Sunday, July 24, 2016

नीलाभ को आख़िरी सलाम

नीलाभ नहीं रहे.


नीलाभ से मेरी पहली मुलाकात १९८८ की गर्मियों में हुई थी. मैं नैनीताल में एम. ए. का छात्र था. नैनीताल के नाट्य-समूह 'युगमंच' के निमंत्रण पर वे 'दस्ता' नाम की टीम लेकर आए थे. तल्लीताल रिक्शा स्टैंड पर उनका यह दस्ता डफली की थाप पर गा रहा था -'लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम.' इस दस्ते में पंकज श्रीवास्तव भी थे और इरफ़ान भी और के.के. पांडे भी - ये सारे आज मेरे सबसे अन्तरंग दोस्तों में शुमार हैं.

 इस पहली - पूरी मुलाकात पर एक लम्बी पोस्ट कभी फिर.

जो सबसे गहरा क्षण अब तक जेहन में बैठा हुआ है वो ये है कि हम दोनों रिक्शे में बैठकर मल्लीताल की तरफ़ जा रहे थे जहां रामलीला मैदान पर कोई आयोजन था. दस्ता की टीम ने एक शो करना था. हम नैनीताल बैंक बिल्डिंग के पास थे जब पता नहीं किस रौ में नीलाभ जी ने मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर सुनाया -

उस बज़्म में मुझको नहीं बनती हया किये
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किए


इत्तफ़ाकन मुझे इस ग़ज़ल का एक और शेर याद था -

सोहबत में गैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसे बिग़ैर इल्तिज़ा किये


मेरे ख़्याल से यह एक दीर्घकालिक सम्बन्ध की बुनियाद बना पाने को काफ़ी था. यह सम्बन्ध उनके यूं चले जाने से ख़त्म तो नहीं हुआ हां एक टीस ज़रूर भीतर गहरे तक पैठ गयी है. जब कबाड़खाने पर जैज़ पर लिखी उनकी सीरीज़ छप रही थी, वे बहुत उत्साहित होकर उसके प्रकाशन की योजना मेरे साथ बनाना शुरू कर चुके थे. मुझे उन्होंने इस किताब की डिज़ाइन का "ठेका" दे दिया था. सोचता हूँ अब उस ठेके का क्या होगा.

पिछले साल से अब तक तक तीन ऐसे कवि हिन्दी ने खोये हैं जिनके साथ युवतर पीढ़ी के गहरे और अर्थपूर्ण सम्बन्ध रहे और जिसे वे अपने रचनाकर्म और जीवनशैली से सदैव प्रेरणा देते रहे. वीरेन डंगवाल और पंकज सिंह के बाद अब नीलाभ का जाना हिन्दी साहित्य के संसार का और भी अधूरा और मनहूस रह जाना है.

अभी अभी मैंने किसी वेबसाइट पर मंगलेश डबराल का कथन पढ़ा है कि नीलाभ इस मायने में अपनी तरह के अमूल्य हिन्दी कवि/लेखक थे जिनकी चार-चार भाषाओं - उर्दू, हिन्दी, अंग्रेज़ी और पंजाबी - पर गहरी पकड़ थी. उनका साहित्यिक काम बहुत विषद है. उन्होंने बहुत सारे अनुवाद किये और ढेरों कविताएं लिखीं. नीलाभ का मोर्चा नाम से उनका एक ब्लॉग था जिस पर वे लगातार सक्रिय रहा करते थे.  

नीलाभ एक बेबाक, मीठे मगर तुर्शज़बान आदमी थे और ज़ाहिर है चाहे-अनचाहे ऐसे आदमी को अपना दुश्मन माननेवाले भी काफी बन जाया करते हैं. इसीलिये विवादों ने उनका दामन कभी नहीं छोड़ा. कल वे खुद उन सारों का दामन छोड़ कर चले गए. आप बहुत याद आयेंगे दद्दा!      

कबाड़खाने की श्रद्धांजलि.
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बांगला कवि सुकांत भट्टाचार्य की इस कविता का नीलाभ ने मूल से अनुवाद किया था.


इस नवान्न में

इस हेमन्त में धान की कटाई होगी
फिर ख़ाली खलिहान से फ़सल की बाढ़ आयेगी
पौष के उत्सव में प्राणों के कोलाहल से भरेगा श्मशान-सा नीरव गाँव
फिर भी इस हाथ से हंसिया उठाते रुलाई छूटती है
हलकी हवा में बीती हुई यादों को भूलना कठिन है
पिछले हेमन्त में मर गया है भाई, छोड़ गयी है बहन,
राहों-मैदानों में, मड़ई में मरे हैं इतने परिजन,
अपने हाथों से खेत में धान बोना,
व्यर्थ ही धूल में लुटाया है सोना,
किसी के भी घर धान उठाने का शुभ क्षण नहीं आया -
फ़सल के अत्यन्त घनिष्ठ हैं मेरे-तुम्हारे खेत।
इस बार तेज़ नयी हवा में
जययात्रा की ध्वनि तैरती हुई आती है,
पीछे मृत्यु की क्षति का ख़ामोश बयान -
इस हेमन्त में फ़सलें पूछती हैं : कहाँ हैं अपने जन ?
वे क्या सिर्फ़ छिपे रहेंगे,
अक्षमता की गलानि को ढँकेंगे,
प्राणों के बदले किया है जिन्होंने विरोध का उच्चारण ?
इस नवान्न में क्या वंचितों को नहीं मिलेगा निमन्त्रण?

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