Sunday, June 3, 2012

एक डग भीतर जाने के लिए सौ डग बाहर आना पड़ता है - १


अपनी नई कविताओं की रोशनी में कवि लीलाधर जगूड़़ी -   एक

-शिवप्रसाद जोशी

लीलाधर जगूड़ी अपनी ही कविता में एक नवागंतुक की तरह दाखिल हो रहे हैं और भीतर जितना पड़े हैं उससे कहीं ज़्यादा बाहर खड़े हो गए हैं, इसकी झलक असद ज़ैदी के संपादन में निकल रही जलसा के पहले अंक में ही दिख गई थी. 21वीं सदी का पहला दशक पूरा हो गया था जब वो अंक निकला था. और उसकी थीम थी- अधूरी बातें. उनके अलावा इधर उधर कुछ कविताएं और पढ़ लेने के बाद हाल में यानी सुमित्रानंदन पंत की मई में जयंती के देहरादून में हुए समारोह से एक दिन बाद ही जगूड़ी की कुछ नई कविताओं का एक छोटा सा पुलिंदा मेरे हाथ आया था.

कुछ इस तरह कि वो पुलिंदा लगभग खिन्नता और खीझ में भरकर उन्होंने कार की पिछली सीट पर फेंक दिया था. ये लो यार ये फोटोकॉपी. फिर हम लोग साथ एक दावत में चले गए थे. हमारे साथ जगूड़़ीजी के मित्र कवि मंगलेश डबराल भी थे. मैंने सोचा कि वे कविताएं मंगलेशजी के ले जाने के लिए थी, मैने मांग ली तो इससे जगूड़ीजी को थोड़ा अटपटा लगा होगा. घर पहुंचकर कविताएं पढ़ीं और उनकी शख़्सियत की आभा में उन्हें देखा तो जाना कि अब आप जब भी जाएंगें यक़ीनन एक नए जगूड़ी के पास जाएंगे.

जिसके पास न सिर्फ़ आधुनिक हिंदी जगत की पंत निराला मुक्तिबोध धूमिल के दौर से लेकर अब तक की यादें जमा हैं. जिनके पास शब्दों का शायद कभी न ख़त्म न होने वाला एक सिलसिला है, ठीक उस नदी की तरह जो उनके उत्तरकाशी शहर और गांव के पास से गुज़रती है जिसे भागीरथी कहते हैं और ठीक उस पानी के बहते जाने की ज़िद की तरह जगूड़ी भी अड़े हुए हैं और इस अड़ियलपन को वो अब भागीरथी को विकास से जोड़ने के आंदोलन तक खींच ले आए हैं. सत्तर पार जगूड़ी को गर्मी से भरी सुबह दिन दोपहर शामों में देहरादून हरिद्वार में गंगा और धर्म के नाम पर नकली आस्था के दुष्चक्र के ख़िलाफ़ धरना देते, भाषण देते, फटकार लगाते और नारा लगाते देखा जा सकता है. हिंदी की एक पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि लीलाधर जगूड़ी उत्तराखंड में विकास की आकांक्षा वाले एक नए क़िस्म के आंदोलन में प्रमुख भागीदार बन गए हैं. कहां वो एक समय सरकार में एक भागीदार थे और कहां अब सत्ता सिस्टम को आगाह करने अपनी कविता की तरह बाहर निकल आए हैं.

वे अपने साथ जुड़े तमाम विवादों, बतकहियों को जैसे अतीत में टांग आए हैं. अब उन पर हम उनके कथित विवादों के हवाले से टिप्पणी नहीं करते रह सकते. एक डग भीतर जाने के लिए सौ डग बाहर आना पड़ता है. और जगूड़ी ये बता रहे हैं कि भीतर जितना पड़ा था उससे कहीं ज़्यादा बाहर खड़़ा हूं मैं. यानी आलोचकों के लिए और निंदकों के लिए और कुछ और अभियानपरस्त फ़जीहतवादी प्रचारकों के लिए जगूड़ी का ये निवेदन भी है और चुनौती भी और शायद एलान भी. भाषाओं से ही नहीं आशाओं से भी नापो मुझे.

वे कविताएं मेरे पास संयोगवश इधर जगूड़ी की शख़्सियत में आ रही खिन्नता हल्का सा गुस्सा चिढ़ कई तरह की छटपटाहटों और बेचैनियों की मिलीजुली रंगतों का इज़हार करते हुए आई हैं. ज़ाहिर है उनके कुर्ते के रंग भी हैं जो अब जगूड़ी को दूर से पहचाने जाने के लिए सबसे उपयुक्त प्रतीक हो गए हैं. जो जगूड़ी के काव्य से परिचित है वो इन कविताओं को देखकर चौंक सकता है और सुखद आश्चर्य में जा सकता है कि जगूड़ी अपने काव्य के इतने दशकों बाद भी कितनी ताज़गी और नई ज़मीनों को खोदने की सामर्थ्य से भरे हुए हैं.

इन कविताओं में उन्होंने एक जैसे बड़ी छलांग लगाई है. साहित्यिक राजनैतिक सांस्कृतिक छलांग. उम्र के इस पड़ाव पर ये छलांग उन्हें वर्तमान से भविष्य की ओर निकाल ले गई है जहां हिंदी कविता की एक नई बिरादरी का लेखन चल रहा है और नया लेखन और आएगा. एक नया समाज बनबिगड़ रहा है, एक नया समाज और बनेगा. और जगूड़ी की तरह कोई कह सकता है कि मेरे साथ मेरा दर्द है और मेरी मृत्यु. ये हमारे समय के संकटों पर शायद सबसे क़रीबी और सबसे माक़ूल वक्तव्यों में एक है. अपने सहित बहुत दूर निकल आना कहकर जगूड़ी ने एक चैलेंज की तरह अपने समकालीनों और इधर नई पीढ़ी के सामने एक ज़िद पेश कर दी है. अपनी नई रचनाओं में जगूड़ी इसलिए बहुत बाहर जाकर जैसे वहां से अपने शब्द फेंक रहे हैं. वे अब गुच्छे जैसे भी नहीं है. वे जैसे छिटककर निकल गई किरचियां हैं और उनमें चुभन है. फोड़े में ही भरा हुआ है फोड़े का दर्द. और जगूड़ी इतने जिद्दी हो गए हैं कि कह रहे हैं किः

अगर आंखों से न आ रहे हों
शब्द कानों से आ रहे हों
अर्थ का कोई रंग, मुंह का कोई स्वाद
कर्म की कोई कठिनाई ला रहे हों
रंग की ध्वनि और ध्वनि के रंग
को अलग अलग बतला रहे हों
तब अनुभूति के कागज के लिए
स्याही कम पड़़ जाती है
नये कर्मों के लिए शब्दों की उगाही
करते हुए पृथ्वी छोटी पड़ जाती है

मुझे थोड़ा बड़ा होना है
पृथ्वी के साथ अगला पृष्ठ आकाश का जोड़कर.


लीलाधर जगूड़ी की ताज़ा कविताओं में कुछ हिडन स्वीकारोक्तियों वाली उदासी भी है. उदासी का ऐसा फैलाव जगूड़ी की कविता में इधर कब कैसे चला आया इस पर और अध्ययन की ज़रूरत है. और तीसरी बात उनमें शब्दों की और अर्थों की अतिशयता से परहेज़ है और चौथी बात वे निस्पृह हैं. उनमें रूखापन है और एक ख़ुशी है और एक विह्वलता है. वे जैसे बनने से ज़्यादा न बनने की ओर उन्मुख हैं. उन्हें हड़बड़ी है और ये कोई विचारहीन हड़बड़ी नहीं जैसे सुनियोजित है. उनमें शोर नहीं है, आवाज़ें बहुत धीमी हैं और हाहाकार भी उस तरह से फाड़ता हुआ नहीं आता जैसा हम उनकी पुरानी प्रसिद्ध कविताओं में देख चुके हैं.

असल में जगूड़ी की नई कविताएं इसीलिए चौंकाती है कि उनमें अचानक एक चुप्पी ने भी जगह बनाई है. वो जैसे एक शर्मीलापन है एक संकोच. आवाज़ को ऊंचा न उठाने की हिचक. थोड़ा बड़ा होने की ज़रूरत. जैसे ये हमारे समय के धुरंधर कवि लीलाधर की नहीं किसी संकोची लेकिन तीक्ष्ण दृष्टि वाले नए कवि की कविताएं हैं. अपनी कविताओं में इस तरह आगंतुक की तरह आना वाकई हैरानी वाली और स्वागत वाली बात है. यानी आप जिस ज़मीन पर हल चला चुके, बीज बोकर फसल काट चुके, उन ज़मीनों पर आप एक नए हलवाहे की तरह लौटते हैं. बल्कि आप अन्य ज़मीनों की ओर भी बढ़ रहे हैं. वे जितना अपनी ज़मीनों की ओर जा रहे हैं उतना ही बाहर निकलने का न सिर्फ आह्वान कर रहे हैं बल्कि उनकी छटपटाहट हो गई है कि सबको बाहर की आज़ादी मिलनी चाहिए. पत्थर सा शोक में डूब कर भी बाहर चला आता हूं कुछ और बनने.

जगूड़ी की नई कविताएं एक और दिलचस्पी जगाती हैं. वो ये कि और ख़ासकर उनके लिए जो उन्हें कवि के रूप में और एक नागरिक के रूप में और इधर आंदोलनकारी और सरकारी गैरसरकारी कार्यक्रमों में धुआंधार शिरकत और धुआंधार उद्घाटन अध्यक्षता करने वाले प्रतिष्ठित व्यक्ति के रूप में या फिर एक मित्र के रूप में जानते देखते आए हैं, उन्हें दिखेगा कि कैसे एक आदमी के भीतर इतने सारे आदमी हलचल कर रहे हैं. समय की सांस्कृतिक सियासत को सूंघता हुआ, उसमें टहलता भटकता और उसके बारे में बोलता हुआ. अब कुल मिलाकर ये सब कुछ इस तरह से घटित होता है कि क्या दुनिया को और दुनिया में रहने वाले व्यक्ति को अलग ढंग से सोचा जाए. “वैसे ही इस दुनिया को कुछ और तरह से भी सोचो कि तुम्हीं वह एलियन हो जो बाहर से आये और यहीं के होकर रह गए.” और जब ख़ुद से इस तरह बाहर निकलकर खड़ा हुआ और रहा जाए और फिर एक एक कर तमाम घटनाओं, हादसों, साज़िशों, शैतानियों और हिंसाओं और उनके प्रतीकों को उनकी विकरालता में समझने की कोशिश की जाए. यानी

धर्म की खोज में शुरू हुई इस दुनिया में
धर्मों की खामियों में सोचो
मनुष्य होने के धर्म को पृथ्वी
सहित कैसे बचाया जा सकता है
बटोरी हुई ख़ूबियों को और संजोए हुए मूल्यों को
ढहाकर बिखराने वाले संस्थाबद्ध धर्मो और ठेकाबद्ध आतंकों के बारे में सोचो
कोई और तरह का विस्फोटक ढूंढो जो धर्म न हो


जगूड़ी की ख़ुद से पीछा छु़ड़ाने की इस नई कोशिश के साए में ही उनका नया दुस्साहस देखा जा सकता है जो इधर भूमंडलीकरण की भयावह अतिशयता के बीच ताक़तवर और कई तरह की शक्तियों से लैस हो चुकी संत कही जा रही बिरादरी-लॉबी के ख़िलाफ़ गंगा के अविरल प्रवाह और निर्मलता शुद्धता के मामले पर सामने आया है. ऋषिकेश हरिद्वार और उससे आगे साधुओं की आलीशान विलासिताओं और भव्यताओं पर जगूड़ी ने खुलेआम तीखे हमले किए हैं. ये कविता से बाहर संभव हुआ है. वोट पॉलिटिक्स और संसदीय लोकतंत्र के समूह महिमा गान के किनारों पर खड़े होकर अरुंधति रॉय शायद हमारे समकालीन समय में सबसे पहली रचनाकार हैं जिन्होंने साहित्य से परे जाकर( उसे कमोबेश दांव पर लगाकर) खुलेआम आवाज़ उठाई है. बेशक हिंदी में (लेकिन कविता या चुनिंदा आलेखों-निबंधों में ही-) ये काम यूं उनसे पहले और आज भी होता रहा है. लेकिन रचना से बाहर हिंदी का कोई लेखक ऐसा कर पाएगा, फिलहाल तो लगता है जगूड़ी ने ये दरवाजा खोला है.

 जगूड़ी ने अपनी काव्यभाषा और शिल्पगत अनुभव में जो नई चीज़ तलाश की है या वो दरअसल अपनी कविता की पहचान को पुनर्परिभाषित करने की एक्सरसाइज़ है कि एक कविता हमें कई दरवाजों और कई खिड़कियों से होते हुए कई सच्चाइयों से रूबरू कराती है. एक कविता है मिसाल के लिए अंधेरा-उजाला. उसका हर स्टैंज़ा( पैरा) इस तरह से बुना गया है कि कविता चढ़ाइयों और ढलानों और फिर चढ़ाइयों और अंततः एक सार्थक लेकिन अधूरी उड़ान की ओर जाती है. क्योंकि उसे फिर लौटना होता है एक नई सार्थकता और एक अधूरी छूटी उड़ान को पूरा करने के लिए. दो भागों में विभक्त ये कविता इस आज़माइश का एक बेहतरीन नमूना कही जा सकती है.

मेरी ही परछाई में दुबका हुआ है सृष्टि का सारा अंधेरा
अपनी अनुपस्थिति का नाम उजाला सुनने के लिए


और जगूड़ी फिर लौट आए हैं अपनी चिरपरिचित सावधानियों और ज़रूरी छींटाकशियों के साथ. लेकिन अंदाज़ इस बार अलग है. क्योंकि बीसवीं सदी के आम आदमी जैसा नहीं रहा, इक्कीसवीं सदी का आम आदमी.

सड़क का चौड़ीकरण हो
चाहे आधुनिकीकरण नगदीकरण नहीं तो
यह बेगार भला क्यों फ़र्जीफ़िेकेशन होता रहे
और हम उफ़ भी न करें....

और कुछ इस तरह पतन हो गया है कि

इक्सीसवीं सदी का आम आदमी
भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा मांग रहा है
परसों भारत माता क्यों रोई
कितनी दूर बिना ईंधन चल पायेगा कोई
हर कोई लोकतंत्र में अपना हिस्सा मांग रहा है.


तो हमारे समय में लोकतंत्र के दर्शन की फ़जीहत का उससे खिलवाड़ का और उसकी प्रासंगिकता सार्थकता और नैतिकता का ऐसा जुलूस निकला है कि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया है. कहने का ही लोकतंत्र है क्यों न कह दिया जाय-पैसें बिन अब रहा न जाय.

(अगली किस्त में समाप्य)

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