Friday, December 11, 2009

ओ आमाजी मोर नी मारणा मोर नी गवांणा हो



’सिल्क रूट’ नामक बैन्ड की ’मोर नी’. यह अविस्मरणीय हिमांचली कम्पोज़ीशन मुझे हमारी कबाड़न विनीता यशस्वी के मार्फ़त मिली. आनन्द उठाइये.



अम्मा पुछदी सुन धिये मेरे ए
दुबड़ी इतणी तू किया करि होई हो

पारली बणिया मोर जो बोले हो
आमाजी इना मोरे निंदर गंवाई हो

सद लै बन्दूकी जो सद लै शिकारी जो
धिये भला ऐता मोर मार गिराणा हो

मोर नी मारणा मोर नी गवांणा हो
आमाजी ऐता मोर पिंजरे पुवाणा हो

कुथी जांदा चन्द्रमा कुथी जांदे तारे हो
ओ आमाजी कुथी जांदे दिलांदे पियारे हो

छुपी जांदा चन्द्रमा छुपी जांदे तारे हो
ओ धिये भला नईंयो छुपदे दिलांदे पियारे हो


भावानुवाद: (मां बेटी से पूछती है कि मेरी प्यारी तू इतनी उदास क्यूं है. बेटी कहती है कि अगले जंगल में मोर पुकारें लगा रहा है वह मेरी नींदें उड़ा ले जा रहा है. मां कहती है : शिकारियों को उनकी बन्दूकों समेत बुलवा लेंगे जो इस मोर को मार डालेंगे. बेटी कहती है : नहीं हम मोर को मारेंगे नहीं. मैं उसे पिंजरे में रख लूंगी.

"मां चांद कहां चला जाता है और कहां चले जाते हैं तारे? ओ मां हमारे दिलों में बसे लोग कहां चले जाते हैं?"

"चांद छिपने चला जाता है और छिपते चले जाते हैं तारे. ओ मेरी प्यारी बेटू, हमारे दिलों में बसे लोग कहीं नहीं जाते. वे रहते हैं हमारे दिलों में"
)

* १. अनुवाद की ख़ामियों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूं.
** २. सुनने में आये आनन्द की ज़िम्मेदारी विनीता की है.


('सिल्क रूट’ का कुछ और संगीत और इन प्रतिभाशाली युवा संगीतकारों पर एक और पोस्ट जल्द ही.)

7 comments:

विजय गौड़ said...

बहुत ही सुंदर गीत है, आभार किसका करूं- आपका या विनीता कबाड़न का ?
चलो दोनों का ही सही।

MAHAVEER B SEMLANI said...

’मोर नी’. कानो को भा गई जी! विनीता यशस्वीजी के साथ-साथ भगवन, आपको भी प्रणाम! कर्णप्रिय लोक गायन सुनाने के लिऎ,

Udan Tashtari said...

कर्ण प्रिय...संगीत...आनन्द आया.

चन्दन said...

मेरे सिस्टम पर आपके द्वारा पोस्ट की गई सारी बातें तो खुलती है पर गाना, कोई भी नहीं खुलता है। लिंक की जगह बिल्कुल सफेद सा जाने क्या आ जाता है?

Priyankar said...

सुंदर,सुरीला,शानदार . कबाड़ी समुदाय के प्रति आभार ! और की प्रतीक्षा .

अजेय said...

इस मूल चम्बियाली पारंपरिक लोक गीत को मेरा एक दोस्त ईश्वर बड़े मन से गाता था. बाद में मोहित(सिल्क रूट का लीड सिंगर) नाम का एक लड़का इसे आधुनिक फ्यूजन वर्जन में लाया तो हिमाचल के युवा वर्ग में सनसनी फैल गयी.
मोहित की गायकी में बहुत रेंज और डेप्थ है.यहाँ अवाज़ नहीं सुन पा रहा. पर मेरे पास इस का टेप है. करनैल राणा के बाद मोहित ही मेरा प्रिय हिमचली गायक है.
अनुवाद लगभग सटीक है. वैसे मुझे हिमाचली पहाड़ी (काँगडा /चम्बा की बोली )ठीक से नहीं आती, पर अनुमान है कि दुबड़ी का मतलब उदास नहीं , कृशकाय / कम्ज़ोर है.
सुन्दर पोस्ट. यह आईडिया भी कमाल का है. आप दोनों बधाई के पात्र हैं.

अजेय said...

anoop jee kee Tippanee:
मोहित चौहान का गाया ओ आमा जी वाला लोक गीत मुझे भी बहुत पसंद है. दूसरी पंक्ति में दुबड़ी नहीं तू बड़ी शब्‍द है. इस गीत का पाठ और मोहित के बारे में थोड़ी सी जानकारी हमने इस बार के हिमाचल मित्र (शरद अंक) में दी है. इस लिंक पर यह पेज देखा जा सकता है - http://himachalmitra.com/1209/20%20Pahari%20kalam%20lokgeet.pdf

meree Tippanee:
अजेय said...
अनूप जी, भाषा आप लोगों की है , गुस्ताखी माफ, मेरी यादआश्त अगर ठीक है तो, ईश्वर जो गाता था, अशोक पाण्डे वाले पाठ के ज़्यादा निकट था. मसलन - दुबड़ी, बणेया, एता, पुवाणा, धिये भला , और भी बहुत कुछ. हो सकता है, उसी असर की वजह से मुझे मोहित वाला वर्जन भी हिमाचल मित्र वाले पाठ से बहुत मिलता नही दिखता.
मुझे सही सही याद है कि तू बड़ी और दुबडी को ले कर एक बार कुछ पहाड़ी छात्रों में जम कर बहस हुई थी. लेकिन ईश्वर ने यह कह कर बहस खतम कर दी थी कि यह मेरे इलाक़े का गीत है, और हमारे में यह दुबड़ी ही है. ईश्वर चोराह या भरमौर क्षेत्र का रहने वाला था . खैर उन दिनों मेरे पास एक बाँसुरी होती थी ,और् पहाड़ी न समझ सकने का कोई ग़म नही था मुझे. आप के इस पोस्ट ने थोड़ा सोचने पर मज़बूर कर दिया है.

anoop jee kaa bhool sudhaar :

December 15, 2009 10:33 PM
प्रिय अजेय जी,
धन्‍यवाद.
मैं ही गलत हूं. यू ट्यूब में यह गीत सुन सुन कर मैंने ही यह पाठ बना डाला और कबाड़ी मित्रों के बीच भी दखल दिया. भाई सिद्धेश्‍वर जी से भी माफी मांगता हूं.
अजेय, आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर मैंने मंडी में केशव चंद्र जी को फोन किया. उनके कहने पर चंबा में विजय शर्मा जी से बात की. आपके पाठ की पुष्टि हुई.
अब मेरे दिमाग की खिड़की खुली. मैं सोचता था. बेटी बड़ी हो गई, प्रेम में पड़ गई. लेकिन मामला यह नहीं है, नायिका प्रेम में दुबली हुई है.
खेद इस बात का भी है कि हमने हिमाचल मित्र में 'तू बड़ी' वाला ही पाठ छापा है. अगले अंक में इस भूल का सुधार करना होगा. भाई विजय शर्मा से निवेदन किया है कि इसका प्रामाणिक या प्रचलित पाठ हमें उपलब्‍ध करा दें.
इस प्रसंग से यह सबक भी मिला कि लोक गीतों के पाठ को किसी जानकार व्‍यक्ति से लेना चाहिए. और सबसे बड़ा सबक यह कि खुद को हरफन मौला समझने की बेवकूफी नहीं करनी चाहिए.
क्षमा और आभार
अनूप

meree Tippanee:
# अनूप, बड़े भाई, इतनी बड़ी लापरवाही के लिए मैं आप को क्षमा नहीं कर सकता.
# आपको, जो गल सुणा जैसा सधा हुआ कॉलम लिखते हैं.
# आप को , जिस ने पहाड़ी भाषा जैसे मृतप्राय मुद्दे को आपनी पत्रिका मे ज़ोरोशोर से पुनर्जीवित करने का प्रयास किया.
# आप को , जिस के खून में अम्मा पुच्छदी नामक गीत घुला हुआ होना चाहिए.
# आप को, जिस ने "जगत का मेला " संग्रह में सुन्दर शृंगार कविताएं लिखीं.
दूसरी बात ,
# क्षमा मुझ से न माँग कर हिमाचल मित्र के उन तमाम गम्भीर पाठकों से माँगिए,जो इस पत्रिका को उम्मीद से देखते हैं. और यहाँ न मांग कर उसी मंच पर माँगें.
# सिद्धेश्वर से न माँग कर अशोक पाण्डेय से माँगिए, कबाड़ खाने में जा कर के, क्यों कि मुद्दा कबाड़ खाने वालों का था. यह ईमानदारी का तक़ाज़ा है. ई- मेल या फोन करना तो अपना पल्ला झाड़ना हो जाएगा.
# और मेरी उस बाँसुरी से माँगिए, जिसे आज तक मैं ने बड़ी हिफाज़त से सहेज कर रखा है.
और उस माफी नामे में मेरे उस गद्दी दोस्त ईश्वर का भी ज़िक्र कर दीजिए , जो उन दिनों PEC चण्डीगढ़ मे पढ़्ता था, और आज किसी एयर कंडीशंड ऑफिस में बैठ कर मल्टीनेशनल बीड़ी पीता होगा.
# विजय भाई, हिमाचली संस्कृति का उत्स खोजना हो तो चम्बा जाना ही पड़ेगा. चाहे वो मोहित चौहान हों या कोई आउटसाईडर.....

December 16, 2009 10:05 PM