Thursday, November 22, 2007

हमारे तन के स्टेशन से ग़म की रेल जाती है



राधाचरण गोस्वामी का `रेलवे स्तोत्र´
19 वीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य आधुनिक साहित्य के निर्माण का युग है साथ ही नये पाठक समुदाय को ध्यान में रखकर नवीन विचारधाराओं ,नये जीवन दर्शन ,नये निर्माण, नई सोच और नये कथ्य को नयी भाषा मे नये ढ़ंग से कहने का युग भी है । हिन्दी की इस `नई चाल´ को पकड़ने और प्रस्तुत करने का काम भारतेन्दु मण्डल से जुड़े जिन साहित्यकारों ने किया उनमें राधाचरण गोस्वामी(1859 - 1925) का नाम सबसे प्रमुख है। अपनी सोच,साहस और सामाजिक सक्रियता के कारण वे सबसे अलग ,अद्वितीय और अपने समय से आगे चलने वाले साहित्यक व्यक्तित्व के रूप में दिखाई देते हैं।

राधाचरण वृंदावन के गोस्वामी वैष्णव संप्रदाय के आचार्य और बड़े महात्मा गोस्वामी गल्लू जी महाराज के बेटे थे। अग्रवाल वैश्यों की पुरोहिताई करने वाले इस परिवार का वातावरण बहुत ही रूढ़िवादी था।इसके बारे में `मेरा संक्षिप्त जीवन-चरित्र´ में उन्होंने स्वयं लिखा है-`पाठकों स्मरण रखना चाहिए कि मैं जिस कुल में उत्तपन्न हुआ उसमें अंग्रेजी पढ़ना तो दूर है,यदि कोई फारसी ,अंग्रेजी का शब्द भूल से भी मुख से निकल जाय तो पश्चाताप करना पड़े। अस्तु मैंने गुप्त रीति से अंग्रेजी आरंभ की´।

संस्कृत और धार्मिक शिक्षा के साथ उन्होंने स्वाध्याय से अंग्रेजी , उर्दू, बंगला, मराठी, उड़िया और गुजराती का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। गोस्वामी जी उस समय के अन्य साहित्यकारों की तरह `प्राइवेट´ और `पब्लिक´ की द्वन्द्वात्मकता से उबर कर सामाजिक जीवन या `देशोपकार´ से जुड़े। वे आजीविका के लिए गोसाइयों काम करते थे किन्तु अपने ही गोस्वामी समाज में सुधार की वकालत करते थे।वे `वैष्णव धर्म प्रचारिणी सभा´ और `कवि कुल कौमुदी´ जैसी संस्थाओं से ही संबद्ध नहीं रहे बल्कि 1885 और 1894 में वृंदावन के म्युनिसिपल कमिश्नर बने तथा कांग्रेस के लाहौर और कलकत्ता अधिवेशनों में डेलिगेट होकर गए। 1888 से 1893 तक मथुरा की डिवीजनल कांग्रेस कमेटी के सेके्रटरी रहे।श्री षड्भुज महाप्रभु मंदिर के अपने निवास में उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, बंगला, मराठी, उड़िया, पंजाबी और गुजराती की लगभग 5000 पांडुलिपियों और किताबों का संग्रह किया जिसे वह पब्लिक लाइब्रेरी का रूप देना चाहते थे।

दरअसल , गोस्वामी जी की सामाजिक सक्रियता के लिए साहित्य एक अस्त्र या औजार था। उन्होने `मंजु´ उपनाम से कविताओं की रचना की है। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं - `दिन-रात श्रंगार रस की चर्चा करने से मेरा चरित्र कुछ-कुछ बिगड़ने लगा,इससे मैने कवित्तों का अभ्यास छोड़ दिया।मैंने स्वयं भी कवित्त बनाये हैं उनमें `मंजु´ नाम धरा है´। भारतेन्दु हरिश्चंद्र से वे बहुत प्रभावित थे शायद इसीलिए उन्होंने 1883 से प्रारंभ अपनी मासिक पत्रिका, जो साढ़े तीन साल तक निकली, का नाम भी `भारतेन्दु´ रखा था। उनकी रचनाओं में `बूढ़े मुह मुंहांसे, लोग देखें तमासे´ तथा `तन मन धन श्रीगुसाईं जी के अर्पण´ (प्रहसन) ´सौदामिनी´( उपन्यास) के अतिरिक्त बड़ी संख्या में निबंध ,टिप्पणी और कवितायें हैं लेकिन `यमलोक की यात्रा´ , विदेश यात्रा विचार` और `विधवा विवाह वर्णन´ये तीन ऐसी रचनायें है जो उन्हें अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा तार्किक और `रेशनल´ साबित करती हैं। धार्मिक कर्मकांड-आडम्बर, विदेशगमन निषेध और विधवा विवाह विरोध जैसे मुद्दों को उन्होंने शास्त्रीय शब्दावली में शास्त्रीय तर्कों के सहारे पटखनी दी।

राधाचरण गोस्वामी के साहित्य का मूल स्वर व्यंग्य है। आज के साहित्य में व्यंग्य तेजी से गायब होता जा रहा है और उसकी जगह चलताऊ चुटकुलेबाजी ने ले ली है। खैर, गोस्वामी जी की एक रचना `रेलवे स्तोत्र´ के चुनिंदा हिस्से प्रस्तुत हैं-

अग्नि जल नभ पृथ्वी इन तत्वों का ही मेला है।
इच्छा कर्म संयोगी इनजिन गारड आप अकेला है।
जीव लादि सब खींचत डोलत तन स्टेशन झेला है।
जयति अपूरब कारीगर जिन जगत् रेल की रेला है।

लगा है तार हिचकी का खबर जाना की आती है।
हमारे तन के स्टेशन से ग़म की रेल जाती है।

हे सर्व मंगल मांगल्ये !स्टेशनों पर यात्री लोग तुम्हारी इस प्रकार बाट देखते हैं जैसे चातक स्वाति की,चकोर चंद्र की, किसान मेघ की, विरहणी पति की और बार बनिता जार लोगों की। पर तुम भी खूब झकाय-झकाय कंठगत प्राण करके ही आती हो।

हे दुर्गे! दुर्गति हारिणी ! तुम्हें बहुत से देहाती भक्त दुर्गा का अवतार मानकर प्रणाम करते। अतएव `या देवी सर्वदेशेषु रेल रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमोनम:´।

हे सुरासुर पूजिते ! तुम असुर वंश की स्वामिनी हो,तुम्हरा सिर हबड़े में है।तुम्हारे दोनों चरण दिल्ली और करांची में हैं। तुम्हारे दोनों हाथ रूहेलखंड रेलवे और राजपूताना रेलवे हैं। तुम्हारी पुच्छ ग्रेट इंडिया-पेनेंसुला रेलवे है और बाकी देलावली सब तुम्हारी रोमावली है। तुम समग्र भारत को दाबकर पड़ी हो। जिस दिन तुम्हें रूपये का पिण्ड न मिला कि तुमने गयासुर की तरह उठाकर हिन्दुस्तान का भक्षण किया।

हे टाइमटिबल संस्तुते ! हमें ठीक टाइम पर मिलो! हे बिकट टिकटे ! हमें टिकट बाबू न लूटैं! हे भीड़ भार भरिते ! हम भीड़ में दबकर न मरैं! हे नीलबंदर बल्लभे !हमें तुम्हारा काई नीलबंदर न छेड़े! हे पुलिस प्रिये! हम तुम्हारे पार्षदों द्वारा पुलिस में न दिये जावें! हे निद्रा तंद्रा में मातृक्रोड़ सदृशे! हम तुम्हारे भीतर सो न जायें और दो चार स्टेशन आगे न बढ़ जायें! हे बृखभानु बृखभानुजे! ब्रीकवान में हमारा असबाब खराब न हो! हे अंजन निरंजने !हे छप्पन व्यंजने !हे सर्वजन मनोरंजने ! अंजन से हमारा अंगभंजन न हो! हे सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की बिकट खेल! रेल! हमसे तुम्हारा सदैव मेल हो और तुम्हारी कक्षा में सदैव हमारी रक्षा हो! और वाहन में सदैव हमें उत्साह न हो ! बोल रेलगाड़ी की जय ! बोल मेलगाड़ी की जय ! बोल इंद्रविमान की जय! जय !! जय !!!

3 comments:

Ashok Pande said...

क्या कहने : 'लगा है तार हिचकी का, खबर जाना की आती है ...' पहले भारतेंदु जी का अदभुत साहित्य और अब राधाचरण गोस्वामी! वाह आप तो बड़े छुपे कबाड़ी निकल रहे हो सिद्धेश्वर बाबू। हमेशा की तरह यह भी उम्दा काम है। बने रहो! जय कबाड़!!

Unknown said...

Fantastic.
Best wishes!

इरफ़ान said...

अब धीरे धीरे समझ में आने लगा है कि हमारी हिंदी ने कैसे कैसे मूर्धन्य दिये हैं. वे तब रेलगाड़ी की जय बोला करते थे इसी लिये हम कम्प्यूटर पर नारियल फोड़कर परंपरा निभा रहे हैं. जय बोर्ची.