Monday, December 8, 2014

आरम्भ में निर्वासन था न कि शब्द - अदूनिस


सीरियाई कवि अदूनिस की रचनाओं से कबाड़खाने के पाठक अपरिचित नहीं हैं. उनके संग्रह ‘दिन और रात के सफ़े’ की महत्वपूर्ण भूमिका के अंश तरतीबवार पेश कर रहा हूँ. उनकी कविता को समझने में यह भूमिका बहुत उपयोगी है. 

(मूल अरबी से ये अनुवाद सैमुअल हाज़ो ने किये थे.)

१.

मैं ऐसी भाषा में लिखता हूँ जो मुझे निर्वासित कर देती है. एक अरब कवि का अपनी भाषा के साथ रिश्ता उस माँ जैसा होता है जो अपनी देह के भीतर की पहली हरकत के साथ ही अपने पुत्र को त्याग देती है. अगर हम बाइबिल में बताई गयी हैगर और इश्माइल की कहानी को, जिसे कुरान में भी दोहराया गया है, स्वीकार कर लें तो हम पायेंगे कि अरब कवि के लिए मातृत्व, पितृत्व और ख़ुद भाषा भी निर्वासन में जन्म लेते हैं. अपनी ही मातृभूमि में निर्वासन, जैसा यह कथा बताती है. उसके लिए कहा जा सकता है – आरम्भ में निर्वासन था न कि शब्द. अपने रोज़मर्रा जीवन के नर्क के विरुद्ध संघर्ष में अरब कवि की इकलौती शरणस्थली निर्वासन का नर्क होती है.

(जारी)

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