Monday, August 1, 2011

मैं तुम्हारा शरणार्थी चन्द्रमा हूं

निज़ार क़ब्बानी की एक ख़ासी लम्बी कविता पेश कर रहा हूं जिसे उन्होंने लन्दन में लम्बे प्रवास के बाद वापस अपने नगर दमिश्क पहुंचने पर दमिश्क पर ही लिखा था. इस कविता को समकालीन अरब कविता में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है -


ये मेरे साथ क्या कर रहे हो, दमिश्क?

एक

इस दफ़ा मेरी आवाज़ गूंजती है दमिश्क से
वह गूंजती है शाम में
मेरे मां और पिता के घर से. मेरी देह का भूगोल बदलता है.
मेरे रक्त की कोशिकाएं हरी हो जाती हैं.
हरी है मेरी वर्णमाला
शाम में. मेरे मुंह के लिए उभरता है एक नया मुंह
मेरी आवाज़ के लिए उभरती है एक नई आवाज़
और एक कबीला बन जाती हैं
मेरी उंगलियां.

दो

बादलों की पीठ की सवारी करता
मैं लौटता हूं दमिश्क
दुनिया के सबसे सुन्दर दो घोड़ों की सवारी करता
जुनून का घोड़ा
कविता का घोड़ा.
मैं लौटता हूं साठ साल बाद
अपनी गर्भनाल खोजने
दमिश्क के उस नाई को खोजने जिसने मेरा ख़तना किया था,
उस दाई को खोजने जिसने पलंग के नीचे चिलमची में उछाला था मुझे
और मेरे पिता से पाया था सोने का एक सिक्का,
मार्च १९२३ के उस दिन
उसने छोड़ा था हमारा घर
उसके हाथ सने हुए थे कविता के रक्त से ...

तीन

मैं लौटता हूं उस गर्भ तक जिसमें मेरा निर्माण हुआ था ...
पहली किताब तक जिसे मैंने पढ़ा था ...
पहली स्त्री तक जिसने मुझे पढ़ाया था ...
प्रेम के भूगोल तक ...
और स्त्रियों के भूगोल तक ...

चार

मैं लौटता हूं
तमाम महाद्वीपों में मेरे हाथ-पैरों के बिखर चुकने के बाद
तमाम होटलों में मेरा कफ़ छितर चुकने के बाद
मेरी मां की चादरों को सदाबहार के साबुन से खुशबूदार बना लिए जाने के बाद
मुझे सोने के लिए और कोई पलंग नहीं मिला
और तेल और अजवाइन की उस "दुल्हन" के बाद
जिसे वह बिछा देगी मेरे सामने
अब दुनिया की और कोई "दुल्हन" मुझे ख़ुश नहीं करती
और बेल के उस मुरब्बे के बाद, जिसे वह अपने हाथों बनाएगी
मैं सुबह नाश्ते को ले कर अब उतना उत्साहित नहीं रहता
और काली बेरियों के शरबत के बाद जिसे वह तैयार करेगी
किसी और शराब से नहीं होता नशा मुझे ...

पांच

मैं दाख़िल होता हूं उमय्याद की मस्जिद के अहाते में
और वहां मौजूद हर शख़्स से दुआसलाम करता हूं
एक कोने से ... कोने तक
एक खपरैल से ... खपरैल तक
फ़ाख़्ते से... फ़ाख़्ते तक
मैं कूफ़ी लिखावट के बग़ीचों में टहलता हूं
और ईश्वर के शब्दों के सुन्दर फूल तोड़ता हूं
और अपनी आंखों से सुनता हूं पच्चीकारी की आवाज़
और अकीक की तस्बीहों का संगीत
इलहाम और परमानन्द की अवस्था मुझे अपने आग़ोश में ले लेती है
सो मैं अपने सामने पड़ने वाली पहली मीनार की सीढ़ियां चढ़ना शुरू करता हूं
जो पुकार रही -
"चमेली के पास आओ"
"चमेली के पास आओ"

छः

अपनी इच्छाओं की बारिशों के दाग़ लिए
तुम तक लौटता हुआ
लौटता हुआ
अपनी ज़ेबों को
मेवों, हरे आलूचों, और हरे बादामों से भरने
लौटता हुआ घोंघे के अपने कवच में
लौटता हुआ अपने जन्म के पलंग तक
क्योंकि वर्साय के फ़व्वारे
फ़ाउन्टेन कैफ़े के सामने कुछ भी नहीं
और पेरिस का ले हाल
शुक्रवार की बाज़ार के सामने कुछ भी नहीं
और लन्दन का बकिंघम पैलेस
आज़म पैलेस के सामने कुछ भी नहीं
और वेनिस में सान मारको के कबूतर
उमय्याद की मस्जिद के फ़ाख़्तों से ज़्यादा भाग्यवान नहीं
और लेस इन्वेलिदेस में नेपोलियन की कब्र
सालाह अल-दिन अल-अय्यूबी के मकबरे से ज़्यादा शानदार नहीं

सात

मैं टहलता हूं दमिश्क की तंग गलियों में
खिड़कियों के पीछे, जागती हैं शहदभरी आंखें
और मुझे सलाम करती हैं ...
सोने के अपने कंगन पहने हैं सितारे
और मुझे सलाम करते हैं ...
अपनी बुर्जियों से उतरते हैं कबूतर
और मुझे सलाम करते हैं ...
और साफ़-सुथरी शामी बिल्लियां बाहर निकल आती हैं
जो हमारे साथ जन्मी ...
हमारे साथ बड़ी हुईं ...
और हमारे साथ उनके निकाह हुए ...
मुझे सलाम करने ...

आठ

मैं ख़ुद को डुबो लेता हूं बुज़ुर्रिया सौक में
मसालों के एक बादल पर तान देता हूं एक पाल
लौंग ...
और दालचीनी ...
और
कैमोमाइल के बादल
मैं ग़ुलाब के पानी से नहाता हूं एक दफ़ा
और भावनाओं के पानी से कई बार
और मैं भूल जाता हूं - जब मैं सौक अल-अत्तारीन में होता हूं -
नीना रिकी और
कोको चैनल के तमाम मिश्रण
मेरे साथ क्या कर रहे हो, दमिश्क?
क्या तुमने मेरी संस्कृति बदल दी है? मेरा सौन्दर्यबोध?
क्योंकि मुझे भुला दी गअई है लिकरिश के प्यालों की खनक
राख्मानिनोफ़ की पियानो क्न्सर्ट ...
शाम के बग़ीचे किस तरह रूपान्तरित कर देते हैं मुझे?
क्योंकि मैं बन गया हूं दुनिया का पहला संगीत संचालक
जो राह दिखा रहा है
बेंत के पेड़ों के एक ऑर्केस्ट्रा को.

(नीना रिकी और कोको चैनल - बहुत महंगी ख़ुशबुओं के ब्रान्ड)

नौ

मैं तुम तक आया हूं
दमिश्क के ग़ुलाब के इतिहास से
जो खुशबू के इतिहास को घनीभूत बना देता है ...
अल-मुतनब्बी की स्मृति से
जो कविता के इतिहास को घनीभूत बना देती है ...
मैं तुम तक आया हूं ...
कड़वे सन्तरे की बौरों से ...
और नारसिसस से ...
और "अच्छे बच्चे" से ...
उस पहले से जिसने मुझे चित्र बनाना सिखाया ...
मैं तुम तक आया हूं ...
शाम की स्त्रियों की हंसी से ...
जिन्होंने मुझे सबसे पहले संगीत सिखाया ...
हमारी गली की टूटी टोंटियों से
जिन्होंने मुझे सबसे पहले रोना सिखाया
और अपनी मां की प्रार्थना करने वाली दरी से
जिसने मुझे सबसे पहले सिखाया
ईश्वर को जाने का रास्ता ...

दस

मैं याददाश्त की दराज़ें खोलता हूं
एक ... फिर दूसरी
मुझे याद आती है ...
मुआविया गली की अपनी वर्कशॉप से बाहर आते हुए अपने पिता की
मुझे इक्के याद आते हैं ...
और कंटीली नाशपातियां बेचने वाले ...
और अल-रुब्वा के कहवाघर
जो अरक़ की पांच कुप्पियों के बाद - करीब करीब
नदी में गिर जाया करते थे
मुझे रंगबिरंगे तौलिये याद आते हैं
जब वे नृत्य कर रहे होते थे हमाम अल-खैय्यातिन के दरवाज़े पर
मानो वे मना रहे हैं अपना राष्ट्रीय अवकाश.
मुझे दमिश्क के घर याद आते हैं
तांबे के उनके दरवाज़ों के हत्थे
और चमकीली खपरैलों से सजी हुई उनकी छतें
और उनके भीतरी अहाते
जो आपको स्वर्ग के विवरणों की याद दिलाते हैं ...

ग्यारह

दमिश्क का मकान
वास्तुशिल्प के सिद्धान्तों से परे है
हमारे घरों की बनावट ...
एक भावुक नींव पर आधारित होती है
क्योंकि हर घर टेक लेता है ... दूसरे घर के कूल्हे की
और हर छज्जा
अपना हाथ सामने वाले छज्जे की तरफ़ हाथ बढ़ाता है
प्यारभरे होते हैं यहां के घर ...
सुबह अभिवादन करते हैं आपस में
और मुलाकातें उनकीं
गुप-चुप - रात में ...

बारह

तीस बरस पहले
जब मैं ब्रिटेन में एक कूटनीतिज्ञ था
वसन्त की शुरूआत में मेरी मां मुझे चिठ्ठियां भेजा करती थी
हरेक चिठ्ठी के भीतर ...
टेरागॉन की एक पोटली ...
और जब अंग्रेज़ों को मेरी चिठ्ठियों पर शक होता था
वे उन्हें प्रयोगशाला में ले जाया करते थे
और वहां से उन्हें थमा देते थे स्कॉटलैण्ड यार्ड को
और विस्फोटक-विशेषज्ञों को.
और जब वे मुझ से ... और मेरे टेरागॉन से थक जाते
वे मुझ से पूछते - ख़ुदा के लिए बता दो ...
इस जादुई जड़ी का नाम क्या है जिसने हमें उनींदा बना दिया है?
क्या यह कोई ताबीज़ है?
दवा?
या कोई गुप्त कोड?
इसे अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं?
मैं उनसे कहता - यह समझा पाना मेरे लिए मुश्किल होगा ...
क्योंकि टेरागॉन एक भाषा है जिसे सिर्फ़ शाम के बग़ीचे बोलते हैं
यह हमारी पवित्र जड़ी है ...
हमारी सुगन्धित वक्तृता
और अगर आपके महान कवि शेक्सपीयर ने जाना होता टेरागॉन के बारे में
तो उसके नाटक बेहतर होते ...
संक्षेप में ...
मेरी मां एक शानदार महिला है ... वह मुझे बेहद प्यार करती है ...
और जब भी उसे मेरी याद आती है
वह मेरे लिए टेरागॉन का एक गुच्छा भेज देती है
क्योंकि टेरागॉन उसके लिए "मेरे प्यारे" शब्दों का
भावनात्मक समतुल्य है
और जब अंग्रेज़ मेरे काव्यात्मक तर्क का एक शब्द भी नहीं समझ पाते थे ...
वे मुझे लौटा देते थे मेरा टेरागॉन और जांच बन्द कर देते थे ...

तेरह

ख़ान असद बाशा से
उभरता है अबू ख़लील अल-क़ब्बानी ...
दमश्क के बने अपने लिबास में ...
और अपनी ज़रीदार पगड़ी में ...
और उसकी आंखें सवालों से अभिशप्त ...
हैमलेट की आंखों जैसी
वह एक अवां-गार्द नाटक पेश करने की कोशिश करता है
लेकिन लोग कारागोज़ के तम्बू की मांग करते हैं
वह कोशिश करता है शेक्सपीयर का एक टुकड़ा पेश करने की
लोग उस से अल-ज़िर की ख़बरों की बाबत सवाल करते हैं
वह कोशिश करता है एक इकलौती स्त्री-स्वर ढूंढने की
जो उसके साथ "ओ शाम" गा सके
लोग अपनी ऑटोमन राइफ़लों में गोलियां भर लेते हैं
और पेशेवर गाने वाले
ग़ुलाब के हर पौधे पर गोलियां दागते हैं ...
वह कोशिश करता है एक इकलौती स्त्री ढूंढने की
जो उसके पीछे पीछे दोहरा सके -
"ओ चिड़ियों की चिड़िया, ओ फ़ाख़्ते"
वे अपने चाकू बाहर निकाल लेते हैं
और फ़ाख़्तों की तमाम सन्ततियों का कत्ल कर देते हैं ...
और स्त्रियों की तमाम सन्ततियों का ...
सौ बरस बाद
दमिश्क ने अबू ख़लील अल-क़ब्बानी से माफ़ी मांगी
और उसके नाम पर खड़ा कर दिया एक भव्य थियेटर.

चौदह

मैंने मुह्यी अल-दिन इब्न अल-अरबी का लबादा पहना
मैं उतरा कैसिउन पहाड़ की चोटी से
नगर के बच्चे ...
आड़ू
अनार
और तिल का हलवा थामे हुए ...
और उसकी स्त्रियों के लिए ...
फ़ीरोज़े के हार ...
और प्यार की कविताएं ...
मैं प्रवेश करता हूं ...
गौरैयों की एक लम्बी सुरंग
जिलीफ़्लावर ...
गुड़हल ...
चमेली के गुच्छे ...
और मैं प्रवेश करता हूं ख़ुशबू के सवालों में ...
और मेरा स्कूल का बस्ता खो गया है
और तांबे का बना लंचबॉक्स ...
जिसमें मैं अपना खाना ले जाया करता था ...
और वे नीले मनके
जिन्हें मेरी मां टांग दिया करती थी मेरी छाती पर
सो शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे खोज ले
उसने मुझे लौटा देना चाहिये उम्म मुआताज़ को
और ईश्वर उसका भला करेगा
मैं तुम्हारी हरी गौरैया हूं ... शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे खोज ले ...
उसने चुगाना चाहिए मुझे गेहूं का एक दाना ...
मैं दमिश्क का ग़ुलाब हूं तुम्हारा ... शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे खोज ले ...
उसने सजा देना चाहिए मुझे पहले फूलदान में
मैं तुम्हारा पागल कवि हूं ...शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे देखे
उसने खींच लेना चाहिए याद के वास्ते मेरा एक फ़ोटो
इसके पहले कि मैं अपने जादुई पागलपन से बाहर निकल आऊं
मैं तुम्हारा शरणार्थी चन्द्रमा हूं शाम के लोगो
तुम में से जो भी मुझे देखे
उसने मुझे दान में देना चाहिए एक पलंग ... और एक ऊनी कम्बल ...
क्योंकि सदियों से नहीं सोया हूं मैं.

4 comments:

vandana gupta said...

शानदार कविता।

Jyoti Joshi Mitter said...

intense !

Ashok Kumar pandey said...

गजब...sharing on Fb...hats off Ashok Bhai...

अजेय said...

इस शानदार कविता को मैं भी अपने फूलदान में सजाना चाहता हूँ .