Saturday, July 29, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - तेईस



जगतदा गुर्जी शायद अनंत काल तक होलियाँ सुनाते रहते अगर परमौत आह्लाद के चरम पर पहुँचने को तैयार गिरधारी लम्बू को कोहनी से ठसका कर घड़ी न दिखाता जो डेढ़ बज चुका होने का ऐलान कर रही थी. सुबह बागेश्वर जाने वाली बस पकड़ी जानी थी, नब्बू डीयर का हाल देखा जाना था और आगे की स्ट्रेटेजी बनाई जानी थी. यही उनकी यात्रा का मूल अभीष्ट भी था. गिरधारी ने पहले तो ध्यान नहीं दिया पर दुबारा ठसकाए और आंखें दिखाए जाने के बाद वह चौकन्ना हो गया कि चल रही होली निबटे और निकलने का जुगाड़ बनाया जाए. फिलहाल गीत में पिछले आधे घंटे से “हाँ, हाँहाँहाँ” करते हुए छैला नामक सज्जन होरी खेल रहे थे और उनके अनाड़ीपने की शिकायत करती नायिका हाहाकार कर रही थी कि – “ऐसो अनारी चुनर गए फारी, अरे हंसी हंसी दे गयो गारी ...”. इस होली के गाये जाने में टेक यह थी कि हर तीसरी लाइन में आने वाले “हाँ, हाँहाँहाँ” को “ना, नानाना” अथवा “छूं, छांछांछां” या “हूँ, हूँहूँहूँ” या ऐसे किसी भी अनुप्रासमूलक शब्द-पद से रिप्लेस किया जा सकता था. हद तो यह थी कि ऐसा कोई शब्द-पद दिमाग में न आने की सूरत में हारमोनियम की लय पर खामोशी के साथ फकत चार बार मुंड हिलाकर भी इसकी भरपाई करे जाने का प्रावधान था. गुर्जी ने अपनी गायन प्रतिभा से आगंतुकों को इस कदर सराबोर कर दिया था कि उनके एकल गायन ने लगातार ऊंचा होते समूहगान की सूरत ले ली थी. परमौत को अचानक गुर्जी के पड़ोसियों की याद आई और अपने आप से शर्मिंदा होकर उसने गाने में भाग लगाना बंद कर दिया. इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि खड़काष्टक की आसन्न काली छाया से बाहर आकर एक घंटे पहले ग़मगीन बैठा महेसिया फल्लास अब खड़ा होकर बिंद्राबन की जोग्याणियों जैसे नाचने लगा था.

बहुत मज़ा आ रहा था लेकिन मज़े को लम्बा जारी नहीं रखा जा सकता था. जैसे-तैसे गीत समाप्त हुआ तो परमौत ने खड़े होने का उपक्रम करते हुए कहा कि उन्हें सुबह निकलना है. बात जायज़ थी और हरुवा भन्चक की समझ में आ गयी. उसने अपने प्रशस्त टुन्न हो चुकने का संकेत देने वाली भाषा में बोलना शुरू करते हुए तुरंत प्रस्ताव दिया – “दिस बात इज बिलकुल हंड्रेड परसंट राईट माई डीयर भतीजा एंड माई डीयर गिरधर लॉन्ग बट दिस इज दी परम्परा ऑफ़ दी होली ऑफ़ दी जगतदा गुर्जी का अड्डा कि लास्ट गाना फस्ट और आफ्टर दैट एभरीवन गो होम मल्लब कि यू ऑल आर फिरी आफ्टर दी लास्ट गाना बिकॉज गाना इज ऑफ़ द टाइप ऑफ़ ए टू ... वन इज ऑफ़ दी फस्ट टाइप एंड अनदर इज ऑफ़ द लास्ट टाइप ... तो गुर्जी महाराज ...” वह गुर्जी के चरणों में लधरता हुआ बोला – “... महाराज गुर्जी हो ... लास्ट कर देते मैफिल को विद दी लास्ट गाना ... मल्लब वोई सेम सेम ...”इसके बाद हरुवा भन्चक ने पलटकर परमौत को देखा और आँखों में इशारा करते हुए आश्वस्त किया कि पांच मिनट से पहले-पहले महफ़िल बर्खास्त कर दी जाएगी.

समूचे संगीत समारोह के दौरान गुर्जी ने अपनी औकात से ज़्यादा दारू भसका ली थी और उनकी ज़बान लरबर करने लग गयी थी. उसी लरबराट में उन्होंने हारमोनियम पर पतली कराह जैसी तान छेड़ी – “हो मुबारकि मंजरि फूलों भरी ... ऐसी होली खेलें जनाबै अली”

अनंत नोस्टेल्जिया में धकेल देने वाले इस लास्ट गीत की धुन लाजवाब थी और परमौत मगन हो गया. पूरी रात उसे ऐसा मजा नहीं आया था. उत्साहातिरेक में गाते, गर्दन हिलकोरते गुर्जी के होठों के एक किनारे से थूक बहने लगा था लेकिन वे अनुपम सौन्दर्य की प्रतिमा नज़र आ रहे थे. उन्होंने एक आलीशान तान खेंची और गाने लगे - 

“जुगै-जुगै जीवें मित्र हमारे
बरसै बरस खेलें होली
ऐसी होली खेलें जनाबै अली ...”

मित्रों को जुग-जुग जीने की दुआएं अता करती इन पंक्तियों के आते ही परमौत नब्बू डीयर के बारे में सोचने को विवश  हो गया. वह इतना द्रवित हो गया कि उसके आंसू बहने लगे. हो सकता था इन आंसुओं के पीछे शराब का प्राचुर्य काम कर रहा हो लेकिन परमौत के आंसू असली थे. शुक्र है किसी ने उसे रोता हुआ नहीं देखा.

गुर्जी का गायन अपने चरम पर पहुँच कर थमा और वे जहां बैठे थे वहीं लुढ़क से गए और बोले – “मजा बाँध दिया भगतो तुमने आज यार ... अब जरा निद्रा-हिद्रा का विचार करा जाए हो? ...” उनींदी, तरल आँखों से उन्होंने उठने को उद्यत ग्राहक-मंडली को देखा और लुढ़के-लुढ़के ही बोले – “जाते हुए कुंडी बाहर से मत लगा जाना हाँ रे ... अब चलो फिर ...” और अपनी आंखें मूँद लीं.

बाहर निकलने वालों में परमौत आख़िरी था. गिरधारी ने पलट कर टोह ली कि वह आ रहा है या नहीं. उसने परमौत की उदासी भरी आंखें नोटिस कीं और ठिठक गया – “क्या हुआ परमौद्दा यार ... तुमको मजा नईं आया भलै ...”

गिरधारी के इतना कहते ही परमौत फफकने को हो आया लेकिन उसने सब्र किया. उसके मन में“जुगै-जुगै जीवें मित्र हमारे” की गूँज बंद नहीं हो रही थी. नब्बू डीयर का विचार उसकी आत्मा को अपनी जकड़ में लिए हुए था. गिरधारी ने उसका हाथ थामा और वे सड़क पर पहुंचे जहां हरुवा और महेसिया के मध्य जली हुई बीड़ियों का आदान-प्रदान चल रहा था. दोनों को अपनी तरफ आता देख हरुवा ने अहसान जैसा जताते हुए पूछा – “क्या कैते हो? मजा रहा हो हल्द्वानी वालो या नईं?”

“गज्जब मजा यार हरदा कका गज्जब ... पौने दो बज गए साले और पता ही नहीं चला ... ये हुई साली मल्लब फश्कलाश पाल्टी ...”

इधर हरुवा ने भी परमौत के चेहरे पर आ गयी उदासीभरी थकान को ताड़ लिया और झट से बोला – “अब जो है डीयर भतीजो हमारे रास्ते होने वाले हुए अलग. तुम निकलो होटल को और हम चलते हैं नैनताड़ी दीवाल अपने अड्डे को. भौत देर हो गयी यार ...”

गिरधारी भी समझ गया कि रात दो बजे सबसे उचित यही होगा कि होटल चल के सोया जाय. उसने विदा कहने के तौर पर महेसिया फल्लास से हाथ मिलाया और कहा – “महेसदा गुरु, कभी हल्द्वानी आओगे तो बताना हाँ ... और वो गन्धर्व-फंधर्व टाइप का कुछ करने का मन होगा तो न्यौता जरूर देना.”

महेसिया ने उसकी बात को मुस्करा कर जज़्ब करते हुए चेताया – “रस्ते में कुत्ते मिलेंगे हैं एकाध-दो शौ ... बच के जाना जरा...”

“कोई फिकर नहीं गुरु. हम भी हल्द्वानी से आए हैं. हमसे बड़े कुत्ते जो क्या होंगे साले ...”

हाहा-हीही भरी औपचारिकता में गुडनाईट हुई और दोनों समूहों ने अपने-अपने ठीहों की राह पकड़ी. पोखरखाली से करीब डेढ़-दो किलोमीटर का होटल के सफ़र के शुरुआती मिनट जगतदा गुर्जी के ठिकाने पर हुए होली-गायन, महेसिया फल्लास और उसकी प्रेमिका के खड़काष्टक और हरुवा भन्चक की अंग्रेज़ी जैसे विषयों पर बात करते बीत गए. फिर अचानक परमौत ने पहले लम्बी सांस ली और फिर रुआंसे स्वर में बोला -

"यार गिरधर वो पैन्चो नबुवा क्या कर रहा होगा इस बखत यार?"

"अब जो करना होगा परमौद्दा वोई कर रा होगा और क्या! कोई साला आदमियों के जगे रहने का टैम जो क्या हुआ अभी. सोया होगा बिचारा दवाई-हवाई खा के ... लेकिन तुम ऐसा जो क्यों पूछ रहे हुए?"

"पता नहीं यार गिरधर मेरा मन कह रहा है कि नबुवा साला बचता नहीं है भलै ... अबे उसके गाँव में कोई डाक्टर जो क्या होगा या फिर कोई अस्पताल जो क्या खोल रखा होगा उसके बुबू ने जो खाने को दवाई मिल रही होगी बिचारे को ..." परमौत ठिठककर वहीं जम गया और भर्राई आवाज़ में बोला - "कुत्ते मिलेंगे कै रा था ना वो महेसिया ... अबे हम हुए असली कुत्ते यार गिरधारी ... बिचारा नब्बू डीयर वहां मरने-मरने को हो रहा और हम साले यहाँ पाल्टी कर रहे हुए, सराब पी रहे हुए, गाना-बजाना कर रये ... हमको दिन में यहाँ रुकना ही नहीं था यार गिरधर. उसी गाड़ी से चले जाते बागेश्वर तो अभी कम से कम साले का मूँ तो देख रहे होते. अब मान लिया आज ही रात को नबुवा मर जाता है ... फिर? फिर बता गिरधारी यार हमसे बड़ा चूतिया हुआ कोई और दुनिया में ... नब्बू ... ओ नबुवा रे ..." परमौत ने सड़क पर बैठ बाकायदा दहाड़ मार कर रोना चालू कर दिया.

नशे की अधिकता ने परमौत संवेदनशीलता को भड़का दिया था और उसके अचानक इस तरह रोना शुरू करने से गिरधारी लम्बू हकबका सा गया.

"अरे परमौद्दा ... क्या कर रहे यार तुम गुरु ... ऐसे जो क्या करते हैं यार ... तुमारे कैने से जो मर रा हुआ कोई ... अरे किसी के कैने से जो कुछ हो जाने वाला होता ना तो साला ... तो साला ..." गिरधारी किसी सटीक उपमा की तलाश में था -  "त्तो परमौद्दा ... तेरा ब्या नहीं हो गया होता वो क्या नाम कहते हैं पिरिया भाबी से अब तक ... बात कर रहा है यार तू! चल उठ अब. नींद लग री मुझको. अब उठ ना ..."

पिरिया का नाम सुनकर परमौत ने और भी जोर से रोना शुरू कर दिया. किंकर्तव्यविमूढ़ सा गिरधारी कभी परमौत को देखता कभी दूर दिखाई दे रहे तिराहे को जिसके थोड़ा ही आगे जा कर उनका होटल था. असल बात यह थी कि "जुग-जुग जीवें" वाले गाने को सुनने के बाद से उसे भी नब्बू डीयर की याद सताने लगी थी लेकिन उसने अपनी भावनाओं को ज़ाहिर नहीं होने दिया. इसके अतिरिक्त डीलडौल में वह बाकियों से करीब डेढ़-गुना था जिस वजह से उसे इस तरह कभी चढ़ती नहीं थी कि अपने होश गंवा कर गनेल बन जाए. परमौत के इस अब तक न देखे गए रूप ने उसे हैरान-परेशान कर दिया. उसने हज़ार तरीकों से परमौत को बोत्याने की कोशिश की पर उसका रोना-सुबकना नहीं थमा. हार कर गिरधारी भी सड़क पर बैठे परमौत की बगल में बैठ गया. गिरधारी के नीचे बैठ जाने का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि परमौत एकदम से चुप हो गया और उसने आस्तीन से आँखें पोंछीं. मिनट भर ऐसे ही बैठे रहने के उपरान्त वे एक दूसरे का सहारा लेकर उठे. परमौत ने गिरधारी की बांह थाम ली और अपना सर उसके कंधे पर ढुलका लिया. गिरधारी को अच्छा लगा कि वह परमौद्दा के किसी काम आ रहा था.

इसी तरह परमौत को लादे-लादे वह होटल पहुंचा. दरवाजा बंद था और दर्ज़न भर बार खटखटाए जाने पर ही खुला. उनींदी आँखों वाले छोकरे ने उन्हें देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और वापस दरवाज़ा बंद कर रिसेप्शन के मैले-कुचैले सोफे पर रजाई ढंक कर सो गया. कमरे में पहुंचते ही परमौत किसी कटे पेड़ सा बिस्तर पर गिरा. गिरधारी ने माँ जैसे लाड़ के साथ उसके जूते उतारे और उसे तरीके से लिटा दिया. परमौत के चेहरे पर गिरधारी को हमेशा पसरी रहने वाली शान्ति नज़र नहीं आ रही थी. भावनाओं के धोबियापछाड़ ने उसके अस्तित्व की पेशियों को तनाव से भर दिया था और यह जानना मुश्किल था कि वह सो गया है या नहीं. जब कुछ देर कोई हरकत नहीं हुई तो गिरधारी ने तय किया कि परमौत सो चुका है और वह कुर्सी पर लधरकर अपने जूतों के तस्मे खोलने लगा.

अनायास ही उसने गुनगुनाना शुरू कर दिया - "जुग-जुग जीवें मित्र हमारे ... बरस बरस खेलें होरी ...". अब तक बेसुध दिखाई दे रहे परमौत ने झटके में आँख खोली और "गूंगूं" करते हुए गिरधारी की आवाज़ का साथ देना शुरू कर दिया. गिरधारी ने सुखद आश्चर्य के साथ परमौत को देखा और मुस्कराने लगा.

"तुम भी ना यार परमौद्दा हुए साले भयंकरी इमोसनल कहा ..." वह परमौत की बगल में जाकर बैठ गया. थोड़े से श्रम के साथ परमौत भी उठ बैठा और तकिया ऊंचा कर के उसने अपना सर दीवार से टिका लिया.

"नब्बू डीयर बढ़िया आदमी हुआ यार गिरधर ... बहुत्ती बढ़िया ... थोड़ा लाटा हुआ लेकिन पैन्चो ... " परमौत विचारों में खो सा गया. "एक बार साले का ठीक से इलाज करा दें फिर साला गोदाम आबाद करना है सब से पहले. कितना गजब मजा आता था यार वहां ... सब साला मेरे चक्कर में घुस गया ... आदमी तो तू भी सही हुआ बेटे और पंडत भी ... एक मैं ही हुआ उल्लू का पठ्ठा साला ... सब घुस गया मेरे चक्कर में यार गिरधर ... सब घुस गया साला ..." परमौत फिर से फफकने को हो रहा था.

"और मैं कहता हूँ यार परमौद्दा सबसे बड़िया आदमी हुआ तू ... इतना बड़ा बिजनस छोड़-छाड़ के आ गया हुआ ये बागेश्वर जाने को बिना सोचे कि ददा क्या कहेगा भाभी क्या कहेगी ... किस के लिए ... बता ... किस के लिए आया रहा जो आज यहाँ ये होटल के कमरे में डाड़ाडाड़ पाड़ने को तैयार बैठा है ... बता ..."

परमौत ने गिरधारी लम्बू का हाथ थामकर उसकी आँखों में आंखें घुसाते हुए उलटा सवाल किया - "तू बता तू क्यों आया ..."

"मैं तो मल्लब नब्बू को देखने आया हुआ ... और तू भी इसी लिए आया हुआ ... है नईं है? और हम इसलिए आये हुए कि जो भी हुआ, जैसा भी हुआ साला दोस्त ठैरा नबुवा ..."

इसके बाद के आधे-पौन घंटे तक वे नब्बू डीयर की तमाम स्मृतियों में डूबते उतराते रहे. कमरे में नब्बू डीयर की काइयां हरकतों, उसके मनहूस मुकेश-गायन और उसकी मारक आशिकी का ऐसा समां बंधा कि सोने से ठीक पहले परमौत ने दोमंजिले पर अवस्थित अपने कमरे की खिड़की खोल कर भोर के करीब पहुँच चुकी अल्मोड़े की नीम-बेहोश रात के कानों में चीखते हुए नारा लगाया - "नब्बू डीयर जिंदाबाद!" गिरधारी उसकी बगल में आ कर खड़ा हुआ और उसने अपनी आवाज़ मिलाते हुए जोड़ा - "नब्बू डीयर जिंदाबाद!"

(जारी)

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