Tuesday, November 30, 2010

मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं

हमारे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल के बहाने कई सवालों से मुखातिब  यह कविता मुझे बंगलौर से मृत्युंजय ने नीरज बसलियाल की पिछली पोस्ट पर बतौर टिप्पणी लगाने के वास्ते भेजी थी. कविता लम्बी ही और अच्छी. सो इसे एक पोस्ट के तौर पर लगा रहा हूँ. 

वीरेन दा के संग एकालाप  

'क्या करूँ
कि रात न हो
टी.वी. का बटन दबाता जाऊँ
देखूं खून-खराबे या नाच-गाने के रंगीन दृश्य
कि रोऊँ धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूँ
कि सोता रहूँ
जैसे दिन-दिन भर सोता हूँ
कि झगडूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूँ
अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊँ
मगर आयं-बायं-शायं कोई बात न हो' 
तब मेरा क्या होगा वीरेन दा-  
दिन कहीं बचा है क्या वीरेन दा?
कि पूरा दिन एक विशाल चमकीली काली पट्टियों वाला विज्ञापन है
जिसमें रंगों क़ी अंधेरी सुबहें परवाज़ करती है.
कि पूरी रात एक रिमोट है
जिसके बटन दिन के हाथों में हैं.
कि पूरी कायनात एक स्क्रीन में बदल गयी है
सब कुछ आभाषी हो गया है.
कि प्रेम करने को आतुर कमीने नंगे बदन खुले रास्ते में खड़े हैं
रास्ता छेंक कर
कि रक्त की शरण्य भी आखेटकों की सैरगाह है
कि पटक देने का जी चाहता है सर
कहीं भी  
मेरा अतीत मेरा गुनाह है
मेरा वर्तमान मेरी सज़ा.
आस्था चैनल पहले बहुत आस्था देखता था मैं
फिर नहीं देखने लगा
फिर हंसी आने लगी
और अब यही हंसी गले में फंसी हुई है
धंसी हुई है
पाताल तक इतनी
कि अपनी ही हंसी अपनी ही गर्दन मरोड़ने वाली है
तोड़ने ही वाली है सारे विश्वास
आस भी और सांस भी  
मैं तो... मन करता है अपनी टाँगे धीरे धीरे रेत दूं,  काट लूं
गर्दन खींच दूं रबर की तरह
मुट्ठियों में भींच लूं सारी हड्डियाँ
बाकी लोथ पटक दूं
सारे कमरे में फ़ैल जाये आदिम रक्त गंध
कहीं तो कुछ हो  
मत बदले, बचा रहे
मत बचे, याद रहे
याद न रहे, सपने रहें
सपने जो हरदम हकीकत के अदृश्य हाथों की अवश कठपुतलियाँ हैं
और हकीकत तो वही है न वीरेन दा! 
ये हम कहाँ आ गए वीरेन दा-
कि आपके गर्म हाथों में छुपाकर अपना मुंह
रोने का मन कर रहा है
पर आंसू नश्तर की तरह चुभ रहे हैं
रोती हुई आंखे दर्द से सूख गयी हैं
दिमाग की नस तक फ़ैल गया है चिपचिपा मांस
मेरी अपनी ही पलकें चुभ रही हैं खुले घाव में
आपकी हथेली को भेद हज़ार कीड़े भिनक रहे हैं
रक्त गंध के हर ज़र्रे में उनकी नुकीली सूंड गड़ गयी है
उसी भयानक स्क्रीन पर लाईव चल रहा है यह दृश्य
पीछे से एक आकार में अंगुलियाँ उठाये एक हिंस्र पशु नगाड़ों के शोर में अपनी बारीक दाढ़ी में नफीस तराना पढ़ रहा है! 
आप सुन रहे हैं न !
देखा आपने,
आपने देखा !
देख रहे हैं न. 
चलिए उठिए वीरेन दा,
आप इतने घायल तो कभी नहीं हुए
हलक तक तक पसरे लहू में छप छप करते हम स्क्रीन पर दिख रहे हैं
देखिये नाटक नहीं है ये
टी वी चल रहा है
भागिए वीरेन दा
जल्दी करिए
कुचल नहीं सकते तो रेंग कर छुपने की कोशिश करिए प्लीज
हज़ार मेगा पिक्सल की रेंज में हैं हम !
लोग हंस रहे हैं
पापकार्न के ठोंगे और नया सिम, अभी अभी खरीदे गए हैं. 
एक नौकरी चहिये वीरेन दा, मैं तंग आ गया हूँ इस हरामपंथी से 
चुपचाप पडा रहूँ कोई आये न जाए कुछ सुनूं नहीं कुछ भी देख न सकूं महसूस करना बंद कर दूं बउरा जाऊं
सुख में नहीं दुःख में नहीं चेतना से भाग जाऊं
एक नौकरी चहिये वीरेन दा
अपने कमीनेपन क़ी बाड़ लगाकर रोक लेना चाहता हूँ सब
क्यों वीरेन दा
इस हरमजदगी के बाद भी वह मुझे प्रेम करती है
आप भी तो करते हैं
बर्दाश्त नहीं होता अब कुछ भी असली
मुझे छोड़ दीजिये
मत छूइए मुझे
हट जाईये
हटिये
मुझे एक नौकरी चहिये वीरेन दा
वहीं उस स्क्रीन के भीतर
मेरे गले तक उल्टिओं का स्वाद भर आया है
उसे पी लूंगा
मैं कमज़ोर नहीं हूँ वीरेन दा
आपने क्या समझ रक्खा है
मैं जानता हूँ ये सब नकली है
मैं अभी फोड़ डालूँगा पूरा प्रोजेक्टर
एक नौकरी दिलाईये न वीरेन दा
नहीं दिलवा सकते फिर भी दिलवाईये तो..... 
शाम को मर जाता है वक्त
वक्त क़ी लाश पर दिन और रात के गिद्ध खरोंचते है जटिल आकृतियाँ
सुबह गीला लाल रंग पसर जायेगा सब ओर
24 -7  का धंधा है यह
इतनी कठपुतलियाँ इतने वेग से इतनी तरफ घूम रही हैं
इतने धागों से बंधी हुई बड़े से देग में
यह रणनीति बनाने का वक्त है
वहीं चलिए वीरेन दा
उठिए, लहू सने होठों में खैनी दबाइए
अपनी कैरिअर वाली साईकिल निकालिए
चलिए चलते हैं कानपूर के रास्ते
जहां आपके दोस्त और मेरे गुरु हैं
जहां लोग हैं
इस स्क्रीन से बाहर निकालिए भाई
कोई प्यारा व्यारा नहीं है यहाँ
चलिए! 
अपने सलवटों भरे चहरे को संभालिये
जी कड़ा करिए
हैन्डिल थाम लीजिये कस कर
पूरे वज़न को गुटठल भरे पैरों में
उतारिये तो सही
अपनी दवा की डिबिया, चप्पलें और
चश्मा झोले में भर लीजिए

बाप रे संभालिये इतनी तेजी इस उम्र में
मैं छूट जाउंगा
गिर जाऊंगा मैं
सहस्रों फुट नीचे यहीं खो जाउंगा मैं
इन प्रिज्मों की आभाषी दुनिया में
ज़रा धीरे चलिए
हज़ारहां रपट चले घुटनों पर तो तरस खाईये
ये कोई फैसले का वक्त नहीं है
अभी तो रात बाकी है बात बाकी है
बाकी, मीर अब नहीं हैं
कोई पीर भी नहीं है 
हिंस्र पशुओं से भरा  ये अन्धेरा काफी डरावना है
अपने डर से डरिये वीरेन दा धीरे चलिए
मेरे भीतर एक डोमाजी उस्ताद बैठे हैं  
धीरे चल बुढऊ!
चाल बदल कर नहीं बच सकता तू ! 
माफ़ करिएगा वीरेन दा
अनाप-शनाप बक गया गुस्से में
पर जा कहाँ रहे हैं
चला तो आप ऐसे रहे हैं जैसे जल्दी ही कहीं पहुँचना है हमें
पर इसी स्क्रीन के भीतर कहाँ तक जायेंगे आप
ऐसा न करिए कि मुझे गिरा दीजिये कहीं
यह रास्ता इतिहास की तरफ तो जाता नहीं है
भविष्य की तरफ तो जाता नहीं है
वर्तमान में तो आप भाग ही रहे हैं
फिर जा कहाँ रहे हैं हम  
अचम्भा है यह तो अविश्वसनीय असंभव
हम कहीं पहुँच गए
ये क्या जगह है दोस्तों ! 
ये क्या हो रहा है
मैं अब और सह नहीं पाऊंगा
मुझे मितली आ रही है
फिर से दिन उग आया है वीरेन दा
चिड़ियों की चोंचे नर्म शबनमी रक्त में लिथड़ी हैं
पेड़ अट्टहास कर रहे हैं
बाजरे की कलगी के रोयें चुभ रहे हैं भालों की तरह हवा की अंतड़ियों में
हरियाली के थक्कों के बीच आप मुझे कहाँ ले आये हैं
सरपत की नुकीली पत्तियां खुखरियों की तरह काट रही हैं मुझे इस कछार में
इतनी रेत इतनी रेत
मेरा दम घुट रहा है
वक्त बीत रहा है वीर....ए ..

4 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

आधुनिक जीवन की विसंगति से उपजी कविता भीतर तक झकझोर देती है... बहुत प्रभाव छोड़ रही है...

प्रवीण पाण्डेय said...

सशक्त अभिव्यक्ति।

सोमेश सक्सेना said...

काफी लंबी कविता है। अभी सरसरी तौर पर पढ़ा। इस कविता में कुछ तो है जो पहली बार में ही बाँध लेती है। बाद में सुकून से पढ़ूंगा। वैसे इस कविता को जितने बार भी पढ़ा जाए कुछ न कुछ नया अर्थ हर बार खुलेगा।

सोमेश सक्सेना
शब्द साधना

पंकज थपलियाल said...

कवि दुष्यन्त की याद ताजा हो गयी