चन्द्रकान्त देवताले जी को आप कबाड़ख़ाने पर पहले भी कई बार पढ़ चुके हैं. उनकी प्रमुख कृतियों में लकड़बग्घा हँस रहा है (१९७०), हड्डियों में छिपा ज्वर(१९७३), दीवारों पर ख़ून से (१९७५), रोशनी के मैदान की तरफ़ (१९८२), भूखण्ड तप रहा है (१९८२), आग हर चीज में बताई गई थी (१९८७) और पत्थर की बैंच (१९९६) शामिल हैं. देवताले जी हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकारों में गिने जाते हैं. आज गुनिये उनकी एक कविता :
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोये हैं उनकी नींद हराम हो जाये
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
खून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ
5 comments:
बहुत सुन्दर रचना!
22.05.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल करने के लिए इसका लिंक लिया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान...
हो सके तो बनो पहरुवे ...
उम्दा खयाल ....!!
अद्भुत कल्पना । वाह ।
बेहतरीन कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद.
नींद नहीं आ रही तो जांच करो खून की कहीं ठंडा तो नहीं हुआ..!
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