Friday, February 6, 2015

एक ही हो सकता था आर. के. लक्ष्मण


आर. के. लक्ष्मण पर मेरा यह लेख पिछले इतवार को दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ संस्करण में प्रकाशित हुआ था. वहीं से साभार –

जब डेविड लो ने एक अखबार के लिए कार्टून बनाना शुरू किया था तब १९११ का साल चल रहा था. अगले कुछ सालों में दुनिया ने हिटलर को देखना था और मुसोलिनी और स्टालिन को भी. अपने पूरे करियर में अपने बनाए एक विख्यात चरित्र, कर्नल बिम्प का इस्तेमाल डेविड लो ने इन तानाशाहों का क्रूरतापूर्वक मखौल उड़ाने में ज़रा भी कोताही नहीं बरती. लोव के कार्टूनों में आने वाले पात्र और उनके विवरण ही पूरी बात कह जाते थे अक्सर बिना किसी कैप्शन या वार्तालाप के. न्यूज़ीलैंड में जन्मे और बाद में ब्रिटेन में बस गए विश्वविख्यात कार्टूनिस्ट इन्हीं सर डेविड लो को अपना गुरु मानते थे आर. के. लक्ष्मण.

सर डेविड लो

लेकिन कभी आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों को बिना उनके टैक्स्ट के समझने की कोशिश कीजिये. यह प्रयोग आपको हैरत में डाल सकता है क्योंकि उनमें से बहुत सारे आपकी समझ में आएँगे ही नहीं. तो क्या इसे लक्ष्मण के कार्टूनों का दोष माना जाना चाहिए? कतई नहीं. हर कलाकार की अपनी शैली होती है और उसकी महानता इसी में मानी जाती है कि वह अपने उस्तादों से आगे निकल जाए. यही कहानी लक्ष्मण और उनके कार्टूनों की भी है.

आर. के. लक्ष्मण का सबसे मशहूर चरित्र यानी द कॉमन मैन हमेशा खामोश रहने वाला लेकिन मन ही मन सब कुछ जानने-समझने वाला एक बुढ़ा चुका ठेठ मध्यवर्गीय आदमी है, जो अपनी वेशभूषा और बॉडी लैंग्वेज से ही भारत के आम आदमी लगता है. उसकी निगाह में मिर्ज़ा ग़ालिब का फकीरों की तरह भेस धारे तमाशा-ए-अहले-करम देखते चले जाने की निस्पृहता का बुद्धिमत्तापूर्ण तेज है. उसकी निर्विकार और तटस्थ निगाह में हमारे महागणतन्त्र में नित्य घटने वाले हर सामाजिक-राजनैतिक तमाशे को देखते हुए कभी भी मुख्य मंच पर कब्ज़ा जमाने की किसी भी तरह की इच्छा नहीं दिखती. बोलने का काम या तो कार्टून में आने वाले बाकी पात्रों का होता है या उनकी अतिमुखर पत्नी का जिनके एक हाथ में अक्सर झाड़ू होता है और जुबान पर दुनिया की हर किसी बात पर कहने के लिए कोई न कोई बात.

एक बढ़िया कार्टूनिस्ट अगर शब्दों के साथ भी माहिर हो तो उसे बड़ा माना जाता है. इस मायने में लक्ष्मण सचमुच एक बहुत बड़े कार्टूनिस्ट थे. शब्द जैसे उनकी रेखाओं का पीछा करते हुए उन तक पहुंचा करते थे.

लक्ष्मण की बड़ी खासियत थी बेहतरीन कैरीकेचर बनाना ख़ास तौर पर राजनेताओं के कैरीकेचर. इंदिरा गांधी उनके कार्टूनों में एक लम्बी तीखी नाक सबसे पहले होती थीं, और कुछ भी बाद में. नेहरू उनके यहाँ कभी नेहरू टोपी में नज़र नहीं आये, उन्हें हमेशा गंजी खोपड़ी के साथ ही दिखाया गया. राजीव गांधी एक मुटाते हुए रईसजादे अधिक लगते रहे बजाय हमारे प्रधान मंत्री के. पीवी नरसिम्हाराव के अनंत तक पसरे होंठ और उनींदी आँखें और लालू यादव के कानों पर उगे बाल बनाना उन्हें बेहद पसंद रहा. एक साक्षात्कार में उन्होंने बेबाकी से बताया भी था कि उनके विचार से इन दोनों महानुभावों की रचना भगवान में किसी कार्टूनिस्ट के लिए ही की थी. किसी के रूप या डीलडौल का मज़ाक उड़ाना उनका उद्देश्य कभी नहीं होता था. यह एक जन्मजात कार्टूनिस्ट का बालसुलभ खिलंदड़ा स्वभाव था जिसने उन्हें कुछ अपवादों को छोड़ तमाम राजनेताओं का चहेता कलाकार बनाया. शायद वे हमारे देश के इकलौते कार्टूनिस्ट थे जिनसे नेतागण अपने कार्टून बनवाने की सिफारिश करवाया करते थे.



किसी अखबार के मुख्पन्ने पर कार्टूनिस्ट को जितनी जगह मिलती है उसे दिमाग में रखा जाए तो आपको समझ में आता है कि लक्ष्मण की पैनी निगाह किसी भी दृश्य के सबसे महत्वपूर्ण और स्थाई विवरण पर ही जाकर ठहरती थी. अगर उनके कार्टून में कहीं एक गड्ढा खुदा हुआ दिखाया गया है तो उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे वह स्थाई रूप से खुदा हुआ हो. चौराहे पर खड़ा टैफिक पुलिस का सिपाही अगर तिनका चबाता हुआ दीखता है तो वह समूची पुलिस व्यवस्था का एक सम्पूर्ण मुहाविरा होता है. बेख़ौफ़ आवारा कुत्ता, अतीव बुद्धिमान भिखारी, मूर्ख अफसरान, फटा हुआ तिरपाल, बिसराया गया स्मारक या टेढ़ा लैम्पपोस्ट और भी अनगिनत अन्य छवियाँ जो समूचे भारत में बच्चों के खेलों की तरह हर जगह एक सी होती हैं लक्ष्मण के कार्टूनों में जीवन भर दिया करते थे. और उनके बनाए कव्वे उनकी तो क्या ही बात होती थी. 
  
एक कार्टूनिस्ट के तौर पर लक्ष्मण की सबसे बड़ी ताकत था उनका अदम्य साहस. अपनी निगाह से गुजरने वाले हर अन्याय को उन्होंने बिना किसी खौफ़ के अपने खामोश रहने वाले कॉमन मैन के ज़रिये आवाज़ दी. चाहे अपने पास ढेर सारे मंत्रालय रखे रहने में नेहरू का आत्ममोह रहा हो, चाहे १९६५ के युद्ध की अमानवीयता, चाहे लालूप्रसाद यादव का चारा घोटाला रहा हो, चाहे मोरारजी देसाई की कार्टून तक पर बैन लगा देने जैसी सनकें लक्ष्मण ने हरेक अन्याय को दर्ज किया. यह उनके कलाकार की ताकत थी कि इमरजेंसी के दौरान वे अकेले इंदिरा गांधी से मिलकर अपना विरोध करने गए थे कि उनके कार्टूनों पर अनावश्यक सेंसरशिप थोपी जा रही थी.

इस गणतंत्र दिवस के दिन यानी २६ जनवरी को ९४ साल की आयु में दिवंगत हुए रासीपुरम कृष्णास्वामी लक्ष्मण का मानना था कि किसी भी कार्टूनिस्ट के भीतर तीन चीज़ें होनी चाहिए सेन्स ऑफ़ ह्यूमर, चित्र बना सकने की प्रतिभा और अच्छी शिक्षा. वे कहते थे कि इन में से एक भी गुण अनुपस्थित हो तो आदमी कार्टून नहीं बना सकता. उसके भीतर ये तीनों होने ही चाहिए. बच्चों जैसी अपनी निश्छलता के साथ वे यह बात जोड़ना कभी नहीं भूलते थे कि कार्टून बनाने की कला सिखाई नहीं जा सकती क्योंकि वह या तो जन्मजात होती है या नहीं होती.


आर. के. लक्ष्मण अलबत्ता एक ही हो सकता था.

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