विष्णु खरे जी की एक कविता मैंने कल यहाँ लगाई थी. उसके और आज लगी जा रही कविता के अलावा अगले दिनों में उनकी जो कवितायेँ यहाँ लगने जा रही हैं, वे सब उनके संग्रह “सब की आवाज़ के पर्दे में” में हैं.
संग्रह का शीर्षक बाबा मीर तक़ी मीर के एक शेर का क़ाफ़िया है –
गोश को होश के टुक खोल के सुन शोर-ए-जहां
सब की आवाज़ के पर्दे में सुख़नसाज़ है एक
यहाँ मीर आप को बतला रहे हैं कि ज़रा अपने भीतर के कानों को खोल कर दुनिया के शोर को सुना जाय. अगला इसरार यह करते हैं कि प्रत्यक्षतः सुनाई दे रही दुनिया की आवाज़ ज़िन्दगी की जिन तफ़सीलों पर पर्दा डाले हुए हैं, उन तफ़सीलों की सुख़नवरी को समझिये.
इसके लिए सिर्फ़ कवि हो जाना बहुत नहीं होता. ज़रूरी यह है कि आप के भीतर शोर और आवाज़ की भीड़ में से कविता को अलग करने की क़ूव्वत हो. और वह भी बेहद सचेत तार्किक तरीके से.
इस कविता में और अपनी तमाम बाक़ी कविताओं में विष्णु जी यह करते जाते है. पढ़िए उनकी यह कविता –
जो
मार खा रोईं नहीं
तिलक
मार्ग थाने के सामने
जो
बिजली का एक बड़ा बक्स है
उसके
पीछे नाली पर बनी झुग्गी का वाक़या है यह
चालीस
के करीब उम्र का बाप
सूखी
सांवली लम्बी सी काया परेशान बेतरतीब बड़ी दाढ़ी
अपने
हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ
नाराज़
हो रहा था अपनी
पांच
साल और सवा साल की बेटियों पर
जो
चुपचाप उसकी तरफ ऊपर देख रही थीं
गुस्सा
बढ़ता गया बाप का
पता
नहीं क्या हो गया था बच्चियों से
कुत्ता
खाना ले गया था
दूध
दाल आटा चीनी तेल केरोसीन में से
क्या
घर में था जो बगर गया था
या
एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं
जो
भी रहा हो तीन बेंतें लगीं बड़ी वाली की पीठ पर
और
दो पडीं छोटी को ठीक सर पर
जिस
पर मुंडन के बाद छोटे भूरे बाल आ रहे थे
बिलबिलाई
नहीं बेटियाँ एकटक देखती रहीं बाप को तब भी
जो
अन्दर जाने के लिए धमका कर चला गया
उसका
कहा मानने से पहले
बेटियों
ने देखा उसे
प्यार
करुना और उम्मीद से
जब
तक कि वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया.
1 comment:
संग्रह बेहतरीन है और यह कविता मेरी प्रिय कविताओं में से है।
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