Wednesday, November 14, 2007

जब चार्ली पहली बार मंच पर उतरे



मेरे प्रिय कबाड़ी मित्रो
अच्‍छा लग रहा है एक और ब्‍लाग बिरादरी में आ कर. मेरे कुछ माल का परिचय अशोक जी ने दे दिया है और बाकी का मैं खुद देता रहूंगा ताकि कबाड़ी बाज़ार में मेरी साख बनी रही. आपसे एक बात और भी शेयर करनी है कि मेरा बचपन और लड़कपन और यौवन सचमुच देहरादून के कबाड़ी बाजार में बीता है सो वहां के तौर तरीके मैं खूब जानता हूं. आपसे शेयर करता रहूंगा. मैंने कुछ विश्‍व‍ प्रसिद्ध आत्‍म कथाओं के अनुवाद किये हैं. इनमें चार्ली चैप्लिन की आत्‍म कथा और चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍म कथा खास हैं.
आज आपसे पहली बार रू ब रू होते हुए मैं चार्ली चैप्लिन की आत्‍म कथा के एक महत्‍वपूर्ण अंश को यहां दे रहा हूं.
आपको अच्‍छा लगेगा.
सूरज कबाड़ी

मां को उसकी आवाज़ बहुत तकलीफ दे रही थी। वैसे भी उसकी आवाज़ कभी भी इतनी बुलंद नहीं थी लेकिन ज़रा-सा भी सर्दी-जुकाम होते ही उसकी स्वर तंत्री में सूजन आ जाती थी जो फिर हफ्तों चलती रहती थी; लेकिन उसे मज़बूरी में काम करते रहना पड़ता था। इसका नतीजा यह हुआ कि उसकी आवाज़ बद से बदतर होती चली गयी। वह अब अपनी आवाज़ पर भरोसा नहीं कर सकती थी। गाना गाते-गाते बीच में ही उसकी आवाज़ भर्रा जाती या अचानक गायब ही हो जाती और फुसफुसाहट में बदल जाती। तब श्रोता बीच में ठहाके लगने लगते। वे गला फाड़ कर चिल्लाना शुरू कर देते। आवाज़ की चिंता ने मां की सेहत को और भी डांवाडोल कर दिया था और उसकी हालत मानसिक रोगी जैसी हो गयी। नतीजा यह हुआ कि उसे थियेटर से बुलावे आने कम होते चले गये और एक दिन ऐसा भी आया कि बिल्कुल बंद ही हो गये।
ये उसकी आवाज़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। मां आम तौर पर मुझे किराये के कमरे में अकेला छोड़ कर जाने के बजाये रात को अपने साथ थियेटर ले जाना पसंद करती थी। वह उस वक्त कैंटीन एट द' एल्डरशाट में काम कर रही थी। ये एक गंदा, चलताऊ-सा थियेटर था जो ज्यादातर फौजियों के लिए खेल दिखाता था। वे लोग उजड्ड किस्म के लोग होते थे और उन्हें भड़काने या ओछी हरकतों पर उतर आने के लिए मामूली-सा कारण ही काफी होता था। एल्डरशॉट में नाटकों में काम करने वालों के लिए वहां एक हफ्ता भी गुज़ारना भयंकर तनाव से गुज़रना होता था।
मुझे याद है, मैं उस वक्त विंग्स में खड़ा हुआ था जब पहले तो मां की आवाज़ फटी और फिर फुसफुसाहट में बदल गयी। श्रोताओं ने ठहाके लगाने शुरू कर दिये और अनाप-शनाप गाने लगे। उन्‍होंने कुत्ते बिल्लियों की आवाज़ें निकालना शुरू कर दिया। सब कुछ अस्पष्ट-सा था और मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या चल रहा है। लेकिन शोर-शराबा बढ़ता ही चला गया और मज़बूरन मां को स्टेज छोड़ कर आना पड़ा। जब वह विंग्स में आयी तो बुरी तरह से व्यथित थी और स्टेज मैनेजर से बहस कर रही थी। स्टेज मैनेजर ने मुझे मां की सखियों के आगे अभिनय करते देखा था। वह मां से शायद यह कह रहा था कि उसके स्थान पर मुझे स्टेज पर भेज दे।
और इसी हड़बड़ाहट में मुझे याद है कि उसने मुझे एक हाथ से थामा था और स्टेज पर ले गया था। उसने मेरे परिचय में दो चार शब्द बोले और मुझे स्टेज पर अकेला छोड़ कर चला गया। और वहां फुट लाइटों की चकाचौंध और धुंए के पीछे झांकते चेहरों के सामने मैंने गाना शुरू कर दिया। ऑरक्रेस्टा मेरा साथ दे रहा था। थोड़ी देर तक तो वे भी गड़बड़ बजाते रहे और आखिर उन्होंने मेरी धुन पकड़ ही ली। ये उन दिनों का एक मशहूर गाना जैक जोन्स था।


जैक जोंस सबका परिचित और देखा भाला
घूमता रहता बाज़ार में गड़बड़झाला
नहीं नज़र आती कोई कमी जैक में हमें
तब भी नहीं जब वो जैसा था तब कैसा था
हो गयी गड़बड़ जब से छोड़ा उसे बुलियन गाड़ी ने
हो गया बेड़ा गर्क, जैक गया झाड़ी में
नहीं मिलता वह दोस्तों से पहले की तरह
भर देता है मुझे वह हिकारत से
पढ़ता है हर रविवार वह अखबार टेलिग्राफ
कभी वह बन कर खुश था स्टार
जब से जैक के हाथ में आयी है माया
क्या बतायें, हमने उसे पहले जैसा नहीं पाया।



अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का जो दौरा पड़ा वो थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये विंग्स में जाने लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के लिए नहीं आया। अब मैं बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम की भी नकल करके बतायी।

और कोरस को दोहराते हुए मैं अपने भोलेपन में मां की आवाज़ के फटने की भी नकल कर बैठा। मैं ये देख कर हैरान था कि दर्शकों पर इसका जबरदस्त असर पड़ा है। खूब हंसी के पटाखे छूट रहे थे। लोग खूब खुश थे और इसके बाद फिर सिक्कों की बौछार। और जब मां मुझे स्टेज से लिवाने के लिए आयी तो उसकी मौज़ूदगी पर लोगों ने जम के तालियां बजायीं। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार।

(चार्ली चैप्लिन की आत्‍म कथा में से एक अंश)

4 comments:

दीपा पाठक said...

कथाकार जी का स्वागत। चार्ली चैपलिन जैसी दिलचस्प शख्सियत पर रोचक पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने के लिए बहुत धन्यवाद। अगली पोस्टों का इंतजार रहेगा।

अनूप शुक्ल said...

चार्ली चैपलिन के बारे में बताने और् उनकी आत्मकथा पढ़वाने का शुक्रिया। :)

Third Eye said...

ई चैपलिनवा तो साला रुला दिहिस !! आप भी कहाँ कहाँ से उठा लाते हैं....

इन्दु said...

इतना झेलने के बाद ही एक चार्ली चेप्लिन का जन्म होता है. इस किताब में एक और मार्मिक ज़िक्र है चार्ली की मां के पागलपन का, जब भूख से बेहाल माँ को कहीं से एक कैंडी मिलती है और वह उसे चार्ली के लिए सहेज कर रख लेती है. बाद में माँ को पागलखाने भेजे जाने के बाद खाली घर में चार्ली को वह कैंडी मिलती है.....चार्ली का जीवन सचमुच अपार अनुभवों का खजाना है .