Friday, July 29, 2016

महाश्वेता देवी का जाना

महाश्वेता देवी (14 जनवरी 1926 - 28 जुलाई 2016)

वैसा फटकारने वाला अब किसी को कहां मिलेगा
-शिवप्रसाद जोशी

2015 की छायाएं रेंगती हुई 2016 में चली आईं और अब वे और ऊपर उठने लगी हैं. हत्याएं और हमले जारी हैं और इन्हीं समयों के बीच वे आवाज़ें भी सदा के लिए हमें छोड़ जा रही हैं जिनकी बुलंदियों ने बर्बरता को उचक कर हमारी गर्दन पर बैठने की जुर्रत करने से रोके रखा था. भारतीय जनमानस की एक ऐसी ही बुलंदी थीं महाश्वेता देवी जिनकी आवाज़ ही अब वंचितों की लड़ाई का सबब है.

कहने को महाश्वेता देवी बांग्ला आदिवासी समुदायों के बीच ही सक्रिय रहीं लेकिन वो सक्रियता इनकी सार्वभौम और उतनी प्रभावशाली थी कि वो आज़ाद भारत के चुनिंदा सार्वजनिक बुद्धिजीवियों में एक और उनमें इस समय सबसे वरिष्ठ थीं. उनका निधन सिर्फ़ साहित्य या संस्कृति का नुकसान नहीं है, उनकी उम्र हो चली थी, वो नब्बे साल की थीं, काफ़ी समय से बीमार थीं. उन्हें अवश्यंभाविता का पता था, बस नुकसान ये हुआ है कि उनका जाना ऐसे समय में हुआ है जब चारों ओर विकरालताओं का बोलबाला है और गरीबों, वंचितों को मारने सब दौड़े जा रहे हैं, उन्हें रोकने वाली माई नहीं होगी. ऐसी शख्सियत होना आसान नहीं. नुकसान ये है कि लोग और अकेले हुए हैं. दबे कुचलों को खदेड़ने की कार्रवाई बेतहाशा हो जाएगी.

वैसा फटकारने वाला अब किसी को कहां मिलेगा जैसा बंगाल के पूर्व सत्ताधारी वामपंथियों को महाश्वेता देवी के रूप में मिला. इस फटकार से उन्होंने क्या ग्रहण किया ये एक अलग शोचनीय कथा है, लेकिन उन्हें नींद से जगाने का प्रयत्न करते हुए सबसे पहले बाहर निकलने वालों में महाश्वेता भी थीं. वो आगे थीं.

2006 में फ्रांकफ़ुर्ट पुस्तक मेले में अपने मशहूर उद्घाटन भाषण में महाश्वेता देवी ने कहा था:  “1980 के दशक से, सबसे ज़्यादा वंचित और हाशिए में धकेले गए अपने लोगों के रोज़मर्रा के अन्याय और शोषण के बारे में मुखर रही हूं. ये आदिवासी हैं, भूमिहीन देहाती ग़रीब जो आगे चलकर नगरों में भटकते हुए मज़दूर और फुटपाथों के बाशिंदे बन जाते हैं. अख़बारों मे रिपोर्टों के ज़रिए, याचिकाओं के ज़रिए, अदालती मामलों, अधिकारियों को चिट्ठियों, एक्टिविस्ट संगठनों में भागीदारी के ज़रिए और अपनी पत्रिका 'बोर्तिका' के ज़रिए जिसमें वंचित लोग अपनी दास्तान सुनाते हैं, और सबसे आख़िर में अपने फ़िक्शन के ज़रिए मैंने भारत की आबादी के इस उपेक्षित तबके की कठोर हक़ीक़त को राष्ट्र के संज्ञान में लाने का बीड़ा उठाया है. उनके विस्मृत और अदृश्य इतिहास को मैंने राष्ट्र के आधिकारिक इतिहास में शामिल कराने का बीड़ा उठाया है. मैं बार बार ये कहती आई हूं कि हमारी आज़ादी नकली थी. वंचितों के लिए कोई आज़ादी नहीं आई, वे अब भी अपने बुनियादी अधिकारों से महरूम हैं.

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