विष्णु खरे जी
की कविताओं की सीरीज में आज पेश कर रहा हूँ यह नायाब कविता. जितनी तरफ से देखेंगे
उतने आयाम दिखेंगे. और यह आपकी मर्ज़ी पर.
तभी तो.
ग्राहक
दो बार चक्कर
लगा चुकने के बाद
तीसरी बार वह
अंदर घुसा. दूकान ख़ाली थी
सिर्फ़ एक पाँच
बरस का ख़ुश बच्चा आईने के सामने
कुर्सी पर बैठा
हुआ था जिसका बाप लम्बी बेंच से
आधी निगाह अपने
स्कूटर डबलरोटी और लांड्री के कपड़ों पर
और आधी तीन माह
पुराने फ़िल्मफ़ेयर पर रखे हुए था.
सैलूनवाला एक ही
था और बच्चे के साथ ख़ुश
वह भी
हँसी-मज़ाक करता जा रहा था.
अंदर घुस कर वह
चुपचाप खड़ा रहा
ताकि जब बाल
बनानेवाले का ध्यान उस पर जाए तभी वह बोले
और ऐसा ही हुआ.
उसके हाथ की थैली
और पैरों के फटे
पाँयचेवाले पजामे को देखकर
सैलूनवाला अचानक
बच्चे को छोड़कर उसके पास आया
और उससे पूछा :
क्या काम है ?
बाल बनेंगे ? : उसने इतने धीरे से पूछा
कि उसे फिर
पूछना पड़ा : बाल बनेंगे?
सैलून वाला तब
तक कुछ सँभल चुका था
और उसने कहा :
हाँ बनेंगे क्यों नहीं बैठ जाओ,
ज़रा बाबा की
कटिंग हो जाए. बैठने के लिए दो जगहें ख़ाली थीं--
एक दूसरे आईने
के सामने और दूसरी बेंच पर स्कूटरवाले के पास--
वह दोनों के बीच
हिचकिचाता खड़ा रहा.
तब सैलूनवाले ने
कहा : बैठ जाओ बैठ जाओ,
कुर्सी पर ही
बैठ जाओ,
बस बाबा के बाद
तुम्हारा ही नम्बर है.
सैलून में हर
दीवार पर आईने लगे थे
जिनमें सारे
सामानों वाली दूकानें नज़र आती थीं
उनमें कई गुना
होते हुए उसने बेंचवाले बाबू साहब से दूर
अपनी थैली रखी.
आईनों में हँसते
लोगों, सुन्दर
औरतों, मंदिरों
और साईंबाबा के अक्सों को बिल्कुल न
देखता हुआ वह
कुर्सी के
बिल्कुल सिरे पर करीब-करीब उठंग बैठा हुआ बाहर देखता रहा.
उसने अपने सामने
के आईने में भी
दाग़ों और
झुर्रियों से भरा हुआ अपना तीस-बत्तीस का चेहरा
और उसके पीछे
प्रधानमंत्री का बातें कम काम ज़्यादा वाला कैलेन्डर नहीं देखा.
बच्चे और बाल
बनानेवाले के बीच उस खेल पर भी
वह नहीं
मुस्कराया जिसपर बेंचवाले बाबू साहब ख़ुश होते रहे.
बाबा को निपटाकर
जब सैलूनवाला उसके पास आया
तो जैसे वह जगा.
उसे बतलाया गया कि कटिंग के पाँच रुपये लगते हैं.
उसने कहीं भी न
देखते हुए कहा ठीक है जो भी हो.
जब उससे पूछा
गया कि कैसे रहेंगे तो उसने कहा
बिल्कुल छोटे, तीन-चार महीने की इल्लत
मिटे.
बाल बनाने वाले
ने उसके बाल गीले किए, कैंची-कंघा
चलाया,
मशीन लगाई.
चूँकि दूकान में अब और कोई नहीं था
इसलिए वह कुर्सी
पर कुछ ठीक से बैठा और पीछे को थोड़ा सहारा लिया.
उसने तब भी अपने
को आईने में नहीं देखा
हालाँकि सैलून
में इतने आईने थे कि वह पूरे बाज़ार से घिरा लगता था
लेकिन बाल बनाने
वाला उसका सिर जहाँ घुमाता था
उसे बस अपनी
थैली साफ़ नज़र आती थी
जिसमें शायद
महँगी हो रही प्याज
पड़ोस की चक्की
से लिया हुआ फ़र्श बुहारा गया शाम का थोड़ा-सा आख़िरी
आटा
और मज़दूरी के
दो-एक पुराने कुछ ज़ंग-लगे औज़ार थे.
5 comments:
अच्छी कविता है। एक कथा जो काव्यात्मक स्पेश क्रियेट करते हुए दर्ज छोटे छोटे विवरणों को भी प्रतीकों में बदल दे रही है। सैलून में लगे शीशे के सामने बैठते हुए बनाव-ठनाव की चाह जैसा कोई भाव नहीं। हर वक्त की मुसीबतों से घिरी चिंताएं हैं जिसमें शायद महँगी हो रही प्याज पड़ोस की चक्की से लिया हुआ फ़र्श बुहारा गया शाम का थोड़ा-सा आख़िरी आटा है । बुहार कर बटोरे गये आटे की उपस्थिति स्थितियों की भयावयता का ऎसा द्रश्य है कि कितने ही डब्ल्यू एच ओ के गैरसरकारीनुमा कल्याणकारी कार्यों को कटघरे में खड़ा कर दे रहा है। प्रस्तुति के लिए आभार।
पहली बार पढ़ी यह कविता। हृदयस्पर्शी।
ये कविता है कि कहानी !!
खैर, जो भी हो मुझे बड़ी ही मार्मिक लगी.
बहुत अच्छी कविता लिखी जी आपने। आज की सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है।
इस कविता को पढ़ते हुए ,कुछ खास मतलब निकालने से ग्रसित मैने ये समझा की :
कटिंग की दुकान ये दुनिया है,उसमे दुकान का मालिक ईश्वर है जो छोटे बड़े अमीर गरीब किसी मे भी भेद भाव नहीं कर रहा ,हर किसी को उसका नंबर आने पर अटेंड कर रहा है /सिर्फ बालक ही है जो खुश है ,इस पूरे व्यापार मे /दोनो व्यस्को का पूरा ध्यान अपनी दो कौडी की संपत्ती पर है /और जो ज़रूरी काम है (बाल कटवाना ) वो हमारी ज़िम्मेदारियां है ,जिसे वो भेगत या बोझ के समान काटना और टालना चाह रहा है इस कारण वो केह्ता है की ऐसे काट दो की २-३ महीने देखना ना पड़े ,चाहे पैसे जाड़ा लग जाये /
...बस इतना काफी है (मेरे लिये)...!!!!
Post a Comment