Thursday, May 17, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण – ६


(पिछली किस्त से आगे)

तंबाकू का पत्ता खोंट-खोंटकर बालचंद ने फिर उसमें चूना मिलाया. पलंग के नीचे से स्टूल खींचकर बैठ गया और सुरती मसलने लगा .

मैं अपने इस खेतिहर हीरो से इन दिनों बहुत घबराता हूँ . वह चालीस से ऊपर का हो चुका है . एक बार गाँव का सरपंच भी चुना गया था . सात-सात बेटों का बाप है अब हमारा बलचनमा . बेचारी सुगनी जाने कब से तरस रही है कि घर-आँगन में एक बिटिया भी डोलती नज़र आए !

काका, कहाँ-कहाँ भागते फिरोगे ? मैं छोडूँगा नहीं तुमको, हाँ ! मुझको पिटवाकर कहाँ डाल रखा है ?

बेदर्द निर्मोही कहीं के ! शरम नहीं आती है, एक पोथी अधूरी छोड़ के अंट-शंट लिखे जा रहे हो ! जब तक मेरीवाली पोथी ख़त्म नहीं करोगे लिखकर, तब तक इसी तरह बिलल्ला बने भटकते रहोगे मिसिर जी महाराज!

मैं आपको पकड़ के वापस ले जाऊँगा. क़ैद करके अक्कड़-लक्कड़वाली पिछवाड़े की अपनी उसी कुठरिया में बंद कर दूँगा...

मैं आपकी मिट्टी पलीत करूँगा...

मैं आपको कहीं का न रखूँगा...

आप मेरी कहानी कब तक पूरी कर रहे हो ? चलो, साल-भर की मुहलत देता हूँ. इस अरसे में अगर मेरी कहानी को लेकर आपने चार-पाँच सौ पन्नों की एक और पाथी नहीं लिख डाली तो बस...

क्या कर लेगा?

जान से मार डालेगा क्या ?

नहीं, शायद हाथ काट डालेगा !

अरे, बड़ा गुस्सैल है बलचनमा...पीछे पड़ जाता है, तो फिर तबाह कर देता है...

मैं उसे मना लूँगा...

हाँ, वह मान जाएगा...

वह मेरा मानस पुत्र ठहरा न ?

जी हाँ, पिताजी !

यह तो दूसरा स्वर है... किसका स्वर है ?

इतनी जल्दी भूल गए मुझे ? ओ वंचक पिता ! लो, तुम्हारा एक मानस पुत्र तुम्हें प्रणाम करता है, दुखमोचन की कैसी रेड़ मारी तुमने ? आपके लाभ लोभ का शिकार वही दुखमोचन आपको अपनी प्रणतियाँ निवेदित कर रहा है, आर्य !

वत्स, घबरा क्यों गए ? मैं तुम्हें भूला नहीं हूँ . शीघ्र ही तुम्हारा यथार्थ रूप पाठकों के समक्ष उपस्थित करूँगा. पिछली भूल अब और नहीं दुहराई जाएगी. आकाशवाणी-केंद्रों की दुहरी-तिहरी बोरियत का तुम्हें शिकार होना पड़ा, तुम्हारी लपसी बन गई, इसके लिए मैं तुमसे माफी चाहता हूँ बेटा !

आईनेवाला मुखड़ा मुसकरा रहा है . मैं सब समझता हूँ.... वह कहेगा, देखो नागा बाबा, तुम न तो अपनी औरत, अपनी संतानों के प्रति ईमानदार हो, न मानस संतानों के प्रति ही !

बिलकुल ठीक कहेगा, मैं अपना यह पाप कबूल कर लूँगा. बिना अगर-मगर के, बिना न-नु-न-च के स्वीकार कर लूँगा अपना अपराध...

ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हुआ है कि मुझे किसी आईने के सामने इतनी अधिक देर तक अपने को हाज़िर रखना पड़ा .

मुझे बार-बार राकेश की खाम-ख़याली पर हँसी आई है, खीजा हूँ बार-बार राकेश के इस दुराग्रह पर. मेरे मालिक (पाठक-पाठिका वृंद), आपको मैं अब क्या बताऊँ कि आईने में अपना मुखड़ा देखना कितना आवश्यक है! इस झमेले से छुटकारा पाने का आसान तरीक़ा मुझे बचपन में ही मालूम हो गया था.... महीने-महीने साबित माथा छिलवा लेना! अपराजिता को मेरी इस सनक से सख़्त नफ़रत रही है .

वह जाने कितनी दफ़े मुझ पर रंज हुई होगी, महज़ बालों के सवाल पर ! पिता के इस हठ का बच्चे भी मखौल उड़ाते हैं...

पिछले जीवन पर गौर करता हूँ, तो याद आता है, अठारह वर्ष की आयु तक शायद अठारह बार भी मैंने शीशे में अपना मुँह नहीं देखा होगा . पीछे शादी हुई, तो ससुराल के उस केलि-कुंज में अपराजिता की सहेलियों ने मुझे फैशन का क-ख-ग सिखलाया ! सुगंधित तेल की शीशी, कंघी और आईना मेरे बनारसवाले छात्र-जीवन में तब तक साथ रहे, जब तक कि गांधीजी की आत्मकथा का पारायण नहीं किया .

अब महसूस करता हूं कि आईना मुझे नित्य देखना चाहिए . अपने आलोचकों को यों हम दस-बीस गालियाँ दे ही लेते हैं, किंतु प्रतिरूप देखते वक़्त हमारा निज का ही विवेक अपनी मीमांसा कर डालता है-- निश्छल और संतुलित ! उसके सामने हमारे बाज़ारू हथियार धरे ही रह जाते हैं .

आईने, तेरी जय हो ?

आईने, अब आज से तू मेरा साथी हुआ !

अब मैं रोज़ तुझसे दस-पंद्रह मिनट बातें किया करूँगा. लेकिन नहीं, यह तो अपना आईना नहीं .

राकेश, ले जाओ अपना जादुई शीशा...! इसने तो मेरा माथा ही ख़राब कर दिया ! जाने क्या-क्या बकवा लिया है !...

नहीं भाई, मुझे नहीं चाहिए आईना-फाईना !

किसी को अपना बेड़ा गर्क़ करना हो, तो राकेश की ओर रुख़ करे.... श्रीयुत मोहन राकेश, हाल मुक़ाम चर्चगेट, बंबई, पोस्ट जोन नंबर 1; क्यों भैयाजी, आपके निवास-स्थान का पूरा पता बतला दूँ संसार को ?

संसार यानी विश्व . विश्व यानी दुनिया-भर के सभी राष्ट्र . सभी राष्ट्र यानी सभी राष्ट्रों के झंडे...

क्यों साहब, झंडे क्या राष्ट्र के ही हुआ करते हैं ?

काशी-प्रयाग के हर पंडे का अपना अलग-अलग झंडा होता है . आपका भी अपना अलग झंडा हो सकता था .

था नहीं, है ! है, साहब है ! मेरा भी अपना झंडा...!

अच्छा ! वही झंडा ! पार्टीवाला ? हँसिया और हथौड़ा ?

राम कहिए. फिलहाल लगी है मुझे कसके भूख, इसी से और कोई झंडा सूझ नहीं रहा है. बस, अपना तो वही एक प्यारा झंडा है... मैथिल ब्राह्मणशाही का पीला झंडा ! देखिये भाई, हँसिये नहीं . मेरे झंडे पर बड़ी मछली का निशान है . कितना प्यारा निशान है, मछली....मछली...!

सिर चकरा रहा है ?

भूख बहुत लगी है ?

जाओ न, चेंबूर जाकर मछली-भात डटा आओ . अपना मैथिल मित्र है न तुम्हारा वहाँ ?

नहीं, अभी यहीं बिजली के चूल्हे पर खिचड़ी तैयार करता हूँ-- सुरेश भाई चौपाटी वाले अपने रूम में इतना तो इंतजाम कर ही गए हैं .

मगर यह आईना भी तो अपना पिंड छोड़े न !

अब आख़िरी झाँकी है...

सामने अपनी परछाईं के इर्द-गिर्द एक-एक दो-दो करके कई चेहरे आगे-पीछे दिखाई दे रहे हैं--

क : तुमने मुझे पिटवाया था, मैंने तुम्हें दो वर्ष की जेल की सजा कटवायी थी. तुम्हारी जटा तीस हाथ लंबी थी, गोरखपुर के उस पारसी मजिस्ट्रेट ने तुम्हारी गिरफ़्तारी के बाद पहला काम यही किया था कि जटा मुंड़वा दी... इलाक़े में तुम्हारे ढोंग की तूती बोलती थी... नागा बाबा ने बुलहवा के बाबा की माया को पंक्चर कर दिया ! गवाहों ने अदालत में कहा था-- यह व्यक्ति मूलतः तमकुही का रहनेवाला मुसलमान है और भागकर नेपाल चला गया . वहाँ से साधु बनकर लौटा-- काले चेहरे की लाल आँखें बार-बार मुझे घूर रही हैं !

ख : एक अधेड़ औरत . रात को सोते समय कंबल के अंदर घुस आई थी. तिब्बत की घटना है, अपरिचित जगह, अनजाने लोग . शंका और आतंक से मेरी नींद उड़ गई . अगले रोज़ मालूम हुआ, वह इसलिए साथ सोने आऊई थी कि मैं ठंड के मारे सिकुड़कर कहीं दम न तोड़ दूँ !

ग : अमृतसर का एक लाल ! हम पति-पत्नी (1941 में) को यह निरा भोंदू मान बैठा था . अपराजिता को रिझाने की बेचारे ने कोशिश की, सैकड़ों रुपए खर्च कर डाले . उसे आशा थी कि अपने गँवार पति को छोड़कर यह युवती उसकी जीवन-संगिनी बनना स्वीकार कर लेगी . बरेली, मुरादाबाद, हरिद्वार, सहारनपुर जाने कितने दिनों तक यह पंजाबी युवक हमारे साथ चिपका रहा !

घ : उत्तर प्रदेश का एक प्रकाशक . कई हज़ार रुपए बरबाद हुए उसके . इसमें 40 प्रतिशत कसूर उसका अपना भी था .

च : वयोवृद्ध पत्रकार . आपको मैंने अपनी पैनी क़लम चुभो दी थी . बड़ा दर्द हुआ बेचारे को...

छ : काठमांडू का एक सैनिक अधिकारी . उन्होंने तीन राष्ट्रों की महंगी शराब को आचमन करने का सुअवसर प्रदान किया .

बस, बंद करो अपनी बकवास...!

हाँ, सचमुच बड़ी कतार है उन चेहरों की जिनकी निगाहों में मेरे लिए उलाहना भरा है.... बाक़ी चेहरे कुछ ऐसे भी मित्रों के हैं, जिनकी प्रशस्ति में मैंने निर्लिप्तता का परिचय दिया .

भाई, यह तोड़-जोड़ की दुनिया है . इस हाथ दो, उस हाथ लो ! वरना जहन्नुम में जाओ...!

अलविदा, प्यारे आईने ! अलविदा !

(समाप्त)

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