Friday, March 21, 2008

आयो नवल बसंत, सखि ऋतुराज कहायो

"नथनी में उलझे रे बाल "....सधे हुए स्वर के आरोह-अवरोह में अठखेलियां करते यह बोल होली गायकी से मेरा पहला परिचय थे। सिर पर गांधी टोपी और अबीर-गुलाल से रंगे सफेद कुरता-पायजामा पहने फागुनी मस्ती में लहक-लहक कर यह होली गाने वाले अपने मौसाजी के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे कि वो इतना बढ़िया गा लेते होंगे। आठ-दस साल की उम्र में तब न तो बोल समझ में आए थे और न हमेशा गंभीर भाव-भंगिमा वाले अपने मौसा जी का वह गायक वाला रूप। उन्हें इतना खुशमिज़ाज शायद मैंने पहली बार देखा था। उनकी वह छवि और होली के वो बोल मेरी स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो गए।

पहाङ में होली का मतलब रंग से अधिक राग से होता है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि गायन की कई प्रतिभाएं इन्हीं दिनों उभर कर सामने आती हैं। पक्के रागों की धुन से बंधी बंदिशों के रूप में गाई जाने वाली ये होलियां फागुन को संगीत से ऐसा सराबोर करती हैं कि राग-रंग रिस कर गाने वाले और सुनने वालों को असीम तृप्ति के भाव से भर देता है। आमतौर पर पुरूष व महिलाओं की होली बैठकें अलग-अलग होती हैं। पुरूषों की होली बैठकें कभी-कभी रात भर भी चलती रहती हैं और गायकी का जो समां बंधता है वह सुनने लायक होता है। कभी राधा की यह शिकायत कि "मलत-मलत नैना लाल भए, किन्ने डालो नयन में "....गुलाल अलग- अलग होल्यारों के स्वरों में रागों का जादू बिखेरती है तो कभी किसी गोपी की ये परेशानी कि "जल कैसे भरूं जमुना "......गहरी महफिल को गुंजायमान करती है। शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरे शुरुआती ग्यान और रूझान की वजह होली की यही बैठकें रहीं।

दो दिन पहले ही लाल किनारी वाली सफेद धोती और माथे पर अबीर-गुलाल का टीका लगाए होली बैठकों में जाती औरतों के झुंड को देख कर बचपन की होली याद आई और बेतरह याद आई अम्मा यानी मेरी मां। अम्मा का सबसे पसंदीदा त्यौहार था होली, मोहल्ले-पङोस की मानी हुई होल्यार जो ठहरी। कुमाऊं में होली एक दिन का त्यौहार न हो कर लगभग पूरे महीने चलने वाला राग-रंग का उत्सव होता है। होली से पहले पङने वाली एकादशी को रंग पङता और शुरू होता है महिलाओं की होली बैठकों का दौर।

बचपन में अम्मां के साथ इन बैठकों में जाने का लालच होता था वहां मिलने वाले जंबू से छौंके चटपटे आलू के गुटके, खोयेदार गुझिया और चिप्स-पापङ। बङे होने के साथ धीरे-धीरे गाई जाने वाली होलियों के बोल, धुन भी मन में उतरने लगे। ढोलक और मंजीरे के साथ जब सिद्धि के दाता विघ्न विनाशक होली खेले मथुरापति नंदन के गायन से होली का शुभारंभ होता तो मन में एक अजीब सी पुलक सी जगती थी। यह पुलक या उछाह होली में एक नया ही रंग भर देता था जिसे अनुभव ही किया जा सकता है शब्दों में समझा पाना मेरे लिए तो संभव नहीं है।


जैसे ही हवा में फागुन के आने की गमक सुनाई देने लगती अम्मा अपनी भजनों और होली की डायरी निकाल लेती। हर होली की बैठक से लौटने के बाद डायरी और समृद्ध होती थी नऐ गीतों से। अस्थमा की वजह से साल-दर-साल मुश्किल होती जाती सर्दियों की पीङा झेलने के बाद होली मानों नई जान डाल देती थी अम्मा में। होली उसकी आत्मा तक में जुङी थी शायद इसलिए इस संसार से जाने के लिए उसने समय भी यही चुना। आज से ठीक पांच साल पहले होली के दिन मेरी मां ने इस दुनिया से विदा ली। होली मेरा भी सबसे पसंदीदा त्यौहार है खासतौर से इसकी गायकी वाला हिस्सा, लेकिन अम्मा के जाने के बाद न जाने क्यों होली आते ही मन कच्चा सा हो जाता है और अबीर-गुलाल का टीका लगाऐ होली बैठकों में जाती औरतों को देख कर आंख पनीली हो आती हैं।

6 comments:

Tarun said...

दीपाजी, वाकई में कुमाऊंनी होली रंग से ज्यादा गीतों का त्यौहार है, हमने भी इस बार जमकर होली गायन किया

शिरीष कुमार मौर्य said...

दीपा जी `गीली आंखे´ अनमोल होती हैं। वे इस दुनिया में मनुष्यता और रिश्तों की नमी बनाए रखती हैं। आपने बहुत अच्छे से होली और उससे अपने रिश्ते को व्यक्त किया है। - सीमा शिरीष

रवीन्द्र प्रभात said...

बढिया है , आपको होली की कोटिश: बधाईयाँ !

Unknown said...

बहुत ही अच्छा लिखा है - वैसे माँ की बनाई परम्परा बेटी बढाए तो मां जहाँ भी हो खुश होगी

इन्दु said...

दीपा, तुमने तो होली के बहाने पूरा बचपन याद दिला दिया । जैसे तुम्हे अम्मा याद आती है, वैसे ही होली के आसपास मुझे पापा बेतरह याद आने लगते हैं। एक महीने पहले से ही घर की बैठक खाली कर दी जाती और रोज़ शाम वहां हारमोनियम और तबले की संगत पर होली गाई जाती। पता नही कैसे होली की मस्ती के बीच वैराग्य के भी कुछ स्वर घुल -मिल जाते और कई आंखें नम हो जाती और फ़िर जैसे माहौल को हल्का कराने के लिए मेरो रंगीलो देवर घर एई रैछो ... जैसे गीत गाए जाने लगते। कई बार तो अफीम की सुन्घायी होती, तब और रंग छा जाता . होली के कुछ ही दिन पहले एक्सीडेंट मे पापा के जाने के बाद होली आती तो है लेकिन कब चुपके से चली जाती है पता नही चलता .

अजित वडनेरकर said...

दीपा , बहुत अच्छा लिखा आपने । बचपन की समृतियों के रंग फिर से चटख हो गे। होली सचमुच रंगों से ज्यादा राग का पर्व है। आज हमने भी अपनी पोस्ट में यही बात लिखी है। फुर्सत मिले तो देखिये-http://shabdavali.blogspot.com/2008/03/blog-post_22.html