Thursday, February 23, 2012

गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - १

कल तक आपने शंभू राणा का अपने पिता पर लिखा अविस्मरणीय संस्मरण पढ़ा. अब उनके गद्य की एक और बानगी देखिये -


गनीमत है मैं आठवीं जमात से आगे नहीं गया - १

शंभू राणा


भूखे से रोटी के बारे में लिखने को कहना तर्कसंगत लगता है, लेकिन अशिक्षित व्यक्ति को शिक्षा के बारे में लिखने को कहना बड़ा अटपटा सा लगता है और अशिक्षित भी ऐसा कि शहर में रहने और तमाम सुख-सुविधाओं के बाद भी सिर्फ अपने निखद्दपने के कारण अपनी शिक्षा पूरी न कर पाये। और उस पर तुर्रा ये कि उसे इस बात का कोई खास मलाल नहीं। ऐसे शख्स से जो आदमी शिक्षा पर लिखने को कहे खुद उसकी अपनी शिक्षा पर संदेह होना स्वाभाविक है। हमारे संपादक की डिग्री-डिप्लोमा की जाँच होनी चाहिये। पार्टी पैसे वाली है, जैसी चाहे डिग्रियाँ खरीद सकती है।

मुझसे शिक्षा पर लिखने को कहा गया है। समझ में नहीं आता कि मेरे पास इस विषय पर लिखने को भला है क्या, क्या लिखूँ। फरमाइशी लेखन मुझसे होता भी नहीं। शिक्षा कैसी होनी चाहिये, कैसी नहीं और क्यों वगैरा पर भला मैं क्या कह सकता हूँ। इस पर शिक्षाविद् विचार करें। यह बहुत ही गंभीर और नाजुक विषय है। यह एक तरह का सॉफ्टवेयर वर्क है, अपने से नहीं होगा। मैं जरा आसान हार्डवेयर यानी ठोंक-पीट वाला काम चुन लेता हूँ। अपने स्कूल के दिनों को याद कर लेता हूँ। कुछ स्मृतियाँ हैं।

प्राइमरी स्कूल से शुरू करें। लकड़ी के फर्श पर टाट-पट्टी बिछा कर बैठते थे। सामने टीचर जी कुर्सी-मेज डाले बैठी हैं। पढ़ा या बोलकर लिखा रही हैं। कुछ समझ में नहीं आता। कुछ उनका तरीका यांत्रिक और बांकी अपना दिमाग ऐसा चिकना घड़ा कि उसमें कुछ भी अटक के न दे। कान घंटी की ओर लगे रहते थे। बीच-बीच में गधा, उल्लू, बेवकूफ, चटाक-फटाक, डस्टर फेंकने और कॉपी हवा में उछालने और ‘ऐसा गंदा बैच तो हमने देखा ही नहीं हो,’ वगैरा चलता रहता। घंटी बजी, टीचर जी क्लास से बाहर, दूसरी का प्रवेश। फिर वही।

कहा जाता था कि हिन्दी अगर मोटी टिप वाली पैन से लिखी जाये तो देखने में सुंदर लगती है। टीचरें अच्छी भली अजन्ता की निब की फर्श पर उसकी नोंक रगड़ कर ऐसी-तैसी कर दिया करती थीं। स्कूल के बरामदे में पानी से भरी एक बाल्टी और पीतल का लोटा सुबह को चौकीदार कम चपरासी भर कर रख देता था। बच्चे उस लोटे से पानी पिया करते थे। हमारी टीचरजी लोग दिन में दो-तीन बार उसी लोटे में पानी लेकर स्कूल के पिछवाड़े संकरी सी गली में न जाने क्या करने जाया करती थी। पता नहीं। नम्बर टू का वहाँ कोई चिन्ह देखने में नहीं आया और नम्बर वन में पानी भूमिका अपने को समझ में नहीं आती।

दिया हुआ काम बच्चा अगर न कर पाये तो उसे बिच्छू घास का जायका लेना पड़ता था या एक बड़ा सा पत्थर सर पर रख कर पीरियड भर धूप में खड़े रहना पड़ता था।

एक दिन हेड टीचर जी ने दरवाजे से क्लास में झाँका। अरे शीला- सुन तो। शीलाजी उनके पास गई – हाँ दीदी ? हेड टीचर कहने लगी- हाय राम, मैं पेटीकोट उल्टा पहन लाई हूँ रे आज। क्या करूँ बता तो, सीधा पहन लूँ ? शीला जी ने कहा- रहने दो हो दीदी कौन देख रहा है, घर जाकर पहन लेना। उन्हें बात पसंद आई, उल्टे से ही काम चला लिया।

एक टीचर को आदत थी कि वे अक्सर कुर्सी पर बैठी-बैठी टाँगें मय सैंडल टेबुल पर रख लेती। उनका बदन लगभग नब्बे डिग्री का कोण बना रहा होता। कई बार साड़ी का पिंडलियों की तरफ वाला हिस्सा नीचे लटक जाता और बच्चे बार-बार चोर नजरों से उसी ओर देखते रहते….

बगल ही में, बल्कि एक ही इमारत में जूनियर हाईस्कूल था। पाँचवी और आठवीं की तब बोर्ड परीक्षायें हुआ करती थीं। इस वजह से आठवीं क्लास को जरा देर तक रोक के रखा जाता था। ऐसे में पाँचवी क्लास को समय पर कैसे छोड़ा जाये। जूनियर हाईस्कूल के प्रधानाचार्य के ताने सुनने को मिलते थे। इसका एक अद्भुत तरीका शीलाओं-लीलाओं ने खोज निकाला- कि 20 तक के पहाड़े पढ़ो रे। बच्चे बस्ता बंद करके बैठ जाते। कोई एक बच्चा जिसे पहाड़े याद होते खड़ा हो कर चिल्लाता- दो इकम दो….बांकी बच्चे गला फाड़कर दोहराते। इत्तेफाकन शिक्षा विभाग का दफ्तर पास ही था, पहाड़े पढ़ने की आवाज वहाँ तक पहुँच जाती। अधिकारियों को दफ्तर में बैठे हुए ही पता चल जाता कि पढ़ाई जोरों से हो रही है। उन्हें स्कूल में आकर निरीक्षण करने के झंझट से मुक्ति मिल जाती। हमें बिना बताये पता था कि इन पहाड़ों को दोहराने के पीछे मकसद क्या है इसलिये हम इतना चिल्लाते कि स्कूल की छत उड़ जाती। गोविन्द बोलो हरि गोपाल बोलो, राधा रमण हरि….दस या हद से हद पन्द्रह का पहाड़ा होते-होते जूनियर हाईस्कूल में भगदड़ मच जाती। मिशन इज सक्सैस। जाओ रे तुम भी छुट्टी करो। बाकी कल पढ़ेंगे।

इसके बाद जूनियर हाईस्कूल में जाना पड़ा। छठी क्लास में प्रधानाचार्य एक-डेढ़ तक सिर्फ एबीसीडी और इमला लिखना सिखाते थे। उसके बाद सामान्य पढ़ाई शुरू होती। वे पीटते बहुत थे। हफ्ते में एक दिन नहीं पीटते थे- मंगलवार को। उस दिन उनका व्रत रहता था। जिस दिन वे माश की दाल खाते थे उस दिन भी नहीं पीटते थे। अलसाये से रहते थे। ऐसा दिन कभी कभार ही आता था, क्योंकि माश की दाल कोई रोज तो खा नहीं सकता ना। हमने आत्म-रक्षा के कुछ तरीके खोज लिये थे। मसलन वे गाल पकड़ कर खीचें तो मुँह का सारा थूक खींचे जा रहे गाल की ओर शिफ्ट कर दो। हाथ सन-सन जाने के डर से उन्हें गाल छोड़ना पड़ता या सर बचाने के लिये दोनों हाथों से सर को ढँक लो और उँगलियों में फँसी कलम ऊपर की ओर तनी रहे। एक बार यह तरकीब काम कर गई, पैन की निब उनकी हथेली में जा घुसी। एक बार एक मास्साब ने लड़के को परम्परागत तरीके से पीटने के बजाय उसके पेट में चाकू दे मारा। लेकिन न तो खून आया न अंतड़ियाँ बाहर निकलीं। लड़का खड़ा ही रहा, गिरा भी नहीं। दरअसल वह जादुई चाकू था जिसका फल रेडियो के एरियल की तरह अपने आप में सिमट जाता है। मास्साब गुस्सा करते-करते मसखरी कर गये।

(जारी. अगली किस्त में समाप्य.)

2 comments:

दीपिका रानी said...

शंभू राणा जी की लेखन शैली ध्यान बांधती है.. शुक्रिया पढ़वाने का

प्रवीण पाण्डेय said...

मार से बचने के तरीकों की बहुत माँग है, आज भी..