Tuesday, October 6, 2009

वीरेन डंगवाल का वैभव



छोटे बेटे प्रफुल्ला के रिसेप्शन में एक अक्तूबर की रात, बरेली में मुलाकात हुई।

उसी रंग की पैंट पर पेटी डाट कर, काले रंग की कमीज में वीरेन डंगवाल ने फार्मल लुक देने का आधे मन से भरपूर जतन कर रखा था। कमीज को इस्त्री के बाद दूसरे कपड़ो के ढेर में गुलाटियां खाने का भरपूर समय मिला था, इस लिए एक बांह कुछ ज्यादा ही छरहरी लग रही थी। भारी चेहरे के अनुपात में कंधे दुबले लगे और सोडियम लाइट की झक्क रोशनी में कुछ वर्ग सेंटीमीटर की एक छोटी चांद भी मुझे नजर आ गई। वरना मैं तो उनकी आनुवांशिकी पर चकित होते हुए अब तक यही सोचता आया था- जरा सोचो तो उनसे दस-पंद्रह साल छोटे लोग जेब में कंघी रखकर नास्टेल्जिया जीने लगे हैं।

गले मिलते हुए पूर्वाभास हुआ कि आज की रात कई जटिल चीजें समझ में आने लायक सपाट हो सकती हैं क्योंकि ठीक उसी समय, सीने के दबाव से मेरी कमीज में लटके चश्मे की एक कमानी रेल की पटरी में परिवर्तित हो रही थी।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सुरापान भी हुआ, पंकज श्रीवास्तव के "छापक छैल छिउलिया" समेत गाने भी गाने गए, बहस की हांव-हांव भी थी। यहां तक कि एक बुल्गागिन कट दाढ़ी वाले अध्यापक ने एक दुबली किताब से उस मद्यमय शोर में अपनी कविता पढ़ने का असफल प्रयास भी किया। कुछ ऐसा लग रहा था कि शराब और दिमाग ने मिलकर ईवेन्ट मैनेजमेन्ट की कंपनी खोल ली है और यह उत्तेजना उसी के द्वारा प्रायोजित है। दिल उनकी सेवा शर्तों से उदास होकर, इस्तीफा देकर कहीं चला गया है। एक बात किसी ने कायदे की कही कि शराब पीने की सारी जगहें पता नहीं क्यों ऐसी ही उपेक्षित, अकेली, जरा भुतही क्यों होती हैं। यह भी हो सकता है कि पत्रकार बहुत थे जिनमें फेंकने की अद्भुत प्रतिभा होती है और लपेटना बिल्कुल नहीं जानते। लिहाजा उनकी हांव-हांव फर्श पर सिगरेट के टुकडों की तरह बस इत्ती सी देर चमकती है फिर बुहारे जाने के इंतजार करने लगती है।

देर रात जब अधिकांश लोग खाना-वाना खा, गुलदस्ते-वस्ते दे, सौजन्य-वौजन्य ले....चले गए तब फिर वे नमूंदार हुए। मेटामार्फासिस घटित हो चुका था। अब वे उस तरह बोल रहे थे, जिस अंदाज (इसमें उष्मा काफी होती है। खूब, प्यारे, चूतिए, अद्भुत, अच्छा जैसे शब्द बार-बार आते हैं। बोलने वाले के बारे में खटका लगा रहता है कि क्या पता वह आल इंडिया रेडियो का निरा प्रस्तोता ही न निकले।) की नकल करने वाले बरेली से निकल कर देश भर में फैल गए हैं। इसे आगे बातचीत के वीरेन डंगवाल फर्मे के रूप में याद रखा जाने वाला है, मान लीजिए।

कुर्सियों पर कोई तेरह चौदह छड़े थे, जिन्हें उनके पिताओं ने यहां न्यौता करने तो नहीं ही भेजा था। वे कविताओं की पंक्तियों के जरिए उनसे बात कर रहे थे। वे अपनी किसी बात की पीठ पर एक पंक्ति कहते थे- "यह कैसा समाज हमने रच डाला है, जो कुछ भी दमक रहा....काला है"- वीरेन डंगवाल वह पूरा पैराग्राफ सुनाते। फिर बात आगे बढ़ती थी। उनके दो-तीन काव्य संग्रह, मानों भावनाओं का ज्यादा सटीक भाष्य करने वाले किसी निरपेक्ष "थिसारस" की तरह इस्तेमाल किए जा रहे थे। इलाहाबाद से प्रेमप्रकाश और दीपक थे, जो हाथ से खंभाकार आकृति बनाते हुए कोई संदेश संप्रेषित करने के प्रयास में थे। दीपक ने असफलता को काफी ग्लैमराइज किया और रिसेप्शन की इकलौती सांस्कृतिक प्रस्तुति दी। वह खइके पान बनारस वाला गाने पर झमाझम नाचा और मैने उसका वीडियो बनाया।

"चलो यार तुमने नाच कर मेरे पैसों का कुछ तो सदुपयोग किया," डा. डैन्ग ने जब यह कहा तो अचानक लगा कि इस अहंकार से गंधाते खड़ूस जमाने में इतने नौजवान, जो अपने रिश्तेदारों के यहां जाने में भी कन्नी काट जाते होंगे यहां क्यों आए और वे इस आदमी से इतनी सहजता से संवाद कैसे कर लेते हैं। थोड़े ही देर बाद पवित्र गुस्से से दीपक कह रहा था- "मैं हमेशा से नाचना चाहता था लेकिन घर वालों ने मुझे नहीं नाचने दिया। मैं हमेशा ऊपर से झेंपता और भीतर-भीतर नाचता रहता था। इसलिए आज खूब नाचा।

भोज समाप्त होने के बाद, खाली पंडाल के एक कोने में युवाओं के चेहरों में प्रतिबिम्बित यह वीरेन डंगवाल का वैभव था, जिसके आगे साहित्य अकादमी वगैरा तो घलुआ जैसी चीज लगती है।

रात के कोई तीन के आसपास फिर उन्हीं लड़कों का घेरा, घर के सामने की सड़क पर था। अब जरा सी आत्ममुग्धता या उस जैसा कुछ और छलछला आया था। वीरेन डंगवाल बता रहे थे कि, "मैं एक जनवरी 2010 को इस दुनिया से चला जाऊंगा। मैं खूब आवारागर्दी करना चाहता हूं।"
मैने चिढ़कर एतराजनुमा मोर्चेबंदी की, "गुरू कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रगतिशीलता के चोले के भीतर सदा से कोई ज्योतिष की अंतर्धारा बहती हो जिसने आपके मरने की ये तारीख भी तय की हो।"
जरा भी विचलित हुए बिना, उन्होंने उस तारीख को फौरन नौ दिन आगे तक टाल दिया, चलो दस जनवरी तक रह जाता हूं। मुझे भीतर तक एक डर झकझोर कर जा चुका था और फिर पलट रहा था।

इतने में रिक्शे पर सवार स्टेशन की तरफ जाते अशोक पांडे दिखे। मैंने लपक कर रिक्शे पर बैठते हुए नारा लगाया, एक जनवरी दो हजार दस मुर्दाबाद।
अशोक ने दोहराया, एक जनवरी दो हजार दस मुर्दाबाद। हम सिगरेट लेने स्टेशन चले गए।

17 comments:

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

एक जनवरी दो हजार दस मुर्दाबाद

naveen kumar naithani said...

बात-चीत का वीरेन डंगवाल फार्म तो खैर अब चल ही चुका है.एक जीवन्त अवसर की प्रस्तुति कर नेक काम किया.भाई ,देहरादून से कुछ बराती गये थे- हरिद्वार,गंगाजल छिटकते हुए भी वीरेनियन बात-चीत की फार्म में कोई कमी नहीं रही.
"शराब पीने की सारी जगहें पता नहीं क्यों ऐसी ही उपेक्षित, अकेली, जरा भुतही क्यों होती हैं।"अनिल जी, वे जगहें ऐसी इसलिये होती हैं कि महान शराबियों के पांव पड़्ते ही पवित्र हो जायें.

Ek ziddi dhun said...

एक अंदाज वीरेनियन है लोगों से मिलने का कि हर कोई आजादी से अपनी भडास निकल ले, उनके फर्मे की नक़ल कर ले (पर सार की नहीं, वही तो वीरेन डंगवाल को वीरेन डंगवाल बनता है) और उनकी मोहब्बत को अपने लिए सबसे ज्यादा मानता फिरे. एक अंदाज अनिलियन है जो प्यार से भी काफी निर्मम इशारे कर दे. ये शानदार है और ये वैभव निराला है. फकीराना ठाठ का जादू

Ashok Kumar pandey said...

ya hussain ham naa the!!!!

विजय गौड़ said...

बारात चकाचौंध भरा मंजर है, भूतही दीवारों वाला अंधेरा कौना नहीं। यकीनन कबाड़िये जानते होंगे। न जाने किसने धकेला अंधेरे सीलन भरे अंधेरे कौनों में रहने वाले अधर्मियों को एक धर्मनगरी में बाराती बनाकर! जहां सब कुछ बंद-बंद था, कुछ भी खुला नहीं। यकीनन शहर को पार करने वाली सड़क के अंधेरे कौनों पर ही खुला था दिमाग भी। दुकान के पिछवाड़े वाली खिड़की से एक हाथ बाहर न निकलता तो तेज रोशनी सौरी के बाशिंदे की आंखों को तो झुलसा ही देती। अंधेरे बंद कौने में मद्धम रोशनी सी फुलझड़ियां बिखेरने वाला रसायन इतने चुपके से मिल जाएगा !!!
ठठा कर हंसा था सौरी का बाशिंदा अपने हुनरबाज उन दोस्तों को याद करते हुए जिनकी शौहबत ने जीवन जीने का नायाब तरीका लगातार सुझाया था-
दुकान के शटर पर नहीं, औने-कौनों पर निगाह रखो जब रात काफी हो गई हो प्यारे।
थैले में गाजर, मूली, खीरा, नमक की डिबिया, चाकू, पानी की बोतल, गिलास और साथ में "एक पुल" हमेशा लेकर चलने वाला सरदार तो बेहद याद आया उस वक्त। सौरी का बाशिंदा समृतियों के अंधेरे कौने में खो जाता यदि उसी वक्त "राजयोग" को पाये कहानीकार उस सूचना को न बांटता कि चांद पर पानी खोज लिया गया है।
सौरी का बाशिंदा चहका था और ठठ्ठा कर हंसा था -
चलो फिर चांद पर चलते हैं। अब तो वहां भी कोई दित न होवा करेगी।

विजय गौड़ said...

बारात चकाचौंध भरा मंजर है, भूतही दीवारों वाला अंधेरा कोना नहीं। यकीनन कबाड़िये जानते होंगे। न जाने किसने धकेला अंधेरे सीलन भरे अंधेरे कोनों में रहने वाले अधर्मियों को एक धर्मनगरी में बाराती बनाकर! जहां सब कुछ बंद-बंद था, कुछ भी खुला नहीं। यकीनन शहर को पार करने वाली सड़क के अंधेरे कोनों पर ही खुला था दिमाग भी। दुकान के पिछवाड़े वाली खिड़की से एक हाथ बाहर न निकलता तो तेज रोशनी सौरी के बाशिंदे की आंखों को तो झुलसा ही देती। अंधेरे बंद कोने में मद्धम रोशनी सी फुलझड़ियां बिखेरने वाला रसायन इतने चुपके से मिल जाएगा !!!
ठठा कर हंसा था सौरी का बाशिंदा अपने हुनरबाज उन दोस्तों को याद करते हुए जिनकी शौहबत ने जीवन जीने का नायाब तरीका लगातार सुझाया था-
दुकान के शटर पर नहीं, औने-कौनों पर निगाह रखो जब रात काफी हो गई हो प्यारे।
थैले में गाजर, मूली, खीरा, नमक की डिबिया, चाकू, पानी की बोतल, गिलास और साथ में "एक पुल" हमेशा लेकर चलने वाला सरदार तो बेहद याद आया उस वक्त। सौरी का बाशिंदा समृतियों के अंधेरे कोने में खो जाता यदि उसी वक्त "राजयोग" को पाये कहानीकार उस सूचना को न बांटता कि चांद पर पानी खोज लिया गया है।
सौरी का बाशिंदा चहका था और ठठ्ठा कर हंसा था -
चलो फिर चांद पर चलते हैं। अब तो वहां भी कोई दित न होवा करेगी।

Bhupen said...

थोड़ी देर हम भी आपके साथ बरेली पहुंच गए. बीमारी की वजह से वहां न हो पाने का अफ़सोस कुछ कम हुआ.

Anil Pusadkar said...

पढते-पढते अचानक़ घबरा गया था मै,जब एक जनवरी 2010 की बात आई,सच कंहू तो मेरे जीवन मे भी ऐसा ही हुआ था लेकिन वो तारीख लिखने वाले ने नही बदली।भोपाल से आये थे निर्भीक वर्मा।सच मे निर्भीक थे और जब मै उनके साथ काम करने लगा तो वे मुझे पसंद करने लगे थे।गालियां मेरे भी मुंह से झरती थी और उनके भी।संपादक/मालिक को तो……।कुछ समझते ही नही थे।हमेशा की तरह उस रात भी मै पेस्टिंग,रीडिंग और रोज़ के कामो से जुझ रहा था कि वे आये और बोले क्या कर रहे हो अनिल बाबू,मैने कहा बस भैया थोडी देर मे फ़्री हो जाऊंगा।ठहाका लगा कर उन्होने कहा था कि बनिये की नौकरी करने वाले कभी फ़्री नही हो सकते।मै बताऊंगा तुम्हे वे लोग कैसे फ़्री होते हैं।ऊपर बैठा हूं अगर फ़्री हो जाओ तो आ जाना।उसके बाद मुझे पता ही नही चला कब काम खतम हुआ।ऊपर अपनी टेबल पर पहुंचा तो एक बडा सा कागज़ फ़ोल्ड करके पेपर वेट के नीचे दबा हुआ था।उस पर लाल स्याही से लिखा हुआ था एक फ़रवरी और उस पर घेरा खिंचा हुआ था।वर्मा जी की राईटिंग थी,क्या कहना चाह्ते हैं मै सोचता रह गया।उस समय रात काफ़ी हो चुकी थी।उन्हे डिस्टर्ब न कर सोचा सुबह फ़ोन लगा लूंगा मगर सुबह इसकी नौबत ही नही आई एक फ़ोन आया और मुझे बताया गया वर्मा जी ने खुदकुशी कर ली है।मेरे कानो मे सिर्फ़ यही गूंजता रहा कि फ़्री कैसे होते है मै बताऊंगा।पता नही वर्मा जी फ़्री हुये या नही लेकिन उस दौरान मेरी मानसिक स्थिती बहुत खराब रही।जीवन मे पहली बार किसी मौत ने मुझे डिस्टर्ब किया था।उन्होने तारीख आगे नही बढाई थी।एक जनवरी दस जनवरी,बीस जनवरी और हां तीस जनवरी भी मुर्दाबाद,मुर्दाबाद,मुर्दाबाद,मुर्दाबाद,मुर्दा………॥

pankaj srivastava said...

सठिया गए हैं वीरेन दा..उन्हें मरने की इजाजत नहीं है...क्म से कम जब तक हम सब जिंदा हैं...उसके बाद मरें चाहे भाड़ में जाएं...हमे क्या..

आशुतोष कुमार said...

सठिया नहीं गए.... चूतिया बना रहे हैं . ... एक जनवरी २०१० को चले जायेंगे .... कहाँ चले जायेंगे....?पूछिए उनसे आज तक भूल कर भी किसी तय तारीख पर कहीं आये गए हैं? तारीख तय कर ली है तो पक्का ही है उस दिन तो कहीं नहीं जायेंगे. भैंसे वाले को तो एकाध बार पहले भी चूतिया बना कर लौटाल चुके ही हैं. और आपको चुप्पे से तो कोई कहीं जाने नहीं देगा प्यारे .ये जो लम्बा चौड़ा अपने आशिकों का गिरोह बना रखा है , वो तो साथ लगा ही रहेगा. जब इतने लाख बरस चल कर आये हो तो उत्ते लाख बरस और चल कर जाना ही है न?

Ek ziddi dhun said...

जब सब एक ही सुर अलाप रहे हैं और रुक नहीं रहे है, मतलब रायता फैलाये ही जां रहे हैं तो इसी ब्लॉग से एक पुराणी पोस्ट का टुकडा-
यानि वीरेन डंगवाल के किये उनके ही द्वारा अनुवाद की गई नाजिम हिकमत की कविता-

जीने के बारे में
-----------

एक

जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको जीना चाहिये बड़ी संजीदगी के साथ
मसलन किसी गिलहरी की तरह -
मेरा मतलब है जीवन से सुदूर और ऊपर की किसी
चीज़ की तलाश किये बग़ैर,
मेरा मतलब है ज़िन्दा रहना आपका मुकम्मिल काम होना चाहिये.
जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको इसे गंभीरता से लेना चाहिये,
ऐसी और इस हद तक
कि, मिसाल के तौर पर, आपके हाथ बंधे आपकी पीठ पर,
आपकी पीठ दीवाल पर,
या फिर किसी प्रयोगशाला में
अपने सफ़ेद कोट और हिफ़ाज़ती चश्मों में
आप मर सकें लोगों के लिये -
उन लोगों तक के लिये जिनके चेहरे भी आपने कभी नहीं देखे,
गो कि जानते हैं आप
कि जीवन सबसे ज़्यादा वास्तविक, सबसे सुन्दर चीज़ है.
मेरा मतलब है, आपको इतनी संजीदगी से लेना चाहिये जीवन को
कि, उदाहरण के लिये, सत्तर की उम्र में भी आप रोपें जैतून का पौधा -
और यह नहीं कि अपने बच्चों के लिये, बल्कि इसलिये कि
हालांकि आप मृत्यु से डरते हैं
पर उस पर विश्वास नहीं करते
क्योंकि जीवन, मेरा मतलब है, ज़्यादा वज़नदार चीज़ है.

दो

मान लीजिये हम बहुत बीमार हैं - ऑपरेशन की ज़रूरत है -
जिसका मतलब है कि हो सकता है हम उठ भी न सकें
उस सफ़ेद मेज़ से
गो कि यह असंभव है अफ़सोस महसूस न करना
थोड़ा जल्दी चले जाने के बारे में
हम फिर भी हंसेंगे चुटकुले सुनते हुए,
हम देखेंगे खिड़की के बाहर कि बारिश तो नहीं हो रही,
या चिन्ताकुल प्रतीक्षा करेंगे
ताज़ा समाचार प्रसारण की ...
मान लीजिये हम मोर्चे पर हैं -
लड़ने लायक किसी चीज़ के लिये.
वहां पहले ही हमले में, उसी दिन
हम औंधे गिर सकते हैं मुंह के बल, मुर्दा.
हम जानते होंगे इसे एक अजीब गुस्से के साथ,
फिर भी हम सोचते - सोचते हलकान कर लेंगे ख़ुद को
उस युद्ध के नतीज़े की बाबत जो बरसों चल सकता है.
मान लीजिये हम जेल में हैं
और पचास की उम्र की लपेट में,
और लगाइये कि अभी अठ्ठारह बरस बाक़ी हैं
लौह फ़ाटकों के खुलने में.
हम फिर भी जियेंगे बाहर की दुनिया के साथ,
इसके लोगों, पशुओं, संघर्षों और हवा के -
मेरा मतलब कि दीवारों के पार की दुनिया के साथ
मेरा मतलब, कैसे भी कहीं भी हों हम
हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.

तीन

यह धरती ठण्डी हो जायेगी एक दिन
सितारों में एक सितारा
ऊपर से सबसे नन्हा
नीले मख़मल पर एक सुनहली ज़र्रा -
मेरा मतलब है - यही -हमारी महान पृथ्वी
यह पृथ्वी ठण्डी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ़ की सिल्ली की तरह नहीं
मुर्दा बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोखले अखरोट की तरह यह लुढ़कती होगी,
घनघोर काले शून्य में ...
अभी इसी वक़्त आपको इसका दुःख मनाना चाहिये
-अभी, इसी वक़्त ज़रूरी है आपके लिये
यह अफ़सोस महसूस करना -
क्योंकि दुनिया को इतना ही प्यार करना ज़रूरी है
अगर आपको कहना है "मैं जिया

दीपा पाठक said...

दिलचस्प पोस्ट और उससे भी दिलचस्प हैं टिप्पणियां। नाजिम हिकमत जिंदाबाद!

मुनीश ( munish ) said...

गर खुदा मुझसे कहे कुछ मांग ऐ बन्दे मेरे ,
मैं ये मांगूं महफिलों के दौर ये चलते रहें ,
हम प्याला, हम निवाला ,हम सफ़र ,हम राज़ हों
ता-क़यामत जो चिरागों की तरह जलते रहें
---गुलशन बावरा (ज़ंजीर)

ravindra vyas said...

bahut sunder post hai aur ziddi dhun ne kamaal ki ke kavita ansh lagayen hain!

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

मरें उनके दुश्मन! और दुश्मन भी क्यों मरें?

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

...आपके छोटे बेटे प्रफुल्ला के शुभ विवाह की बधाई तो दी ही नहीं! धत्तेरे की!! अभी लीजिये जोरों से.

hamarijamin said...

koka kola ki kasam ki reliance ki tel ki kasam ki sachin tendulkar ki kasam ki ....viren dada 'budha' gaye hain! we lahkatei kar rahe hain. ANIL BHAIYA unhe kahiye ki jyada lafangayee na karein