Monday, October 1, 2007

सादी यूसुफ़ की ' उन दिनों में '

उन दिनों में


तीन मई को मैंने छः दीवारों को दरकता देखा
उन में से मेरा एक परिचित बाहर निकला, मजदूरों के
कपडे और काले चमड़े की टोपी पहने।
मैंने कहा : "मुझे लगा तुम जा चुके होगे। क्या तुम्हारा नाम नहीं था
लिस्ट में सब से ऊपर?
क्या तुम नहीं चले गाए थे स्वयंसेवक बनकर मैड्रिड ?
क्या तुम नहीं लड़ रहे थे
पेत्रोग्राद में क्रांतिकारियों की खंदकों के भीतर से?
क्या तुम नहीं मारे गए थे तेल - हड़ताल में?
क्या वो तुम नहीं थे पैपिरस की झाडियों तले
गोलियाँ भरते अपनी मशीन गन में?
क्या तुम ने नहीं लहराया था कम्यून का लाल झंडा?
क्या तुम नहीं संगठित कर रहे थे
जनता की फौज को सुमात्रा में?
मेरा हाथ थाम लो; कभी भी गिर सकती हैं छः दीवारें;
थाम लो मेरा हाथ। "

पड़ोसी, मैं यकीन करता हूँ एक अजनबी सितारे पर
पड़ोसी, जीवन की रात गूंजती है : "तुम मेरा घर हो" से
हम घूम आए पता नहीं कहाँ कहाँ
पर दिलों में लक्ष्य अब भी घर वापसी का है
राह मत भटकना, पड़ोसी।

मेरा रास्ता ले जाता है सीधा बग़दाद.

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