Monday, August 17, 2009

खतूबा...ऊ..ऊ...खतूबा ...!

हाल ही में कबाड़ पंथ के सरगना भाई अशोक पांडे की एक पोस्ट यहाँ नमूदार हुई थी जिसमें लैटिन-अमरीकी फ़न्कारा शकीरा की शान में मशहूर अफसानानिगार मार्खेज़ ने कसीदे काढ रक्खे थे . शकीरा के फन , दिलफेंक अदाओं और ठुमकों की मस्ती से कोई इनकार नहीं है दोस्तो ,बस एक मासूम शिकायत ज़ुरूर एक हूक बन के उठती है केहमारे अदीब क्यों कभी हिन्दोस्तानी फ़न पे अपनी कलम नहीं चलाते ............
, क्यूं हर वक़्त काऊं -काऊं का सा न थमने वाला एक शोर भर सुनाई देता है जिसमें महज़ शिकवे-शिकायतों के अलावे कुछ नहीं होता . हमारे यहाँ टैलेंट ने जिन बुलंदियों को चूमा है दोस्तो ,क्या खाकर शकीरा उनका मुकाबला करेगी मगर है कोई साहित्यकार जिसने मलका ऐ हुस्न ज़ीनत अमान की अदाओं पे कुछ लिखा हो ,इंटरव्यू किया हो ...उन्होंने एक ऐसी फिलिम में काम किया था साथियों जो विश्व-साहित्य की अनमोल विरासत 'अलीबाबा चालीस चोर' पे मबनी थी याने आधारित थी . आखिर ऐसा क्यूं है दोस्तो , क्यूं हमारे लेखक लोग इग्नोर करते हैं हिन्दोस्तानी टैलेंट को ...,जवाब नहीं मिले तो कहिये आप भी कहिये क्लिकियाते ही ---खातूबा .... ऊ ...ऊ.. ...........खतूबा !


14 comments:

Nanak said...

भाई, कलम घिसना और कीबोर्ड की खिट्टपिट करो बंद, इनसे कोई ईनाम विनाम नहीं मिलने वाला, सुनो ख़ातुबा-ख़ातुबा, कहो मरहबा-मरहबा और खाओ मुरब्बा-मरहबा.

प्रीतीश बारहठ said...

बेहतर तो यह होता मुनीश जी कि आप भी जीनत अमान पर शकीरा की टक्कर का कोई लेख लिख मारते। लेकिन आप भी शिकायत कर के ही इति श्री को वरण कर रहे हैं। क्या चलन चल पड़ा है कि कुछ दिन पहले भाई लोग पूछ रहे थे कि प्रेमचंद ने आदिवासियों पर क्यूँ नहीं लिखा ! आप पूछ रहे हैं जीनत अमान पर क्यूँ नहीं लिखा। अरे भाई जिसे जो रुचता है उस पर लिखता है आपको जो रुचे उस पर आप लिखो न जिससे सब का ही फायदा हो। शिकायत क्या है, क्यूँ है ? आप लिखो वरना मै जीनत को रक‍्कासा ही मानता रहूँगा

मुनीश ( munish ) said...

डीयर प्रीतीश, मैं पहले कई बार कह चुका हूँ के मैं साहित्य का रचियता नहीं उपभोक्ता हूँ ! जब मैं हिंदी साहित्य की किताबें खरीदता हूँ और अंधे के हाथ बटेर की तरह ये मंच पे तना माइक मैं हथिया चुका हूँ तो क्यों अपनी शिकायतें 'एयर' न करुँ ? हिपोक्रेसी हम सब की नस -नस में भरी है . मार्खेज़ जैसा कांटे का आदमी एक पॉप -आइकन पे लिख कर कोई छोटा नहीं हो जाता मगर सूजन भरी गंभीर बातों का नाटक हमारे यहाँ ब-दस्तूर जारी है . मैं क्यों न कहूं साहित्यकारों से जो अक्स़र ही साहित्यिक पुस्तकें न बिकने का ठीकरा जनता के सर फोड़ते हैं . बाकी पसंद अपनी ख़याल अपना . ज़ीनत अमान जिंदाबाद !

मुनीश ( munish ) said...

Read 'रचयिता' above and be thankful for the fabulous video !

प्रीतीश बारहठ said...

मुनीश जी !!
मैंने टिप्पणी करते हुए केवल आपका कमेन्ट ही ध्यान में नहीं रखा है उन रचयिताओं की शिकायतें भी मेरे ज़हन में हैं जो खुद रचयिता होते हुए भी दूसरे रचनाकारों पर यह आरोप लगाते रहते हैं कि उन्होंने किसी खास विषय पर या खास तरह से क्यूँ नहीं लिखा। शकीरा पर लिखने वाले साथी को यह सुविधा थी कि केवल अनुवाद करना था, ऐसा लेख जीनत पर लिखने में उसी प्रकार की मेहनत उस प्रकार का पेशेवराना चलन हमारे यहाँ शायद जीनत के जमाने में तो नहीं ही था, और यदि लिखा भी जाता तो उस मेहनत की तुलना में यहाँ आप जैसे कद्रदान शायद अधिक, कम से कम जीनत के जमाने में तो नहीं ही थे। आप में पूरी साहित्यक (रचयिता) प्रतिभा है, मैं पहले भी अर्ज कर चुका हूँ कि आप बेहतरीन कवि हैं। कचरा पढ़ने से अच्छा है आप लिखना शुरू करदें। हिन्दी में बीस किताबों को पढ़ने पर पाते होंगे कि कोई एक ही पढ़ने लायक थी, बाकी समय जाया हुआ है। जीनत की जिंदाबाद... लेकिन जरा दूर से ही।

प्रीतीश बारहठ said...

Thanku you very mutch for vidio !

मुनीश ( munish ) said...

प्रीतीश जी आप तो वीर-भूमि राजस्थान के वासी हैं ,जहाँ कहा था कभी मीरां ने अक, "घायल की गत घायल जान्ने, बैद मिल्या नहीं कोय " !
आप ठीक कहते हैं ,दरस्ल अपने ब्लॉग लेखन की शुरुआत ही मैंने निमिन -लिखित पंक्तियों से करी थी अक--
"मेरा ये कलुषित काव्य- कर्म माना गर्हित है,त्याज्य है
पर कल को ये इक वाद बने ये भी सहज संभाव्य है"
मेरे ऐसे कालजयी अशार 'सस्ता शेर' पे आज भी देखे जा सकते हैं किन्तु अब मैंने गद्य की गत सुधारने का निमिन लिखित प्राप्त किया है--
" ठेका " !!

प्रीतीश बारहठ said...

sadhu...sadhu
naman !

Renu goel said...

तो आप जीनत अमान की अदाओं के दीवाने हैं ...बहुत अच्छी बात है ...पर जनाब ज़माना है मुह मिया मिट्ठू बन्ने का ...जीनत जी से कहिये अपना ब्लॉग बनाये और एक बार फिर दुनिया को दिखा दे अपने जलवे ....कहाँ छुपी हैं जीनत जी आप ...

Ashok Pande said...

माफ़ करें मुनीश भाई. गाबो ने शकीरा पर लिखा तो ऐसा उसके "फन , दिलफेंक अदाओं और ठुमकों की मस्ती" के कारण नहीं किया था.

जिस तरह का समर्पण और उद्दाम रचनात्मकता शकीरा के गीतों में नज़र आती है और जितना उसके काम का परिमाण है, वह भले भलों की ऐसी तैसी करने को पर्याप्त था उस समय तक, जब वह फ़कत पच्चीस की थी.

और "फन , दिलफेंक अदाओं और ठुमकों की मस्ती" के चलते साल-दो साल को पॉपुलर हो जाने वाली ख़ूबसूरत रक़्क़ासाओं की उस इलाके में कोई कमी नहीं रही. वे हज़ारों की तादाद में हैं और रही हैं. यह उस दुबली सी लड़की का अदम्य साहस और अपने फ़न को लेकर उसकी जो कन्विक्शन थी, उसने गाबो से वैसा लिखवा लिया.

शकीरा एक कल्ट का नाम है अब. (अलबत्ता उसे हमारे यहां लगातार एक नाचनेवाली के तौर पर ही देखा जाएगा.) और गाबो क कल्ट ... उफ़! दुनिया भर के कितने देशों के लेखकों की कितनी पीढ़ियां उस जैसा लिखने को अब भी तरसा करती हैं. यह अलग बात है कि लेखन के प्रति उस जैसा अनुशासन उन्हें भीषण श्रमसाध्य लगा करता है, इसीलिए वे जैसे हैं वैसे ही हैं.

मुझे ज़ीनत अमान से कोई शिकायत नहीं. मुझे ज़ीनत अमान और शकीरा की किसी भी तरह की तुलना से शिकायत है. ये दो अलग अलग टाइम और स्पेस से निकले हुए शख़्स हैं. माफ़ करें मुझे इस तरह वाले बॉलीवुड से कोई ख़ास लगाव नहीं. कैबरे करना अलग बात है, आइटम सॉंग करना अलग बात है और अपने समय, संसार, जड़ों और लोकप्रिय तत्वों का संधान करते हुए खुद गीत लिखना, उन्हें कम्पोज़ करना, नए सिरे से एक नई ज़बान सीखकर उन्हें उस भाषा में भी गा सकने की कूव्वत पैदा करना और बिल्कुल सचेत तरीके से लगातार नई नई बहुभाषी ऑडिएन्स के आगे अपने को साबित करना अलग.

मुझे भारतीय प्रतिभा की महानता से कोई नकार नहीं न मुझे किसी किस्म के इन्फ़ीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स की शिकायत है, लेकिन किसी भी तरह की प्रतिभा के साथ न्याय करने हेतु जिस तरह के कड़े अनुशासन और अथक मेहनत की आवश्यकता होती है, क्षमा करें वह हमारे रक्त से अब अनुपस्थित हो चुका है. इसी बात को अन्डरलाइन करना शकीरा वाली पोस्ट का उद्देश्य था.

हां हमारे यहां भी बहुत से कल्ट हुए हैं - क्या हमारा समूचा शास्त्रीय संगीत ऐसी महान हस्तियों से अटा नहीं पड़ा है और हां उन पर एक से एक बेजोड़ रचनाएं लिखी भी गई हैं. गुरुदत्त, ऋत्विक घटक, वगैरह भी कल्ट बन चुके हैं और किसी परिचय के मोहताज तो नहीं ही हैं. इन पर भी काफ़ी उल्लेखनीय काम हो चुके हैं.

अगर किसी समकालीन महालेखक को ऐसी कोई शै नज़र आती है तो उसने इस पर लिखने का साहस करना ही चाहिए. वैसे प्रीतीश का आइडिया बुरा नहीं है. क्या कहते हैं?

बाकी क्या तो हिन्दी साहित्य और क्या उसका मुरब्बा!

जै हो!

मुनीश ( munish ) said...

@"माफ़ करें मुझे इस तरह वाले बॉलीवुड से कोई ख़ास लगाव नहीं. "

अब जब आपने यही कह दिया अशोक भाई तो मेरा कुछ भी कहना मात्र अरण्य-रोदन से अधिक कुछ नहीं होगा ! मैं भी बहुत पहले बॉलीवुड से ख़ास सरोकार रखना त्याग चुका हूँ किन्तु ७० और ८० के दशक का हिंदी सिनेमा (दोनों धाराओं का) मेरे लिए भूल पाना कठिन है और आज जब उसे इग्नोर करते हुए कोई भारतीय, परफोर्मिंग आर्ट्स की चर्चा करता है तो ज़ाहिर है मुझे शिकायत होती है . साहित्यकार और संस्कृति कर्मी उसके ज्ञान के बगैर जनता में तो पैठ नहीं सकते . हाँ उनके इलीट पने के कोकून में इस से कोई खलल भी नहीं पड़ने वाला .iti shubham !

मुनीश ( munish ) said...

@पारुल -धन्यवाद , चलिए किसी ने तो ये पोस्ट सकारात्मकता से समझी ! देखिये ,जीनत और परवीन बाबी की फिल्में देखते हुए मैं बड़ा हुआ और ये बात मैं किसी पूर्वाग्रह के बिना कहता हूँ की इन्हें चाहे जैसी फिल्में मिलीं इनसे ज़्यादा सुन्दर कोई नायिका हिंदी सिनेमा में नहीं आई . मैं ये बात शीघ्र ही साबित करने वाली पोस्टें मयखाने पे लगाऊंगा !

अनूप शुक्ल said...

अशोक पान्डे जी की बात अच्छी लगी। जय हो!

मुनीश ( munish ) said...

@Anup-- u seem to to have lost the faculty of enjoying a nice music video sir ! just play the music and relax !