मौजूदा श्रृंखला में अब तक ज्यादातर साहित्यकारों ने अपनी राय संक्षिप्त रूप में दी है लेकिन आज जब हिन्दी के वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से बात हुई तो उन्होंने हमें वस्तुस्थिति को विस्तार में समझाना उचित समझा. सो आज सिर्फ और सिर्फ आलोक धन्वा-- विजयशंकर
मैं यह चाहता हूँ कि राष्ट्र की जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतें हैं वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुट हों. जितने भी वामपंथी संगठन हैं उनको भी इस मोर्चे में शामिल होना चाहिए. उन्हंं आपसी मतभेद स्थगित करके अपना एक व्यापक संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए क्योंकि राष्ट्र के सामने साम्प्रदायिक ताकतें आतंकवाद और दूसरी कई शक्लों में हमारी राष्ट्रीय एकता को तहस-नहस कर रही हैं. हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता, हमारी धर्मंनिरपेक्ष साझा-संस्कृति और हमारी लोकतांत्रिक उपलब्धियां ; आज सब भयावह चुनौतियों और ख़तरों से घिरी हैं. भारत को फिर से साम्राज्यवाद का नया उपनिवेश बनाने की साजिश रची जा रही है.
राजनीति और संस्कृति, दोनों क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने नए बाज़ार तैयार कर रही हैं...अब भारत का पूंजीपति वर्ग भी उस राष्ट्रीय चरित्र से वंचित हो रहा है जो भारत के स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गांधी के नेतृत्व में उसने हासिल किया था. हमारा भारतीय समाज बाहर के हमलों की अपेक्षा अन्दर के हमलों से बहुत ज्यादा टूट रहा है. अलगाववाद की सुनियोजित साजिशें हमारे संघीय स्वरूप के ताने-बाने को नष्ट कर रही हैं.
हमारा सांस्कृतिक परिदृश्य भी संतोषजनक नहीं है. इस क्षेत्र में भी रचना विरोधी घात-प्रतिघात का माहौल विभिन्न माध्यमों के जरिये बनाया जा रहा है. हमारी जो प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाएं हैं उनमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हस्तक्षेप शुरू हो चुका है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण साहित्य अकादमी के भीतर घुसपैठ करके सैमसंग कंपनी के द्वारा 'रवीन्द्रनाथ ठाकुर पुरस्कार' दिए जाने की घोषणा है.
इस सबके बावजूद जनता के सुख-दुःख के लिए सार्थक लेखन करने वाले साहित्यकारों की भी हमारे देश में कमी नहीं है. यह देखना सुखद है कि भारत के बेहद संकटपूर्ण माहौल में बहुमत जनता अपनी स्वाभाविक मानवीय सृजन-शक्ति के साथ सक्रिय है. नए वर्ष के लिए मेरी शुभकामनाएं हैं, साथ ही मैं यह चाहता हूँ कि आधुनिक भारत का जो गौरवशाली और संघर्षमय अतीत रहा है, हम उससे हमेशा प्रेरित होते रहें.
बीसवीं सदी एक महान सदी थी. देश और विदेश दोनों जगहों पर आज़ादी की बड़ी लड़ाइयां लड़ी गयीं. कई देशों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति हासिल की जिनमें भारत भी शामिल है. फ़ासीवादी विरोधी युद्ध में विश्व भर की शांतिप्रिय और लोकतांत्रिक ताकतों ने मानवीय उत्कर्ष के नए महाकाव्य रचे.
बीसवीं सदी में एक ऐसी घटना घटी जो मानव इतिहास में कभी नहीं घटी थी. रूस में पहली बार मजदूरों और किसानों ने अपनी सत्ता कायम की जिसका प्रभाव पूरी दुनिया के लोकतंत्र पर पड़ा. बीसवीं सदी वैज्ञानिक विचारधाराओं की सदी थी. यह वही सदी थी जिसमें एक ओर लेनिन काम कर रहे थे तो दूसरी ओर महात्मा गांधी भी सक्रिय थे...एक ओर वर्टरैंड रसेल जैसे बड़े मानवतावादी दार्शनिक थे वहीं मैक्जिम गोर्की जैसे मजदूरों के बीच से आनेवाले लेखक थे. यह सदी नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त की सदी थी...साथ ही वह हमारे स्वाधीन भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक नेता प्रेमचंद और महाकवि निराला की भी सदी थी. हमारे स्वाधीन भारत की जो ज्ञान-संपदा है उसे जितना भारतीय बुद्धिजीवियों ने समृद्ध किया उतना ही विश्व के दूसरे बुद्धिजीवियों ने भी समृद्ध किया.
ज्ञान एक विश्वजनीन प्रक्रिया है, उसमें देशी-विदेशी का विभाजन छद्म है. अल्बेयर कामू, फ्रेंज़ काफ़्का और ज्यां पॉल सार्त्र जैसे बड़े लेखकों ने पूंजीवादी चिंतन प्रणाली को और उसकी सत्ता के तमाम अदृश्य यातना-गृहों को न सिर्फ उजागर किया बल्कि पूंजीवादी सत्ता को कटघरे में खड़ा करके उससे लगातार जिरह की. इससे लोकतंत्र के नए पाठ सामने आये.
बीसवीं सदी में हमारे देश में जहां राहुल सांकृत्यायन, रामचंद्र शुक्ल, फैज़ अहमद फैज़, फ़िराक गोरखपुरी, मक़दूम, रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, नामवर सिंह जैसे बड़े साहित्य चिन्तक सक्रिय थे वहीं बांग्ला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र, काज़ी नज़रुल इस्लाम, विभूतिभूषण बन्दोपाध्याय, माणिक बंदोपाध्याय, जीवनानंद दास, सुभाष मुखोपाध्याय, सुकांत भट्टाचार्य जैसी विभूतियाँ सक्रिय थीं. इसी तरह पश्चिम और दक्षिण भारत में भी बड़े चिन्तक जनता के बीच काम कर रहे थे.
यहाँ नाम गिनाना मेरा उद्देश्य नहीं है बल्कि दरअसल मैं बीसवीं सदी के उस महान कारवां की मात्र कुछ झांकियां प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि आज हमारे बीच देश और विदेश दोनों जगहों पर ऐसे बुद्धिजीवी मंच पर सामने आ रहे हैं जो फिर से मध्ययुग के अर्द्धबर्बर समाज को कायम करना चाहते हैं. बाबरी मस्जिद के ध्वंस और गुजरात का भयावह नरसंहार, कश्मीर और पंजाब में हजारों निर्दोष लोकतांत्रिक नागरिकों का क़त्लेआम, ईराक़ और अफगानिस्तान पर निरंतर हमले...ये सारी घटनाएँ उसी मध्ययुगीन अर्द्धबर्बर सोच को सामने रखती हैं. यह एक ऐसा भयानक समय है जहां ज्ञान से पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
ओसामा बिन लादेन और हमारे हिन्दू तालिबान लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया, आरएसएस के मोहन भागवत, इनके बीच कोई बुनियादी फर्क़ नहीं है. ये न हिन्दू हैं न मुसलमान, बल्कि ये उसी मध्ययुगीन अर्द्धबर्बर सोच के कारिंदे हैं.
कोसी की बाढ़ से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए जब मेधा पाटकर पटना आयीं तो एक पत्रकार वार्ता में पिछले वर्ष मैंने कहा कि जिसको प्राकृतिक आपदा कहते हैं दरअसल वह मानव-निर्मित आपदा है और पर्यावरण का मुद्दा भी लोकतंत्र का ही मुद्दा है. जो ताकतें नैसर्गिक सुषमा और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रही हैं वही ताकतें प्रेमचंद के देश में हज़ारों किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रही हैं.
आज शिक्षण संस्थाओं में भी एक ऐसी प्रतियोगिता जारी है जहां हमारे प्रतिभाशाली नौजवानों में लगातार भय, आत्महीनता और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. हमारी शिक्षा-प्रणाली का उद्देश्य एक ज्यादा मानवीय और संवेदनशील मानव समाज बनाना नहीं बल्कि नए बाज़ार के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा मुहैया कराना हो गया है. तो क्या २१ वीं सदी की शुरुआत आत्महत्याओं की सदी की शुरुआत है?
मैंने मेधा पाटकर से यह बात भी कही थी कि पर्यावरण के मुद्दे को पूरे समाज के दूसरे मुद्दों से जोड़कर देखा जाना चाहिए जो कि वैज्ञानिक सोच का एक नैतिक आधार है. जो आज हमारे जंगलों को काट रहा है वही आदिवासियों को भी ख़त्म करना चाह रहा है. शत्रुता, भय और हिंसा से आक्रान्त ऐसा सामाजिक परिदृश्य आधुनिक मानव सभ्यता में जल्दी दिखाई नहीं देता जहां सत्य और न्याय के लिए प्रतिरोध करनेवाली ताक़तें भी विसर्जन का शिकार होती जा रही हैं.
चूंकि मैं एक कवि हूँ इसलिए मैं अपने कवि भाइयों से, साथियों से यह विनम्र आग्रह करना चाहता हूँ कि हमारे बीच जो विरासत आचार्य शिवपूजन सहाय, यशपाल, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, रांगेय राघव, परसाई, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, रेणु, धूमिल, श्रीलाल शुक्ल,राजकमल चौधरी,विजयदान देथा, अमरकांत, मोहन राकेश, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह,मलय, सोमदत्त, ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, ऋतुराज, विजेंद्र, कुमार विकल, नरेश सक्सेना, देवताले जैसे कई बड़े साहित्यकारों ने हमें सौंपी है, हम उसे कैसे आगे बढ़ायें...उसके प्रति अपना दायित्व-बोध कैसे निभाएं.
हमारे साथ भी जो लोग लिख रहे हैं वे कम प्रतिभाशाली नहीं हैं. अब हमारे बाद दो पीढ़ियाँ आ चुकी है कवियों की...उनसे भी मैं बेहद प्रभावित हूँ.
इस नए वर्ष में मेरी अपेक्षा यह रहेगी कि हम न्याय के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा काम करें...हर तरह की हिंसा के विरुद्ध सार्थक संवाद शुरू करें...लोकतंत्र और समाजवाद की बेहद जटिल चुनौतियों से जूझने की, सृजन करने की दिशा में सक्रिय हों.
मुझे याद आता है कि २००७ में जब हम लोगों ने पटना में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जन्म शताब्दी के लिए समारोह समिति तैयार की उस मोर्चे में ४० से ज्यादा धर्मंनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक जन-संगठन शामिल थे. जब हमने शुरुआत की तो हमें यह पता नहीं था कि भगत सिंह जन्म शताब्दी के समारोहों में वर्ष भर तक जनता की इतनी व्यापक हिस्सेदारी होगी. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाक उल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, जैसे हमारे महान शहीद देश भक्तों की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती चली गयी. मेरे लिए यह एक ऐसा अनुभव था जिससे मैं बेहद अभिभूत हुआ. यह भारतीय समाज के जीवंत और कृतज्ञ होने का एक उज्जवल उदाहरण था.
इन समारोहों ने यह जाहिर किया कि स्वाधीनता की चेतना को ख़त्म नहीं किया जा सकता. मनुष्य स्वाधीनता के पथ पर अपने सतत संघर्ष से जितनी यात्रा कर चुका है वहां से वह पीछे नहीं जाएगा. वह आगे ही जाएगा.धन्यवाद!