Friday, June 1, 2012

फैज़ की कहानी फैज़ की जुबानी - ३


(पिछली कड़ी से आगे)

अब हम मरे कालेज सियालकोट में दाखि़ल हुए, और वहां प्रोफ़ेसर यूसुफ़ सलीम चिश्ती उर्दू पढ़ाने आये, जो इक़बाल के मुफ़स्सिर (भाष्यकार) भी हैं. तो उन्होंने मुशायरे की तरह डाली. और कहा ‘तरह’ पर (दिये हुए साँचे पर) शेर कहो! हमने कुछ शेर कहे, और हमें बहुत दाद मिली. चिश्ती साहब ने मुंशी सिराजदीन से बिल्कुल उलटा मशविरा दिया और कहा फ़ौरन इस तरफ़ तवज्जुह करो, शायद तुम किसी दिन शायर हो जाओ!

गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर चले गये. जहां बहुत ही फ़ाज़िल और मुश्फ़िक़ (विद्वान और स्नेही) उस्तादों से नियाज़मंदी हुई. पतरस बुख़ारी थे; इस्लामिया कालेज में डॉक्टर तासीर थे; बाद में सूफ़ी तबस्सुम साहब आ गये. इनके अलावा शहर के जो बड़े साहित्यकार थे इम्तियाज़ अली ताज थे; चिराग़हसन हसरत, हफ़ीज़ जालंधरी साहब थे; अख़्तर शीरानी थे उन सबसे निजी राह-रस्म हो गयी. उन दिनों पढ़ानेवालों और लिखनेवालों का रिश्ता अदब (साहित्य) के साथ-साथ कुछ दोस्ती का-सा भी होता था. कॉलेज की क्लासों में तो शायद हमने कुछ ज़ियादा नहीं पढ़ा; लेकिन उन बुज़ुर्गों की सुह्बत और मुहब्बत से बहुत- कुछ सीखा. उनकी महफ़िलों में हम पर शफ़क़त (स्नेहयुक्त आशीष की भावना} होती थी, और हम वहां से बहुत-कुछ हासिल करके उठते थे.

हमने अपने दोस्तों से भी बहुत सीखा. जब शेर कहते तो सबसे पहले ख़ास दोस्तों ही को सुनाते थे. उनसे दाद मिलती तो मुशायरों में पढ़ते. अगर कोई शेर ख़ुद पसंद न आया, या दोस्तों ने कहा, निकाल दो, तो उसे काट देत.। एम०ए० में पहुँचने तक बाक़ायदा लिखना शुरू कर दिया था. हमारे एक दोस्त हैं ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर. उनकी वजह से हमें संगीत में दिलचस्पी पैदा हुई. ख़ुर्शीद अनवर पहले तो दहशतपसंद (क्रांतिकारी) थे, भगतसिंह गु्रप में शामिल. उन्हें सज़ा भी हुई, जो बाद में माफ़ कर दी गयी. दहशतपसंदी तर्क करके वह संगीत की तरफ़ आ गये. हम दिन में कॉलेज जाते और शाम को ख़ुर्शीद अनवर के वालिद ख़्वाजा फ़ीरोज़ुद्दीन मरहूम की बैठक में बड़े-बड़े उस्तादों का गाना सुनते. यहां उस ज़माने के सब ही उस्ताद आया करते थे; उस्ताद तवक्कुल हुसैन ख़ां, उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां, उस्ताद आशिक़ अली ख़ां, और छोटे गु़लाम अली ख़ां, वग़ैरह. इन उस्तादों के साथ के और हमारे दोस्त रफ़ीक़ ग़ज़नवी मरहूम से भी सुह्बत होती थी. रफ़ीक़ ला-कॉलेज में पढ़ते थे. पढ़ते तो ख़ाक थे, बस रस्मी तौर पर कॉलेज में दाखि़ला ले रक्खा था. कभी ख़ुशींद अनवर के कमरे में और कभी रफ़ीक़ के कमरे में बैठक हो जाती थी. ग़रज़ इस तरह हमें इस फ़न्ने-तलीफ़ (ललित-कला) से आनंद का काफ़ी मौक़ा मिला.

जब हमारे वालिद गुज़र गये तो पता चला कि घर में खाने तक को कुछ नहीं है. कई साल तक दर-ब-दर फिरे और फ़ाक़ामस्ती की. इसमें भी लुत्फ़ आया, इसलिए कि इसकी वजह से ‘तमाशाए-अहले-करम’ {पैसेवालों की कृपा का नाटक (ग़ालिब का शेर है : बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस गा़लिब / तमाशाए-अहले-करम देखते हैं)} देखने का बहुत मौक़ा मिला, ख़ास तौर से अपने दोस्तों से. कॉलेज में एक छोटा-सा हल्क़ा (मंडली) बन गया था. कोयटा के हमारे दोस्त थे, एहतिशामुद्दीन और शेख़ अहमद हुसैन, डॉ. हमीदुद्दीन भी इस हल्क़े में शामिल थे। इनके साथ शाम को महफ़िल रहा करती. जवानी के दिनों में जो दूसरे वाक़िआत होते हैं वह भी हुए, और हर किसी के साथ होते हैं.

गर्मियों में कॉलेज बंद होते, तो हम कभी ख़ुर्शीद अनवर और भाई तुफ़ैल के साथ श्रीनगर चले जाया करते, और कभी अपनी बहन के पास लायलपुर पहुँच जाते. लायलपुर में बारी अलीग और उनके गिरोह के दूसरे लोगों से मुलाक़ात रहती. कभी अपनी सबसे बड़ी बहन के यहां धरमशाला चले जाते, जहां पहाड़ की सीनरी देखने का मौक़ा मिलता, और दिल पर एक ख़ास क़िस्म का नक़्श (गहरा प्रभाव) होता. हमें इनसानों से जितना लगाव रहा, उतना कु़दरत के मनाज़िर (सीन-सीनरी) और नेचर के हुस्न को देखने-परखने का नहीं रहा. फिर भी उन दिनों मैंने महसूस किया कि शहर के जो गली-मुहल्ले हैं, उनमें भी अपना एक हुस्न है जो दरिया और सहरा, कोहसार या सर्व-ओ-समन से कम नहीं. अलबत्ता उसको देखने के लिए बिल्कुल दूसरी तरह की नज़र चाहिए.

(जारी)

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