Monday, October 25, 2010

हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला

हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाडे में मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाडे का
बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने
कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने
जाडे की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौडा कभी एक फुट मोटा
बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा
घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है
अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें?

19 comments:

Ashok Kumar pandey said...

आह…कितने वर्षों बाद…अद्भुत मानवीकरण्…सहज…सुन्दर!

The Serious Comedy Show. said...

nostalgic. really found it to be happy.

अरुण चन्द्र रॉय said...

वर्षों बाद भी यह कविता उतनी ही अच्छी लगती है जितनी अच्छी बचपन में लगती थी.. बेटे को हिंदी कविता पाठ प्रतियोगिता के लिए तैयार कराया था पिछले वर्ष और प्रथम पुरस्कार मिला था.. अच्छा लगा पढ़ कर ..

संगीता पुरी said...

मुझे भी यह रचना बहुत पसंद है .. याद दिलाने के लिए शुक्रिया !!

शायदा said...

ah bachpan ...

बाबा said...

हठ कर बैठा बाप इक दिन ,माता से ये बोला कि बच्चे बड़े हो रहे हैं ! और बच्चे तो बड़े हो गए पर बाप छोटा हो गया ! ये क्या मामला हैं बाबा ?

प्रवीण पाण्डेय said...

दिनकर की यह रचना बहुत सुन्दर लगती है।

मुनीश ( munish ) said...

Dhanyavaad !

Shubham Shubhra said...

bahut pyaari kavita hai ye... yaad karadiya bachpan ko...

अफ़लातून said...

’ घटता बढता रोज़ किसी दिन ’-कम होगा कि नहीं? बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं । हमारे लपत्तू वाले दिनों में कुछ ऐसे बदलाव भी हमने किए थे ।

अफ़लातून said...

'घटता बढता रोज़ किसी दिन ' किस दिन कम होगा कि नहीं?-बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं? हमारे लपत्तू वाले दिनों में यह variation भी होता था।

नीलोफर said...

सुंदर पोस्ट। वाह क्या बालसुलभ पंक्तियां हैः

काव्यवन का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुत्ता ही भाडे का

Ek ziddi dhun said...

यह तो हमेशा यादों में बसी कविता है। वो दो पृष्ठों में छपी हुई थी वेसिक शिक्षा परिषद की तीसरी कक्षा की पाठ्यपुस्तिका में। दोनों पन्नों पर घटते-बढ़ते चांद की तस्वीरें थीं।

...अलबत्ता यह याद कतई नहीं था कि इस कविता के रचियता दिनकर हैं। अच्छा होता कि वे बाल कविता ही लिखते, नाहक गर्जन-तर्जन करते उम्र बिता दी।

Unknown said...

देक्खा पांडे जी - आपने पुराना लगाया चकाचक कितने लोग खुश हो गए !, है न जबरदस्त - और ध्यान से समझिए तो ऊपर एक फरमाईश लफत्तू के दिनों की भी है - अमरीका से भी फोन आते होंगे हो - :-)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बचपन में प्राइमरी स्कूल की किताब में पढ़ी थी। बहुत दिनों बाद पूरी कविता दुबारा पढ़कर आनन्द आ गया।

धन्यवाद।

Chaitanyaa Sharma said...

मैंने तो यह पहली बार सुनी है.... अच्छी लगी.... चन्दा मामा की जिद वाली कविता

संजय भास्‍कर said...

बेहतरीन उम्दा पोस्ट

Hemant Snehi said...

प्रशंसा करना तो छोटा मुंह बड़ी बात हो जाएगी। बस यह कहूँगा इस से अच्छा बालगीत आज तक न पढ़ा, न सुना। बचपन से ही यह कविता मन को बेहद भाती है।

k.p. Gangwar said...

पुरानी यादें ताजा हो गईं कभी बचपन में यह कविता पढ़ा करता था।