Tuesday, May 15, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ४


(पिछली किस्त से आगे)

हर साहित्यकार गप्पी होता है.... अहदी भी होता है और दांभिक भी. यह अहदीपन और दंभ उसे ऊँचा उठाते हैं. ढेर-की-ढेर कपास ओटना मोटा काम हुआ. महीन सूतों का लच्छा अगर छटांक-भर की अपनी तकली से आपने निकाल लिया तो ‘पद्मभूषण’ के लिए इतना ही पर्याप्त है, बंधु !

आईने के अंदर जो नागाजी झाँक रहा था, अभी-अभी उसने भभाकर हँस दिया... बाहरवाला नागाजी इस पर डाँट रहा है-- मैं तेरा गला घोंट दूँगा. पाजी कहीं का ! भिलाई या राऊरकेला या दुर्गापुर, कहीं किसी ठेकेदार का मुंशी ही हो जाता भला ! वह धंधा भी बेहतर था, बच्चू !

आईनेवाली आकृति के होंठ हिल रहे हैं . मुद्रा से लगता है, कुछ गुनगुना रहा है...समझे ? कह रहा है... क़लम ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के !

अब आगे मैं तुझे अपने कंधों पर नहीं ढोऊँगा, अदना-सी कोई नौकरी कर लूँगा. बिलकुल असाहित्यिक!

मैं ऊब गया हूँ इस अतिरिक्त यश से. जी करता है कभी-कभी कि कोई ऐसा तगड़ा कुकर्म करूँ जिससे पिछली सारी शोहरत धुल-पुँछ जाए साहित्यकारों की !

अपने ही एक सहृदय बंधु ने एक बार ‘कुकर्म’ का बड़ा अच्छा अवसर प्रदान किया था, तब क्यों तुम भागे थे? वह शायद ही कभी तुम्हें क्षमा करे !

मैंने लेकिन उसको माफ कर दिया है .

अरे पिनकूराम, तुम क्या किसी को यों ही भूलनेवाले हो ?

क्या कहा ? प्रतिशोध की मेरी भट्ठी कभी ठंडी नहीं होगी ?

नहीं, कभी नहीं. बात यह हुई कि तुम्हारा सारा बचपन घुटन और कुंठा में कटा . ग़रीबी, कुसंस्कार और रूढ़िग्रस्त पंडिताऊ परिवेश तुम्हें लील नहीं पाए, यह कितने आश्चर्य की बात है ! पहले तुम भी वही चुटन्ना और जनेऊवाले पंडित जी थे न ? न पुरानी परिधि से बाहर निकलते, न आँखें खुलतीं, न इस तरह युग का साथ दे पाते...

नहीं दे पाते युग का साथ! वाह भई, वाह !

यह किसने ठहाके लगाए ?

मैं ? कौन हूँ मैं ? दंभ हूँ, आरोपित ‘इगो’ हूँ-- तुम्हारा अपना ही स्फीतस्फुरित अहंकार! व्यक्तित्व का आटोप... किस मुग़ालते में पड़े हो, बाबा? क्या अकेले तुम्हीं ने युग का साथ दिया? बाक़ी और किसी ने ज़माने की धड़कन नहीं सुनी ? अलस्सुबह, बु्रश से दाँत माँजते वक़्त ऐस्प्रो की टिकिया का सुकंठ विज्ञापन, मीरा के भजन की लता-वितानवाली लहरियाँ, अपराह्न के अवकाश को गुदगुदानेवाली अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच की कमेंट्री, संकट के क्षणोंवाले उदास-अनुतप्त अनाउंसमेंट... यह सारा-का-सारा युगीन स्पंदन क्या तुम्हारे कानों तक पहुँचता रहा है ?

बतलाओ, बतलाओ न! चुप क्यों हो गए ?

गतिशीलता का सारा श्रेय तुम्हीं लूट लोगे ?

गति नहीं, प्रगति ! अरे हाँ, तुम तो प्रगतिशील हो न ! बड़बोला प्रगतिवादी !

ज़रा देर के लिए अपनी ‘प्रगति’ के रंगीन और गुनगुने झागों को अलग हटा दो न ! नागा बाबा, प्लीज...!

आचार्य शिवपूजन सहाय चल बसे!

जी हां, वर्षों से शिवपूजन बाबू का हेल्थ जर्जर चला आ रहा था .

...जी, बिलकुल ठीक फ़रमाया आपने . सहायजी का आविर्भाव न होता, तो बहुतों की कृतियाँ, ‘असूर्यम्पश्या’ चिरकुमारियों की तरह घुटकर रह जातीं. यह सहायजी का ही तप था कि तीन-तीन पीढ़ियों की पांडुलिपियों का उद्धार हुआ.

जी, आपको भी तो यदा-कदा ‘आचार्य नागार्जुन’ के तौर पर याद किया जाता है !

वाह जी, वाह, हद कर दी आपने तो ! अपने कानों को इस फुरती से क्यों छू लिया है आपने ?

ना बाबा, ना! आचार्यत्व का वह लबादा भला मुझसे ढोया जाएगा ? अपन तो सीधे-सादे गऊ-सरीखे प्राणी ठहरे...

माफ कीजिये नागार्जुन जी, आप उतने सीधे-सादे नहीं हैं...

हाँ...हाँ, रुक क्यों गए ? कह जाओ पूरा वाक्य. बीच में ही मेरा रुख़ क्यों नापने लगे ?
लो, अब देखो तमाशा! आईने के अंदरवाला चेहरा तमतमा उठा है, और बाहर वाला चेहरा तो पतझर की फीकी उदासी को भी मात देने जा रहा है ! सचाई की सारी खटास किस तरह कलई खोती है . तथाकथित व्यक्तित्व की!...देखा आपने ?

ठीक तो है, मैं उतना सीधा-सादा नहीं हूँ जितना दिखता हूँ. यह सिधाई-- यह सादगी तो बल्कि दुहरा-तिहरा ढोंग हो सकती है!

(जारी)

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