Friday, December 14, 2007

मोरे पिछवरवा चंदन गाछे हो!

तो आज से मैं भी कबाड़ी हो गया। हम अशोक पांडे जी के आभारी हैं, जो हम सबमें श्रेष्‍ठ कबाड़ी हैं। इस पोस्‍ट से पहले इरफान भाई ने एक लोकगीत हमें सुनवाया। मोरे पिछवरवा गुलवा के पंडा। ये बड़ा मस्‍त लोकधुन है, लेकिन मुझे छन्‍नूलाल के सोहर की याद आ गयी, जो मैंने घरैया ब्‍लॉग दिल्‍ली दरभंगा छोटी लाइन पर लोगों सुनवाया था। आज फिर उसकी याद हो आयी है।

3 comments:

Ashish Maharishi said...

shandar

Ashok Pande said...

शुक्रिया अविनाश भाई, मैं बहुत अरसे से इस महान संगीत को कबाड़खाने में देखना चाहता था। यह दिल से है: थैंक यू सर जी।

Prem said...

The voice and the style are unique. Thanks. I am also looking forward for another piece of Chhanulal Misra ('Shivaji masanai men khele holi..' or may be anything else from him)