो गई।

Rajesh Joshi said...

लगभग चार साल पहले लमही के उस टुटहे घर की धँसती छत पर बमुश्किल खड़े होकर लाइव प्रसारण किया था, जहाँ किसी ज़माने में प्रेमचंद रहते थे. वो मकान अगर पूरी तरह धँस नहीं गया तो तो धँस जाएगा. क्या उस पर आँसू बहाए जाएँ? क्या हमें इस बात पर सुकून और ख़ुशी नहीं होनी चाहिए कि भारत के हर रेलवे स्टेशन पर प्रेमचंद विशद पिछले कई वर्षों से वहनीय कीमत पर उपलब्ध हैं. प्रकाशक उन्हें अब भी छाप रहे हैं इसका सीधा सा अर्थ है कि उन किताबों को पढ़ने वाले हैं. पेज-थ्री वाले नहीं तो वही गाँव-गँवई और क़स्बाई लोग जिनके बारे में प्रेमचंद ने लिखा था. कई बरस पहले मैंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ ख़रीद कर अपनी माँ को दी थी. आज भी वो यदा कदा काम के बीच निकली फ़ुरसत में उसे पढ़ती है. प्रेमचंद के साथ शायद सबसे अच्छा न्याय यही होगा कि उन्हें समारोहों और गोष्ठियों से निकालकर गुटके की तरह प्रचारित प्रसारित किया जाए.

अरे वो गुटका नहीं यार. बाबा तुलसीदास का गुटका यानी मानस.

और मुनीश भाई -- थीम पार्टी !! वाव !!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हिन्दी साहित्य के युग पुरुष को
जन्म दिवस पर नमन।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जन्म-दिवस पर
हिन्दी साहित्य के युग पुरुष को नमन!

डॉ .अनुराग said...

"कफ़न "पर छिडी पाखी में बहस इतनी बेहूदा लगी थी .लगा जैसे पोगा पंडित धर्म ग्रंथो के अपने मन मुताबिक अर्थ निकालते है .कई सो कॉल्ड बुद्धिजीवियों का शगल कहानियों में से ऐसे अर्थ निकलना है ...फिर भी हमीद का चिमटा ",नमक का दरोगा .ओर" मन्त्र" ऐसी कहानिया है ...जो अमर है .जिनमे शब्दों के बड़े बड़े खेल नहीं है .कोरी भावनाए है ...जहाँ तक उत्सवधर्मी होने का सवाल है जब राखी सावंत के स्वन्व्यर पे रेडियो -अखबार चीखचीख कर सुबह शाम गुणगान करते है ...एक दिन के तो प्रेमचंद भी हक़दार होते है ...

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

यों तो प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियां क्लास वाली होती हैं, मेरी विशेष पसंद हैं, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, पूस की एक रात, और शतरंज के खिलाड़ी।

होरी, धनिया, सूरदास, आदि पात्र अमर हैं, उसी तरह जैसे उनके निर्माता।

अनूप शुक्ल said...

प्रेमचंद के कुछ पात्र याद से नहीं उतरते। पाठ -पुनर्पाठ तो चलता ही रहेगा। ईदगाह का हामिद मुझे हैरी पाटर के हैरी से ज्यादा समर्थ और वास्तविक पात्र लगता है।

प्रीतीश बारहठ said...

प्रेमचन्द जी को नमन्!

यहाँ जयपुर में मैंने दो दिवसीय गोष्ठि में विपरीत परिस्थितियों में उपस्थिति दी। लेकिन क्या कहूँ मेरे इस प्रिय लेखक के बहाने कैसी बचकानी, बेहूदा और स्तर हीन बातें की गई!

यहाँ देर से पहुँचने के लिये क्षमा।