श्री कर्ण सिंह चौहान का यह लेख उनके ब्लॉग से जस का तस
लिया जा रहा है. लेख ज़रूरी है और उसकी प्रासंगिकता लम्बे समय तक बनी रहने वाली है. इसी वजह से मुझे लगता है यह लेख अधिकाधिक लोगों द्वारा पढ़े जाने की दरकार रखता
है. श्री कर्ण सिंह चौहान का आभार-
हिंदी हिंदी और फिर हिंदी - हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ
[यह टिप्पणी जुलाई‚ 2007 को न्यूयार्क
में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर लिखी गई. वैसे तो लेखक की यह धारणा रही है
कि इस तरह के समारोही जमावड़े अधिकतर तिकड़मबाज लेखकों की
सैरगाह रहे आए हैं. कुछेक सम्माननीय
लेखकों को भी बुला लिया जाता है जिससे कि साख बनी रहे. इसके बारे में क्या लिखना!
फिर भी एक पत्रिका जब बहुत ही पीछे पड़ गई और कहने लगी कि क्योंकि मैं वर्षों तक देश और विदेश
में हिंदी और भारतीय विद्याएं पढ़ाता रहा हूं इसलिए विदेशों में हिंदी पर लिखने का अधिकारी विद्वान हूं.
मैं उस समय हिमालय में था और
फैक्स भेजने की सुविधा न होने के कारण काफी विलंब से और अत्यंत संक्षेप में ही यह भेज
सका. फिर भी यह टिप्पणी ऐसे मंगलमय अवसर पर अमंगलकारी होने के कारण उनके गले की फांस
तो हो ही गई. अपने यहां तो सब कुछ समारोहधर्मी सा हो गया
है और बनी लीक पर मौकों के लिए लिखा जाता है. सब जानते हैं कि मातृभाषा के रूप में
हिंदी चीनी मंडारिन के बाद दुनिया की दूसरे नंबर पर आने वाली भाषा है. फिर भी उसकी
अंतर्राष्ट्रीय फॉरमों पर और स्वयं हमारे देश में जो बेकदरी है, वह आश्चर्य में डालने वाली है. इस पर थोड़ा गंभीरता से सोचने की जरूरत है.]
यह लेखक पिछले पैंतीस साल से भाषा‚ साहित्य और संस्कॄति के अध्ययन और अध्यापन
से जुड़ा रहा है. यदि शिक्षण को भी इसमें जोड़ लिया जाय तो फिर पूरा जीवन इसी को समर्पित
समझिए. यह अनुभव का एक व्यापक दायरा है और समय का अंतराल भी बड़ा है. इसलिए विषय पर
कहे को गहन और प्रामाणिक तो मान ही लिया जाना चाहिए .
विदेशी भाषा अध्ययन : कुछ सामान्य तथ्य
शुरू में ही इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि हिंदी की चर्चा
अक्सर हिंदी वाले ही करते हैं और वे भी उसे गौरवान्वित करने या उसकी कीर्तिपताका फहराने
के लिए करते हैं. उस पर आज तो इस गौरवगान का विशेष अवसर उपस्थित है जहां सब विश्व हिंदी
समुदाय इस वॄंदगान में शामिल होने जा रहा है. इसलिए तथ्यों को कहने में कुछ संकोच भी
हो रहा है और कुछ डर भी लग रहा है. डर जो पत्थर हाथ में लिए खड़ी भीड़ को देख लगना
स्वाभाविक है. लेकिन जब जिंदगी भर इसकी
परवाह नहीं की तो अब क्या !
दिक्कत यह है कि हम हिंदी पढ़ने–पढ़ाने–लिखने वाले बुद्धि
की जगह दिल से सोचते हैं इसलिए विचारों में भावनाओं का ज्वार-भाटा ज्यादा होता है और भावनाओं में विचारों का.
ऊपर से राष्ट्र गौरव‚भाषा प्रेम‚ विश्व विजय का ज़ज्बा होता है. इस सब में असलियत
गायब हो जाती है.
विदेशों में हिंदी के अध्ययन की स्थिति क्या है ? सरसरी तौर पर देखने को तो लग सकता
है कि दुनिया के हर देश के कितने ही विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन-अध्यापन होता है. यह जानकारी काफी है‚ इसके अलावा
और क्या प्रमाण चाहिए हिंदी की महिमा के गीत गाने के लिए ?
लेकिन क्या यही पूरा सच है ?
विदेशों में हिंदी की पढ़ाई के तंत्र को समझने से पहले जरा अपने
देश में विदेशी भाषाओं के अध्ययन की स्थिति पर गौर करें. अपने दायरे में पड़ने वाले
महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय – दिल्ली विश्वविद्यालय – की ही बात करें तो पाएंगे कि अभी कुछ बरस पहले तक वहां विदेशी भाषाओं में दाखिला
लेने वाले छात्रों के ‘मोटिव’ बहुत महत्तर नहीं हुआ करते थे. बड़ी संख्या होती थी ऐसे लोगों की जो या तो
सिविल परीक्षाओं की तैयारी के लिए इन भाषाओं में दाखिला लेकर यहां बने रहते थे. कितने
ही होते थे जो मात्र बस पास के लिए दाखिला लिए रखते थे.
पिछले दिनों इस स्थिति में कुछ परिवर्तन शुरू हुआ है जबसे कुछ देशों के साथ हमारे व्यापारिक
संबंध घने हुए हैं और उन देशों से व्यापार–मंडल और यात्री आने–जाने लगे हैं. इस तरह यह अध्ययन कुछ व्यावहारिक रूप लेने लगा है. उसमें छात्र
ऐसे देशों की भाषाओं में अधिक रुचि लेने लगे हैं जिनसे भविष्य
में हमारे व्यापार के बढ़ने की संभावनाएं हैं.
कमोबेश यही स्थिति विदेशों में विदेशी भाषाओं के अध्ययन की रही
है. हां‚ क्योंकि उनका व्यापार पहले
से दुनिया के देशों में चलता था इसलिए इस अध्ययन में पहले से ही व्यावहारिकता का समावेश
रहा. बस यही‚ इससे ज्यादा कुछ नहीं.
अब जरा अपने देश में हिंदी के अध्ययन के बारे में बात करें.
यह हमारे आसपास की रोजमर्रा की सच्चाई है. सब जानते हैं कि देश के स्कूलों से लगाकर
विश्वविद्यालयों तक मातॄभाषा की पढ़ाई सब जगह चलती है. हजारों–लाखों की संख्या है. हर तरह की हिंदी पढ़ते हैं.
क्यों पढ़ते हैं ? भाषा प्रेम वश‚देशप्रेम वश‚ व्यावहारिक कारणों से या किस वजह से ?
हिंदी का अध्यापक जब पहले दिन बी ए हिंदी की कक्षा लेने जाता
है और हिंदी लेने का कारण पूछता है तो बुझे चेहरों से जवाब मिलता है कि किसी भी दूसरे
वांछित विषय में दाखिला लेने के लिए जरूरी अंक न होने के कारण मजबूरी में हिंदी में
दाखिला लेना पड़ा. वे तो वे‚ हिंदी के इस दाखिले से उनके वे गरीब माता–पिता भी दुखी
ही होते हैं जिन्होंने हिंदी के अलावा किसी भाषा का मुंह तक नहीं देखा. देश‚ भाषा‚संस्कॄति प्रेम के पीछे के उच्छवास की असलियत यह
है.
इसलिए वे लोग जो हिंदी प्रेम के बारे में बहुत महत्तर भावों
में सोचते हैं‚ वे इस स्थिति के बारे में
आंखें मूंदे रहते हैं जबकि वस्तविकता हमारे इर्द-गिर्द सब जगह
पसरी है.
अपने देश में ही ऐसा हो सो बात नहीं है. कोरिया का उदाहरण दूं
जहां मैंने हाल तक पढ़ाया है. वहां विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए पूरे देश में एक
केंद्रीय परीक्षा होती है जिसमें अंकों के आधार पर कंप्यूटर से तय होता है कि किस छात्र
को कौनसा विश्वविद्यालय और उसमें कौनसा कोर्स मिलेगा. यानी कि छात्रों का पूरा भविष्य
इसी परीक्षा से तय होता है. यही कारण है कि इस परीक्षा से पहले सब लोग बौद्धमठों‚ गिरजों या पहाड़ों में जाकर सघन प्रार्थना
करते हैं. परिणाम निकलने पर बहुत रोना–पीटना मचता है. जो अंकों
में सबसे निचले स्तर पर रह जाते हैं उन्हें ही हिंदी जैसे विषयों में धकेला जाता है.
इसलिए वहां भी हिंदी लेना कोई गौरव या मनचाही बात नहीं‚ मजबूरी ही है. कक्षा में वहां भी पहले दिन बुझे चेहरों से ही सामना होता है.
क्योंकि कम अंक पाने वालों की संख्या हमेशा ही बड़ी होती है इसलिए हिंदी में छात्रों
की संख्या कुछ ज्यादा ही होती है. पिछले दिनों भारत और कोरिया के बीच संबंधों में घनिष्ठता
और व्यापकता आई है और वहां छात्रों को लगने लगा है कि इससे हिंदी पढ़ाई बहुत काम आएगी.
इसलिए पिछले कुछ वर्षों से हिंदी में छात्रों का आना गुणवत्ता और चुनाव से होने लगा
है.
अब यदि मैं इस सब असलियत को छुपाकर केवल इतना ही बताऊं कि कोरिया
की राजधानी सिओल के विश्वविद्यालय के दो कैंपसों में हिंदी पढ़ने वालों की संख्या दो–तीन सौ है या वहां हिंदी और भारत संबंधी ज्ञान
के ७-८ विद्वान प्रौफैसर हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण
काम किया है, तो हिंदी वाले इसे बतंगड़ बनाकर पेश करेंगे और इससे
भ्रामक निष्कर्ष निकालेंगे. कई ऐसे देशों में‚ जहां रोजगार
की बहुत मारामारी नहीं है या आर्थिक हालत संपन्नता की है वहां केवल जिज्ञासा या ज्ञानपिपासा के लिए कुछ लोग हिंदी में आ सकते हैं. हालांकि दुनिया में अभी
कोई देश भुक्कड़ स्थिति से निकल इतना संपन्न नहीं हुआ है कि मन से हिंदी पढ़ने की ‘लग्जरी’ का शौक पाल सके.
विदेशों में हिंदी : सरकारी प्रोत्साहन
दुनिया के जिन विश्वविद्यालयों में आज हिंदी पढ़ाई जाती है उसमें
से अधिकांश की शुरूआत नेहरू के जमाने में हुए परस्पर के सांस्कॄतिक आदान–प्रदान समझौतों से हुई. नई आजादी थी‚ नया जोश था‚गुटनिरपेक्ष देशों में भारत की शान थी‚ भविष्य के उज्ज्वल होने की आशाएं थीं. लेकिन आज स्थिति बदल गई है. उन सपनों‚ उड़ानों की जगह तुच्छ व्यावहारिकताओं ने ले ली है. भाषाओं का अध्ययन बाजार
से तय होता है कि किसमें कैरियर की कितनी संभावनाएं हैं.
लेकिन सरकारें समझौते करती चलती हैं और इस तरह विदेशों में हिंदी
की पढ़ाई भी जारी रहती है. बस इतना ही. यूं जब अपनी सरकार का देश में हिंदी के प्रति
रवैया साफ नहीं है तो विदेश में कैसे होगा. सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय दूतावास
के अधिकारी अपनी बोलचाल‚ चालढाल‚ लिबास‚रहन–सहन से इस बात का आभास
कराए बिना नहीं रहते कि हिंदी सीखना कोई गौरव की बात नहीं‚ वह भारत में भी गंवारों की भाषा और संस्कॄति है. विदेश मंत्रालय के आधीन काम
कर रही ‘भारतीय सांस्कॄतिक संबंध
परिषद’ नाम की संस्था विदेशों के साथ हिंदी के इन समझौतों
और हिंदी अध्यापकों के इंतजाम को गले में पड़ी हड्डी की तरह लेती है.
इसलिए दूतावास और सरकारी संस्थाएं हिंदी की पढ़ाई को हतोत्साहित
करने में कोई कोर–कसर नहीं छोड़ते.
मुश्किल यह है कि बाहर के लोग समझते हैं कि हिंदी ही हिंदुस्तान
की भाषा है और भारतीय साहित्य और संस्कॄति का ज्ञान उसी के माध्यम से हो सकता है. उन्हें क्या मालुम कि
हिंदुस्तान का सरकारी और नौकरशाही तंत्र जितनी बेकद्री हिंदी की करता है उतनी और किसी
चीज की नहीं.
यह असलियत विदेश में हिंदी पढ़ने वालों पर जल्दी ही उजागर होने
लगती है. और देशों के छात्रों की तरह कोरिया के छात्र भी हिंदी को ही भारत की भाषा
समझते हैं. जब कोरिया के साथ भारत का व्यापार बढ़ा तो उन्होंने समझा कि अब भारत में
व्यापार करने वाली कोरिया की बड़ी कंपनियां – देवू‚ ह्यून्दे‚ सैमसंग‚ पास्को‚ एल जी‚ दुसान वगैरह – उन्हें अपने भारतीय दफ्तरों
में नौकरियां देंगी क्योंकि वे भारत की भाषा के जानकार हैं. शुरू–शुरू में कंपनियों ने ऐसा किया भी. लकिन शीघ्र ही यह सिलसिला उलट गया. इन कंपनियों
ने देखा कि जिन लोगों से इनके लोगों का सरोकार पड़ता है वे तो सब अंग्रेजी ही बोलते
हैं. सारा पत्र–व्यवहार और लिखित कामकाज अंग्रेजी में ही होता
है और अंग्रेजी बोलने और लिखने में कोरिया के ये छात्र अपने भारतीय हिंदी छात्रों की तरह ही कोरे हैं. सो जल्दी
ही इन कंपनियों ने हिंदी के छात्रों को हटा अंग्रेजी जानने वाले अपने समाज–विज्ञानों के छात्रों को लेना शुरू कर दिया. हिंदी पढ़ने वालों को इस तरह भाषा
की इस असलियत का ज्ञान हुआ.
जैसे-जैसे भारत की अर्थ-व्यवस्था और बाजार का प्रसार समृद्ध
वर्गों तक सीमित रहने की जगह आम लोगों तक होगा और गांवों और कस्बों तक जाएगा,
वैसे-वैसे कोरिया में हिंदी पढ़ने वाले या दुनिया
के अन्य देशों में हिंदी पढ़ने वाले छात्रों की उपयोगिता बढ़ेगी. यह स्थिति पढ़ने वालों
पर नहीं हमारी सरकार पर निर्भर करती है कि वह ५-६ दशक की काहिली
से बाहर आ काम करना शुरू करेगी.
हिंदी हिंदी कितनी हिंदी
यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी विदेशी भाषा को सीखना और उस पर
कामचलाऊ अधिकार करना काफी मुश्किल काम है. तीन–चार साल की कड़ी मशक्कत के बाद जितनी हिंदी ये छात्र सीख सकते हैं
वह कामचलाऊ ही हो सकती है. उसमें कोई गंभीर साहित्यिक काम करना संभव नहीं है. यह कामचलाऊ
स्तर भी तभी बना रह सकता है जब हिंदी उनके जीवन व्यवहार और कामकाज से जुड़ी रहे. लेकिन
होता बस यही है कि एकाध ऐसे लोगों को छोड़‚ जिन्हें हिंदी
का काम मिल गया‚ बाकी लोग शीघ्र ही सब भूल जाते हैं. यानी
कि उन्होंने हिंदी अध्ययन में जो तीन–चार साल बिताए वह सब व्यर्थ
था. यह काफी दुखद है.
यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि विदेशों में हिंदी के
अध्ययन–अध्यापन को लेकर जो शानदार विवरण
और विमर्श देश–विदेश में हिंदी से जुड़े लोगों द्वारा किए जाते
हैं वे अधिकांश में वास्तविकता से अलग खुशफहमियों से परिचालित होते हैं. अधिकतर के
लिए तो यह पापी पेट का सवाल है या उनके अस्तित्व‚ अस्मिता‚ महत्व और सार्थकता से जुड़ा है. वास्तविकता कटु यथार्थ को उजागर करने वाली
है और गरिमामय झूठ पर पानी फेरने वाली है. इसलिए सभी जीवनभर गलतबयानी करते रहते हैं.
और फिर विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे आयोजन इस अवास्तविकता को गौरवान्वित
कर यथार्थ में बदलने की कोशिश करते हैं.
समापन
आज की दुनिया बहुत यथार्थवादी और व्यावहारिक है. उसने सब तरह
के भावोच्छवास को निरस्त कर दिया है. किसी देश की भाषा और संस्कॄति में अब दूसरे देश
की दिलचस्पी विशुद्ध ज्ञान के लिए नहीं हो सकती.
उसके ठोस भौतिक कारण होने चाहिएं. मसलन दुनिया के तमाम देशों में चीनी भाषा के प्रति
आकर्षण बढ़ा है तो उसके ठोस कारण हैं. भारत के प्रति वैसा आकर्षण अभी कहीं नहीं है.
आकर्षण बढ़ाने के लिए उसे आर्थिक–वैज्ञानिक मानक बनाने होंगे.
वैसे मानक केवल मंडी बन जाने से या दूसरों को सेवा मुहैय्या करने से नहीं बनते. वे बनते हैं नई खोजों‚ नए उत्पादों‚ नव्यताओं से. उसमें हमारा कोई योगदान नहीं.
एक तो भाषा की बेकद्री का कारण है यह.
दूसरा यह कि जब तक हिंदी या उसे बोलनेवाले अपने देश में सम्माननीय
नहीं हो जाते तब तक उसे विदेश में भला कैसे सम्मान मिल सकता है. मातृभाषा के आंकड़ों के हिसाब से हिंदी
विश्व में मंडारिन चीनी के बाद दूसरे नंबर पर आती है. लेकिन राष्ट्रसंघ से लेकर तमाम
विश्व फॉरम्स पर उसकी कोई पूछ नहीं है. इन सवालों पर ध्यान देना चाहिए कि क्यों ऐसा
है. देश की सरकार विश्व संस्थाओं की तरह उसकी बेकद्री क्यों करती है?
कुल मिलाकर भाषा के सवाल आर्थिक–सांस्कॄतिक विकास से जुड़े हैं. उन्हें केवल
नारों से‚भावुकता से‚ वांछा से‚ हल नहीं किया जा सकता. हिंदी वालों को अपने सभा–सम्मेलनों–गोष्ठियों में हिंदी की विजय पताका फहराने की ‘गा
गा’ से अधिक विमर्श इसका करना चाहिए कि हिंदुस्तान समकालीन
दुनिया की दौड़ में कहां और क्यों पिछड़ रहा है‚ कि हिंदुस्तान
में भी हिंदीभाषी कहां‚ कितना और क्यों पिछड़ रहा है.
हिंदी का भविष्य इन बुनियादी सवालों पर टिका है.
(फोटो - केन्द्रीय विद्यालय मुर्गीबाड़ी के ब्लॉग से साभार.)
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