Sunday, July 10, 2011

हेम होता तो सवाल उठाता - 4

(पिछली किस्त से जारी)


२००८ के बम धमाकों के सन्दर्भ में पुलिस की कार्यप्रणाली संकेत करती है कि - कानून की एक सपाट चट्टान से उकेरी गई एक एजेन्सी होने से कहीं दूर - यह तमाम दरारों से भरपूर यह एक ऐसी अटपट संरचना है जिसमें सम्मान और श्रेय लेने हेतु प्रतियोगिता चलती रहती है जिसके लिए कई बार मानव-जीवन और स्वतन्त्रता तक को ताक पर रख दिया जाता है. यह प्रतियोगिता आमतौर पर मीडिया में आयोजित होती है जिससे महत्वपूर्ण मसलों पर सार्वजनिक बहस भ्रमित हो जाती है.

इस लिहाज़ से पत्रकार भी दोषहीन नहीं हैं क्योंकि वे अक्सर सतही तौर पर एक्सक्लूसिव लगने वाली एक खबर के लिए निर्णायकता को टाले रखने के लिए तैयार रहते हैं. यह प्रवृत्ति १३ दिसम्बर २००१ को भारतीय संसद पर हुए हमले की खोजबीन की कार्यप्रणाली के मीडिया कवरेज में देखी गई. निश्चित ही यहां प्रतिद्वंद्वात्मक नैरेटिव अनुपस्थित थे चूंकि पुलिस ने एक इकलौता और जटिलताहीन संस्करण देने का फ़ैसला किया अन्ततं यह संस्करण झूठा साबित हुआ और मीडिया ने इसकी तार्किक विषमताओं पए सवाल करने के तमाम मौके गंवा दिए.

शुरुआत ही में यह दिलचस्पी का विषय था कि मामले को एक ऐसे सहायक पुलिस अधीक्षक के हवाले किया गया जो जांच-पड़ताल और कानूनी पेंचों में विशेषज्ञता के लिए नहीं बल्कि सशस्त्र मुठभेड़ों में संदिग्ध अपराधियों का सफ़ाया करने के लिए ज़्यादा जाना जाता था. संपत्ति गिरोहों और रंगदारी वसूलने वालों से भी उसके सम्बन्धों के बारे में समुचित प्रमाण थे.

हमले के एक सप्ताह बाद ही यह मामला सुलझा लेने का दावा किया गया. जांच अधिकारी ने दिल्ली के मीडिया के सम्मुख अपने प्रमुख संदिग्ध अफ़ज़ल गुरू को पेश किया और वह गौरव के साथ उस दॄश्य को देखता रहा जब संदिग्ध ने भारतीय संसद पर हुए हमले में अपना हाथ होने की कथा बयान की. लेकिन तक अफ़ज़ल गुरू स्पष्टतः अपनी "स्क्रिप्ट" से अधिक बोल गया जब उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक शेख अब्दुल रहमान गीलानी की रिहाई की मांग की जिसे भी इस अपराध के लिए गिरफ़्तार किया गया था. कानूनी नज़ाकत और सार्वजनिकता के लिए ज़रा भी आदर न दिखाते हुए जांच अधिकारी ने सब के सामने अफ़ज़ल गुरू को एक निषिद्ध नाम लेने के लिए बुरी तरह फटकार लगाई. इसके बाद वह उपस्थित मीडिया से मुखातिब हुआ और उसने उनसे गीलानी के नाम का ज़िक्र भूल जाने की राय दी.

कहने की ज़रूरत नहीं, आतंकवाद के खिलाफ़ मुहिम के लिए मीडिया इस असामान्य अनुरोध से काफ़ी आगे निकल गया. उसने न सिर्फ़ गीलानी के शामिल ने होने की बात को दरकिनार किया, उसने एक कदम आगे जाकर एक अनजाने कॉलेज लैक्चरर के अपराध को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया और उसकी तस्वीर एक ऐसे शातिर दिमाग की खींच दी जिसका इकलौता उद्देश्य और बौद्धिक प्रेरणा उस हमले को अंजाम देने की थी.

यदि आतंकवाद के खिलाफ़ एक कामयाब संघर्ष के लिए एकजुट और सुचेत जनता पहली ज़रूरत है तो मीडिया पूरे प्रयास कर रहा है कि इसकी विपरीत परिस्थितियां पैदा हों. ऐसे मुद्दों के साथ एक बेहतर जुड़ाव के लिए कम से कम इस बात की ज़रूरत होगी - पुलिस बल के साथ एक समुचित दूरी और तटस्थ सम्बन्ध. एक्सक्लूसिव समाचारों के लिए लालसा और विशेषाधिकार से हासिल किए गए विवरणों को जुटाने की प्रवृत्ति त्यागी जानी चाहिए. बावजूद अमूर्ततः "कानून" के प्रति उनके दायित्वों के पुलिस और अन्य राजकीय एजेन्सियों के अपने सामूहिक स्वार्थ होते हैं और अन्दरूनी प्रतिस्पर्धाएं भी. इसके परिणामस्वरूप जो असंगत नैरेटिव सामने आते हैं, उन्हें मीडिया अक्सर बढ़ाचढ़ाकर पेश करता है, जिसके कारण जनता का विश्वास कमज़ोर होता है. यह प्रभावी तौर पर पुलिसिया संस्थाओं द्वारा जनता की स्वतन्त्रता पर बढ़ती घुसपैठ में मीडिया को ज़ुर्म में भागीदार बनाता है. मूल अधिकारों पर बढ़ते इन खतरों को रोकने के लिए पत्रकारिता को अपनी स्वतन्त्रता वापस हासिल करनी होगी. वो है, मुश्किल सवालों को पूछने और सत्ता को चुनौती दे पाने की स्वतन्त्रता.

(विचारधारा वाला पत्रकार - हेम चन्द्र पांडे से. पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस पते पर मेल करें - bhupens@gmail.com अथवा भूपेन से इस नम्बर पर बात करें -.+91-9999169886 पुस्तक की कीमत है १५० रुपए)

1 comment:

विजय गौड़ said...

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