Wednesday, October 31, 2007

कामरेड दीनबंधु पन्त का पुरातन कबाड़ (संस्कृत में)


नैनीताल में मेरे क्लासफैलो थे कामरेड दीनबंधु पन्त। विचारधारा से वामपंथी कामरेड दीनबंधु पन्त की खासियत यह थी कि वे पारिवारिक पेशे से पुरोहित थे। जाहिर है संस्कृत पर उनकी गहरी पैठ थी। कबाड़ के निर्माण में उन्हें खासी दक्षता हासिल थी। पेश है खैनी (सुरती) की उनकी अद्वितीय परिभाषा :

वामहस्ते दक्षिणहस्तांगुष्ठे मर्दने फटकने मुखमार्जने विनियोगः

भारत के राष्ट्रीय पेय चाय पर उनकी दो रचनाएं भी अदभुत हैं :

शर्करा, महिषी दुग्धं सुस्वादम ममृतोपमम
दूरयात्रा श्रम्हरम चायम मी प्रतिग्रह्य्ताम


(अर्थात शक्कर तथा महिषी के दुग्ध से बनी, अमृत के समान सुस्वादु, दूर यात्रा का श्रम हर लेने वाली चाय को मैं ग्रहण करता हूँ। )

दूसरे श्लोक में चाय बनाने का तरीका और उसकी गरिमा का वर्णन है :

शर्करा, महिषी दुग्धं, चायं क्वाथं तथैव च
एतानि सर्ववस्तूनी कृष्ण्पात्रेषु योजयेत
सपत्नीकस्थ, सपुत्रस्थ पीत्वा विष्णुपुरम ययेत

(अर्थात शक्कर, महिषी के दुग्ध तथा चाय के क्वाथ को एकत्र करने के उपरांत इन समस्त वस्तुओं को एक कृष्ण पात्र में योजित किये जाने से बनी चाय को पत्नी तथा पुत्र के साथ पीने वाला सत्पुरुष सीधा देवलोक की यात्रा पर निकल जाता है।)

ऎसी उत्क्रृष्ट रचनाओं को कामरेड दीनबंधु पन्त ऋषि चूर्णाचार्य के नाम से रचते थे और इन्हें त्र्युष्टुप छंद कहा करते थे। दस बारह साल से उन से दुर्भाग्यवश मेरा सम्पर्क टूट गया है। पता नहीं वे कहाँ क्या कर रहे हैं। नैनीताल के किसी पुराने यार दोस्त को कुछ मालूमात हों तो बताने का एहसान करें।

इस पोस्ट को बहुत सारे नोस्टाल्जिया के साथ ख़त्म करता हुआ मैं चाय के बारे में उनकी विख्यात उक्ति उद्धृत कर रह हूँ :

यस्य गृहे चहा नास्ति, बिन चहा चहचहायते

(अर्थात बिना चाय वाला घर तथा उसका स्वामी बिन चाय के चहचहाता रहता है)

Tuesday, October 30, 2007

‘कोका कोला के सबक’ से: शुन्तारो तानिकावा

एक बूढ़ी स्त्री की डायरी

अनुवादकीय नोट :

‘बूढ़ी स्त्री ’ (ओल्ड वूमन) से मूल जापानी शब्द ‘ओबासान’ का सही सही अर्थ समझ में नहीं आता। ‘ओबासान’ का सबसे नजदीकी अर्थ ‘छोटी मां’ हो सकता है जो किसी भी स्त्री सम्बंधी या आदरणीय स्त्री के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

1

किनारे पर उकड़ूं बैठी है वह बूढ़ी स्त्री । उसके पीछे एक विशाल चिमनी धुआं उगल रही है। आप उससे नहीं कह सकते कि अब यह करो तुम बूढ़ी स्त्री । उससे नहीं कह सकते कि अब यह करो। बूढ़ी स्त्री होती है बूढ़ी स्त्री । वह कह रही है कि आज रात वह थोड़ा सा कोन्याकू उबालेगी।

2

उसने अभी अभी क्या कहा वह भूल जाती है और फिर से दोहराती है वही कहानी। आप समझते हो कि वह गुस्से में है पर अगले ही पल वह खुश नजर आने लगती है। पुराने दिनों में मैं बढ़िया चावल पकाया करती थी मगर देखो कैसे जल गए हैं वे।जो भी हो क्या फर्क पड़ता है। भुला दिया जाता है जल जाना। मगर कितने शर्म की बात है ! किसी भी चीज को इस तरह जला देना! अपने में खोई बूढ़ी स्त्री किसी और पर दोष मढ़ देती है। इस मुश्किल बूढ़ी स्त्री के भीतर पुराने समय की कर्मठ बूढ़ी स्त्री लुकाछिपी खेल रही है। क्या कहीं चली गई बूढ़ी स्त्री ? नहीं वह यहीं है। सूरज में दमकते अपने सुन्दर सफेद केशों के साथ वह बनी रहती है जिन्दा।

3

बूढ़ी स्त्री कहती है छोड़ो जाने दो ¸ कहती है वह। एक टूटी कील से फंसकर फट गया था एप्रन। उस आदमी ने झटक लिए थे अपने हाथ। वह एक नालायक आदमी है; गुस्से में है बूढ़ी स्त्री । हालांकि यह घटा था तीस साल पहले पर फड़फड़ाते नथुनों के साथ कुछ देर के लिए बूढ़ी स्त्री वाकई बहुत गुस्सा होती है।

4

केवल दिखाई देने वाली बूढ़ी स्त्रियां ही नहीं होतीं सारी बूढ़ी स्त्रियां। किसी वाइरस की तरह बूढ़ी स्त्रियां मुझे लगातार नष्ट करती जाती हैं। न दिखाई देने वाली बूढ़ी स्त्रियां ज्यादा खतरनाक होती हैं दिखाई देने वाली बूढ़ी स्त्रियों से¸ और अब मैंने उनमें और अपने आप में फर्क करना बन्द कर दिया है। न दिखाई देने वाली बूढ़ी स्त्रियोंको देखने के लिए मैं बूढ़ी स्त्रियों के स्केच बनाने की कोशिश करता हूं। इम्म्यूनिटी? किस काम के होते हैं इस तरह के शब्द?

5

चाय के दाग लगे चटखे हुए बरतन का बहुत ख्याल रखती है बूढ़ी स्त्री । जब वह उस बरतन से प्याले में चाय डाल रही होती है वह बेहद गरिमावान लगती है। फिर वह खामोशी से अखबार पर निगाह डालती है ; वह अच्छे से जानती है कि छोड़े गए एक बच्चे की कहानी और जबरिया सत्ता परिवर्तन की खबर का बराबर महत्व है क्योंकि दोनों का प्रिन्टसाइज़ एक है। बूढ़े लोगों को मिलने वाले चश्मों की तीन जोड़ियां खो चुकी है वह। यह चौथी है।

6

हमारे संसार में किसी भी चीज को स्पष्ट नाम दे पाना सम्भव नहीं होता। जिस तरह खाना बनाने का बरतन बहुत सी ऐसी चीजों से बना होता है जो खाना बनाने का बरतन नहीं होतीं¸ उदासी भी उसी तरह पुराने समय की असंख्य भयानक रूप से थका देने वाली चीजों की परछाईं भर होती है। ब्लैक होल की तरह एक नाम अपने भीतर निगल जाता है सारे नाम। नाम जड़ जमाते हैं बेनाम में।
(जल्दबाजी में जोड़ा गया एक नोट।)

7

बूढ़ी स्त्री कहती है कि संसार एक बेहतर जगह बन के रहेगा। लेकिन दुनिया ऐसी होती है वह कहती है। दीवार की तरफ मुंह किए रोती है बूढ़ी स्त्री । मैंने देखा है उसे। मैं कुछ नहीं कर सकता सिवा उसे देखते चले जाने के। मैं भयाक्रान्त तरीके से असहाय हूं। और कई दफे मुझे अहसास होता है कि उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती। इस कदर खूबसूरत है वह।

8

मुझे इस खौफनाक सच्चाई का अहसास हो गया था कि दुनिया में कविता के सिवाय किसी चीज का अस्तित्व नहीं होता। सारी चीजें और सारी संभव चीजें कविताएं होती हैं; भाषा के जन्म के बाद से ही यह एक अकथनीय सत्य है। मैं हैरत करता हूं कि खुद को कविता से आजाद करने के लिए हर किसी ने कितना कुछ नष्ट किया। जो भी हो यह रही है एक बेहद मुश्किल बहस। इस कदर बेतहाशा बेतुकी लगने वाली बातचीत।


9

जब भूख लगती है बूढ़ी स्त्री एक बरतन में कुछ खोज लेती है और उसे मुंह में ठूंस लेती है। कभी तो वह लगातार तीन दिनों तक नहाती है और कभी पूरे महीने नहीं नहाती। अपने खोए हुए चीथड़ा अन्तर्वस्त्र चुरा ले जाने वाले को वह गालियां देती है। उस वक्त वह गद्दे के नीचे छिपा कर रखे हुए स्टाक सर्टिफिकेट्स के बारे में भूल जाती है। टुकड़ों में तब्दील कर दी गई है यह स्त्री। उसके भीतर एक और बूढ़ी स्त्री रह रही है। वह उन छोटे बक्सों जैसी है जो मुझे बचपन में तोहफे में मिले थे। एक बक्से के अन्दर एक और ¸ फिर उसके अन्दर एक और छोटा बक्सा और उसके अन्दर एक और भी छोटा बक्सा और उसके अन्दर ॰॰॰ । किसी छिपी हुई चीज को खोजने के लिए वह एक के बाद एक उन्हें खोलती जाती है लेकिन वह उस खालीपन तक कभी नहीं पहुंचती जहां बक्से पहुंचते हैं। इस बारे में बात करना बेमानी है कि असली बूढ़ी स्त्री कौन सी है ; निश्चय ही वह विरोधाभासों और संशयों से भरपूर है। सो वह अतिशय ईमानदार स्त्री से मुझे कभी कभी बेहद नफरत होने लगती है। क्योंकि जो मुझ पर लदी है वह मैं ही हूं।

10

मैं किसी भी वक्त ले जाए जाने के लिए तैयार हूं ¸ बूढ़ी स्त्री कहती है। लेकिन जब तक मुझे ले जाया नहीं जाता में मरने नहीं जा रही¸ वह कहती है। अपनी चीजों का ख्याल रखने में नाकाम, वह हमेशा दूसरों के मामलें में टांग अड़ाती है। बस मुझे अकेला छोड़ दो¸ कहती है बूढ़ी स्त्री।मैं नहीं कह सकता कि इस तरह से आत्मसम्मान का मैं थोड़ा इस्तेमाल नहीं कर सकता। क्योंकि बूढ़ी स्त्री के सामने मैं आखिरकार मैं बन जाता हूं।

11

दुनिया एक सनकभरी रजाई है। हालांकि पागलपन की तरह उस में तमाम रंग और कपड़े चिप्पी किए गए हैं ¸ उसके चार किनारे बहुत दक्षता के साथ सिए गए हैं। सौ साल पहले उत्तरी अमेरिका में रही होगी कोई बूढ़ी स्त्री बिल्कुल इस बूढ़ी स्त्री की तरह। किसी बड़ी नदी के नजदीक¸ पेड़ों के झुरमुट में¸ शहर की सीमा के जरा सा बाहर किसी जर्जर मकान के अहाते में।

12

शायद किसी दिन मैं भी बन जाऊंगा वही बूढ़ी स्त्री। शायद मैं अभी से बन चुका हूं वह बूढ़ी स्त्री। मेरा नाम¸ मेरा धन¸ मेरा भविष्य¸ मेरा यह, मेरा वह … इनमें से कोई भी चीज मुझे बूढ़ी स्त्री से अलग नही कर सकती। मेरे हाथ¸ मेरे बाल¸ मेरे शब्द¸ गुजरती हुई मेरी चेतना¸ वे सारी चीजें जिन्हें मेरा कहा जा सकता है और उस बूढ़ी स्त्री की तमाम चीजें - अण्डों की तरह एक सी नजर आती हैं।

13

एक कुत्ते का पेट सहलाती हुई वह बूढ़ी स्त्री कुत्ते से दबी जबान में बात करती है। कुत्ते के आनन्द से उसे बहुत खुशी मिलती है। हैरत करते हुए कि क्या वह बूढ़ी स्त्री कुत्ते को अनन्त तक दुलारती जाएगी¸ मैं उस दृश्य से आंखें नहीं हटा पाता। तो भी आखिरकार बूढ़ी स्त्री धीरे धीरे उठती है और घर के भीतर जाती है। मेरे भीतर बचती है उखड़ी सांसों वाली एक संवेदना जिसे मैं किसी भी तरह कोई नाम नहीं दे सकता।

Monday, October 29, 2007

मुर्मू मांझी यानी भारत में संगीत की संभावनाएं कम हैं

मित्रो

पूरे एक हफ़्ते तक मैंने इस पोस्ट को टूटी हुई बिखरी हुई पर रखा और आज नयी पोस्ट पब्लिश करते हुए एक कशमकश से गुज़रा कि इसे कैसे हटाऊं। इस पोस्ट की रचना प्रक्रिया बड़ी ही दिलचस्प थी जिसमें नये रंग भाई अशोक ने भरे। गीत का जो अनुवाद उन्होंने किया है वह एक स्वतंत्र कविता की हैसियत रखता है। मैं अपने फ़ैसले से खुश हूं कि इस काम के लिये मैंने अशोक से मदद मांगी। फिर उन्होंने जिन हालात में मेरी बात रखी वह अलग से सराहनीय है। लेकिन मैं जिस बात से दुखी हूं वो ये कि सुधीजन इस अद्भुत प्रयास के प्रति उदासीन रहे। कई तो फ़ैक्ट-फ़िक्शन के झमेले में मुझे फंसाकर अपनी कुंदज़ेहनी पर पर्दा डालते रहे और कुछ इसे मेरी अदाकारी मानकर दूर खड़े मुस्कुराते रहे और दोनों से यही नतीजा निकला कि "मेरी तरह नहीं गाओगे तो गान शिरोमणि नहीं बन सकते"। बहरहाल मुझे गानशिरोमणि नहीं बनना। इस अभूतपूर्व अनुवाद पर आपकी चुप्पी से मैं हैरान हूं।

एक बार फिर पढिये क्यों कि अगर अगले ज़मानों मे यह अनुवाद अनुवाद के पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनेगा तो आप ही कहने आएंगे कि यार मुझे नहीं बताया! जय बोर्ची.

ग्यारह साल का मुर्मू मांझी(पीछे बाएं से दूसरा)अपने दोस्तों के साथ
मुर्मू मांझी का बचपन झारखंड के हज़ारीबाग़ ज़िले में बीता. हेसालांग नाम की इस कोयला खदान में कब और कैसे उसे गाने की धुन सवार हुई, ये कोई नहीं जानता. हालांकि सब ये जानते हैं कि आदिवासी जीवन में संगीत स्वाभाविक है. टीवी वहां भी है और इंडियन आइडल वहां भी देखा जाता है. नया राज्य बनने के बाद ये उम्मीद की जा रही थी कि युवा प्रतिभाओं के प्रोत्साहन के लिये सरकार कुछ करेगी लेकिन मुर्मू का संघर्ष इस उम्मीद को ठेस पहुंचाता है. यहां सवाल यह भी है कि बाज़ारीकरण के बीच क्या सचमुच संगीत का लोकतांत्रीकरण हुआ है, और युवा गायकों के लिये प्रस्फुटन के नये क्षेत्र खुले हैं!

अपनी धुन में मगन मुर्मू
बहरहाल,बचपन से ही मुर्मू धूल उड़ाती कोयले से लदी ट्रकों के गुज़रते क़ाफ़िले की ओट में अपनी मस्ती के सुर बिखेरता, जिसे उसके दोस्तों के बीच सारी शिकायतों के बावजूद सराहा जाता. मुर्मू जब जवान हुआ तो उसे एक कोलियरी में ट्रक लोड करने वाले गैंग में मज़दूरी मिल गई. सोलह लोग मिलकर एक ट्रक भरते तो हर किसी के हाथ चालीस रुपये लगते. मां बचपन में ही सांप काटने से मर चुकी थी और पिता चिड़ियां पकड़कर कर पास के बाज़ार में बेचते. कमाई इतनी तो हो ही जाती थी कि अपना और अपनी बेटी रोप्ती का पेट भर सके. चिंता कुछ नहीं थी.

मुर्मू के पिता और बहन रोप्त
मुर्मू ख़ुद कमाता ही था. उसका भी क्या ख़र्च! उसने अपनी कमाई से पैसे बचाने शुरू किये और जब इतने पैसे हो गये कि वो बंबई जा सके तो उसने एक रात कोलियरी के पिछवाड़े से गुज़रते हुए वहां पड़ी बेशुमार राख के ढेर में अपनी बिना बुझी बीड़ी फेंक दी. ये हेसालांग को उसका आखिरी झटका था. एक धीमी आग जो आज भी वहां धुआं छोड़ रही है,वो मुर्मू की लगाई हुई है.

मुर्मू की पत्नी गेउनी का ताज़ा फ़ोटो,ये अब अपने भाई के साथ मुर्मू से मिलने जा रही है
बहरहाल उसी रात वो बंबई पहुंच गया. मुर्मू को अच्छी तरह मालूम था कि वह कुछ स्वनामधन्य गायकों से क्यों मिल रहा है. हिमेश रेशमिया उस वक़्त अपने सीडी प्लेयर पर ओउम भूर्भुवः स्व: का प्रख्यात वर्ज़न सुन रहा था और आंखे मीचे अपने मोबाइल पर अपने अहमदाबाद वाले साढू से शेयर के दामों पर अपनीं चिंताएं शेयर कर रहा था. कुमार सानू और उदित नारायण को अपने बढ़ते मोटापे के लिये कसरत करते देखकर वो पिछली शाम आया था. अनु मलिक और ए.आर.रहमान ने उसको डांटा तो नहीं लेकिन अनु मलिक जिस नये गायक को लेना चाहता था उसे अचानक मेलबर्न जाना पड़ गया था और ए.आर.रहमान ने जिस फ़ार्म हाउस के लिये अस्सी करोड़ रुपये जिस मुकाटीवाला को दिये थे वो अब फ़ोन नहीं उठा रहा था. दोनों की चिंताओं को भांपते हुए मुर्मू ने सोनू निगम से मिलना तय किया. सोनू निगम अपने ज्योतिष के घर बैठा हुआ था. ज्योतिष उसे दो मुट्ठी चावल दान करवाने की कहकर अपने लैपटॉप की लीड ठीक करने लगा था. चावल माता वैष्णों रानी की देहरी पर चढ़ाए जाने थे और मुश्किल ये थी कि सोनू कैसे वहां जाएगा. सोनू ने कैलाश खेर से इस बारे में राय मांगी तो उसने झट रास्ता बताया. म्यूज़िक टुडे का सर्कुलेशन मैनेजर उन दिनों वैष्णों देवी के मंदिर में भंडारा कराने गया हुआ था. कैलाश ने फ़ोन पर मखीजा से कह दिया कि वो सोनू के लिये दो मुट्ठी चावल चढा दे. मुर्मू को हेसालांग की कुलदेवी याद आई और अपने पुराने कुटुंबी भी...मुर्मू ने अब और अधिक भटकना नहीं चाहा और कल्याण में एक डॉर्मेटरी लेकर पड़ा रहा. एक दिन उसी डॉर्मेटरी में एक प्रख्यात संगीतकार आया. लोगों ने बताया कि वो दुनिया भर में जाना जाता है. उसका नाम अली फ़र्कातूरे था. मुर्मू ने एक नज़र उसे देखा फिर चारपाई पर पसर गया. दोनों हथेलियों का फ़ंदा बनाकर उन्हें सिर के नीचे लगाया. सोचने को कुछ खास नहीं था. हथेलियों के तकिये पर अधलेटा मुर्मू गाने लगा. अली फ़र्कातूरे ने अपने बिना मोज़ेवाले पैर जूतों से निकाले और अपना गिटार टुनटुनाने लगा. जल्द ही एक अद्भुत संगीत रचना ने जन्म लिया. पांच सात मिनट बाद जब गाना खतम हुआ तो अली फ़र्कातूरे ने अपने रकसैक से पानी की बोतल निकाली, मुर्मू ने खइनी का एक तिनका उंगली से निकाल कर अपनी आस्तीन से पोंछा---दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराए.

मुर्मू का संगीत आज इसी लोगो से दुनिया भर में जाना जाता ह
फ़रवरी की २२ तारीख़ को मुर्मू अली फ़र्कातूरे के साथ माली पहुंच गया. वहां उसे बहुत से गाने वाले बजानेवाले मिले. उनके साथ गाता बजाता मुर्मू आज एक बड़ा स्टार है. झारखंड के किसी थाने में उसकी गुमशुदगी की कोई रपट दर्ज नहीं है अलबत्ता कोलियरी में भीतर ही भीतर सिसकती आग किसने लगाई इसकी तफ़्तीश चल रही है. आग कब बुझेगी किसी को पता नहीं.
आपको सुनाते हैं मुर्मू मांझी का गाया ये हिट गीत.
यहां इस मुंडारी गीत का ट्रांसक्राइब्ड टेक्स्ट दिया जा रहा है और साथ में अनुवाद भी.

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क्यूबा में एक परफ़ॉर्मेंन्स के दौरान मुर्मू (चित्र AFP से साभार)



इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
बोराबीं बीबोई रोडां

दगागी बीवई सीसा हीडां
बरांडा हांडू डाऊला
गोरची ऊंहई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

इजाबी बीवई सीसा डीडां
बरांडा हांडू डाऊला
बोरची नू हई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

वलई तदीन डापोर चींडां
अली गली ऊं गइयो
कालई चडीन डापोर चींडां
अजीन्डो होनीन्डोगई

इसीडी कैलिन मानीन्डीडां
वलंगई कदू बोरची
बोरची नू अई यकूम ऐन्डा
कईडा रई जेनूम डागूई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों

ना वोई ये, ना वोई ये
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों
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और अब मुंडारी भाषा के इस गीत का अनुवाद.

जीवन की अब दास्तान
क्या कहूं

जीवन
खुद ही दास्तान है
मुझे बन्दे की क्या औकात

गोर्की जैसे महालेखक
तक खाक में तमाम हुए
स्याही का काम करते हुए

कहती थी मां मेरी
मरते दिन तक
बोर्ची जैसा लोकगायक
बाढ़ में बह गया

गलियों में
फकीर भी गाता था
ढपोरशंखी कम कर बन्दे
खुदा देख रहा है

बोर्ची तो
कहता गया
बोर्ची तो कहता ही गया
गाता जाएगा जीवन को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
खड्ड में डालो बाकी बातों को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
ऐसी क्या मगजमारी करते हो

जीवन की दास्तान
क्या कहूं
जीवन
दोहराता जाता है खुद को

जीवन ने क्या सिखाया:
सबको बराबर ज्ञान है बन्धु
चाहे वह रहे कहीं

खड्ड में डालो बाकी बातों को
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

ऐसी क्या मगजमारी करते हो
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

खड्ड में डालो बाकी बातों को

मूल मुंडारी गीत का हिंदी अनुवाद: अशोक पाँडे
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वैधानिक घोषणा: इस वृत्तांत के सभी पात्र काल्पनिक हैं. किसी भी व्यक्ति, स्थान या घटना का सादृश्य मात्र संयोग माना जाए.
माफ़ीनामा: अज़दक, बाबा माल और अली फ़र्कातूरे से.

Sunday, October 28, 2007

अब कलम से इजारबंद ही डाल (हबीब जालिब की नज़्म 'सहाफी से')

कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

(*सहाफी : पत्रकार। इजारबंद: नाड़ा )

यह पोस्ट इस से पहले इरफान के सस्ता शेर में लगाई जा चुकी है। स्रोत: 'पहल' १८

Saturday, October 27, 2007

हवा के तमाम किस्से हैं : कविता की नदी में धंसान

सिद्धेश्वर सिंह


कवि वीरेन डंगवाल का नाम मैंने पहली बार तब पढ़ा जब दसवीं क्लास में पढ़ता था । यह 1978-79 की बात है । तब पहली बार अकेले काफी लंबी रेल यात्रा की थी और लखनऊ स्टेशन के बुक स्टाल से एक पत्रिका खरीदी थी -`आजकल ´ । उस समय मेरे जैसे गंवईं लड़के प्राय: सत्यकथा या फिल्मी दुनिया टाइप की पत्रिकायें खरीदा करते थे और ऐसा कुछ इफरात का पैसा मिलने पर रईसी के अंदाज में ही होता था साथ ही यह रोमांचंकारी कार्यक्रम पिता , चाचा ,बड़े भाइयों जैसे `आदरणीय´ लोगों से बच-बचाकर ही किया जाता था क्योंकि उन लोगो की दृष्टि में ठीकठाक पत्रिका यदि कोई थी तो `धर्मयुग´ जिसे उस इलाके में `धरमजुग´ कहा जाता था। उस समय हमारे यहां जो अखबार आया करता था उसका नाम `आज ´ होता था । उसकी तह खोलकर सूंघने पर एक अनजाने से तेल की गंध आती थी। बाद में पता चला कि उस तेल को पेट्रोल कहते हैं जिससे फटफटिया चलती है । साक्षात फटफटिया देखने का सौभाग्य हमें तभी मिलता था जब साल में एक - दो बार डिप्टी साहेब गांव की बिना छत वाली बेसिक प्राइमरी पाठशाला का मुआयना करने के लिए आया करते थे ।`आजकल ´ पत्रिका खरीदने के पीछे 'आज' अखबार से मिलते-जुलते नाम का जुड़ाव ही प्रेरक बना था ।

कस्बा दिलदार नगर ,जिला गाजीपुर यू0 पी0 के अति प्रतिष्टित राधा कृष्ण गुप्त आदर्श विद्यालय इंटर कालेज में पढ़ने वाले गॉंव मिर्चा के मेरे जैसे सीधे और `होनहार ´ और `भितरिया´ लड़के से मित्र मंडली को ऐसी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि मैं कोई सडियल अथवा नीरस -सी पत्रिका ले आउंगा। हमारे दुआर पर चलने वाले इलाके भर के एकमात्र पुस्तकालय का नाम भी `आदर्श पुस्तकालय´ था । यहां तक कि गांव के एक मुसलमान लड़के ने जब कस्बे में किराने की दुकान खोली तो उसका नाम भी `आदर्श जनरल स्टोर ´ रखा गया जिसका साइनबोर्ड हमारे आदर्श चचेरे भाई राम चरन सिंह ने पेन्ट किया था । कुल मिलाकर यह बताया जाना जरूरी लगता है कि उस समय हमारे आसपास खूब आदर्श-आदर्श था । अब तो एक नामी पत्रिका द्वारा सर्वेक्षण करके ऐलानिया यह बताया जा रहा है कि बयासी प्रतिषत लोंगों के अनुसार आदर्शों का कोई मोल नही। मिर्चा उस गांव का नाम है जिसको बाबा तुलसीदास के शब्दों में `रमायन ´में `जनम भूमि मम पुरी सुहावनि ´ कहा गया है । यह जन्मभूमि मेरी है बाबा की नहीं । बाबा की जन्मभूमि को लेकर तो हिन्दी साहित्य के विद्वानों में अभी तक मतान्तर की स्थिति बनी हुई है । वैसे यह बताने में कोई हर्ज नहीं है कि मेरी पैदाइश कस्बे के एक `मेमिन´ के यहां हुई थी - प्राइवेट अस्पताल में । लेकिन अस्पताल को जन्मभूमि तो घोषित नहीं किया सकता ।

मिर्चा के आसपास कोई नदी नहीं बहती थी ,यदि कोई नजदीकी नदी भी थी तो वह कर्मनाशा नामक एक अपवित्र नदी थी । जो हमारे गांव के लिये हर दूसरे - तीसरे बरस बाढ़ लेकर आया करती थी । बाढ हम जैसे लड़कों को उत्साहित करती थी और बड़े लोगों को उदास । शिवप्रसाद सिंह द्वारा लिखित कहानी `कर्मनाशा की हार ´ मै पढ़ चुका था । उस नदी की अपवित्रता का किस्सा बयान करने के लिये `अश्टादश पुराणेशु ´में घुसना पड़ेगा । खैर जो दुर्घटना होनी थी वह तो हो गई थी। उस पत्रिका में उपेन्द्रनाथ अश्क का एक साक्षात्कार छपा था । मैं उपेन्द्रनाथ अश्क के नाम से वाकिफ था क्योकि उनकी कहानी `डाची ´ और एकांकी `तौलिये ´पढ़ चुका था ,और हा मुझे यह भी मालूम था कि उर्दू में अश्क का अर्थ आंसू होता है। आंसू के बारे में हमारे हिन्दी माट्साब `मनज जी´ बता चुके थे कि यह प्रसाद जी द्वारा लिखित एक खंडकाव्य है जो प्रेम की पीड़ा की अभिव्यक्ति है । तब तक हमें न तो प्रेम के बारें में और न ही पीड़ा के बारे में कुछ खास मालूम था और बडों से इसकी जानकारी लेने के प्रयास का मतलब पिटना था ।

दरअसल तब तक मैं `मधुकर´ उपनाम से कविता - ‘शायरी भी करने लग पड़ा था। मधुकर उपनाम की भी एक कथा है । मधुकर के साथ अपने गांव का नाम लगाकर उपनाम को और आकर्षक बनाने की गुंजाइश जम नहीं रही थी जैसे- `मधुकर मिर्चावी´ आदि । बाद में कुछ दिन मधुकर गाजीपुरी का दौर चला - बतार्ज़ गंगा जमुनी मुशायरों के मशहूर शायर खामोश गाजीपुरी । सुना है कि मधुकर गाजीपुरी की शायरी का एकाध सैम्पल मित्रों के कबाड़खाने में सुरक्षित है । शायरी कथा फिर कभी , अभी तो कवि वीरेन डंगवाल की बात कर रहा हूं ।

`आजकल ´ के उस अंक में छपे साक्षात्कार में अश्क जी ने हिन्दी के कुछ संभावनाशील कवियों के साथ वीरेन डंगवाल का नाम लिया था । यह नाम मुझे एकदम नया -सा लगा था क्योकि उस इलाके में ऐसे नाम - उपनाम प्रचलित नहीं थे । वीरेन के बारे में तो जानकारी थी कि कवि - कलाकार टाइप के लोग नरेन्द्र का नरेन जैसा कुछ कर लेते हैं लेकिन डंगवाल से एक अजब -सी ध्वनि सुनाई देती थी जैसे सावन -भादों की रात के अंधेरे में कहीं दूर कोई अकेले बैठकर नगाडा़ बजा रहा हो , केवल अपने लिए , अपनी उदासी को दूर करने के लिए । उस समय यह भी था कि कविताओं से हमारा परिचय कोर्स की किताबों तक ही सीमित था । इस परिधि से बाहर झांकने का अवसर तभी मिल पाता था जब कस्बे में कवि सम्मेलन या मुशायरा होता था । इस तरह के कार्यक्रमों में हम लोग बडे भाइयों और चाचाओं की देखरेख में बाकायदा टिकट खरीद कर शामिल हुआ करते थे और डायरी में कुछ-कुछ उतारा भी करते थे।

मैं उस पत्रिका को भूल गया जो लखनऊ से लाया था। समय के साथ और भी कई चीजें भूल गईं या भुलानी पड़ीं और सायास कुछ नई चीजें याद करनी पड़ीं लेकिन नहीं भूला तो वह नाम वीरेन डंगवाल । दो -ढ़ाई साल बीतने पर समतल मैदानों के धनखर , ऊसर ,ताल - पोखरे छोडकर जब एकाएक आगे की पढ़ाई के लिए नैनीताल आया तो यह एक आश्चर्य लोक में विचरण का अनुभव साबित हुआ । यहां कुछ भी समतल नहीं था ( न जमीन न जीवन । पहाड़ों की जिस ऊंचाई का अनुभव किताबों, किस्सों ,कविताओं और कोर्स में शामिल `अपना- अपना भाग्य ´ ( जैनेद्र कुमार ) जैसी कहानियों और ब्रजवासी एटलस में किया था वह अब प्रत्यक्ष था , हकीकत । कुछ समय तो ऐसे ही बीता - माहौल और मनुष्य को समझने - बूझने में । धीरे-धीरे दोस्तों की जमात में लिखना-पढ़ना , कालेज की सालाना पत्रिका ` उपलब्धि´ की संपादकीय टीम में शामिल होना । `कविता की दोपहर´ जैसे कार्यक्रमों में हिस्सेदारी और कुछ पत्रिकाओं कविताओं का प्रकाशन खासकर `गुइयां गले न गले ´ के कहानीकार दयानंद अनंत के पाक्षिक `पर्वतीय टाइम्स´ में ।

`कविता की दोपहर´ का एक आयोजन सी0 एल0 टी0 में था । यहां पहली बार एक नया नाम सुना - नेरूदा । फिजिक्स के प्राफेसर अतुल पाण्डे संचालन कर रहे थे जो अब हमसे कई करोड़ प्रकाशवर्ष दूर चले गये है। उन पर एक बहुत ही अच्छी , बहुत ही संवेदनशील कविता अशोक पाण्डे ने लिखी है । कई बार सुनाई दिया वही नया नाम - नेरूदा । पहाड़ पर रहते हुए अब तक मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि `दा ´ एक आदरसूचक संबोधन है - दादा या दाज्यू का लघु संस्करण या कि भाषाविज्ञान की शब्दावली में कहें तो प्रयत्न लाघव । मैं स्वयं इस संबोधन का प्रयोग करने का आदी होता जा रहा था और कुछ जूनियर छात्रावासियों के लिए `दा´ बन चुका था । मैं बड़ी देर से सोच रहा था कि नेरूदा आसपास के कोई बड़े कवि होंगे क्योकि मंच पर बैठै उन्ही के जैसे नाम वाले गिरदा या गिर्दा अपनी बुलंद खनकदार आवाज में `किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी कौन आजाद हुआ , कौन आजाद हुआ ´ गा रहे थे । यह भी लगा कि नेरूदा और गिरदा भाई- भाई तो नहीं ? सच कहूं वह तो लड़कपन की बात थी लेकिन आज नेरूदा और गिरदा सचमुच भाई- भाई लगते हैं । उसी गिरदा को एकदिन `नैनीताल समाचार´ से जुड़े अन्य साथियों के साथ `रामसिंह ´ कविता का मंचन देखने का विलक्षण अनुभव हुआ । अचानक विचारों की रील पीछे घूमी -अरे यह तो उसी कवि की कविता है जिसका नाम अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण पिछले कई सालों से आकर्षित करता रहा है - वीरेन डंगवाल । अब आकर्षण का मायावी लोक ध्वस्त हो रहा था । अब कही कोई चीज थी जो दरक रही थी । अब लग रहा था कि कविता ऎसी भी होती है क्या ? अंदर -बाहर तक छील देने वाली , लगभग सारे गर्द गुबार को छांट-पछीटकर अलग कर दे वाली -

खेलने के लिए बंदूक और नंगी तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना ,सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं
और इस सबके बदले तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ
और घास काटती हुई लड़कियों से बचपन में सीखे गीत ले लेते है ।

कुछ समय बाद यही कविता ( `रामसिंह ´) एकाध और जगह पढ़ी -चर्चा सुनी और फिर `इसी दुनिया में ´( 1991) नामक संग्रह से मुठभेड़ की नौबत आई । इस संग्रह के साथ नीलाभ प्रकाषन ने पांच या छह किताबों का एक सेट निकाला था जिसे बेचने ,बिकवाने की अनौपचारिक जिम्मेदारी `युगमंच´ के पास थी ,`युगमंच´ का ठिया `इंतखाब ` में था और `इंतखाब `जहूर भाई ( जहूर दा ) की दुकान ( ये जहूर दा भी नेरूदा के खानदान के हुए शायद ! अक्सर ऐसा ही लगने वाला हुआ बल ।) आज भी यह एक मामूली दुकान ही दिखाई देती है लेकिन यह ठिया मेरे जैसे अनगिनत लोगों के लिए ,जो कहीं भीतर से बेहद संवेदनशील थे, के लिए एक विश्वविद्यालय से अधिक था । आशुतोष उपाघ्याय ने इस ठिये को नितान्त साफगोई और ईमानदारी से याद किया है और इसे नैनीताल का अनौपचारिक सांस्कृतिक केन्द्र कहा है । `युगमंच´ से जुड़ाव के कारण `इसी दुनिया में ´ संग्रह की कविताओं से परिचय हुआ । धीरे-धीरे यह परिचय प्रगाढ़ होता गया और समझ में आने लगा कि `पोथी -पतरा -ज्ञान- कपट से बहुत बड़ा है मानव ´ ।

इस संग्रह की कविताओं में वीरेन डंगवाल ने बेहद मामूली दिखाई देने वाली चीजों को कविता का विषय बनाया है । इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि बेहद मामूली दिखाई देने वाली चीजें स्वयं को लिखवा ले गईं हैं। `सही बने रहने की कोशिश ´ करने वाले कवि से उनका छूटना मुमकिन भी नहीं था । तभी तो ऊंट, गाय, मक्खी, पपीता, समोसा, पी0 टी0 उषा , कमीज, हाथी, भाप इंजन, इमली, डाकिया आदि समकालीन कविता के पात्रों का दर्जा पा चुके हैं । `इसी दुनिया में ´ की कवितायें इसी दुनिया की कवितायें हैं और वे इसी दुनिया को बेहतर बनाने का रास्ता बताती हैं । इस संग्रह की कुछ कविताओ के शीर्षक और टुकड़े तो रोजमर्रा की बातचीत में मुहावरों की तरह इस्तेमाल होते दिखाई हैं । मसलन-

• इतने भले नहीं बन जाना साथी
• तुम किसकी चौकसी करते हो राम सिंह ?
• प्यारी ,बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
• एक कवि और कर ही क्या सकता है सही बने रहने की कोशिश के सिवा
• इन्हीं सड़कों से चलकर आते रहे हैं आततायी, इन्हीं पर चलकर आयेंगे एक दिन हमारे भी जन
• खाते हुए मुंह से चपचप की आज होती है? कोई गम नहीं वे जो मानते हैं बेआवाज जबड़े को सभ्यता, दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं ।
• धीरे -धीरे चुक जायेगा जब असफलता का स्वाद तब आयेगी ईर्ष्या

आज जैसी , जितनी और जहां भी हिन्दी कविता पढ़ी जा रही है उनमें वीरेन डंगवाल सबसे अधिक पढ़े जाने वाले कवियों में से हैं । सबसे अधिक चर्चा किये जाने वाले कवियों में भी वह अगली कतार में नजर आते हैं । उनके, प्रशंसकों, प्रेमियों और पथ के साथियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। उनकी कविताओं ने कविता - दीक्षा का काम भी किया है । मुझे लगता है कि समय , समाज और संस्कृति के प्रति संवेदनशील बनाने तथा तार्किक और सोद्देष्य समझदारी विकसित करने में वीरेन डंगवाल की कविताओं ने बीसवी ‘शताब्दी के अंतिम दशक में जवान हुई एक पूरी पीढी को राह ही नही दिखाई है बल्कि संबल और साहस से लैस भी किया है । कम से कम मैं अपने लिए तो इसे पूरे होशोहवास में स्वीकार करता हूं ।

`इसी दुनिया में ´ के ग्यारह वर्ष बाद दूसरा कविता संग्रह `दुश्चक्र में सृष्टा ´ आ चुका है , चर्चित हुआ है ,समादृत - पुरस्कृत भी । और यह बात भी पुरानी हो चुकी है । इस बीच उनकी कई कवितायें पत्र -पत्रिकाओं में आयी हैं । कुछ कवितायें औपचारिक - अनौपचारिक गोष्ठियों में सुनी -पढ़ी गई हैं । सुना है कि अब नया संग्रह भी आने वाला है । मेरे लिए यह कोई बडी या रोमाचंकारी खबर नहीं है । असली रोमांच तो मेरे लिए वह था जब मैंने गदहपचीसी को पार करते हुए ,युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते हुए वीरेन डंगवाल की कविताओं की रोशनी में `हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे साथियों के रास्ते पर ´ चलने की तमीज सीखी।

(यह लेख पोस्ट करने के लिए सिद्धेश्वर सिंह ने मुझे मेल पर भेजा। खटीमा में इंटरनेट की तकनीकी कमियाँ होने के कारण सीधे पोस्ट भेज पाना मुश्किल होता है। खैर अच्छी बात यह है कि अब वे hybernation से बाहर आने का ठोस प्रयत्न कर रहे हैं। साथ में लगा हुआ फोटो हमारे कबाड़ी फोटूकार रोहित उमराव ने करीब दो साल पहले हल्द्वानी में लिया था। -अशोक)

Friday, October 26, 2007

All Watched over by Machines of Loving Grace

जब सारे कबाड़ी कविताई पर उतर आये हैं, तो लगे हाथ मैं भी Richard Brautigan की अक्टूबर १९६७ में लिखी कविता चेप देता हूं।

Wednesday, October 24, 2007

`समोसे´ :वीरेन डंगवाल


हलवाई की दुकान में घुसते ही दीखे
कढाई में सननानाते समोसे

बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच
मेज पर मिक्खयां
चाय के जूठे गिलास

बड़े झन्ने से लचक के साथ
समोसे समेटता कारीगर था
दो बार निथारे उसने झन्न -फन्न
यह दरअसल उसकी कलाकार इतराहट थी
तमतमाये समोसों के सौन्दर्य पर
दाद पाने की इच्छा से पैदा

मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ में होंट
कानों तलक
कौन होगा अभागा इस क्षण
जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी
समोसा खाने की इच्छा ।

सफर से कबाड़खाने तक .

साहबान , हम तो यूं उकताए से बैठे थे:

कोई दोस्त है रकीब है

तेरा
शहर कितना अजीब है...

यूं कोसने वाली नस्ल के हम नहीं हैं मगर मायूसी में खिसियाने लगते हैं। यही कोई चार महिने पहले इधर कबाड़ की दुकान खोली थी ।
शब्दों के सफर का बोर्ड भी लटका दिया। उधर से सरे राह पंडित अभय तिवारी गु़ज़रे तो अपनी दुकान पर भी हमारे कबाड़ का सैम्पल लगा दिया। हम तो प्रसन्न भए पर बेनामियों को रंज हो गया। ये क्या शब्द -वब्द ? बडे़ लोग कर गए है सब। लीद वीद हटाने जैसा कछु कछु बोलने लगे। हमे तो भई शौक है सो लिख रहे हैं। उधर से अब पंडित अशोक पांडे भी टकरा गए । अब अपने कबाड़खाने का माल आपके कबाड़खाने में डाल रहे हैं , हो सकता है ग्राहकी ज्यादा हो जाए :)

पेश है फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की चंद रुबाइयां -

किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी
हिलती है सुडौल बांह गोरी-गोरी
माथे पे सुहाग आंखों मे रस हाथों में
बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी


किस प्यार से होती है ख़फा बच्चे से
कुछ त्योरी चढ़ाए मुंह फेरे हुए
इस रूठने पे प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे


है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है
मां है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है
वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी
कन्या है , सुहागन है जगत माता

Tuesday, October 23, 2007

प्राग की कुछ तस्वीरें लेकर नए कबाड़ी दिनेश सेमवाल का आगमन

नये कबाड़ी दिनेश सेमवाल हाल ही में प्राग से लौटे हैं। यहां पेश हैं उनकी उतारी चंद तस्वीरें। (लगे हाथों मैं नए कार्पोरेट कबाड़ी दिनेश सेमवाल का स्वागत करता हूँ। दिनेश और मैं अपना बचपन एक साथ बिड़ला विद्या मंदिर , नैनीताल के होस्टल में बिता चुके हैं। आज इंटर कर चुकने के करीब चौबीस साल बाद हम अपना अपना कूड़ा लेकर फिर एक साथ कबाड़खाने में पाए जा रहे हैं। दिनेश के खास तरह के ब्लैक ह्यूमर को कभी कभी मिल पाने वाले चुनिंदा हास्टल को साथी आज भी कभी कभी याद करते हैं। इसके अलावा दिनेश लंबी दूरी की दौड़ों, खास तौर पर मैराथन में स्कूल में बहुत बढ़िया प्रदर्शन करते थे। मुझे उम्मीद है दिनेश यहाँ भी लंबी दौड़ लगाएंगे। -अशोक पाण्डे)






















































































तितली वाला फ्रेडरिक



‘वन स्ट्रॉ रेवोल्यूशन' वाले जापानी मासानोबू फुकुओका और पर्मीकल्चर के प्रतिनिधि ऑस्ट्रियाई किसान सैप होल्ज़र फिलहाल विश्वविख्यात नाम हैं और दुनिया भर के पर्यावरणविद उन्हें हाथोंहाथ लेते हैं और उनकी लिखी किताबों की लाखों प्रतियां बिका करती हैं। सुन्दरलाल बहुगुणा और मेधा पाटकर के कामों को मीडिया द्वारा पर्याप्त ख्याति दिलाई जा चुकी है। लेकिन उत्तराखंड के कोटमल्ला गांव के बंजर में बीस हज़ार पेड़ों का जंगल उगाने वाले जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’ जैसे प्रकृतिपुत्रों को उनके हिस्से का श्रेय और नाम मिलना बाकी है। ठीक ऐसा ही मेरे प्यारे दोस्त फ्रेडरिक स्मेटाचेक जूनियर के बारे में भी कहा जा सकता है।

उत्तराखंड कुमाऊं के विख्यात पर्यटन स्थल भीमताल की जून एस्टेट में फ्रेडरिक स्मेटाचेक के घर पर (माफ करें फ्रेडरिक स्मेटाचेक जूनियर के घर) पर आपको एशिया का सबसे बड़ा व्यक्तिगत तितली संग्रह देखने को मिलेगा। हल्द्वानी से भीमताल की तरफ जाएं तो पहाड़ी रास्ता शुरू होने पर आपको चीड़ के पेड़ों की बहुतायत मिलेगी । यह हमारे वन विभाग की मेहरबानी है कि पहाड़ों में कल्पवृक्ष के नाम से जाने जाने वाले बांज के पेड़ों का करीब करीब खात्मा हो चुका है। भीमताल पहुंचने के बाद आप बाईं तरफ को एक तीखी चढ़ाई पर मुड़ते हैं और जून एस्टेट शुरू हो जाती है। जून एस्टेट में आपको चीड़ के पेड़ खोजने पड़ेंगे। यहां केवल बांज है दशकों से सहेजा हुआ।
फ्रेडरिक के पिता यानी फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर 1940 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में यहाँ आकर बस गए थे।यहां स्मेटाचेक परिवार की संक्षिप्त दास्तान बताना ज़रूरी लगता है। चेकोस्लोवाकिया के मूल निवासी लेकिन जर्मन भाषी फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर 1940 के आसपास हिटलर विरोधी एक संस्था के महत्वपूर्ण सदस्य थे। विश्वयुद्ध का दौर था और हिटलर का सितारा बुलंदी पर। वह अपने सारे दुश्मनों को एक एक कर खत्म करता धरती को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा था। फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर की मौत का फतवा भी बाकायदा हिटलर के दस्तखत समेत जारी हुआ। जान बचाने की फेर में फ्रेडरिक सीनियर अपने कुछ साथियों के साथ एक पुर्तगाली जहाज पर चढ़ गए। यह जहाज कुछ दिनों बाद गोआ पहुंचा। गोआ में हुए एक खूनी संघर्ष में जहाज के कप्तान का कत्ल हो गया। सो बिना कप्तान का यह जहाज चल दिया कलकत्ता की तरफ।
कलकत्ता पहुंचकर रोजी रोटी की तलाश में फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर ने उन दिनों वहां बड़ा व्यापार कर रही बाटा कम्पनी में नौकरी कर ली। बाटानगर में रहते हुए फ्रेडरिक सीनियर ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक क्लब की स्थापना की। चुनिन्दा रईसों के लिए बना यह क्लब सोने की खान साबित हुआ। इत्तफाक से इन्हीं दिनों अखबार में छपे एक विज्ञापन ने उनका ध्यान खींचा: कुमाऊं की नौकुचियाताल एस्टेट बिकाऊ थी। उसका ब्रिटिश स्वामी वापस जा रहा था। मूलत: पहाड़ों को प्यार करने वाले फ्रेडरिक सीनियर को फिर से पहाड़ जाने का विचार जंच गया। वे कलकत्ता से नौकुचियाताल आ गए और फिर जल्दी ही उन्होंने नौकुचियाताल की संपत्ति बेचकर भीमताल की जून एस्टेट खरीद ली जो फिलहाल उनके बेटों के पास है।
नौकुचियाताल और भीमताल के इलाके में फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर ने प्रकृति और पर्यावरण का गहन अध्ययन किया खासतौर पर इस इलाके में पाए जाने वाले कीट पतंगों का और तितलियों का। पर्यावरण के प्रति सजग फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर ने अपने बच्चों को प्राकृतिक संतुलन का मतलब समझाया और पेड़ पौधों जानवरों कीट पतंगों के संसार के रहस्यों से अवगत कराया। यह फ्रेडरिक स्मेटाचेक सीनियर थे जिन्होंने 1945 के साल से तितलियों का वैज्ञानिक संग्रह करना शुरू किया। यह संग्रह अब एक विषद संग्रहालय बन चुका है। संग्रहालय के विनम्र दरवाज़े पर हाफ पैंट पहने हैटधारी स्मेटाचेक सीनियर का फोटो लगा है। स्मेटाचेक सीनियर के मित्रों का दायरा बहुत बड़ा था। विख्यात जर्मन शोधार्थी लोठार लुट्जे अक्सर अपने दोस्तों के साथ जून एस्टेट में रहने आते थे। इन दोस्तों में अज्ञेय और निर्मल वर्मा भी थे और विष्णु खरे भी। अभी कुछ दिन पहले स्मेटाचेक जूनियर ने मुझे सम्हाल कर रखा हुआ एक टाइप किया हुआ कागज़ थमाया। यह स्वयं विष्णु जी द्वारा टाइप की हुई उनकी कविता थी : ‘दिल्ली में अपना घर बना लेने के बाद एक आदमी सोचता है’। कविता के बाद कुछ नोट्स भी थे। शायद यह कविता वहीं फाइनल की गई थी।
अपने पिता की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम उनके बेटों विक्टर और फ्रेडरिक स्मेटाचेक जूनियर ने संभाला। बड़े विक्टर अब जर्मनी में रहते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के भूवैज्ञानिक माने जाते हैं : अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी के विशेषज्ञ। सो अब एक तरह से स्मेटाचेक परिवार का इकलौता और वास्तविक ध्वजवाहक फ्रेडरिक स्मेटाचेक जूनियर है। पचपन छप्पन साल का फ्रेडरिक पिछले करीब आठ सालों से पूरी तरह शैयाग्रस्त है। बिस्तर पर लेटे इस बेचैन शख्स के पास आपको कुछ देर बैठना होगा और धीरे धीरे आपके सामने पिछले चालीसेक सालों की आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय कथाओं का पुलिन्दा खुलना शुरू होगा।
फ्रेडरिक स्मेटाचेक जूनियर के घर में घुसते ही उसकी बेहतरीन वास्तुकला ध्यान खींचती है। बहुत सादगी से बने दिखते इस घर के भीतर लकड़ी का बेहतरीन काम है। यह अपेक्षाकृत नया मकान है और इसे नींव से शुरू करके मुकम्मल करने का काम खुद फ्रेडरिक ने स्थानीय मजदूर मिस्त्रियों की मदद से किया। घर की तमाम आल्मारियां दरवाज़े पलंग कुर्सियां सब कुछ उसने अपने हाथों से बनाए हैं। किंचित गर्व के साथ वह कहता है कि इस पूरे इलाके में उस जैसा बढ़ई कोई नहीं हो सकता। न सिर्फ बढ़ईगीरी में बल्कि बाकी तमाम क्षेत्रों में अपने पिता को वह अपना उस्ताद मानता है। अपने पिता से फ्रेडरिक ने प्रकृति को समझना और उसका आदर करना सीखा। किस तरह कीट पतंगों और तितलियों चिड़ियों के आने जाने के क्रम के भीतर प्रकृति अपने रहस्यों को प्रकट करती है और किस तरह वह अपने संतुलन को बिगाड़ने वाले मानव के खिलाफ अपना क्रोध व्यक्त करती है यह सब फ्रेडरिक को बचपन से सिखाया गया था।
कोई आश्चर्य नहीं सत्तर के दशक में अंग्रेज़ी साहित्य में एम ए करने के बाद फ्रेडरिक ने थोड़े समय नौनीताल के डी एस बी कॉलेज में पढ़ाया लेकिन नौकरी उसे रास नहीं आई। उसने बंजारों का जीवन अपनाया और कुमाऊं गढ़वाल भर के पहाड़ों और हिमालयी क्षेत्रों की खाक छानी। सन 1980 के आसपास से कुमाऊं में फैलते भूमाफिया के कदमों की आहट पहचानने और सुनने वाले पहले लोगों में फ्रेडरिक था। यह फ्रेडरिक था जिसने अपने इलाके के निवासियों के लिए राशनकार्ड जैसा मूल अधिकार सुनिश्चित कराया।
अस्सी के दशक में फ्रेडरिक अपनी ग्रामसभा का प्रधान चुना गया और पांच सालों के कार्यकाल के बाद उसकी ग्रामसभा को जिले की आदर्श ग्रामसभा का पुरूस्कार प्राप्त हुआ।इस दौरान उसने अपने क्षेत्र के हर ग्रामीण की ज़मीन जायदाद को बाकायदा सरकारी दफ्तरों के दस्तावेजों में दर्ज कराया। जंगलों में लगने वाली आग से लड़ने को स्थानीय नौजवानों की टुकड़ियां बनाईं दबे कुचले लोगों को बताया कि शिक्षा को वे बतौर हथियार इस्तेमाल करें तो उनका जीवन बेहतर बन सकता है। साथ ही यह समय आसन्न लुटेरों के खिलाफ लामबन्दी की तैयारी का भी था जो तरह तरह के मुखौटे लगाए पहाड़ों की हरियाली को तबाह करने के गुप्त रास्तों की खोज में कुत्तों की तरह सूंघते घूम रहे थे।
पूरा पहाड़ न सही अपनी जून एस्टेट और आसपास के जंगलों को तो वह बचा ही सकता था। इसके लिए उसने कई दफा अपनी जान की परवाह भी नहीं की। जून एस्टेट में पड़ने वालै एक सरकारी जमीन को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भगवा सरकार ने रिसॉर्ट बनाने के वास्ते अपने एक वरिष्ठ नेता को स्थानांतरित कर दिया। इस रिसॉर्ट के निर्माणकार्य में सैकड़ों बांजवृक्षों को काटा जाना था। इन पेड़ों की पहरेदारी में स्मेटाचेक परिवार ने करीब आधी शताब्दी लगाई थी। भगवा राजनेता ने धन और शराब के बल पर स्थानीय बेरोजगारों का समर्थन खरीद कर निर्माण चालू कराया लेकिन फ्रेडरिक के विरोध और लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद न्यायालय का निर्णय निर्माण को बन्द कराने में सफल हुआ। इस पूरे प्रकरण में कुछ साल लगे और कानून की पेचीदगियों से जूझते फ्रेडरिक को पटवारियों क्लर्कों पेशकारों से लेकर कमिश्नरों तक से बात करने और लड़ने का मौका मिला। उसे मालूम पड़ा कि असल लड़ाई तो प्रकृति को सरकारी फाइलों और तुगलकी नीतियों से बचाने की है। कम से कम लोगों को इस बाबत आगाह तो किया जा सकता है।
इधर 1990 के बाद से दिल्ली और बाकी महानगरों से आए बिल्डरों ने औने पौने दाम दे कर स्थानीय लोगों की जमीनें खरीदना शुरू किया। इन जमीनों पर रईसों के लिए बंगले और कॉटेजें बनाई गईं। भीमताल की पूरी पहाड़ियां इन भूमाफियाओं के कब्जे में हैं और एक भरपूर हरी पहाड़ी आज सीमेन्ट कंक्रीट की बदसूरत ज्यामितीय आकृतियों से अट चुकी है। अकेला फ्रेडरिक इन सब से निबटने को काफी नहीं था। फिर भी सन 2000 में उसने नैनीताल के उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की । यह याचिका पिछले दशकों में शासन की लापरवाही प्रकृति के प्रति क्रूरता और आसन्न संकट से निबटने के लिए वांछनीय कार्यों का एक असाधारण दस्तावेज है । पांच सालों बाद आखिरकार 2005 के शुरू में इस याचिका पर शासन ने कार्य करना शुरू कर दिया है।
वर्ष 2000 में फ्रेडरिक ने बाकायदा भविष्यवाणी करते हुए जल निगम को चेताया था कि उचित कदमों के अभाव में जल्द ही समूचे हल्द्वानी की तीन चार लाख की आबादी को भीमताल की झील के पानी पर निर्भर रहना पड़ेगा क्योंकि लगातार खनन और पेड़ों के कटान ने एक समय की सदानीरा गौला नदी को एक बीमार धारा में बदल दिया था। 2005 की गर्मियों में यह बात अक्षरश: सच साबित हुई।
बहुत कम लोग जानते हैं कि फ्रेडरिक एक बढ़िया लेखक और कवि भी है। वह अंग्रेजी में लिखता है और उसका ज्यादातर लेखन व्यंग्यात्मक होता है। उसे शब्दों और उनसे निकलने वाली ध्वनियों से खेलने और शरारत में आनन्द आता है। ‘द बैलेस्टिक बैले ऑफ ब्वाना बोन्साई बमचीक’ उसका अब तक का सबसे बड़ा काम है अलबत्ता उसे अभी छपना बाकी है । इसके एक खण्ड में पेप्सी और कोकाकोला के ‘युद्ध’ को समाप्त करने के लिए कुछ अद्भुत सलाहें दी गई हैं। दुनिया भर के साहित्य पढ़ चुके फ्रेडरिक के प्रिय लेखकों की लिस्ट बहुत लम्बी है। वह हिमालयी पर्यावरण के विरले विशेषज्ञों में एक है। पिछले दस सालों से जून एस्टेट के पेड़ों के हक के लिए लड़ते भारतीय दफ्तरों की
लालफीताशाही और खत्ता खतौनी जटिलताओं से रूबरू होता हुआ अब वह भारतीय भू अधिनियम कानूनों का ज्ञाता भी है। अपने बिस्तर पर लेटा हुआ वह एक आवाज सुनकर बता सकता है कि कौन सी चिड़िया किस पेड़ पर बैठकर वह आवाज निकाल रही है और कि वह ठीक कितने सेकेंड बाद दुबारा वही आवाज निकालेगी़ जब तक कि उसका साथी नहीं आ जाता। जंगली मुर्गियों तेंदुओं हिरनों के पत्तों पर चलने भर की आवाज से वह उन्हें पहचान सकता है और जैसा कि मैंने बताया था वह एक विशेषज्ञ बढ़ई तो है ही ।
गांव के बच्चों को हर मेले में जाने के लिए जेबखर्च देने वाला फ्रेडरिक, गैरी लार्सन जैसे भीषण मुश्किल काटूर्निस्ट का प्रशंसक फ्रेडरिक, देश विदेश के लेखक बुद्धिजीवियों का दोस्त फ्रेडरिक, ‘बटरफ्लाइ मैन’ के नाम से विख्यात फ्रेडरिक, कभी कभार शराब के नशे में भीषण धुत्त सरकार अफसरों को गालियां बकता फ्रेडरिक, बैसाखियों के सहारे धीमे धीमे चलने की कोशिश करता ईमानदार ठहाके लगाता फ्रेडरिक : पता नहीं क्या क्या है वह।
हां कभी भीमताल से गुजरते हुए लाल जिप्सी पर निगाह पड़े तो समझिएगा वह फ्रेडरिक की गाड़ी है। गाड़ी चालक से कहेंगे तो वह सीधा आपको फ्रेडरिक के पास ले जाएगा। आप पाएंगे कि ऊपर चढ़ती गाड़ी बिना आवाज किए चढ़ रही है। बाद में जब आप फ्रेडरिक से मिल चुके होंगे उसकी कुछ बातें सुन चुके होंगे हो सकता है अपनी पुरानी जिप्सी का जिक्र आने पर वह आपको बताए कि गाड़ी बीस साल पुरानी है। अपने जर्मन आत्मगर्व के साथ वह आपको बताएगा कि वह न सिर्फ इलाके का सबसे बढ़िया बढ़ई है बल्कि सबसे बड़ा उस्ताद कार मैकेनिक भी।

(फ्रेडी आजकल बहुत बीमार हैं । आप का एक फोन उन्हें बहुत सहारा देगा। वे हिन्दी अंग्रेजी और कुमाऊंनी धाराप्रवाह बोलते हैं । उनका नम्बर है : 09719285968। इस लेख के वास्ते विक्टर स्मेटाचेक ने जर्मनी से फ्रेडी का फोटो भेजा। उनका आभार । बहुत मामूली परिवर्तनों को साथ यह लेख एक साल पहले 'लोकमत समाचार' के वार्षिकांक में छपा था। )

Monday, October 22, 2007

नैनीताल में नंदा सुनंदा का डोला और रोहित का एक और फोटो











नंदा सुनंदा का डोला, नैनीताल २००६













हल्द्वानी में फूल और बादल


नए कबाड़ी का स्वागत

कबाड़खाने में आज एक बहुत शानदार कबाडी का आगमन हुआ है। अजित वडनेरकर जी का ब्लॉग ' शब्दों का सफर ' मुझे व्यक्तिगत रुप से हिन्दी का सबसे समृद्ध और श्रमसाध्य ब्लॉग लगता रहा है। उन से बहुत प्रभावित हूँ मैं। हालांकि उन से मेरी कोई मुलाक़ात वैसे नहीं है पर उनके काम को देख कर मुझे अच्छा लगा। कुछ दिन पहले मैंने उन्हें यहाँ भी कुछ उम्दा कबाड़ भेजने की दरख्वास्त की थी। मुझे आशा नहीं थी कि वे मेरे न्यौते को स्वीकार करेंगे। लेकिन आज वे यहाँ आ गए हैं और कबाड़खाना अपने को और अधिक समृद्ध देख कर प्रसन्न है। अजित भाई, तहे दिल से आपका शुक्रिया और कबाड़ी जमात में शामिल होने पर बधाई। कबाड़खाने के बाक़ी सम्मानित सदस्यों से मेरा अनुरोध है कि 'शब्दों का सफर' एक बार ज़रूर करें। फिर आप बार बार उस सफर का रुख करेंगे : मेरी ग्रांटी हैगी।

प्राग और नेरुदा



दरअसल पाब्लो नेरुदा का वास्तविक नाम रिकार्दो एलिएसेर नेफ्ताली रेयेस बासोअल्तो था। नेरुदा नाम उन्होने चेक लेखक यान नेरुदा से लिया था।

राजेश जोशी का शानदार आलेख पढ़ने के बाद मुझे पिछले साल नवम्बर की अपनी प्राग यात्रा याद हो आई।

तस्वीरें पलट रहा था तो प्राग की एक तस्वीर पर निगाह रूक गयी। जब आप चार्ल्स ब्रिज से माला स्त्राना की तरफ जाते हैं तो इस होटल पर एकबारगी तो निगाह नहीं पड़ती पर जब पड़ती है तो अच्छा लगता है। प्राग के अपने संस्मरण फिर कभी लिखूंगा, फिलहाल इसे एक detail भर मानें आप। तस्वीर मेरे आग्रह पर मेरे मित्र वेर्नर ने खींची थी।

साथ ही, लगे हाथों नेरुदा की पद्य आत्मकथा 'ईस्ला नेग्रा' के एक अंश का अनुवाद पेश कर रह हूँ :


उनके बग़ैर जहाज़ लड़खड़ा रहे थे
मीनारों ने कुछ नहीं किया अपना भय छिपाने को
यात्री उलझा हुआ था अपने ही पैरों पर –
उफ़ यह मानवता‚ खोती हुई अपनी दिशा!


मृत व्यक्ति चीखता है सारा कुछ यहीं छोड़ जाने पर‚
लालच की क्रूरता के लिए छोड़ जाने पर‚
जबकि हमारा नियंत्रण ढंका हुआ है एक गुस्से से
ताकि हम वापस पा सकें तर्क का रास्ता।

आज फिर यहां हूं मैं कामरेड‚
फल से भी अधिक मीठे एक स्वप्न के साथ
जो बंधा हुआ है तुम से‚ तुम्हारे भाग्य से‚ तुम्हारी यंत्रणा से।

मैंने पीछा छुड़ाना है गर्व से‚ एकाकीपन से‚ जंगलीपन से‚
एक साधारण जमीन पर तय करनी है अपनी प्रतिबद्धता‚
और वापस लौटना है मानवीय कर्तव्यों के लिए एक शरणस्थल की तरफ़।

मैं जानता हूं कि मैं ला सकता हूं विशुद्ध आनन्द
उन भलों लिए जो फंसे हुए हैं शब्दों के बीच
लड़खड़ाते हुए नर्क के नकली प्रवेशद्वारों पर‚
लेकिन वह काम है उसका जिसकी सारी वासनाएं पूरी हो चुकीं।

मेरी कविता अब भी एक रास्ता है बारिश के बीच
जिस पर चलते हैं नंगे पांव स्कूल जाते हुए बच्चे।
और सिर्फ ख़ामोशी में होती है मेरी पराजय।
अगर वे मुझे एक गिटार देंगे
तो मैं गाऊंगा कड़वी चीज़ों के बारे में।


( अनुवाद मेरा है।)

Sunday, October 21, 2007

प्राग में -- दो साल पहले !


(प्राग से लौटते हुए मैंने वहाँ की याद में एक कप ख़रीदा जिस पर प्राग कासल की तस्वीर छपी थी. कुछ दिन बाद दिल्ली पहुँचा और निर्मल वर्मा को फ़ोन किया. उन्हें बताया कि प्राग में रह रह कर उनकी पंक्तियाँ याद आईँ -- हर कोने, हर होस्पोदा में. "इसीलिए एक कप ले आया हूँ, आपको देने के लिए." सोचा छुट्टियों के बाद गौलापार से लौटते हुए उनसे मिलूँगा और प्राग का वो कप दे दूँगा. गाँव में कुछ ही दिन बीते थे कि एक सुबह अख़बार में ख़बर पढ़ी -- निर्मल वर्मा नहीं रहे. वो कप अब मेरे पास नहीं है.)

प्राग के जिस प्रमुख चौराहे पर आज से पंद्रह साल पहले हज़ारों हज़ार लोगों ने इकट्ठा होकर कम्युनिस्ट शासन को तिरोहित किया, पिछले हफ़्ते मैं वहीं खड़ा था -- तनिक हतप्रभ सा, तनिक भ्रमित और चकित सा.

शहर के ऊपर चमकीली धूप बिखरी थी, सड़कें पर्यटकों से भरी हुई थीं और प्राग के प्रसिद्ध होस्पोदा या शराबख़ानों के बाहर बैठकर लोग बीयर का आनंद ले रहे थे. चेक गणराज्य का उपभोक्ता समाज अपनी पूँजीवादी आज़ादी की एक एक घूँट पूरे आह्लाद और इत्मीनान के साथ चखता नज़र आ रहा था.

जिस सड़क पर चेकोस्लोवाकिया की पुलिस ने 1989 में छात्रों और प्रदर्शनकारियों को लाठियों से पीटा था, आज वहाँ दोनों तरफ़ क़तार से तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमकीले स्टोर हैं. अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर बन-टिक्की बेचने वाली अमरीकी कंपनी मैकडॉनल्ड की लाल-पीली छतरियाँ क़दम क़दम पर नज़र आती हैं. गूची, नेक्स्ट, मैक्स, एडिडास जैसे ब्रांड शहर के हर कोने में एक छलावे की तरह बार बार नज़रें खींचते हैं.

शहर के बीचोंबीच बहने वाली वलतावा नदी के ऊपर चार्ल्स ब्रिज पर तस्वीरें खींचने वालों की भीड़ लगी हुई थी. थोड़ा ऊँचाई पर प्राग कासल अपने मध्यकालीन रुआब और शान के साथ शहर पर झुका हुआ था. सरकारी तंत्र या व्यवस्था के डरावने और अनबूझ चेहरे की झलक देने वाले लेखक फ़्रांज़ काफ़्का ने कई बार बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में इस पुल को पार किया होगा. उन्होंने लेखन के लिए प्राग कासल के अंदर एक छोटी एकांत कोठरी किराए पर ली थी. आज भी प्राग और काफ़्का की कल्पना एक दूसरे के बिना नहीं की जा सकती. अपने उपन्यासों के सन्निपाती और सताए गए चरित्रों की तरह काफ़्का भी प्राग शहर में एक जगह से दूसरी जगह ठिकाना बदलते रहे और अंत में टीबी की बीमारी ने उनकी जान ले ली.

थोड़ा ग़ौर करें तो इस शहर की तहों में यूरोप के बेचैनी भरे वर्षों की सीलन अपने आसपास महसूस की जा सकती है. ये शहर यूरोप में हुए युद्धों का गवाह रहा है. यहाँ जब कम्युनिस्टों ने हिटलर के नात्सियों के ख़िलाफ़ लोहा लिया तो उन्हें गाँव के ग़रीबों, शहर के कामगारों, छात्रों और बुद्धिजीवियों ने पूरा समर्थन दिया. पर जब कम्युनिस्ट पार्टी चंद लोगों के हाथों में सिमट कर जनता पर जासूसी करने की मशीन बन गई तो वही लोग सड़कों पर उतर आए.

स्तारो मेस्ती या पुराने शहर में प्रमुख चौक के चारों ओर भव्य इमारतें, शंक्वाकार गिरजाघर, गिरजाघरों में शाम को होने वाले संगीत कॉनसर्ट का प्रचार करती चेक युवतियाँ, चिकने पत्थरों पर पड़ती घोड़ों की टापों की आवाज़ें -- सब कुछ किसी छंद में बँधा हुआ सा महसूस होता है. काफ़ी देर तक इसी चिकने पत्थरों वाले फ़र्श पर धूप में लेटने के बाद मैं उठा और टिन गिरजाघर के पीछे वाली गली के एक होस्पोदा में जा बैठा.

ये वो प्राग था जिससे निर्मल वर्मा की किताबों के ज़रिए मेरा पहला परिचय हुआ था. किताबों के उस प्राग में एक अजब सा निचाटपन और एक झीनी सी उदासी और बिरानेपन के बावजूद कुछ ऐसा था जिसे आप छू सकें, महसूस कर सकें और अपनी स्मृति के पुराने पन्नों में संजो कर रख सकें. होस्पोदा शब्द सबसे पहले मैंने उन्हीं किताबों में पढ़ा था और अब मैं ख़ुद एक होस्पोदा की कुर्सी पर बैठा था. मेरे सामने सुनहरे बालों वाला एक चेक युवक किसी लापरवाह संगीत की धुन में हिल रहा था.

ये उन्नीस सौ नवासी की वैलवेट रिवौल्यूशन के बाद जवान हुई उस पीढ़ी का नौजवान था जिनके लिए कम्युनिस्ट शासन का ख़त्म होना एक सड़ी गली और बोझ बन चुकी व्यवस्था का ख़त्म होना था. वो अमरीका में रह चुका था और वहाँ से भी उकता कर अपने घर लौटा था. उत्सुक्तावश मैं पूछ बैठा – अब कहाँ जाना चाहेंगे. जवाब था – क्यूबा !! और वो भी फ़िदेल कास्त्रो के जीवित रहते हुए.

प्राग शहर में कुछ ऐसा है जो बार बार आपको आमंत्रित करता है. और वहाँ लौट लौट कर जाने वाले आपको बताएंगे कि हर बार कुछ गुत्थियाँ अनसुलझी ही रह जाती हैं.

Friday, October 19, 2007

जॉर्ज हैरिसन का ' देहरादून '



'बीटल्स' के मुख्य गायक गिटारिस्ट जॉर्ज हैरिसन का गाया ' देहरादून ' पेश है कबाड़ख़ाने में । इस ग्रुप के सदस्य १९६० - १९७० के दौरान, आत्मिक शांति की खातिर ऋषिकेश बहुत आया जाया करते थे। प्रस्तुत गीत उसी दौर का है।




गीत के बोल प्रस्तुत हैं :


Dehra, Dehra dun,
Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun


Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days

Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun

Many people on the roads looking at the sights
Many others with their troubles looking for their rights

Dehra, Dehra dun, Dehradun, dun
Dehra Dehra, dun , Dehradun dun
Dehradun

See them move along the road in search of life devine
..........................
Beggers in a goldmine

Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dunDehradun, Dehradun dun
Dehradun

Many roads can take you there many different ways
One direction takes you years another takes you days

Dehradun, Dehradun dun, Dehradun,
Dehradun dunDehradun, Dehradun dun
Dehradun
----------------------------------------------------------------------------
यह गीत इरफ़ान के सहयोग से जारी किया जा सका. जैहिंद.

बंदर चढ़ा है पेड़ पर करता टिली-लिली...



दिनेश कुमार शुक्ल की कविता सुनें.

Wednesday, October 17, 2007

अनीता वर्मा की कविता ' वान गॉग के अन्तिम आत्मचित्र से बातचीत'

एक पुराने परिचित चेहरे पर
न टूटने की पुरानी चाह थी
आंखें बेधक तनी हुई नाक
छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान
दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को
व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार का इन्तज़ार करता था

मैंने जंगल की आग जैसी उसकी दाढ़ी को छुआ
उसे थोड़ा सा क्या नहीं किया जा सकता था काला
आंखें कुछ कोमल कुछ तरल
तनी हुई एक हरी नस ज़रा सा हिली जैसे कहती हो
जीवन के जलते अनुभवों के बारे में क्या जानती हो तुम
हम वहां चल कर नहीं जा सकते
वहां आंखों को चौंधियाता हुआ यथार्थ है और अन्धेरी हवा है
जन्म लेते हैं सच आत्मा अपने कपड़े उतारती है
और हम गिरते हैं वहीं बेदम

ये आंखें कितनी अलग हैं
इनकी चमक भीतर तक उतरती हुई कहती है
प्यार मांगना मूर्खता है
वह सिर्फ किया जा सकता है
भूख और दुख सिर्फ सहने के लिए हैं
मुझे याद आईं विन्सेन्ट वान गॉग की तस्वीरें
विन्सेन्ट नीले या लाल रंग में विन्सेन्ट बुखार में
विन्सेन्ट बिना सिगार या सिगार के साथ
विन्सेन्ट दुखों के बीच या हरी लपटों वाली आंखों के साथ
या उसका समुद्र का चेहरा

मैंने देखा उसके सोने का कमरा
वहां दो दरवाज़े थे
एक से आता था जीवन
दूसरे से गुज़रता निकल जाता था
वे दोनों कुर्सियां अन्तत: खाली रहीं
एक काली मुस्कान उसकी तितलियों गेहूं के खेतों
तारों भरे आकाश फूलों और चिमनियों पर मंडराती थी
और एक भ्रम जैसी बेचैनी
जो पूरी हो जाती थी और बनी रहती थी
जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता था

एक शान्त पागलपन तारों की तरह चमकता रहा कुछ देर
विन्सेन्ट बोला मेरा रास्ता आसान नहीं था
मैं चाहता था उसे जो गहराई और कठिनाई है
जो सचमुच प्यार है अपनी पवित्रता में
इसलिए मैंने खुद को अकेला किया
मुझे यातना देते रहे मेरे अपने रंग
इन लकीरों में अन्याय छिपे हैं
यह सब एक कठिन शान्ति तक पहुंचना था
पनचक्कियां मेरी कमजोरी रहीं
ज़रूरी है कि हवा उन्हें चलाती रहे
मैं गिड़गिड़ाना नहीं चाहता
आलू खाने वालों और शराव पीने वालों के लिए भी नहीं
मैंने उन्हें जीवन की तरह चाहा है

अलविदा मैंने हाथ मिलाया उससे
कहो कुछ कुछ हमारे लिए करो
कटे होंठों में भी मुस्कराते विन्सेन्ट बोला
समय तब भी तारों की तरह बिखरा हुआ था
इस नरक में भी नृत्य करती रही मेरी आत्मा
फ़सल काटने वाली मशीन की तरह
मैं काटता रहा दुख की फ़सल
आत्मा भी एक रंग है
एक प्रकाश भूरा नीला
और दुख उसे फैलाता जाता है।

पहाड़ी ठेकुआ

लक्ष्मी होकर झाड़ू लगाए, धनपति मांगे भीख
अमर सिंह होकर मर गए, मेरा ठेकुआ नाम है ठीक

पानी संग्रहण की परंपरागत पहाड़ी विधियां


पहाडों में पानी संग्रहण करने की कुछ पारम्परिक पर वैज्ञानिक विधियां रहीं हैं जो आज लुप्त हो रही हैं। यदि उनके बारे में अच्छे से समझा जाये और उन्हें आज फिर अपनाया जाये तो पानी की समस्याआ से छुटकारा मिल सकता है।

नौले - हममें से कई लोग ऐसे हैं जो नौलों के बारे में बचपन से सुनते आ रहे हैं क्योंकि नौले हमारे गावों के अभिन्न अंग रहे हैं। नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर चारों ओर से सुन्दर चिनाई करके किया जाता था। ज्यादातर नौलों का निर्माण कत्यूर व चंद राजाओं के समय में किया गया इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं। जिन्हें बेहद कलात्मकता के साथ बनाया जाता था। इनमें देवी-देवताओं के सुंदर चित्र बने रहते हैं। यह नौले आज भी शिल्प का एक बेजोड़ नमूना हैं। चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला इसका प्रमुख उदाहरण है। इसके अलावा अल्मोड़ा के रानीधारा तथा द्वाराहाट का जोशी नौला तथा गंगोलीहाट में जान्हवी नौला व डीडीहाट का छनपाटी नौला प्रमुख है। गढ़वाल में टिहरी नरेशों द्वारा नौलों का निर्माण किया गया था। यह नौले भी कलाकारी का अदभुत नमूना हैं। ज्यादातर नौले उन स्थानों पर मिलते हैं जहां पानी की कमी होती है। इन स्थानों में पानी को एकत्रित कर लिया जाता था और फिर उन्हें अभाव के समय में इस्तेमाल किया जाता था।

धारे - पहाडों में अकसर किसी-किसी स्थान पर पानी के स्रोत फूट जाते हैं। इनको ही धारे कहा जाता है। यह धारे तीन तरह के होते हैं। पहला सिरपत्या धारा - इस प्रकार के धारों में वह धारे आते हैं जो सड़कों के किनारे या मंदिरों में अकसर या धर्मशालाओं के पास जहाँ पैदल यात्री सुस्ता सकें ऐसे स्थानों में मिल जाते हैं। इनमें गाय, बैल या सांप के मुंह की आकृति बनी रहती है जिससे पानी निकलता है और इसके पास खड़े होकर आराम से पानी पिया जा सकता है। इसका एक आसान सा उदाहरण नैनीताल से हल्द्वानी जाते हुए रास्ते में एक गाय के मुखाकृति वाला पानी का धारा है। दूसरा मुणपत्या धारा - यह धारे प्राय: थोड़ा निचाई पर बने होते हैं। इनका निर्माण केले के तने या लकड़ी आदि से किया जाता है। तीसरा पत्बीड़या धारा - यह कम समय के लिये ही होते हैं क्योंकि यह कच्चे होते हैं। नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि स्थानों में भी इस तरह के धारे पाये जाते हैं।

कूल व गूल - यह एक तरह की नहर होती हैं। जो पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के काम आती हैं। गूल आकार में कूल से बड़ी होती है। इनका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेतों में सिंचाई करने के लिये किया जाता है। आज भी यह सिंचाई विभाग में इसी नाम के साथ दर्ज हैं।खाल - खाल वह होते हैं जिन्हें जमीन को खोद कर पानी इकट्ठा किया जाता है या वर्षा के समय पर किसी क्षेत्र विशेष पर पानी के इकट्ठा हो जाने से इनका निर्माण हो जाता है। इनका उपयोग जानवरों को पानी पिलाने के लिये किया जाता है। यह जमीन की नमी को भी बनाये रखते हैं साथ ही पानी के अन्य स्रोतों के लिये भी पानी की कमी नहीं होने देते हैं। यह जल संग्रहण की बेहद आसान लेकिन अत्यन्त उपयोगी विधि है।

ताल-तलैया - किसी भी भूभाग के चारों ओर ऊंची जमीन के बीच में जो जल इकट्ठा होता है उसे ताल कहते हैं। यह ताल कभी कभार भूस्खलनों से भी बन जाते थे और इनमें वर्षा के समय में पानी इकट्ठा हो जाता था। इन तालों में सा्रेतों के द्वारा भी पानी इकट्ठा होता है और वर्षा का पानी भी भर जाता है। ताल का सबसे बेहतरीन उदाहरण है नैनीताल में पाये जाने वाले 12 ताल और पिथौरागढ़ में श्यामला ताल। इन तालों से पानी का प्रयोग पीने के लिये एवं सिंचाई के लिये किया जाता है। तलैया होती तो ताल की तरह ही हैं पर आकार में ताल से छोटी होती हैं।

जल कुंड - यह पानी के वह स्रोत होते हैं जिन्हें धारे, नौलों से रिसने वाले पानी को इकट्ठा करके बनाया जाता है। इनके पानी का इस्तेमाल जानवरों आदि के लिये किया जाता है। कुमाऊं मंडल में इन जल कुंडों की अभी भी काफी संख्या बची हुई है।

चुपटौला - यह भी जलकुंड के तरह की एक व्यवस्था और होती है। इसे उन स्थानों पर बनाया जाता है जहा पर पानी की मात्रा अधिक होती है। इसका पानी भी जानवरों के पीने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। छोटा कैलाश और गुप्त गंगा में इस तरह के कई चुपटोले मिल जाते हैं।

ढाण - इनका निर्माण इधर-उधर बहने वाले छोटे-बड़े नालों को एकत्रित करके किया जाता है और उसे तालाब का आकार दे दिया जाता है। इनसे नहरें निकाल कर सिंचाई की जाती है और इन स्थानों पर पशुओं को नहलाने का भी कार्य किया जाता है। ढाण का उपयोग अकसर तराई में ज्यादा किया जाता है।

कुंए - वर्षा के मौसम में पानी को एकत्रित करने के लिये जमीन में काफी गहरे कुए खोदे जाते थे जिनकी गहराई 25 से 35 मी . तक होती थी और इनमें नीचे उतरने के लिये सीढ़ियां बनी रहती थी। पिथौरागढ़ का भाटकोट का कुंआं तथा मांसूग्राम का कुंआं जिनमें 16 सीढ़ियां उतरने पर पानी लाया जा सकता है आज भी जल संग्रहण के रूप में अनूठे उदाहरण हैं। इन्हें कोट का कुंआ भी कहा जाता है।

सिमार - ढलवा जमीन में पानी के इकट्ठा होने को सिमार कहा जाता है। सिमारों का इस्तेमाल भी सिंचाई के लिये किया जाता है। यह भी मिट्टी को नम बनाये रखते हैं और वातावरण को ठंडा रखने में भी अपना योगदान देते हैं।इन प्राचीन जल संग्रहण विधाओं का महत्व सिर्फ इतना भर नहीं है कि इनसे पानी का इस्तेमाल किया जाता है। इनका एक और भी बहुत बड़ा महत्व है और वह है इनका सांस्कृतिक महत्व। इनमें एक भरी-पूरी संस्कृति मिलती है। आज जरूरत है इनके साथ-साथ अपनी संस्कृति को भी बचाने की। हमारी जल संग्रहण की यह प्राचीन विधि आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी की उस युग में थी जब इन्हें खोजा गया था। यह परम्परागत विधिया टिकाऊ और कम खर्चीली तो हैं ही साथ ही साथ हमारे वातावरण के लिये भी अनुकूल हैं। इनको संचालित करने के लिये किसी भी तरह की ऊर्जा की जरूरत नहीं पड़ती है और यह हमेशा हर परिस्थिति में काम करती हैं बस जरूरत है तो इन्हें बचाने की। वैसे भी जिस तरह से दिन-ब-दिन पानी की किल्लत होने लगी है और प्रदूषित पानी से जिस तरह प्रत्येक जीव का जीवन असुरक्षित होता जा रहा है तो इन परंपरागत विधियों के बारे में सोचना हमारी मजबूरी भी होगी क्योंकि यह तो तय है कि आने वाले समय में पानी की एक बहुत गंभीर समस्या हम सबके सामने आने वाली है।

Tuesday, October 16, 2007

चंदू उर्फ़ रद्दीवाले लाला जी का पुनः स्वागत

देर से ही सही लेकिन आखिरकार कबाड़खाना अपने कबाड़ मंडल में चंद्र्भूषण जी का नाम देख कर धन्य हो गया। उनकी दुकान का सामान अलबत्ता कुछ दिनों से यहाँ पहले से उपलब्ध है। सारे कबाड़ी एक एक बार अपने तरीके से स्काउट ताली बजा लें। जय हो।

अमीर ओर की कविता

आतताई

फिज़ूल नहीं था कि हमने आतताइयों का इन्तज़ार किया
फिज़ूल नहीं था कि हम शहर के चौक पर इकठ्ठा हुए
फिज़ूल नहीं था कि कि हमारे महापुरूषों ने अपनी आधिकारिक पोशाकें पहनीं
और उस अवसर के लिए अपने भाषणों का पूर्वाभ्यास किया
फिज़ूल नहीं था कि हमने अपने मन्दिरों को तहस नहस कर डाला
और उनके देवताओं के लिए नए मन्दिर खड़े किए
जैसी कि मौके की नज़ाकत थी हमने अपनी किताबों में आग लगा दी
जिनमें उस तरह के लोगों के मतलब का कुछ नहीं था।
जैसी कि भविष्यवाणी की गई थी आतताई आए
और उन्होंने राजा के हाथों से शहर की चाभी प्राप्त की ।
लेकिन जब वे आए, वे पहने हुए थे हमारे जैसे कपड़े
और उनके रिवाज़ भी थे हमारे यहां के रिवाज़ों जैसे
और जब उन्होंने हमारी ज़बान में हमें आदेश दिए
हम जानते ही नहीं थे तब उन्हें
आतताई पहुंच चुके थे हम तक।

Monday, October 15, 2007

डोरिस लेसिंग के बहाने एल्फ्रीड येलीनेक की याद


(यह एक शानदार घटना है कि १९९३ में टोनी मौरीसन को, १९९६ में पोलैंड की कवयित्री शिम्बोर्स्का को और २००४ में ऑस्ट्रियाई लेखिका एल्फ्रीड येलीनेक को नोबेल मिलने के बाद इस साल डोरिस लेसिंग को यह शिखर सम्मान मिला है। २००४ में जब येलीनेक को नोबेल मिला था, इत्तेफाकन मैं उन दिनों विएना में था।


अपनी डायरी पलटते हुए एक एंट्री नज़र आई। सो अभी वही शेयर कर रह हूँ आपके साथ। )


मेरे यहाँ पहुँचने के दूसरे दिन साहित्य का नोबेल पुरुस्कार ऑस्ट्रियाई लेखिका एल्फ्रीड येलीनेक को दिये जाने की घोषणा हुई। यह सम्मान प्राप्त करने वाली वे पहली ऑस्ट्रियाई हैं। विश्व-साहित्य के संसार में इस समाचार को बेहद चकित कर देने वाला माना गया। हालांकि अपने देश में वे अतिप्रसिद्ध हैं-अंग्रेजी भाषा समाज में उन्हें बमुश्किल कोई जानता है। उम्मीद की जा रही थी कि इस वर्ष यह पुरुस्कार संभवत: अमरीकी लेखक जॉन अपडाइक या कनाडा की लेखिका मार्गरेट एटवुड को मिलेगा पर अन्तत: स्टॉकहोम में येलीनेक के नाम पर सहमति हुई।


फ्रैंकफर्ट में उन्हीं दिनों चल रहे पुस्तक मेले में एक विख्यात ब्रिटिश प्रकाशक की प्रतिक्रिया थी: "मुझे कतई पता नहीं येलेनिक है कौन? मुझे लग रहा था कि इस बार का नोबेल किसी अल्बानियाई लेखक को मिलेगा पर ऐसा नहीं हुआ। ऐसा कतई मुमकिन है कि अगले साल यह किसी भारतीय को मिले। वैसे भी नोबेल का अब कोई मतलब नहीं रह गया है ..."


वियेना में रहने वाली एल्फ्रीड येलेनिक स्वयं अपने देश में खासी नापसंद की जाती हैं। मैं पिछले दिनों करीब दर्जन भर पढ़े-लिखे मित्रों से इस बारे में बात कर चुका हूँ । यह अलग बात है कि उनकी हर पुस्तक यहाँ ऑस्ट्रिया में एक लाख से ज्यादा बिकती हैं। ज्यादातर पढ़ने-लिखने वाले घरों में उनकी किताबें पाई जाती हैं पर उन्हें पसन्द कोई नहीं करता।


इस एकान्तप्रेमी और बेहद विवादास्पद लेखिका के लेखन से परिचित होने की इच्छा लिये मैं ब्रिटिश बुक स्टोर जाकर उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास `द पियानो टीचर´ खरीद लाया। मूलत: नारीवादी लेखन करने वाली येलेनिक स्वयं को नारीवादी कहलाना पसन्द नहीं करतीं। बेहद वर्जित और विद्रूप माने जाने वाले विषयों पर कलम चलाने वाली येलेनिक के साहित्य के मूल में लिंग भेद, पूंजीवादी और उपभोक्तावाद और इनसे उपजने वाली तमाम कुंठाएँ और निराशाएं हैं। ऑस्ट्रिया के मध्यवर्ग और दक्षिणपंथी धड़े में येलेनिक को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वे अपने लेखन में इन वर्गों का जमकर मजाक उड़ाती हैं।


`द पियानो टीचर´ एरिका कोहुट नाम की पियानो-अध्यापिका की कहानी है। एरिका की जिंदगी उसकी माँ के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बचपन से एरिका को विश्वविख्यात पियानो-वादिका बनाना चाहती हैं पर चालीस साल की हो चुकने पर भी एरिका एक अध्यापिका भर है। माँ एरिका की वास्तविक और भावनात्मक दोनों जिन्दगियों पर पूरा नियंत्रण करना चाहती है। लेकिन ऐरिका का एक दूसरा जीवन भी है जिसमें वह अपनी काम-कुण्ठा को बहुत वर्जित तरीके से सन्तुष्ट करने का असफल प्रयास करती रहती है। कुल मिलाकर किताब बहुत निराशापूर्ण और अजीब से माहौल का सृजन करती है।मुझे किताब बहुत पसन्द तो भी नहीं आई पर हो सकता है येलेनिक के नाटक और शुरूआती किताबों को पढ़ने पर - जैसा कि डोबेर्सबर्ग में रहने वाली मेरी मित्र कोर्नेलिया का मानना है - मैं येलेनिक के बारे में कोई ठोस राय बना पाऊँगा ।


फिलहाल येलेनिक ने अपना नोबेल-भाषण लिखना तो स्वीकार किया है लेकिन वे इस बात पर अड़ी हैं कि दिसम्बर ११ , २००४ को यह पुरुस्कार लेने वे स्वयं नहीं जायेंगी -किसी भी कीमत पर।
(एल्फ्रीड येलीनेक वाकई स्टाकहोम नहीं गईं। पुरूस्कार समारोह में उनका भेजा गया एक वीडियो संदेश दिखाया गया था। उनका आग्रह था कि उन्हें अपने जीवन की निजता को बचाए रहने दिया जाए। )

डोरिस लेसिंग को साहित्य का नोबेल




अगली 22अक्टूबर को अपना 88 वां जन्मदिन मनाने जा रही ब्रिटिश कथाकार डोरिस लेसिंग के लिये इससे ‘शानदार तोहफा और क्या हो सकता था ! उन्हें साहित्य का नोबेल पुरूस्कार मिलना कई मायनों में विशिष्ट और विलक्षण है । 1901 से शुरू पुरुस्कारों से नवाजी जाने वाली हस्तियो में वे अब तक सबसे उम्रदराज तो हैं ही साथ ही यह जानकारी भी गैरजरूरी नहीं है कि वे कुल जमा नोबेल पुरूस्कार प्राप्तकर्ताओं में 34 वीं और साहित्य का नोबेल पाने वाली 11 वीं स्त्री हैं ।



डोरिस ने सत्तर से अधिक किताबें लिखी हैं जिनमें ज्यादातर कथात्मक और आत्मकथात्मक कृतियां हैं। हालांकि उनका पहला उपन्यास ' द ग्रास इज़ सिंगिंग', 1950 में छप कर आ गया था जो कि नस्लभेद की पृष्ठ्भूमि में एक श्वेत मालिक और अश्वेत मुलाजिम के बीच मानवीय रिश्ते की पड़ताल को लेकर रचा गया था । इस रचना से उनके लेखनकर्म की जो शुरुआत हुई वह उम्र के इस मुकाम तक पहुचकर भी अविराम और अनवरत जारी है। ('द क्लेफ्ट' उनका नवीनतम उपन्यास है।) डोरिस को सबसे अधिक प्रसिद्धि ' द गोल्डन नोटबुक' उपन्यास से मिली । इससे उनकी पहचान एक तेजतर्रार स्त्रीवादी लेखक की बनी और यह भी उल्लेखनीय है कि इसी की वजह से उनकी जमकर बखिया भी उधेड़ी गई और अ -स्त्रीवादी या ' अन्फेमिनिन ' कहकर कोसा गया कि उन्होंनें स्त्री के भीतर के क्रोध , हिंसत्व, घृणा और अहंकार को इतना बेलाग क्यों चित्रित किया है । लेकिन डोरिस के अदम्य साहस ,विकट जिजीविषा और सच को बयान करने वाली शैली ने कभी पथ से विचलित नहीं किया । ऐसा नहीं है कि यह साहस और साफगोई अचानक मिली हो । व्यापक ,विविध और सुदीर्घ जीवनानुभवों , वैचारिक टकरावों तथा घाट-घाट का पानी पीकर बड़ी हुई इस लेखिका का जीवन बहुरंगी है । 1919 में ईरान में जन्मी, जिम्बाब्वे में पली बढ़ी, ऊंची पढाई से थोड़ी दूर रही ,पन्द्रह साल की उम्र में नर्सिंग सहायक की नौकरी करने वाली इस लेखिका ने द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका और फलस्वरूप उपजे विस्थापन को बहुत निकट से जाना और जिया है। विवाह, बच्चे, तलाक, वाम विचारधारा और दल की सदस्यता, अंतत: लेखन और लेखन और लेखन ...



यहां पर मै डोरिस लेसिंग की किताबों की सूची नहीं देने जा रहा हूं। आज की तारीख में जितनी कम मुश्किल में किताबों की सूची उपलब्ध है उससे बस थोड़ी -सी और कोशिश कर के उनकी किताबें पढ़ी जा सकती हैं । ऐसे समय में जब हिन्दी साहित्य के भीतर और बाहर का विमर्श स्त्री और दलित के सवालों से टकराता दीख रहा है तब डोरिस लेसिंग को मिले नोबेल पुरूस्कार का मतलब अंग्रेजी और अन्य विश्व भाषाओं के लिये जो हो सो लेकिन हिन्दी वालों के लिये जरूर खास लगता है कि हम कम से कम अब तो आत्म मुग्धता खोह से अपनी मुंडी बाहर निकालकर थोड़ा झांके और तब अपने आप को आंकें । बहरहाल मजबूत इरादों और अनुभव की आंच से दीप्त इस दादी अम्मा लेखिका को सलाम - नमस्ते ।

Sunday, October 14, 2007

ई दखो बिग्यापोन अर्थात आसीस की पहली पौश्ट


यह फोटू मुझे मैल पे भेजी है सरदार आशीष अरोड़े ने खास कबाड़ख़ाने के दोस्तो के बास्ते।
बोफ्फाइन लगी मिज्कू।

रोहित के दो फोटोग्राफ











कैलाश
पर्वत

















नाभीढांग में खिला एक जंगली फूल

आओ आशीष

सोनापानी में 'हिमालयन विलेज' नाम का रिसोर्ट चलाने वाले आशीष अरोरा उर्फ़ सरदार कई सालों तक दिल्ली में 'उत्तराखंड भवन' नाम से (वि/कु)ख्यात अड्डा सफलतापूर्वक चला चुके हैं। कबाड़ख़ाने के अधिसंख्य सदस्यों को कबाड़वाद में स्नातक होने का सर्टिफिकेट वहीं प्राप्त हुआ था। इस लिहाज से वे यहाँ के सबसे पुरातन कबाड़वादी भी हैं और उत्तम कबाड़ी भी। 'उत्तराखंड भवन' में लम्बा समय बिता चुके कई लोगों को तो कई बार उनमें और स्वयं कबाड़ में ज्यादा फर्क नहीं दिख पाता था खास तौर पर जब वे अपनी एतिहासिक वाशिंग मशीन में स्टोर किये गए जरूरी दस्तावेजों या खुली अलमारी में पहले से पड़े कम गंदे, गंदे और ज्यादा गंदे कपड़ों के आलीशान ढेर के सम्मुख विचारपूर्ण मुद्रा में पाए जाते थे

कबाड़श्री, कबाड़ भूषण, कबाड़ विभूषण और अंततः कबाड़ रत्न का सम्मान पा चुके आशीष जी को मैं अपनी तरफ से मैं फाइनली इस कबाड़ख़ाने में आ पहुँचने की बधायी देता हूँ।

कू सेंग की कवितायें

पंख

जीवन में पहली बार
जब मैंने लड़खड़ाते हुए चलना शुरू किया
तो पाया
कि मेरे हाथ-पैर मेरे काबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूं

और अब मैं सत्तर के आसपास हूं
और एक बार फिर
मेरे हाथ-पैर मेरे काबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पाएंगे
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूं

कभी मैं लपकता था
लड़खड़ाता हुए भी
अपनी मां के बढ़े हुए हाथों की तरफ़
और अब मैं जीता हूं
सांस-दर-सांस
झुका हुआ सहारे के लिए
किन्हींअदृश्य हाथों की तरफ

अब मुझे जो चीज चाहिए
वह कोई जेट हवाई जहाज या अंतरिक्ष यान नहीं
बस पंख उगा सकने के सुख की इच्छा है छोटी-सी
उस इल्ली की तरह
जो अंततः बदल जाती है एक तितली में
और चल देती है फरिश्तों के साथ
उड़ने
और उड़ने
और बस उड़ते ही रहने को
मेरे इस बगीचे की-सी
पूरी आकाशगंगा में!


सपने

पिछली रात
मुझे एक गीला सपना आया -मेरी हमबिस्तर थी
एक फूल-सी नाजुक नौजवान औरत
जो मेरी पत्नी हरगिज नहीं थी
तो इस तरह यह सब
बेवफाई जैसा कुछ था
और जागने पर
मुझे अपराध-बोध हुआ

कुछ ही दिन पहले ही
मैंने सपने में देखा कि मैं कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख़ बन गया हूं!
रोजमर्रा की जिन्दगी में
यों भी मुझसे अकसर कहते ही रहते हैं
मेरे मिलने वाले -" तुम्हें समाज में एक ऊंची हैसियत पाने की कोशिश करनी चाहिए"
और कभी-कभी मजाक में
मैं भी जवाब दे देता उन्हें- "हो सकता है कि मैं सी0आई0ए0 प्रमुख बन जाऊं "
लेकिन यह एक बेहूदी बात है

अब मैं सत्तर का होने को हूं
और इस बात पर यक़ीन करता हूं
कि हमारी इन मछली-सी गंधाती
देहों से अलग होने के बाद भी
(जैसे समुद्र तटों पर मिलते हैं सीपियां और शंख)
लहरों से दूर
जारी रहेगा हमारा जीवन
लेकिन
कुल मिलाकर यह सब सपने जैसा ही है - निरा बचपना !
या फिर

इस बात का संकेत
कि कितनी गहराई तक जड़ें जमा चुके हैं मेरे गुनाह
मेरे भीतर
मुझे हैरानी होगी
अगर मैं कभी मुक्त हो पाया इन फंतासियों से
जागते या सपना देखते हुए !


ऐसे या वैसे

किसी अपार्टमेंट में रहना
क्रंकीट के जंगल के बीचों-बीच बने मुर्गी के दड़बे में रहने जैसा होता है
लेकिन फिर भी वहां काफी धूप आती है
औरनिश्चित रूप से इसकी तुलना
दिओजेनेस के उस बड़े पीपे से नहीं की जा सकती
जिसमें वह जीवन भर रहा

पेड़ खड़े रहते हैं यहां-वहां
और चूंकि वे बदलते रहते हैं मौसम के साथ
इसलिए
कुदरत के करिश्मों का अहसास भी कराते हैं
गुलदाउदी
और गुलाब के फूलों में बिंध जाती है
मेरी आत्मा!

नदी किनारे
जहां जंगली पौधे उगते हैं टहलते रहना
और ताकते रहना नदी को
मेरा रोज का शगल है
और ऐसा करते-करते अब मैं खुद भी
तब्दील हो चुका हूं
बहते हुए पानी की एक अकेली बूंद में
और इस तरह
मैं खुद को कुछ नहीं कह सकता

सिर्फ मुझसे मिलने वाले लोग देख सकते हैं
बाहर छोड़ी हुई मेरी धीमी सांसों को
स्टेडियम में किसी एथलीट की दौड़ की तरह
लेकिन
एक दिन यह भी बदल जाएगा

दिक्कत तो यह है
कि जब मैं छोटा था
मेरे घर के लोग बहुत सीधे-सादे थे

ऐसे या वैसे
मेरा जीवन अपनी समाप्ति के कगार पर है
यहां तक कि मौत भी
जिसकी कल्पना भर से मैं भयाकुल रहा करता था
अब सुखद दिखाई देने लगी है
बिल्कुल मां के आगोश की तरह!

अनुवादक की टीप : दिओजेनेस सिकन्दर के समय का एक यूनानी दार्शनिक था जो जीवन भर एथेंस से बाहर एक बड़े-अंधेरे गोलाकार पीपे में रहा। कहते हैं कि वह कभी दिन के उजाले या धूप में अपने पीपे से बाहर नहीं आता था और रात भर शहर के छोर पर लालटेन लिए अपने वक़्त के सबसे ईमानदार आदमी की खोज किया करता था।

अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य
ये कविताएं `पुनश्च´ द्वारा प्रकाशित काव्यपुस्तिका से